Friday, June 29, 2012

मुद्दत से चुकता नहीं हुआ उनका हिसाब- मार्ज पियर्सी


क़यामत का जिक्र करना,
उकसाना धोखेबाज़ी और बदनीयती को,
किस्से बुनना ताकि टाला जा सके
बदकिस्मती को-
इनसे बात नहीं बनने वाली.

तेज होती जा रही है ओले बरसाती
हवा. उठ रही हैं ऊँची लहरें और फिर
लौट रही हैं पीछे, बेपर्द करती तलहटी
जिसे कभी देखा नहीं तुमने.

हवा में राख है प्यारे,
हमारे खाने में राख जैसा कोई जायका
सोते वक्त हमारे होठों पर राख
राख से अंधी हुई आँखें.

हमारी रीढ़ गिरवी है जिसे
छुड़ा नहीं सकते हम. किसी ने
हमारे दाँत खरीद लिए और चाहता है
उखाडना उन्हें दाँव पर लगाने के लिए.

असली शैतान छुपे हैं चारपाई के नीचे,
खून के प्यासे. जिस जमीन पर
बना है यह मकान उसके मालिक
शुरू करेंगे यहाँ कोयला खदान.

सांता क्लॉज नहीं आता. आते हैं
किराये के गुंडे. तुम्हारी बुनियाद
गिरवी है और बैंक बेचैन है
पाबन्दी लगाने को तुम्हारे आनेवाले कल पर. 


अगर चाहते हो बचे रहना तो जागो
अगर चाहते हो लड़ना तो आगे बढ़ो
कुछ भी हासिल नहीं होता मुन्तजिर को
केवल भूख के पंजे खरोंचते हैं
खाली पेट के भीतर.

अगर जानते हो अपने लहू की कीमत
तो लड़ो कि वह बहता रहे रगों में.
तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है खोने को
अपनी जिन्दगी के सिवा.

और वह तो दशकों पहले बेंच दी थी
तुम्हारे पुरखों ने उनके हाथों.
बेइंतिहाँ है उनकी हवस
तुम्हारे सब्र की कोई इन्तिहाँ है?
(मंथली रिव्यू , मई 2012 में प्रकाशित. अनुवाद- दिगम्बर)



Saturday, June 23, 2012

कुयान-बुलाक के कालीन बुनकरों ने लेनिन को सम्मानित किया- बर्तोल्त ब्रेख्त



वे बारबार दरियादिली से सम्मानित किये गए 
साथी लेनिन. प्रतिमाएँ आवक्ष और आदमकद
उनके नाम पर रखे गए शहरों के नाम, बच्चों के भी.
अनगिनत भाषाओँ में दिए गए भाषण
जुलूस निकले प्रदर्शन हुए
शंघाई से शिकागो तक, लेनिन के सम्मान में.

मगर इस तरह आदर दिया उन्हें  
दक्षिणी तुर्किस्तान के एक छोटे से गाँव    
कूयान-बुलाक के कालीन बुनकरों ने-
एक शाम बीस कालीन बुनकर इकठ्ठा हुए
अपने हथकरघे के पास बुखार से कंपकंपाते.

उत्पात मचाता बुखार- रेलवे स्टेशन पर
भिनभिनाटे मच्छरों की भरमार- एक घना बादल
उठता ऊंटों वाले पुराने कब्रिस्तान के पीछे की दलदल से.

मगर रेलगाड़ी जो हफ्ते में दो मर्तबा
लाती है पानी और धुआँ, लाती है
यह खबर भी एक दिन
कि लेनिन को सम्मानित करने का दिन आ रहा है जल्दी
और इस तरह तय किया कुयान-बुलाक के लोगों ने
कालीन बुनकर, गरीब लोगों ने
कि उनके गाँव में भी साथी लेनिन की याद में
लगेगी सिलखड़ी से बनी लेनिन की आवक्ष प्रतिमा.

लेकिन पैसा जुटाना जरूरी था मूर्ति-स्थापना के लिए
तो वे सभी आकर खड़े हुए
बुखार में सिहरते और चंदे में दे दिये
गाढ़ी कमाई के कोपेक काँपते हाथों से.

लाल सेना का सिपाही स्तेपा जमाल, जो
बड़ी सावधानी से गिन रहा था और देख रहा था गौर से
मुस्तैदी लेनिन को सम्मानित करने की, खुशी से झूम उठा वह.

लेकिन उसने देखा उन काँपते हुए हांथों को भी.

और अचानक उसने एक सुझाव दिया
कि मूर्ति के लिए जमा पैसे से ख़रीदा जाय मिट्टी का तेल
डाला जाय ऊंटों के कब्रिस्तान के पीछे वाली दलदल पर
जहाँ से आते हैं मच्छर, जो
फैलाते हैं बीमारी
और इस तरह कुयान-बुलाक में बीमारी का मुकाबला करने
और वास्तव में सम्मानित करने के लिए,
दिवंगत, लेकिन अविस्मरणीय,
साथी लेनिन को.

सबने इसे मान लिया.

लेनिन को सम्मानित करने के दिन
लाए वे अपनी पुरानी-पिचकी बाल्टियाँ, मिट्टी तेल से भरा
और एक के पीछे एक चल पड़े उसे दलदल पर छिड़कने.

इस तरह फायदा हुआ उन्हें, लेनिन को श्रद्धांजली देने से और
इस तरीके से उन्हें श्रधांजलि दी जो लाभदायक रहा उनके लिए और
इसलिए अच्छी तरह जाना भी उन्हें.  

2

हमने सुना है यह वाकया कि कैसे कुयान-बुलाक के गाँववालों ने
सम्मानित किया लेनिन को.

उस शाम जैसे ही
मिट्टी तेल ख़रीदा गया और छिड़का गया दलदल पर
एक आदमी खड़ा हुआ सभा में, और उसने माँग की
कि रेलवे स्टेशन पर एक स्मारक पत्थर लगाया जाय जिसमें
ब्योरा हो इस घटना का, कि कैसे पलटी योजना और बदल गयी
लेनिन की आवक्ष मूर्ति बीमारी मिटानेवाले मिट्टी तेल के पीपों में.

और उन लोगों ने यह भी किया
और खड़ा किया स्मारक पत्थर.

अनुवाद- दिगम्बर

(कुयान-बुलाक उज्बेकिस्तान के फरगाना में एक रेलवे स्टेशन है. वहाँ एक स्मारक पत्थर है, जिस पर लिखा है- “इस जगह पर लेनिन का एक स्मारक होना चाहिए था, लेकिन उस स्मारक के बदले मिट्टी तेल ख़रीदा गया और दलदल पर उसका छिड़काव किया गया. इस तरह कुयान-बुलाक ने, लेनिन की याद में और उनके ही नाम पर, मलेरिया का काम तमाम कर दिया.”)     

Thursday, June 21, 2012

पॉल रोबसन का ऐतिहासिक गीत: ओल्ड मैन रीवर- मिसिसिपी


भूपेन हजारिका का मशहूर गीत- “ओ गंगा तुमि बोई छो केनो,” पॉल रोबसन के ऐतिहासिक गीत “Ol’ Man River” पर आधारित है. पॉल रोबसन ने इसे 1928 में गाया था. पॉल रोबसन ने मिसिसिपी के जरिये अपने ज़माने का दर्द बयान किया है और भूपेन दा ने अदभुत रचनाशीलता के साथ गंगा के माध्यम से भारतीय जनमानस की पीड़ा-व्यथा को उजागर किया है.

प्रस्तुत है इस गीत का मूल अंग्रेजी पाठ जिसे ओस्कर हैमरस्टीन ने लिखा था. साथ ही इस गीत का हिंदी में हुबहू अनुवाद भी दिया जा रहा है.

इस गीत को सुनना अपने आप में एक नया अनुभव है. गीत की पृष्टभूमि में जिस अमरीकी जीवन का चित्रण है, उसे आज के अमरीकी और अमरीकापरस्त शायद अपनी आँखों से ओझल कर देना ही पसंद करेंगे. अतीत को याद करने के बजाय उसे भुला देना ही उनके लिए सुविधाजनक है. 

लगभग विस्मृति के गहरे अंधरे में पड़ी ऐसी जनपक्षीय धरोहरों से बावस्ता होना नयी पीढ़ी के लिए बेहद  जरूरी है, जो सृजन और संघर्ष की उस सतत प्रवाहमान धारा के अंग हैं, जिसे मजबूत बनाने में पॉल रोबसन की बेजोड़ भूमिका रही है.



Ol’ Man River,

by Oscar Hammerstein,
as sung by Paul Robeson, 1928:

Dere's an ol' man called de Mississippi
Dat's de ol' man dat I'd like to be!
What does he care if de world's got troubles?
What does he care if de land ain't free?

You an' me, we sweat an' strain,
Body all achin' an racked wid pain,
Tote dat barge!
Lif' dat bale!
You gits a little drunk,
An' you lands in jail.

Ah gits weary
An’ sick of tryin’
Ah’m tired of livin’
An’ skeered of dyin’,
But Ol’ Man River
He jes’ keeps rollin’ along.

(एक बूढा आदमी जिसका नाम है मिसिसिपी
यही है वह बूढा आदमी जैसा मैं होना चाहता हूँ!
परवाह नहीं करता वह अगर दुनिया में मुसीबतें हैं?
परवाह नहीं करता वह अगर धरती आज़ाद नहीं?

तुम और मैं, हम पसीना बहाते हैं और तनाव सहते हैं
पूरे शरीर में चुभन है और पोर पोर दुखता है
खींचो जोर लगा कर उस बाजरे को
ढोवो उस गट्ठर को
तुमने थोड़ी पी क्या ली
कि डाल दिए गए जेल में

ओह, थक कर दोहरा हो गए
ऊब गए कोशिश करते करते
जीने से ऊब गए
डरते हैं मरने से
मगर ये बूढी नदी मिसिसिपी 
निरंतर बहती जा रही है.)




Wednesday, June 20, 2012

कारपोरेट-चालित “हरित अर्थतंत्र”- रियो सम्मलेन का एक नया तमाशा

                                        -जनेट रेडमैन

फेयरफैक्स, वर्जीनिया निवासी मेरी एक करीबी दोस्त को उसकी पहली संतान होने वाली है. जब वह बच्ची 60 साल की होगी, उस वक्त उसे इतनी तपती हुई धरती पर जीना होगा, जितनी गरमी 25 लाख साल पहले इस धरती पर इंसान की चहलकदमी शुरू होने से लेकर आज तक नहीं रही.

आज भी यह दुनिया ठीक एक पीढ़ी पहले की तुलना में बहुत ही अलग दिख रही है. जिस खतरनाक दर से पौधे और जीव-जंतु गायब हो रहे हैं कि वैज्ञानकों को यह पूछना पड़ रहा है- क्या हम छठे व्यापक विलोप के युग में प्रवेश कर रहे हैं. समुद्र में मछलियों की मात्रा, जो एक अरब से भी अधिक लोगों के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है, तेजी से घट रही है और हाल के वर्षों में रहस्यमय कोरल रीफ (मूंगे की दीवार) का विलुप्त होना पहले से ही खराब स्थिति को और भी बदतर बना रहा है. इस ग्रह की सतह के आधे से भी अधिक हिस्से पर आज “एक स्पष्ट मानव पदचिह्न” मौजूद है.

यही वे हालात हैं जिनसे बचने की उम्मीद लेकर दुनिया भर के राजनेता अब से बीस साल पहले रियो द जेनेरियो, ब्राजील के पृथ्वी सम्मलेन 1992 में जमा हुए थे.
बीस साल पहले ही, नीति निर्माताओं को यह पता था कि मानव क्रियाकलाप पर्यावरण को नुकसान पहुँचा सकते हैं. लेकिन वे इस सच्चाई से भी रूबरू थे कि दुनिया की लगभग आधी आबादी गरीबी में जी रही है तथा उनको जमीन, पानी, भोजन, सम्मानपूर्ण रोजगार और बेहतर जीवन के लिए आवश्यक सामग्री हासिल करना जरूरी है.

इन दोनों सच्चाइयों को एक साथ मिलाने के लिए रियो सम्मलेन ने “टिकाऊ विकास” को अंगीकार किया- एक ऐसा आर्थिक माडल जो भावी पीढ़ियों की अपनी जरूरतें पूरी करने की क्षमता के साथ बिना कोई समझौता किये, आज की जरूरतों को पूरा करता हो. सरकारों ने एजेंडा 21 नाम से टिकाऊ विकास का खाका स्वीकृत किया, जो 21 वीं सदी कि ओर उन्मुख था. साथ ही उन्होंने जैवविविधता, जलवायु परिवर्तन और रेगिस्तानीकरण के बारे में वैश्विक पर्यावरण समझौतों की भी शुरुआत की.  

वैश्विक समुदाय फिर से रियो में इस दुखद सच्चाई का सामना करने के लिए एकत्र हो रहा है कि इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है. हर किसी के दिमाग में वैश्विक वित्तीय संकट, उथल-पुथल मचा देने वाली आर्थिक असमानता और कारपोरेट की गलाकाटू प्रतियोगिता के भय से किसी फैसले को लागु करने की इच्छा का अभाव है.

आखिर गडबड क्या हुआ? इसका आंशिक उत्तर यह है कि मूल पृथ्वी सम्मलेन ने दो बेहद जरूरी मुद्दों को इस तरह नजरन्दाज किया, जैसे कोई कमरे में घुस आये हाथी की अनदेखी करे. पहला यह कि सीमित ग्रह पर असीम विकास एक बेकार की कवायद है. और दूसरा, कि उत्तरी अमरीका, यूरोप और जापान में रहनेवाली दुनिया की 20 फीसदी आबादी पृथ्वी के 80 फीसदी संसाधनों को गड़प कर जाती है. ऐसा नहीं लगता कि रियो+20, (इस नयी बैठक का यही नाम रखा गया है), इस मर्तबा भी इन दोनों हाथियों को पहचान पायेगा.

रियो की और कूच कर रहे नेता मिथकीय “हरित अर्थतंत्र” कि बढचढकर दलाली करते हुए बता रहे हैं कि इससे हमारी जलवायु सम्बंधी सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. हालाँकि अभी तक इसे ठीक से परिभाषित भी नहीं किया गया है, फिर भी आम तौर पर वे लोग इसे आर्थिक विकास के एक ऐसे माडल के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, जो स्वच्छ ऊर्जा, जलवायु-प्रतिरोधी खेती तथा दलदली इलाकों की जमीन सुखाने जैसी पारिस्थितिकी तंत्र से सम्बंधित सेवाओं के क्षेत्र में भारी पैमाने पर निजी पूँजी निवेश पर आधारित होगा. इस नई अवधारणा के तहत, व्यापार के इन तमाम नए-नए अवसरों के जरिये वाल स्ट्रीट बेहिसाब मुनाफा कमाएगा और धनी देशों की सरकारों को पर्यावरण की हिफाजत पर कोई खास खर्च नहीं करना पड़ेगा.

आश्चर्य की बात नहीं कि किसान, मूलनिवासी समुदाय, कर्ज-विरोधी कार्यकर्त्ता और जनसंगठन इस “हरित अर्थतंत्र” की लफ्फाजी को “हरित लीपापोती” कह कर ख़ारिज करते हैं.

ढेर सारे पर्यावरणवादियों और गरीबी-विरोधी संगठनों ने जिस खतरे को प्रतिध्वनित किया है वह यह कि पानी या जैवविविधता जैसी चीजों के उपयोग का प्रबंधन करने के नाम पर उनकी कीमत तय करके हम उन्हें माल में तब्दील कर देते हैं. साथ ही इस नीति के चलते इन बुनियादी जरूरतों और सेवाओं को सट्टेबाजों का मुहरा बना दिया जायेगा जो बेलगाम कीमतों के जरिये बेहिसाब मुनाफा कमाएंगे.

जरा इस बारे में सोचिये? क्या इसका कोई मतलब है कि हम अपने बचे-खुचे साझा संसाधनों- जंगल, जीन, वातावरण, भोजन को ऐसे लोगों को सुपुर्द कर दें जो हमारी अर्थ व्यवस्था को अपना निजी जुआघर समझते हैं?

यह कोई इत्तफाक नहीं कि जब जमीन और पानी का इंतजाम करने की जिम्मेदारी लोगों पर है, तब वे किसी दूर-दराज कार्यालय भवन में बैठे हेज फंड मैनेजरों की करामात पर नहीं, बल्कि अपनी बेहतर कमाई पर जीते और गुजारा करते हैं. प्रकृति के बारे में फैसला लेने का अधिकार वित्तीय क्षेत्र के हाथों में केंद्रित करने के बजाय, रियो+20 सम्मलेन को चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों के स्थानीय, लोकतान्त्रिक संचालन को प्रोत्साहित करे.

इस उपाय से कम से कम इतना तो होगा कि जब हमारी दोस्त की बेटी मतदान करने की उम्र में पहुँचेगी, तब तक यह धरती इस हालात में रह पायेगी कि इसे बचाने के लिए लड़ा जाय.

(जनेट रेडमैन, इन्स्टिच्युट फॉर पॉलिसी स्टडीज में सस्टेनेबुल इनर्जी एण्ड इकोनोमी नेटवर्क परियोजना के सह-निदेशक हैं. यह संस्था अमरीका और दुनिया भर में शांति, न्याय और पर्यावरण से जुड़े विद्वानों और कार्यकर्ताओं का एक समुदाय है. यह लेख काउंटरकरेंट डॉट ऑर्ग से आभार सहित ले कर प्रस्तुत किया गया है. अनुवाद- दिगम्बर.) 

Tuesday, June 19, 2012

संसाधनों का ह्रास और पर्यावरण का विनाश -एक विनम्र प्रस्ताव

            -फ्रेड मैगडॉफ

(इस टिप्पणी में फ्रेड ने बड़े ही सरल और रोचक ढंग से यह बताया है कि दुनिया के मुट्ठीभर सबसे धनी लोग ही संसाधनों का सबसे ज्यादा उपभोग करते हैं और वे ही पर्यावरण और धरती के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि उलटे वे लोग गरीबों की जनसंख्या को इसके लिए दोषी ठहराते हुए एनजीओ के जरिये परिवार नियोजन कार्यक्रम चलवाते हैं. फ्रेड का सुझाव है कि गरीब जनता बहुत कम संसाधन खर्च करती है, इसलिए गरीबों की नहीं, बल्कि धनाढ्यों की जनसंख्या और दौलत पर रोक लगा कर ही धरती को बचाया जा सकता है. फ्रेड मैगडॉफ पारिस्थितिकी और अर्थशास्त्र के जानेमाने प्रोफ़ेसर और प्रतिष्ठित लेखक हैं.)  

दैत्याकार क्रेन 



धनी देशों में ढेर सारे लोग यह मानते हैं कि इस धरती पर जितने संसाधन उपलब्ध हैं उनमें लगातार  कमी होना और दुनिया भर में बढते पर्यावरण प्रदूषण कि मुख्य वजह आज भी दुनिया के निवासियों की विराट संख्या है जो सात अरब से भी ज्यादा है. यह स्थिति और भी खराब होगी क्योंकि विश्व-जनसंख्या इस सदी के मध्य तक 9 अरब और सदी के अंत तक 10 अरब हो जाने की संभावना है.

इसका समाधान यह सुझाया जा रहा है (वैसे कुछ लोगों का कहना है कि वास्तव मे कोई समाधान है नहीं- हम सब के भाग्य में उथल-पुथल और बर्बरता लिखी है) कि विश्व जनसंख्या को तेज़ी से घटाया जाय, खासकर ऐसे कार्यक्रमों के जरिये जो जन्म में कमी को प्रेरित करें. इसी का नतीजा हैं गरीब देशों में गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के लिए धनी देशों के एनजीओ द्वारा वित्त पोषित कार्यक्रम जो महिलाओं के लिए गर्भ-निरोधक और परिवार नियोजन के उपाय मुहैय्या करते हैं.

इस मुद्दे पर वे लोग जो रुख अपना रहे हैं हम उसकी पडताल कभी बाद में करेंगे. यहाँ हम उनके इस दावे को पूरी तरह सही मानकर चलेंगे कि दुनिया की विशाल  जनसंख्या ही संसाधनों के इस्तेमाल और वैश्विक पर्यावरण की क्षति को बुरी तरह प्रभावित कर रही है.

विश्व बैंक के कर्मचारियों ने विश्व विकास सूचक- 2008  में यह आकलन प्रस्तुत किया है की दुनिया की 10 फीसदी सबसे धनी आबादी लगभग 60 फीसदी संसाधनों का इस्तेमाल करती है और 40 फीसदी सबसे गरीब आबादी इन संसाधनों का 5 फीसदी से भी कम इस्तेमाल करती है. संसाधनों के इस्तेमाल और जनससंख्या के बीच इस घनिष्ट सम्बंध को देखते हुए सबसे धनी 10 फीसदी लोग ही 60 फीसदी वैश्विक प्रदुषण, यानी ग्लोबल वार्मिंग, जल प्रदुषण, इत्यादि के लिए जिम्मेदार हैं.


अब विचारधारा को थोड़ी देर के लिए दरकिनार कर दें. अगर आप वैश्विक संसाधनों के इस्तेमाल और पर्यावरण विनाश के मामले को लेकर उतने ही चिंतित हैं जितना मैं और कई अन्य लोग, तो ये आँकड़े ऐसे नतीजे की ओर ले जाते हैं जिनसे कोई आँख नही चुरा सकता. गरीब परिवारों की जनसंख्या घटाने का प्रयास इस मामले को हल करने में बिलकुल मदद नहीं करेगा, क्योंकि संसाधनों और पर्यावरण से जुड़ी जिन समस्याओं का हम सामना कर रहे हैं उसके असली गुनाहगार दुनिया के लखपति-करोड़पति हैं.

इस सच्चाई के मद्देनज़र हमारा यह विनम्र सुझाव है कि दुनिया के सबसे धनी 10 फीसदी लोग अपनी जरूरतों में कटौती करें. हमारे ग्रह की पारिस्थितिकी और विश्व जनगण के लिए यह कदम बेहद जरूरी है. इसलिए मेरा प्रस्ताव है की निम्नलिखित कार्यक्रमों को फौरन लागू किया जाय-

(क)     लखपतियों-करोड़पतियों के लिए “कोई बच्चा नहीं “ या “केवल एक बच्चा” की नीति;


(ख)    पैतृक संपत्ति पर 100 फीसदी टैक्स तत्काल लागु करना, (यानी संपत्ति का उत्तराधिकार खत्म);

(ग)     और न्यूनतम आय-सीमा (न्यूनतम मजदूरी की तरह ) लागू करके लखपतियों-करोड़पतियों की आय को घटाना.

इन निर्देशों का पालन करते हुए हम जल्द ही दुनियाभर में संसाधनों के इस्तेमाल और प्रदुषण को घाटा कर आधा कर सकते हैं. तब लखपति-करोड़पति या तो दुनिया से गायब हो जायेंगे (मर-खप जायेंगे ) या ऐसी जिन्दगी जियेंगे जिसमें उनका उपभोग भी आम जनता की तरह ही सामान्य हो जाएगा.

तब, जब हम अपनी धरती पर भारी दबाब को घटा चुके होंगे, हम उन मुद्दों को हाथ मे लेंगे, जिनको हल करते हुए हम अपने इस ग्रह को रहने लायक और अपने समाज को न्यायपूर्ण बनायेंगे.

Sunday, June 17, 2012

“द ग्रेट डिक्टेटर” फिल्म में चार्ली चैपलिन का भाषण


(चार्ली चैपलिन ने द ग्रेट डिक्टेटर फिल्म के इस भाषण में विश्व जन-गण की आकाँक्षाओं को अनुपम कलात्मकता के साथ अभिव्यक्त किया है और आज भी प्रासंगिक है. अनुवाद- पारिजात.)

माफ कीजिये, मैं सम्राट बनना नहीं चाहता, यह मेरा धंधा नहीं है. मैं किसी पर हुकूमत नहीं करना चाहता, किसी को हराना नहीं चाहता. मुमकिन हो तो हर किसी की मदद करना चाहूँगा. हम सब एक दूसरे की मदद करना चाहते हैं, इंसान की फितरत यही है. हम सब एक दूसरे के दुख की कीमत पर नहीं, बल्कि एक दूसरे के साथ मिल कर खुशी से रहना चाहते हैं. हम एक दूसरे से नफरत और घृणा नहीं करना चाहते. इस दुनिया में हर किसी के लिए गुंजाइश है और धरती इतनी अमीर है कि सब कि जरूरतें पूरी कर सकती है.

जिन्दगी जीने का सलीका आजाद और खूबसूरत हो सकता है. लेकिन हम रास्ते से भटक गये हैं.

लालच ने इन्सान की जमीर को जहरीला बना दिया है, दुनिया को नफ़रत की दीवारों में जकड़ दिया है; हमें मुसीबत और खून-खराबे की हालत में धकेल दिया है.

हमने रफ़्तार पैदा किया, लेकिन खुद को उसमें जकड़ लिया-
मशीनें बेशुमार पैदावार करती है, लेकिन हम कंगाल हैं.

हमारे ज्ञान ने हमें सनकी बना दिया है,
चालाकी ने कठोर और बेरहम.

हम बहुत ज्यादा सोचते और बहुत कम महसूस करते हैं-
मशीनों से ज्यादा हमें इंसानियत की जरूरत है;
चालाकी की बजाय हमें नेकी और भलमनसाहत की जरूरत है.

इन खूबियों के बिना  जिन्दगी वहशी हो जायेगी और सब कुछ खत्म हो जाएगा.

हवाई जहाज और रेडियो ने हमें एक दूसरे के करीब ला दिया. इन खोजों की प्रकृति इंसानों से ज्यादा शराफत की माँग करती है, हम सब की एकजुटता के लिए दुनिया भर में भाईचारे की माँग करती है. इस वक्त भी मेरी आवाज दुनिया भर में लाखों लोगों तक पहुँच रही है, लाखों निराश-हताश मर्दों, औरतों और छोटे बच्चों तक, व्यवस्था के शिकार उन मासूम लोगों तक, जिन्हें सताया और कैद किया जाता है. जिन लोगों तक मेरी आवाज पहुँच रही है, मैं उनसे कहता हूँ कि "निराश न हों."

जो बदहाली आज हमारे ऊपर थोपी गयी है वह लोभ-लालच का, उस आदमी के नफ़रत का नतीजा है जो इंसानी तरक्की के रास्ते से डरटा है- लोगों के मन से नफरत खत्म होगा, तानाशाहों की मौत होगी और जो सत्ता उन लोगों ने जनता से छीनी है, उसे वापस जनता को लौटा दिया जायेगा. और (आज) भले ही लोग मारे जा रहे हों, मुक्ति नहीं मरेगी.

सिपाहियो: अपने आप को धोखेबाजों के हाथों मत सौंपो. जो लोग तुमसे नफरत करते हैं और तुम्हें गुलाम बनाकर रखते हैं, जो खुद तुम्हारी ज़िंदगी के फैसले करते हैं, तुम्हें बताते हैं कि तुम्हें क्या करना है, क्या सोचना है और क्या महसूस करना है, जो तुमसे कवायद कराते हैं, तुम्हें खिलाते हैं, तुम्हारे साथ पालतू जानवरों और तोप के चारे जैसा  तरह सलूक करते हैं.

अपने आप को इन बनावटी लोगों, मशीनी दिल और मशीनी दिमाग वाले इन मशीनी लोगों के हवाले मत करो. तुम मशीन नहीं हो. तुम पालतू जानवर नहीं हो. तुम इन्सान हो. तुम्हारे दिलों में इंसानियत के लिए प्यार है. तुम नफरत नहीं करते, नफरत सिर्फ वे लोग करते हैं जिनसे कोई प्यार नहीं करता, सिर्फ बेमुहब्बत और बेकार लोग. सिपाहियों: गुलामी के लिए नहीं आजादी के लिए लड़ो.

तुम ही असली अवाम हो, तुम्हारे पास ताकत है, ताकत मशीन बनाने की, ताकत खुशियाँ पैदा करने की, तुम्हारे पास जिन्दगी को आजाद और खूबसूरत बनाने की, इस जिन्दगी को एक अनोखा अभियान बना देने की ताकत है. तो आओ, लोकतंत्र के नाम पर इस ताकत का उपयोग करें, हम सब एक हो जाएं. एक नई दुनिया के लिए संघर्ष करें, एक खूबसूरत दुनिया, जहाँ इंसानों के लिए काम का अवसर हो, जो हमें बेहतर आनेवाला कल, लंबी उम्र और हिफाजत मुहय्या करे. धोखेबाज इन्हीं चीजों का वादा करके सत्ता पर काबिज हुए थे, लेकिन वे झूठे हैं. वे अपने वादे को पूरा नहीं करते और वे कभी करेंगे भी नहीं. तानाशाह खुद तो आजाद होते हैं, लेकिन बाकी लोगों को गुलाम बनाते हैं. आओ हम इन वादों को पूरा करवाने के लिए लड़ें. कौमियत की सीमाओं को तोड़ने के लिए, लालच को खत्म करने के लिए, नफरत और कट्टरता को जड़ से मिटने के लिए, दुनिया को आजाद कराने के लिए लड़ें. एक माकूल और मुकम्मिल दुनिया बनाने की लड़ाई लड़ें. एक ऐसी दुनिया जहाँ विज्ञान और तरक्की सबकी जिन्दगी में खुशहाली लाए.

सिपाहियो! आओ, लोकतंत्र के नाम पर हम सब एकजुट हो जायें!
चार्ली चैप्लिन का भाषण सुनें

Friday, June 15, 2012

इतिहास की एक दुष्ट शक्ति : घमंड


-- पाल क्रेग रोबर्ट्स

(पॉल क्रेग रोबर्ट्स वाल स्ट्रीट जोर्नल और बिजनेस वीक सकित कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे हैं और अमरीकी प्रशासन के प्रमुख पदों पर काम कर चुके हैं. पिछले दिनों अपनी कई रचनाओं में उन्होंने अमरीकी साम्राज्यवाद की उद्धत और आक्रामक नीतियों का भंडाफोड़ किया है. यह टिप्पणी http://www.informationclearinghouse.info से ली गयी है. अनुवाद- दिनेश पोसवाल.)



बुल रन की लड़ाई, यानी अमरीकी गृहयुद्ध की पहली भीषण लड़ाई (21 जुलाई 1861) को लेकर हमेशा मेरे मन में कुतूहल बना रहा, जिसे दक्षिणवासी उत्तरी आक्रमण की लड़ाई के रूप में जानते हैं. अत्याधिक घमंड दोनों पक्षों की लाक्षणिक विशेषता थी, युद्ध से पहले उत्तर और बाद के दौर में दक्षिण की तरफ से.

अमरीकी संघीय सेना द्वारा कैसे एक ही झटके में “उत्तरी विद्रोह” का अन्त कर दिया जायेगा, इसे देखने के लिये रिपब्लिकन नेता और उनके घर की महिलायें अपनी गाड़ियों में सजधज कर वरजीनिया के एक क़स्बे- मनसास की ओर जाने वाली सड़क पर पहुंचे, जिससे होकर बुल रन के युद्ध की धारा बह रही थी. लेकिन वे जिस दृश्य के प्रत्यक्षदर्शी बने, वह था- संघीय सेना का दुम दबाकर वापस वाशिंगटन की ओर भागना. उत्तरी सेनाओं के इस पलायन ने ही दक्षिण के कुछ मसखरों को इस लड़ाई का नाम, यांकी भगोड़ों की लड़ाई रखने के लिये प्रेरित किया.

इस लड़ाई के नतीजे ने, दक्षिण को घमंड से भर दिया, जबकि उत्तर वालों के लिये अहंकार अब अतीत की बात हो गयी थी. दक्षिण वालों ने निष्कर्ष निकाला कि उन्हें उन कायरों से डरने की कोई जरुरत नहीं है जो लड़ाई का मैदान छोड़कर भाग गये. “हमें उनकी तरफ से चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है,” दक्षिण ने निर्णय लिया. यही वह निर्णायक पल था जब घमंड ने दक्षिण को पराजित कर दिया.

इतिहासकार लिखते हैं कि वाशिंगटन की ओर पलायन की इस घटना ने तीन सप्ताह के लिये संघीय सेना और अमेरिकी राजधानी को अव्यवस्था की ऐसी हालत में ला दिया था कि उस दौरान कोई छोटी-सी सेना भी राजधानी पर कब्ज़ा कर सकती थी. जो इतिहासकार इस लड़ाई में दक्षिण जीत को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं, उनका दावा है कि दक्षिणवाले यांकी सेना को भागने के लिये मजबूर करने के अपने प्रयासों की वजह से बुरी तरह थक गये थे. उनमें इतनी ऊर्जा शेष नहीं थी कि वे उनका पीछा करते, वाशिंगटन को कब्ज़े में कर लेते, गद्दार लिंकन और दूसरे रिपब्लिकन को फांसी चढ़ा देते और लड़ाई का अन्त कर देते.

सेना चाहे थकन से लस्त-पस्त होती या नहीं, लेकिन उस वक्त अगर दक्षिण का जनरल नेपोलियन होता, तो संगठित दक्षिणी सेना असंगठित संघीय सेना के पीछे-पीछे वाशिंगटन पहुँच जाती. तब शायद दक्षिणवासी यांकियों को गुलाम बनाकर और उन्हें अफ्रीकावालों को बेचकर जातीय सफाये में लित्प हो जाते और इस तरह वे लालच से प्रेरित उन उत्तरी साम्राज्यवादियों को देश से बाहर खदेड़ देते, जो दक्षिण की राय में, इस बात को नहीं जानते थे कि एकांत में और सार्वजनिक स्थलों पर किस तरह व्यवहार करना चाहिये.

दक्षिणवालों की थकावट ही थी जिसने उत्तर को मुसीबतों से बचा लिया. यह दक्षिणवालों का घमंड था. बुल रन की लड़ाई ने दक्षिण को यह विश्वास दिला दिया कि शहरी उत्तरवाले लड़ाई कर ही नहीं सकते थे और वे सैन्य खतरा नहीं थे.

शायद उत्तरवालों के बारे में दक्षिणवाले सही थे. लेकिन, जो आयरिश अप्रवासी उन्हें गोदी पर मिले और जिन्हें सीधा लड़ाई के मैदान में भेज दिया गया, वे लड़ सकते थे. दक्षिणवाले अचानक संख्या में कम पड़ गये और वे अपने घायल सैनिकों की वजह से पैदा हुयी खाली जगह भरने के लिये अप्रवासियों को भी नहीं जुटा सकते थे. इसके अतिरिक्त, दक्षिण के पास कोई उद्योग या नौसेना भी नहीं थी. और निश्चय ही, दक्षिण गुलामों की वजह से संतप्त था, हालाँकि गुलामों ने कभी विद्रोह नहीं किया, तब भी नहीं जब सारे दक्षिणवाले युद्ध के मैदान में थे. दक्षिण बुल रन में अपनी विजय का फायदा उठाने और वाशिंगटन पर कब्ज़ा करने में जिस क्षण असफल हुआ, तभी वह इस लड़ाई को हार गया था.

घमंड की जाँच-पड़ताल लड़ाइयों पर, उनके कारणों पर और नतीजों पर काफी रोशनी डालती है. रूस की ओर कूच करके नेपोलियन ने अपना खुद का काम बिगाड़ लिया था, जैसा बाद में हिटलर ने भी किया. ब्रिटिश घमंड दोनों विश्वयुद्धों का कारण बना. द्वितीय विश्वयुद्ध तब शुरू हुआ जब अंगरेजों ने बिना सोचे-समझे पोलैंड के उन कर्नलों को “गारंटी” दे दी, जो जर्मनी के उस हिस्से को वापस करने के लिये लगभग तैयार थे जिन्हें वर्साई समझोते के तहत पोलैंड ने अपने अधिकार में कर लिया था. कर्नल, जो यह समझ नहीं पाये कि ब्रिटेनवालों के पास अपनी गारंटी पूरी करने का कोई जरिया नहीं, उन्होंने हिटलर का मजाक उड़ाया, एक ऐसी अवज्ञा जो हिटलर के लिये असहनीय थी, उसने पहले ही यह घोषणा कर रखी थी कि जर्मन विशिष्ट लोग हैं.

हिटलर ने पोलैंड पर हमला कर दिया, और ब्रिटेन और फ्रांस ने युद्ध की घोषणा कर दी.

हिटलर ने जल्दी ही फ़्रांसिसी और ब्रिटिश सेनाओं को निपटा दिया. लेकिन चैनल के पीछे छुपे हुए, घमंड में चूर ब्रिटेनवालों ने आत्मसमर्पण नहीं किया और न ही वे एक लाभदायक शांति समझौते के लिये तैयार हुए. हिटलर ने यह निष्कर्ष निकाला कि ब्रिटिश अपनी तरफ से रूस के युद्ध में भाग लेने पर आस लगाए हुए हैं. हिटलर ने तय किया कि अगर वह रूस को काबू में कर लेगा, तो ब्रिटेनवालों की उम्मीदें हवा हो जायेंगी और वे शांति समझौते के लिये तैयार हो जायेंगे. तब हिटलर ने अपने रुसी सहयोगी की ओर रुख किया.

इन सब घमंडों का परिणाम था, अमरीकी सैन्य/सुरक्षा समूह का उभार और चार दशकों तक चलने वाला शीतयुद्ध और नाभकीय विनाश की धमकी, एक ऐसा दौर जो द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्त के बाद से तब तक चला जब दो नेता- रीगन और गोर्बाचोव, जो घमंड में चूर नहीं थे, शीतयुद्ध का अन्त करने पर सहमत हो गये.

लेकिन अफ़सोस, नवरूढ़िवाद के उभार के साथ घमंड अमरीका के सिर चढ़ कर बोलने लगा. अमरीकावासी अब दुनिया के लिए “अपरिहार्य लोग” बन गये हैं. फ़्रांसिसी क्रांति के उन जकोबियंस की तरह जो “उदारता, समानता, और भाईचारे” को पूरे यूरोप पर थोप देने का इरादा रखते थे, वाशिंगटन अब अमरीकी (साम्राज्यवादी) तौर-तरीके की श्रेष्ठता पर जोर देता है और सारी दुनिया पर इसे थोपना अपना अधिकार मानता है. अपनी पराजयों के बावजूद उसका घमंड पूरे शबाब पर है. “तीन सप्ताह” का इराकी युद्ध आठ साल तक चला, और हमले के 11 साल  बाद भी अफगानिस्तान में तालिबान “दुनिया की एकमात्र महाशक्ति” से ज्यादा इलाके पर अपना नियंत्रण बनाये हुए हैं.

आज नहीं तो कल, अमेरिकी घमंड का सामना रूस या चीन से होगा, दोनों में से कोई भी पीछे नहीं हटेगा. या तो नेपोलियन और हिटलर की तरह, अमेरिका को भी रुसी (या चीनी) लम्हे से साबका पड़ेगा या दुनिया नाभकीय युद्ध की चपेट में आकार पूरी तरह नष्ट हो जायेगी.

मानवता के लिये इसका एकमात्र हल युद्ध भड़काने वालों को पहली नजर में ही पहचान कर, उन पर फ़ौरन अभियोग लगाना और उन्हें बंदी बना लेना है, इससे पहले की उनके घमंड हमें एक बार फिर मौत और विनाश की ओर, युद्ध की राह पर ले जायें.   


Sunday, June 10, 2012

लेनिन की एकमात्र कविता- वह एक तूफानी साल


(लेनिन की कविता नाम से काफी दिनों से इंटरनेट पर एक पोस्टर-कविता प्रचालन में है जो वस्तुतः लेनिन की नहीं है। लेनिन ने केवल एक ही कविता लिखी थी और वह भी उनकी रचनाओं के किसी संकलन में शामिल नहीं है। इस  कविता का हिंदी अनुवाद श्री कंचन कुमार (संपादक- आमुख) ने किया था और पुस्तिका के रूप में उन्होंने ही  इसे  1980 के दशक  में प्रकाशित किया था। काफी प्रयास के बाद वह पुस्तिका मिल पायी जिसे यहाँ हुबहू दिया जा रहा है। अरुण मित्र  द्वारा लिखित इसकी भूमिका में कविता के बारे में जो ऐतिहासिक तथ्य दिए गए हैं, वे भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।)

लेनिन की कविता के बारे में 

1907 की गर्मी में लेनिन भूमिगत रूप से फिनलैण्ड में रहे। ज़ार के हुक्म से दूसरी दूमा रूसी संसदउस वक्त तोड़ दी गई थी। लेनिन व सोशल डेमोक्रेट दल के दूसरे कार्यकर्ताओं के गिरफ़्तार होने का खतरा था। लेनिन फिनलैण्ड से भागकर बाल्टिक के किनारे उस विस्ता गांव में छहा्र नाम से कई महीने रहे। डेढ़ साल के लगातार तीव्र राजनीतिक कामों 'जिसका अधिकांश भूमिगत रूप से करना पड़ा था,’ के बाद लेनिन को कुछ समय के लिए आराम करने का मौका मिला। इस अज्ञातवास में उनकी पार्टी के ही एक साथी उनके साथ रहे। एक दिन बाल्टिक के किनारे टहलते हुए लेनिन ने अपने साथी से कहा-पार्टी जनता में प्रचार के काम के लिए काव्य विधा का अच्छी तरह इस्तेमाल नहीं कर रही है; उनका दुख यह था कि प्रतिद्वन्द्वी सोशल रेवोल्येशनरी दल इस मामले में काफी समझदारी का परिचय दे रहे हैं। 'काव्य रचना सबके बूते की बात नहीं है’, उनके साथी के यह बात कहने पर लेनिन ने कहा जिन्हें लिखने का अभ्यास है, काफी मात्रा में क्रान्तिकारी आकांक्षा तथा समझ है वह क्रांन्तिकारी कविता भी लिख सकते है। उनके साथी ने उन्हें कोशिश करने के लिए कहा, इस पर, उन्होंने एक कवितालिखने की शुरुआत की और तीन दिन बाद उसे पढ़कर सुनाया। इस लम्बी कविता में लंनिन ने 1901-1907 की क्रान्ति का एक चित्र उकेरा है- जिसके शुरुआती दौर को उन्होंने वसन्तकहा है, उसके बाद शुरु हुए प्रतिक्रिया के दौर को उन्होंने शीतकहा है, आहवान किया है मुक्ति के नये संग्राम के लिए। लेनिन की कविता जेनेवा में चन्द रूसी डेमोक्रेट कार्यकर्त्ताओं द्वारा स्थापित पत्र रादुगा(इन्द्रधनुष) में छपने की बात थी। लेनिन ने कहा था, कविता में लेखक का नाम 'एक रूसीदिया जाए, न कि उनका नाम। मगर कविता छपने से पहले ही वह पत्रिका बन्द हो गयी। पीटर्सबुर्ग से निर्वाचित डिप्टी, सोशल डेमोक्रेट ग्रेगोयार आलेकशिन्स्की का भूमिगतकालीन नाम पियतर आल था। कविता अब तक उनके संग्रह में ही छिपी रही। उन्होंने पिछले साल(1946) इसका फ्रांसीसी अनुवाद पहली बार फ्रेंच पत्रिका -L’ arche में प्रकाशित किया। किसी भाषा में इससे पहले यह प्रकाशित नहीं हुई। जहाँ तक पता चलता है, इसके अलावा लेनिन ने और कोई कविता नहीं लिखी। यही उनकी एकमात्र कविता है। फ्रांसीसी से अनुवाद करके कविता नीचे दी जा रही है। जहां तक सम्भव है-लगभग शाब्दिक अनुवाद किया गया है। मर्जी मुताबिक कुछ जोड़ने या घटाने की कोशिश नहीं की गई है।

अरुण मित्र
शारदीय स्वाधीनता, 1947

वह एक तूफानी साल

वह एक तूफानी साल।
आँधी ने सारे देश को अपनी चपेट में ले लिया। बादल बिखर गए
तूफान टूट पड़ा हम लोगों पर, उसके बाद ओले और वज्रपात
जख्म मुँह बाए रहा खेत और गाँव में
चोट दर चोट पर।
बिजली झलकने लगी, खूँखार हो उठी वह झलकन।
बेरहम ताप जलने लगा, सीने पर चढ बैठा पत्थर का भार।
और आग की छटा ने रोशन कर दिया
नक्षत्रहीन अंधेरी रात के सन्नाटे को।

सारी दुनिया सारे लोग तितर-बितर हो गए
एक रूके हुए डर से दिल बैठता गया
दर्द से दम मानो धुटने लगा
बन्द हो गए तमाम सूखे चेहरे।
खूनी तूफान में हजारों हजार शहीदों ने जान गँवायी
मगर यूँ ही उन्होंने दुख नहीं झेला, यूँ ही काँटों का सेहरा नहीं पहना।
झूठ और अंधेरे के राज में ढोंगियों के बीच से
वे बढ़ते गए आनेवाले दिन की मशाल की तरह।

आग की लपटों में, हमेशा जलती हुई लौ में 
हमारे सामने ये कुर्बानी के पथ उकेर गए,
ज़िन्दगी की सनद पर, गुलामी के जुए पर, बेड़ियों की लाज पर
उन्होंने नफरत की सील-मुहर लगा दी।

बर्फ ने साँस छोड़ी, पत्ते बदरंग होकर झरने लगे,
हवा में फँसकर घूम-घूम कर मौत का नाच नाचने लगे।
हेमन्त आया, धूसर गालित हेमन्त

बारिश की रुलाई भरी, काले कीचड़ में डूबे हुए।
इन्सान के लिए जिन्दगी घृणित और बेस्वाद हुई,
ज़िन्दगी और मौत दोनों ही एक-से असहनीय लगे उन्हें।
गुस्सा और र्दद लगातार उन्हें कुरेदने लगा।
उनका दिल उनके घर की तरह ही
बर्फीला और खाली और उदास हो गया।

उसके बाद अचानक वसन्त! 
एकदम सड़ते हेमन्त के बीचोंबीच वसन्त,
हम लोगों के उपर उतर आया एक उजला खूबसूरत वसन्त
फटेहाल मुरझाये मुल्क में स्वर्ग की देन की तरह,
ज़िन्दगी के हिरावल की तरह, वह लाल वसन्त!
मई महीने की सुबह सा एक लाल सवेरा
उग आया फीके आसमान में,
चमकते सूरज ने अपनी लाल किरणों की तलवार से
चीर डाला बादल को, कुहरे की कफन फट गयी।
कुदरत की वेदी पर अनजान हाथ से जलायी गयी
शाश्वत होमाग्नि की तरह
सोये हुए आदमियों को उसने रोशनी की ओर खींचा

जोशीले खून से पैदा हुआ रंगीन गुलाब,
लाल लाल फूल, खिल उठे
और भूली-बिसरी कब्रों पर पहना दिया
इ़ज्ज़त का सेहरा।
मुक्ति के रथ के पीछे
लाल झण्डा फहरा कर
नदी की तरह बहने लगी जनता
मानो वसन्त में पानी के सोते फूट पड़े हैं।
लाल झण्डा थरथराने लगा जुलूस पर,
मुक्ति के पावन मन्त्र से आसमान गूँज उठा,
शहीदों की याद में प्यार के आँसू बहाते हुए
जनता शोक-गीत गाने लगी।
खूशी से भरपूर

जनता का दिल उम्मीद और ख्वाबों से भर गया,
सबों ने आनेवाली मुक्ति में एतबार किया
समझदार, बूढ़े, बच्चे सभी ने।
मगर नींद के बाद आता है जागरण।
नंगा यथार्थ,
स्वप्न और मतवालेपन के स्वर्गसुख के बाद ही आता है
वंचना का कडुवा स्वाद।
अन्धेरे की ताकतें छाँह में छिपकर बैठी थीं,
धूल में रेंगतें हुए वे फुफकार रहे थे;
वे घात लगाकर बैठे थे।
अचानक उन्होंने दाँत और छुरा गड़ा दिया
वीरों की पीठ और पाँव पर।
जनता के दुश्मनों ने अपने गन्दे मुँह से
गरम साफ खून पी लिया,
बेफिक्र मुक्ति के दोस्त लोग जब मुश्किल
राहों से चलने की थकान से चूर थे,
निहत्थे वे जब उनींदी बाँसे ले रहे थे
तभी अचानक उन पर हमला हुआ।

रोशनी के दिन बुझ गए,
उनकी जगह अभिशप्त सीमाहीन काले दिनों की कतार ने ले ली।
मुक्ति की रोशनी और सुरज बुझ गया,
अन्धरे में खड़ा रहा एक साँप-नजर।
घिनौने कत्ल, साम्प्रदायिक हिंसा, कुत्सा प्रचार
घोषित हो रहा है देशप्रेम के तौर पर,
काले भूतों का गिरोह त्योहार मना रहा है।
बेलगाम संगदिली से,
जो लोग बदले के शिकार हुए हैं
जो लोग बिना वजह बेरहमी से
विश्वासघाती हमले में मारे गये हैं
उन तमाम जाने-अनजाने शिकारों के खून से वे रंगे हैं।

शराब की भाप में गाली-गलौज करते हुए मुट्ठी  संभाले
हाथ में वोद्का की बोतल लिये कमीनों के गिरोह
दौड़ रहे है पशुओं के झुण्ड की तरह
उनकी जेब में खनक रहे गद्दारी के पैसे
वे लोग नाच रहे हैं डाकुओं का नाच।
मगर इयेमलिया,(1) वह गोबर गणेश
बम से डर से और भी बेवकूफ बन कर चूहे की तरह थरथराता है
और उसके बाद निस्संकोच कमीज़ पर
’’काला सौ’’(2) दल का प्रतीक टाँकता है।
मुक्ति और खुशी की मौत की घोषणा कर
उल्लुओं की हँसी में
रात के अन्धेरे में प्रतिध्वनि करता है।
शाश्वत बर्फ के राज्य से
एक खूखार जाड़ा बर्फीला तुफान लेकर आया,
सफेद कफन की तरह बर्फ की मोटी परत ने
ढँक लिया सारे मुल्क को।
बर्फ की साँकल में बाँधकर जल्लाद जाड़े ने बेमौसम मार डाला
वसन्त को।

कीचड़ के धब्बे की तरह इधर-उधर दीख पड़ते हैं
बर्फ से दबे बेचारे गाँवों की छोटी-छोटी काली कुटियों के शिखर
बुरे हाल और बदरंग जाड़े के साथ भूख ने
अपना गढ़ बना लिया है सभी जगह तमाम दूषित घरों को।
गर्मी में लू जहाँ आग्नेय उत्ताप को लाती है
उस अन्तहीन बर्फीले क्षेत्र को घेर कर
सीमाहीन बेइन्तहा स्तेपी को घेर कर
तुषार के खूखार वेग आते-जाते हैं सफेद चिड़ियों की तरह।
बंधन तोड़ वे तमाम वेग सांय-सांय गरजते रहे,
उनके विराट हाथ अनगित मुठियों से लगातार बर्फ फेंकते रहे।
वे मौत का गीत गाते रहे
जैसे वे सदी-दर-सदी गाते आए हैं।
तूफान गरज पड़ा रोएँदार एक जानवर की तरह
ज़िदगी की धड़कन जिनमें थोड़ी सी भी बची है उन पर टूट पड़े,
और दुनिया से ज़िदगी के तमाम निशान धो डालने के लिए
पंखवाले भयंकर साँप की तरह झटपट करते हुए उड़ने लगे।
तूफान ने पहाड़ सा बर्फ इकट्ठा करके
पेड़ पौधों को झुका दिया, जंगल तहस-नहस कर दिया।
पशु लोग गुफा में भाग गये हैं।
पथ की रेखाएँ मिट गयी हैं, राही नदारद हैं।

हडडीसार भूखे भेडिए दौड़ आए,
तूफान के इर्द-गिर्द घूमने-फिरने लगे,
शिकार लेकर उनकी उन्मत छीनाझपटी
और चाँद की ओर चेहरा उठाकर चीत्कार,
जो कुछ जीवित हैं सारे डर से काँपने लगे।
उल्लू हँसते हैं, जंगली लेशि(3) तालियाँ बजाते हैं
मतवाले होकर काले दैत्यलोग भँवर में घूमते हैं
और उनके लालची होंठ आवाज करते हैं-
उन्हें मारण-यज्ञ की बू मिली है,
खूनी संकेत का वे इन्तजार करते हैं।

सब कुछ के उपर, हर जगह मौन, सारी दुनिया में बर्फ जमी हुई।
सारी ज़िन्दगी मानो तबाह है,
सारी दुनिया मानो कब्र की एक खाई है।
मुक्त रोशन ज़िदगी का और कोई निशान नहीं है।

फिर भी रात के आगे दिन की हार अभी भी नहीं हुई,
अभी भी कब्र का विजय-उत्सव ज़िदगी को नेस्तानाबूद नहीं करता।
अभी भी राख के बीच चिनगारी धीमी-धीमी जल रही है,
ज़िदगी अपनी साँस से फिर उसे जगाएगी।

पैरों से रौंदे हुए मुक्ति के फूल
आज एकदम नष्ट हो गये हैं,
‘‘काले लोग’’(4) रोशनी की दुनिया का खौफ देख खुश हैं,
मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है। 
जन्म देने वाली मिट्टी में।
माँ के गर्भ में विचित्र उस बीज ने
आँखों से ओझल गहरे रहस्य में अपने को जिला रखा है,
मिट्टी उसे ताकत देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी,
उसके बाद एक नये जन्म में फिर वह उगेगा।
नयी मुक्ति के लिए बेताब जीवाणु वह ढो लाएगा,
फाड़ डालेगा बर्फ की चादर,
विशाल वृक्ष के तौर पर बढ़कर लाल पत्ते फैलाए
दुनिया को रोशन करेगा,
सारी दुनिया को,
तमाम राष्ट्र की जनता को उसकी छाँह में इकट्ठा करेगा।

हथियार उठाओ, भाइयो, सुख के दिन करीब हैं।
हिम्मत से सीना तानो। कूद पड़ो, लड़ाई में आगे बढ़ो।
अपने मन को जगाओ। घटिया कायराना डर को दिल से भगाओ!
खेमा मजबूत करो! तनाशाह और मालिकों के खिलाफ
सभी एकजुट होकर खड़े हो जाओ!
जीत की किस्मत तुम्हारी मतबूत मजदूर मुट्ठी में!
हिम्मत से सीना तानो! ये बुरे दिन जल्दी ही छंट जाएंगे!
एकजुट होकर तुम मुक्ति के दुशमन के खिलाफ खड़े हो!
वसन्त आएगा... आ रहा है... वह आ गया है।
हमारी बहुवांछित अनोखी खूबसूरत वह लाल मुक्ति 
बढ़ती आ रही है हमारी ओर!
तनाशाही, राष्ट्रवाद, कठमुल्लापन ने
बगैर किसी गलती के अपने गुणों को साबित किया है
उनके नाम पर उन्होंने हमें मारा है, मारा है, मारा है,
उन्होंने किसानों की हाड़माँस तक नोचा है,
उन लोगों ने तोड़ दिए है दाँत,
जंजीर से जकड़े हुए इन्सान को उन्होंने कैदखाने में दफनाया है।
उन्होंने लूटा हैउन्होंने कत्ल किया है
हमारी भलाई के लिए कानून के मुताबिक,
ज़ार की शान के लिए, साम्राज्य की भलाई के लिए!
जार  के गुलामों ने उसके जल्लादों को तृप्त किया है,
उनकी सेनाओं ने उसके लालची ग़िद्धो को दावत दी है
राष्ट्र की शराब और जनता के खून से।
उनके कातिलों को उन्होंने तृप्त किया है,
उनके लोभी गिद्धों को मोटा किया है,
विद्रोही और विनीत विश्वासी दासों की लाश देकर।
ईसा मसीह के सेवकों ने प्रार्थना के साथ
फांसी के तख्तों के जंगल में पवित्र जल का छिड़काव किया है।
शाबाश, हमारे ज़ार की जय हो!
जय हो उसका आशीर्वादप्राप्त फाँसी की रस्सी की!
जय हो उसकी चाबुक-तलवार-बन्दूकधारी पुलिस की!

अरे फौजियो, एक गिलास वोद्का में
अपने पछतावों को डुबो दो!
अरे ओ बहादुरों, चलाओ गोली बच्चो और औरतों पर!
जहाँ तक हो सके अपने भाइयों का कत्ल करो
ताकि तुम लोगों के धर्म पिता खुश हो सकें!
और अगर तुम्हारा अपना बाप गोली खाकर गिर पड़े
तो उसे डूब जाने दो अपने खून में, हाथ के कोड़े से टपकते खून में!
जार की शराब पीकर हैवान बनकर
बगैर दुविधा के तुम अपनी माँ को मारो।

क्या डर है तुम्हें?
तुम्हारे सामने जो लोग हैं वे तो जापानी(5) नहीं हैं।
वे निहायत ही तुम्हारे अपने लोग हैं
और वे बिल्कुल निहत्थे हैं।
हे ज़ार के नौकरो, तुम्हें हुक्म दिया गया है
तुम बात मत करोफाँसी दो!
गला काटों! गोली चलाओं! घोडे़ के खुर के नीचे कुचल दो!
तुम लोगों के कारनामों का पुरस्कार पदक और सलीब मिलेगा...
मगर युग-युग से तुमलोगों पर शाप गिरेगा
अरे ओ जूडास के गिरोह!

अरी ओ जनता, तुम लोग अपनी आखिरी कमीज दे दो,
जल्दी जल्दी! खोल दो कमीज!
अपनी आखिरी कौड़ी खर्च करके शराब पीओ,
ज़ार की शान के लिए मिट्टी में कुचल कर मर जाओ!
पहले की तरह बोझा ढोनेवाले पशु बन जाओ!
पहले की बोझा ढोने वाले पशु बन जाओ!
हमेशा के गुलामों, कपड़े के कोने से आंसु पोंछो
और धरती पर सिर पटको!
विश्वसनीय सुखी
आमरण ज़ार को जान से प्यारी, हे जनता,
सब बर्दाश्त करते जाओ, सब कुछ मानते चलो पहले की तरह...
गोली! चाबुक! चोट करो!

हे ईश्वर, जनता को बचाओ(6)
शक्तिमान, महान जनता को!
राज करे हमारी जनता, डर से पसीने-पसीने हों ज़ार के लोग!
अपने घिनौने गिरोह को साथ लेकर हमारा जार आज पागल है,
उनके घिनौने गुलामों के गिरोह आज त्योहार मना रहे हैं,
अपने खून से रंगे हाथ उन्होंने धोये नहीं!
हे ईश्वर, जनता को बचाओ!
सीमाहीन अत्याचार!

पुलिस की चाबुक!
अदालत में अचानक सजा
मशीनगन की गोलियों की बौछार की तरह!
सजा और गोली बरसाना,
फाँसी के तख्तों का भयावह जंगल,
तुमलोगों को विद्रोह की सजा देने के लिए!

जेलखाने भर गए हैं
निर्वासित लोग अन्तहीन दर्द से कराह रहें हैं,
गोलियों की बौछार रात को चीर डाल रही है।
खाते खाते गिद्धों को अरुचि हो गई है।
वेदना और शोक मातृ भूमि पर फैल गया है।
दुख में डूबा न हो, ऐसा एक भी परिवार नहीं है।
अपने जल्लादों को लेकर
ओ तानाशाह, मनाओ अपना खूनी उत्सव
ओ खून चूसनेवालों, अपने लालची कुत्तों को लगाकर
जनता का माँस नोंच कर खाओ!
अरे तानाशाह, आग बरसाओ!
हमारा खून पिओ, हैवान!
मुक्ति, तुम जागो!
लाल निशान तुम उड़ो!

और तुम लोगों अपना बदला लो, सजा दो,
आखिरी बार हमें सताओ!
सज़ा पाने का वक्त करीब है,
फैसला आ रहा है, याद रखो!
मुक्ति के लिए
हम मौत के मुँह में जाएंगे; मौत के मुँह में
हम हासिल करेंगे सत्ता और मुक्ति,
दुनिया जनता की होगी!

गैर बराबरी की लड़ाई में अनगिनत लोग मारे जाएँगे!
फिर भी चलो हम आगे बढ़ते जाऐँ 
बहुवांछित मुक्ति की ओर!
अरे मजदूर भाई! आगे बढ़ो!
तुम्हारी फौज लड़ाई में जा रही है
आजाद आँखें आग उगल रही हैं
आसमान थर्राते हुए बजाओ श्रम का मृत्युंजयी घण्टा!
चोट करो, हथौड़ा! लगातार चोट करो!
अन्न! अन्न! अन्न!

बढ़े चलो किसानों, बढ़े चलो।
जमीन के बगैर तुम लोग जी नही सकते।
मलिक लोग क्या अभी भी तुमलोगों का शोषण करते रहेंगे?
क्या अभी भी अनन्तकाल तक वे तुमलोगों को पेरते रहेंगे?

बढ़े चलो छात्र, बढ़े चलो।
तुमलोंगों में से अनेकों जंग में मिट जाएँगे।
लालफीता लपेट कर रखा जाएगा
मारे गए साथियों का शवाधार।

जानवरों के शासन के जुए
हमारे लिए तौहीन हैं।
चलो, चूहों को उनके बिलों से खदेडें 
लड़ाई में चलों, अरे ओ सर्वहारा!
नाश हो इस दुखदर्द का!
नाश हो ज़ार और उसके तख्त का!
तारों से सजा हुआ मुक्ति का सवेरा
वह देखों उसकी दमक झिलमिला रही है!

खुशहाली और सच्चाई की किरण
जनता की नजर के आगे उभर रही है।
मुक्ति का सूरज बादलों को चीर कर
हमें रोशन करेगा।

पगली घण्टी की जोशीली आवाज
मुक्ति का आवाहन करेगी
और ज़ार के बदमाशों को डपटकर कहेगी
‘‘हाथ नीचा करो, भागो तुम लोग।’’

हम जेलखाने तोड़ डालेंगे।
जायज गुस्सा गरज रहा है।
बन्धनमोचन का झण्डा
हमारे योद्धाओं का संचालन है।

सताना, उखराना,(7)
चाबुकफाँसी के तख्तों का नाश हो!
मुक्त इन्सानों की लड़ाई, तुम तुफान सी पागल बनो!
जलिमों, मिट जाओ!

आओ जड़ से खत्म करें
तानाशाह की ताकत को।
मुक्ति के लिए मौत इज्जत है,
बेड़ियों में जकड़ी हुई जिन्दगी शर्म है।

आओ तोड़ डालें गुलामी को,
तोड़ डालें गुलामी की शर्म को।
हे मुक्ति, तुम हमें
दुनिया और आजादी दो!

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1.         रूसी लोग इयेमलिया नाम बेवकूफी के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करते है।
2.         ज़ार के जमाने का चरम प्रतिक्रियावादी राजनीतिक दल
3.         रूस का अपदेवता
4.         हर जगह ‘‘काला सौ’’ न कहकर ‘‘काला’’ से ही लेनिन ने उस दल को बताया है।
5         साफ है लेनिन ने रूस-जापान युद्ध में ज़ार की सेनाओं के पलायन तथा पराजय का उल्लेख        किया है
6    ज़ार साम्राज्य संगीत की पंक्ति हे ईश्वर, ज़ार को बचाओंको बदल कर लेनिन ने इस तरह          इस्तेमाल किया है।
7    क्रान्तिकारी आन्दोलन के दमन में जुटा हुआ ज़ार का राजनीतिक गुप्तचर विभाग।