(लेनिन की कविता नाम से काफी दिनों से इंटरनेट पर एक पोस्टर-कविता प्रचालन में है जो वस्तुतः लेनिन की नहीं है। लेनिन ने केवल एक ही कविता लिखी थी और वह भी उनकी रचनाओं के किसी संकलन में शामिल नहीं है। इस कविता का हिंदी अनुवाद श्री कंचन कुमार (संपादक- आमुख) ने किया था और पुस्तिका के रूप में उन्होंने ही इसे 1980 के दशक में प्रकाशित किया था। काफी प्रयास के बाद वह पुस्तिका मिल पायी जिसे यहाँ हुबहू दिया जा रहा है। अरुण मित्र द्वारा लिखित इसकी भूमिका में कविता के बारे में जो ऐतिहासिक तथ्य दिए गए हैं, वे भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।)
लेनिन की कविता के बारे में
1907 की गर्मी में लेनिन भूमिगत रूप से
फिनलैण्ड में रहे। ज़ार के हुक्म से दूसरी दूमा ‘रूसी संसद’ उस वक्त तोड़ दी गई थी। लेनिन व सोशल
डेमोक्रेट दल के दूसरे कार्यकर्ताओं के
गिरफ़्तार होने का खतरा था। लेनिन फिनलैण्ड से भागकर बाल्टिक के किनारे उस विस्ता
गांव में छहा्र नाम से कई महीने रहे। डेढ़ साल के लगातार तीव्र राजनीतिक कामों 'जिसका अधिकांश भूमिगत रूप से करना पड़ा था,’ के बाद लेनिन को कुछ समय के लिए आराम करने का मौका
मिला। इस अज्ञातवास में उनकी पार्टी के ही एक साथी उनके साथ रहे। एक दिन बाल्टिक
के किनारे टहलते हुए लेनिन ने अपने साथी से कहा-पार्टी जनता में प्रचार के काम के
लिए काव्य विधा का अच्छी तरह इस्तेमाल नहीं कर रही है; उनका दुख यह था कि प्रतिद्वन्द्वी सोशल रेवोल्येशनरी दल इस मामले में काफी समझदारी का परिचय दे
रहे हैं। 'काव्य रचना सबके बूते की बात नहीं है’, उनके साथी के यह बात कहने पर लेनिन ने कहा ‘जिन्हें लिखने का अभ्यास है, काफी मात्रा
में क्रान्तिकारी आकांक्षा तथा समझ है वह क्रांन्तिकारी कविता भी लिख सकते है’। उनके साथी ने उन्हें कोशिश करने के लिए कहा, इस पर, उन्होंने एक ‘कविता’ लिखने की
शुरुआत की और तीन दिन बाद उसे पढ़कर सुनाया। इस लम्बी कविता में लंनिन ने 1901-1907 की क्रान्ति का एक चित्र उकेरा
है- जिसके शुरुआती दौर को उन्होंने ‘वसन्त’ कहा है, उसके बाद शुरु
हुए प्रतिक्रिया के दौर को उन्होंने ‘शीत’ कहा है, आहवान किया है
मुक्ति के नये संग्राम के लिए। लेनिन की कविता जेनेवा में चन्द रूसी डेमोक्रेट
कार्यकर्त्ताओं द्वारा स्थापित पत्र ‘रादुगा’ (इन्द्रधनुष) में छपने की बात थी। लेनिन ने कहा था, कविता में लेखक का नाम 'एक रूसी’ दिया जाए, न कि उनका नाम। मगर कविता छपने से पहले ही वह पत्रिका बन्द हो गयी।
पीटर्सबुर्ग से निर्वाचित डिप्टी, सोशल डेमोक्रेट
ग्रेगोयार आलेकशिन्स्की का भूमिगतकालीन नाम पियतर आल था। कविता अब तक उनके संग्रह
में ही छिपी रही। उन्होंने पिछले साल(1946) इसका फ्रांसीसी अनुवाद पहली बार फ्रेंच
पत्रिका -L’ arche में प्रकाशित किया। किसी भाषा में इससे
पहले यह प्रकाशित नहीं हुई। जहाँ तक पता चलता है, इसके अलावा लेनिन ने और कोई कविता नहीं लिखी। यही उनकी एकमात्र कविता है।
फ्रांसीसी से अनुवाद करके कविता नीचे दी जा रही है। जहां तक सम्भव है-लगभग शाब्दिक
अनुवाद किया गया है। मर्जी मुताबिक कुछ जोड़ने या घटाने की कोशिश नहीं की गई है।
अरुण मित्र
शारदीय
स्वाधीनता, 1947
वह एक तूफानी
साल
वह एक तूफानी
साल।
आँधी ने सारे
देश को अपनी चपेट में ले लिया। बादल बिखर गए
तूफान टूट पड़ा
हम लोगों पर, उसके बाद ओले और वज्रपात
जख्म मुँह बाए
रहा खेत और गाँव में
चोट दर चोट पर।
बिजली झलकने लगी, खूँखार हो उठी
वह झलकन।
बेरहम ताप जलने
लगा, सीने पर चढ बैठा पत्थर का भार।
और आग की छटा
ने रोशन कर दिया
नक्षत्रहीन
अंधेरी रात के सन्नाटे को।
सारी दुनिया
सारे लोग तितर-बितर हो गए
एक रूके हुए डर
से दिल बैठता गया
दर्द से दम
मानो धुटने लगा
बन्द हो गए तमाम
सूखे चेहरे।
खूनी तूफान में
हजारों हजार शहीदों ने जान गँवायी
मगर यूँ ही
उन्होंने दुख नहीं झेला, यूँ ही काँटों का
सेहरा नहीं पहना।
झूठ और अंधेरे
के राज में ढोंगियों के बीच से
वे बढ़ते गए
आनेवाले दिन की मशाल की तरह।
आग की लपटों
में, हमेशा जलती हुई लौ में
हमारे सामने ये
कुर्बानी के पथ उकेर गए,
ज़िन्दगी की सनद
पर, गुलामी के जुए पर, बेड़ियों की लाज पर
उन्होंने नफरत
की सील-मुहर लगा दी।
बर्फ ने साँस
छोड़ी, पत्ते बदरंग होकर झरने लगे,
हवा में फँसकर घूम-घूम कर मौत का नाच नाचने लगे।
हेमन्त आया, धूसर गालित हेमन्त।
बारिश की रुलाई
भरी, काले कीचड़ में डूबे हुए।
इन्सान के लिए
जिन्दगी घृणित और बेस्वाद हुई,
ज़िन्दगी और मौत
दोनों ही एक-से असहनीय लगे उन्हें।
गुस्सा और र्दद
लगातार उन्हें कुरेदने लगा।
उनका दिल उनके घर की तरह ही
बर्फीला और
खाली और उदास हो गया।
उसके बाद अचानक
वसन्त!
एकदम सड़ते हेमन्त के बीचोंबीच वसन्त,
हम लोगों के
उपर उतर आया एक उजला खूबसूरत वसन्त
फटेहाल मुरझाये
मुल्क में स्वर्ग की देन की तरह,
ज़िन्दगी के
हिरावल की तरह, वह लाल वसन्त!
मई महीने की
सुबह सा एक लाल सवेरा
उग आया फीके
आसमान में,
चमकते सूरज ने
अपनी लाल किरणों की तलवार से
चीर डाला बादल
को, कुहरे की कफन फट गयी।
कुदरत की वेदी
पर अनजान हाथ से जलायी गयी
शाश्वत होमाग्नि की तरह
सोये हुए
आदमियों को उसने रोशनी की ओर खींचा
जोशीले खून से
पैदा हुआ रंगीन गुलाब,
लाल लाल फूल, खिल उठे
और भूली-बिसरी
कब्रों पर पहना दिया
इ़ज्ज़त का
सेहरा।
मुक्ति के रथ
के पीछे
लाल झण्डा फहरा
कर
नदी की तरह
बहने लगी जनता
मानो वसन्त में
पानी के सोते फूट पड़े हैं।
लाल झण्डा
थरथराने लगा जुलूस पर,
मुक्ति के पावन
मन्त्र से आसमान गूँज उठा,
शहीदों की याद
में प्यार के आँसू बहाते हुए
जनता शोक-गीत गाने
लगी।
खूशी से भरपूर।
जनता का दिल
उम्मीद और ख्वाबों से भर गया,
सबों ने
आनेवाली मुक्ति में एतबार किया
समझदार, बूढ़े, बच्चे सभी ने।
मगर नींद के
बाद आता है जागरण।
नंगा यथार्थ,
स्वप्न और
मतवालेपन के स्वर्गसुख के बाद ही आता है
वंचना का कडुवा
स्वाद।
अन्धेरे की
ताकतें छाँह में छिपकर बैठी थीं,
धूल में रेंगतें हुए वे फुफकार रहे थे;
वे घात लगाकर
बैठे थे।
अचानक उन्होंने
दाँत और छुरा गड़ा दिया
वीरों की पीठ
और पाँव पर।
जनता के दुश्मनों ने अपने गन्दे मुँह से
गरम साफ खून पी
लिया,
बेफिक्र मुक्ति
के दोस्त लोग जब मुश्किल
राहों से चलने
की थकान से चूर थे,
निहत्थे वे जब
उनींदी बाँसे ले रहे थे
तभी अचानक उन
पर हमला हुआ।
रोशनी के दिन
बुझ गए,
उनकी जगह
अभिशप्त सीमाहीन काले दिनों की कतार ने ले ली।
मुक्ति की
रोशनी और सुरज बुझ गया,
अन्धरे में खड़ा
रहा एक साँप-नजर।
घिनौने कत्ल, साम्प्रदायिक हिंसा, कुत्सा प्रचार
घोषित हो रहा
है देशप्रेम के तौर पर,
काले भूतों का
गिरोह त्योहार मना रहा है।
बेलगाम संगदिली
से,
जो लोग बदले के
शिकार हुए हैं
जो लोग बिना
वजह बेरहमी से
विश्वासघाती
हमले में मारे गये हैं
उन तमाम जाने-अनजाने शिकारों के खून से वे रंगे हैं।
शराब की भाप
में गाली-गलौज करते हुए मुट्ठी संभाले
हाथ में वोद्का
की बोतल लिये कमीनों के गिरोह
दौड़ रहे है
पशुओं के झुण्ड की तरह
उनकी जेब में
खनक रहे गद्दारी के पैसे
वे लोग नाच रहे
हैं डाकुओं का नाच।
मगर इयेमलिया,(1) वह गोबर गणेश
बम से डर से और
भी बेवकूफ बन कर चूहे की तरह थरथराता है
और उसके बाद
निस्संकोच कमीज़ पर
’’काला सौ’’(2) दल का प्रतीक टाँकता है।
मुक्ति और खुशी
की मौत की घोषणा कर
उल्लुओं की
हँसी में
रात के अन्धेरे
में प्रतिध्वनि करता है।
शाश्वत बर्फ के
राज्य से
एक खूखार जाड़ा
बर्फीला तुफान लेकर आया,
सफेद कफन की
तरह बर्फ की मोटी परत ने
ढँक लिया सारे
मुल्क को।
बर्फ की साँकल
में बाँधकर जल्लाद जाड़े ने बेमौसम मार डाला
वसन्त को।
कीचड़ के धब्बे
की तरह इधर-उधर दीख पड़ते हैं
बर्फ से दबे
बेचारे गाँवों की छोटी-छोटी काली कुटियों के शिखर
बुरे हाल और
बदरंग जाड़े के साथ भूख ने
अपना गढ़ बना
लिया है सभी जगह तमाम दूषित घरों को।
गर्मी में लू
जहाँ आग्नेय उत्ताप को लाती है
उस अन्तहीन बर्फीले क्षेत्र को घेर कर
सीमाहीन
बेइन्तहा स्तेपी को घेर कर
तुषार के खूखार
वेग आते-जाते हैं सफेद चिड़ियों की तरह।
बंधन तोड़ वे
तमाम वेग सांय-सांय गरजते रहे,
उनके विराट हाथ
अनगित मुठियों से लगातार बर्फ फेंकते रहे।
वे मौत का गीत
गाते रहे
जैसे वे सदी-दर-सदी गाते आए हैं।
तूफान गरज पड़ा
रोएँदार एक जानवर की तरह
ज़िदगी की धड़कन
जिनमें थोड़ी सी भी बची है उन पर टूट पड़े,
और दुनिया से
ज़िदगी के तमाम निशान धो डालने के लिए
पंखवाले भयंकर
साँप की तरह झटपट करते हुए उड़ने लगे।
तूफान ने पहाड़
सा बर्फ इकट्ठा करके
पेड़ पौधों को
झुका दिया, जंगल तहस-नहस कर दिया।
पशु लोग गुफा
में भाग गये हैं।
पथ की रेखाएँ
मिट गयी हैं, राही नदारद हैं।
हडडीसार भूखे
भेडिए दौड़ आए,
तूफान के
इर्द-गिर्द घूमने-फिरने लगे,
शिकार लेकर
उनकी उन्मत छीनाझपटी
और चाँद की ओर
चेहरा उठाकर चीत्कार,
जो कुछ जीवित
हैं सारे डर से काँपने लगे।
उल्लू हँसते
हैं, जंगली लेशि(3) तालियाँ बजाते हैं
मतवाले होकर
काले दैत्यलोग भँवर में घूमते हैं
और उनके लालची
होंठ आवाज करते हैं-
उन्हें
मारण-यज्ञ की बू मिली है,
खूनी संकेत का
वे इन्तजार करते हैं।
सब कुछ के उपर, हर जगह मौन, सारी दुनिया में बर्फ जमी हुई।
सारी ज़िन्दगी
मानो तबाह है,
सारी दुनिया
मानो कब्र की एक खाई है।
मुक्त रोशन
ज़िदगी का और कोई निशान नहीं है।
फिर भी रात के
आगे दिन की हार अभी भी नहीं हुई,
अभी भी कब्र का
विजय-उत्सव ज़िदगी को नेस्तानाबूद नहीं करता।
अभी भी राख के
बीच चिनगारी धीमी-धीमी जल रही है,
ज़िदगी अपनी
साँस से फिर उसे जगाएगी।
पैरों से रौंदे
हुए मुक्ति के फूल
आज एकदम नष्ट
हो गये हैं,
‘‘काले लोग’’(4) रोशनी की दुनिया का खौफ देख खुश हैं,
मगर उस फूल के
फल ने पनाह ली है।
जन्म देने वाली मिट्टी में।
माँ के गर्भ
में विचित्र उस बीज ने
आँखों से ओझल
गहरे रहस्य में अपने को जिला रखा है,
मिट्टी उसे
ताकत देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी,
उसके बाद एक
नये जन्म में फिर वह उगेगा।
नयी मुक्ति के
लिए बेताब जीवाणु वह ढो लाएगा,
फाड़ डालेगा
बर्फ की चादर,
विशाल वृक्ष
के तौर पर बढ़कर लाल पत्ते फैलाए
दुनिया को रोशन
करेगा,
सारी दुनिया को,
तमाम
राष्ट्र की जनता को उसकी छाँह में इकट्ठा
करेगा।
हथियार उठाओ, भाइयो, सुख के दिन
करीब हैं।
हिम्मत से सीना
तानो। कूद पड़ो, लड़ाई में आगे बढ़ो।
अपने मन को
जगाओ। घटिया कायराना डर को दिल से भगाओ!
खेमा मजबूत
करो! तनाशाह और मालिकों के खिलाफ
सभी एकजुट होकर
खड़े हो जाओ!
जीत की किस्मत
तुम्हारी मतबूत मजदूर मुट्ठी में!
हिम्मत से सीना
तानो! ये बुरे दिन जल्दी ही छंट जाएंगे!
एकजुट होकर तुम
मुक्ति के दुशमन के खिलाफ खड़े हो!
वसन्त आएगा...
आ रहा है... वह आ गया है।
हमारी
बहुवांछित अनोखी खूबसूरत वह लाल मुक्ति
बढ़ती आ रही है हमारी ओर!
तनाशाही, राष्ट्रवाद, कठमुल्लापन ने
बगैर किसी गलती
के अपने गुणों को साबित किया है
उनके नाम पर
उन्होंने हमें मारा है, मारा है, मारा है,
उन्होंने
किसानों की हाड़माँस तक नोचा है,
उन लोगों ने
तोड़ दिए है दाँत,
जंजीर से जकड़े
हुए इन्सान को उन्होंने कैदखाने में दफनाया है।
उन्होंने लूटा
है, उन्होंने कत्ल किया है
हमारी भलाई के
लिए कानून के मुताबिक,
ज़ार की शान के
लिए, साम्राज्य की भलाई के लिए!
जार के गुलामों
ने उसके जल्लादों को तृप्त किया है,
उनकी सेनाओं ने
उसके लालची ग़िद्धो को दावत दी है
राष्ट्र की
शराब और जनता के खून से।
उनके कातिलों
को उन्होंने तृप्त किया है,
उनके लोभी
गिद्धों को मोटा किया है,
विद्रोही और
विनीत विश्वासी दासों की लाश देकर।
ईसा मसीह के
सेवकों ने प्रार्थना के साथ
फांसी के तख्तों के जंगल में पवित्र जल का छिड़काव किया है।
शाबाश, हमारे ज़ार की जय हो!
जय हो उसका
आशीर्वादप्राप्त फाँसी की रस्सी की!
जय हो उसकी
चाबुक-तलवार-बन्दूकधारी पुलिस की!
अरे फौजियो, एक गिलास वोद्का में
अपने पछतावों
को डुबो दो!
अरे ओ बहादुरों, चलाओ गोली बच्चो और औरतों पर!
जहाँ तक हो सके
अपने भाइयों का कत्ल करो
ताकि तुम लोगों
के धर्म पिता खुश हो सकें!
और अगर
तुम्हारा अपना बाप गोली खाकर गिर पड़े
तो उसे डूब
जाने दो अपने खून में, हाथ के कोड़े से टपकते
खून में!
जार की शराब
पीकर हैवान बनकर
बगैर दुविधा के
तुम अपनी माँ को मारो।
क्या डर है
तुम्हें?
तुम्हारे सामने
जो लोग हैं वे तो जापानी(5) नहीं हैं।
वे निहायत ही
तुम्हारे अपने लोग हैं
और वे बिल्कुल
निहत्थे हैं।
हे ज़ार के
नौकरो, तुम्हें हुक्म दिया गया है
तुम बात मत
करो, फाँसी दो!
गला काटों!
गोली चलाओं! घोडे़ के खुर के नीचे कुचल दो!
तुम लोगों के
कारनामों का पुरस्कार पदक और सलीब मिलेगा...
मगर युग-युग से
तुमलोगों पर शाप गिरेगा
अरे ओ जूडास के
गिरोह!
अरी ओ जनता, तुम लोग अपनी आखिरी कमीज दे दो,
जल्दी जल्दी!
खोल दो कमीज!
अपनी आखिरी
कौड़ी खर्च करके शराब पीओ,
ज़ार की शान के
लिए मिट्टी में कुचल कर मर जाओ!
पहले की तरह
बोझा ढोनेवाले पशु बन जाओ!
पहले की बोझा
ढोने वाले पशु बन जाओ!
हमेशा के
गुलामों, कपड़े के कोने से आंसु पोंछो
और धरती पर सिर
पटको!
विश्वसनीय सुखी
आमरण ज़ार को
जान से प्यारी, हे जनता,
सब बर्दाश्त
करते जाओ, सब कुछ मानते चलो पहले की तरह...
गोली! चाबुक!
चोट करो!
हे ईश्वर, जनता को बचाओ(6)
शक्तिमान, महान जनता को!
राज करे हमारी
जनता, डर से पसीने-पसीने हों ज़ार के लोग!
अपने घिनौने
गिरोह को साथ लेकर हमारा जार आज पागल है,
उनके घिनौने
गुलामों के गिरोह आज त्योहार मना रहे हैं,
अपने खून से
रंगे हाथ उन्होंने धोये नहीं!
हे ईश्वर, जनता को बचाओ!
सीमाहीन
अत्याचार!
पुलिस की
चाबुक!
अदालत में
अचानक सजा
मशीनगन की
गोलियों की बौछार की तरह!
सजा और गोली
बरसाना,
फाँसी के
तख्तों का भयावह जंगल,
तुमलोगों को
विद्रोह की सजा देने के लिए!
जेलखाने भर गए
हैं
निर्वासित लोग
अन्तहीन दर्द से कराह रहें हैं,
गोलियों की
बौछार रात को चीर डाल रही है।
खाते खाते
गिद्धों को अरुचि हो गई है।
वेदना और शोक
मातृ भूमि पर फैल गया है।
दुख में डूबा न
हो, ऐसा एक भी परिवार नहीं है।
अपने जल्लादों
को लेकर
ओ तानाशाह, मनाओ अपना खूनी उत्सव
ओ खून
चूसनेवालों, अपने लालची कुत्तों को लगाकर
जनता का माँस
नोंच कर खाओ!
अरे तानाशाह, आग बरसाओ!
हमारा खून पिओ, हैवान!
मुक्ति, तुम जागो!
लाल निशान तुम
उड़ो!
और तुम लोगों
अपना बदला लो, सजा दो,
आखिरी बार हमें
सताओ!
सज़ा पाने का
वक्त करीब है,
फैसला आ रहा है, याद रखो!
मुक्ति के लिए
हम मौत के मुँह
में जाएंगे; मौत के मुँह में
हम हासिल
करेंगे सत्ता और मुक्ति,
दुनिया जनता की
होगी!
गैर बराबरी की
लड़ाई में अनगिनत लोग मारे जाएँगे!
फिर भी चलो हम
आगे बढ़ते जाऐँ
बहुवांछित
मुक्ति की ओर!
अरे मजदूर भाई!
आगे बढ़ो!
तुम्हारी फौज
लड़ाई में जा रही है
आजाद आँखें आग
उगल रही हैं
आसमान थर्राते
हुए बजाओ श्रम का मृत्युंजयी घण्टा!
चोट करो, हथौड़ा! लगातार चोट करो!
अन्न! अन्न!
अन्न!
बढ़े चलो
किसानों, बढ़े चलो।
जमीन के बगैर
तुम लोग जी नही सकते।
मलिक लोग क्या
अभी भी तुमलोगों का शोषण करते रहेंगे?
क्या अभी भी
अनन्तकाल तक वे तुमलोगों को पेरते रहेंगे?
बढ़े चलो छात्र, बढ़े चलो।
तुमलोंगों में
से अनेकों जंग में मिट जाएँगे।
लालफीता लपेट
कर रखा जाएगा
मारे गए
साथियों का शवाधार।
जानवरों के
शासन के जुए
हमारे लिए
तौहीन हैं।
चलो, चूहों को उनके बिलों से खदेडें
लड़ाई में चलों, अरे ओ सर्वहारा!
नाश हो इस
दुखदर्द का!
नाश हो ज़ार और
उसके तख्त का!
तारों से सजा
हुआ मुक्ति का सवेरा
वह देखों उसकी
दमक झिलमिला रही है!
खुशहाली और
सच्चाई की किरण
जनता की नजर के
आगे उभर रही है।
मुक्ति का सूरज
बादलों को चीर कर
हमें रोशन
करेगा।
पगली घण्टी की
जोशीली आवाज
मुक्ति का
आवाहन करेगी
और ज़ार के
बदमाशों को डपटकर कहेगी
‘‘हाथ नीचा करो, भागो तुम लोग।’’
हम जेलखाने तोड़
डालेंगे।
जायज गुस्सा
गरज रहा है।
बन्धनमोचन का
झण्डा
हमारे योद्धाओं
का संचालन है।
सताना, उखराना,(7)
चाबुक, फाँसी के तख्तों का नाश हो!
मुक्त इन्सानों
की लड़ाई, तुम तुफान सी पागल बनो!
जलिमों, मिट जाओ!
आओ जड़ से खत्म
करें
तानाशाह की
ताकत को।
मुक्ति के लिए
मौत इज्जत है,
बेड़ियों में
जकड़ी हुई जिन्दगी शर्म है।
आओ तोड़ डालें
गुलामी को,
तोड़ डालें
गुलामी की शर्म को।
हे मुक्ति, तुम हमें
दुनिया और
आजादी दो!
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1. रूसी लोग इयेमलिया नाम बेवकूफी के प्रतीक के तौर पर
इस्तेमाल करते है।
2. ज़ार के जमाने का चरम प्रतिक्रियावादी राजनीतिक दल।
3. रूस का अपदेवता।
4. हर जगह ‘‘काला सौ’’ न कहकर ‘‘काला’’ से ही लेनिन ने उस दल को बताया है।
5 साफ है लेनिन ने रूस-जापान युद्ध में
ज़ार की सेनाओं के पलायन तथा पराजय का उल्लेख किया है।
6 ज़ार साम्राज्य संगीत की पंक्ति ‘हे ईश्वर, ज़ार को बचाओं’
को बदल कर लेनिन ने इस
तरह इस्तेमाल किया है।
7 क्रान्तिकारी आन्दोलन के दमन में जुटा हुआ
ज़ार का राजनीतिक गुप्तचर विभाग।