Friday, February 29, 2008

वतन का गीत

हमारे वतन की नई जिन्दगी हो
नई जिन्दगी एक मुकम्मल खुशी हो,
नया हो गुलिस्तां नई बुलबुलें हों
मुहब्बत की कोई नयी रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
न ही हथकड़ी कोई फसलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
ज़ुबानों में पाबंदियाँ हों न कोई
निगाहों में अपनी नयी रोशनी हो
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
न ही कोई भी कायदा हिटलरी हो
सभी होंठ आजाद हों मयकदे में
कि गंगो-जमन जैसी दरयादिली हो
नए फैसले हों नई कोशिशें हों
नई मंजिलों की कशिश भी नयी हो।
-गोरख पाण्डे

अकाल और उसके बाद


कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त



दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की ऑंखें कई दिनों के बाद
कौवे ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
-नागार्जुन

त्रिलोचन की याद में

हमारी भाषा के जनपक्षधर कवि त्रिलोचन का देहांत हो गया। नब्बे से ऊपर का यह काल यात्री आधी सदी से भी अधिक समय तक हिन्दी कविता की कठिन राह को अनवरत हमवार करता रहा। नए-नए जतन से हमारी बात कहने वाला यह काव्य-पुरूष अब हमारे बीच नहीं रहा लेकिन उसकी कवितायें हमारे साथ हैं और हमेशा रहेंगी। हमारे जन और जनपद के इस सच्चे कवि की याद में प्रस्तुत है एक कविता :
पथ पर
चलते रहो निरंतर.
सूनापन हो
या निर्जन हो
पथ पुकारता है गत-स्वन हो
पथिक,
चरण ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरंतर ....!
-त्रिलोचन