Tuesday, August 28, 2012

दुनिया की अर्थव्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में (पांच भागों में)

पाँचवाँ भाग 


ढाँचागत संकट पूँजीवाद का व्यवस्थागत संकट है। इसमें वित्तीय महासंकट, दुनिया के अलगअलग देशों और एक ही देश के भीतर अलगअलग वर्गों के बीच बेतहाशा बढ़ती असमानता, राजनीतिक पतनशीलता और चरम भ्रष्टाचार, लोकतन्त्र का खोंखला होते जाना और राजसत्ता की निरंकुशता, सांस्कृतिक पतनशीलता, भोगविलास, पाशविक प्रवृति, अलगाव, खुदगर्जी, और व्यक्तिवाद को बढ़ावा, अतार्किकता और अन्धविश्वास का बढ़ना, सामाजिक विघटन और पहले से मौजूद टकरावों और तनावों का सतह पर आ जाना, प्रतिक्रियावादी और चरमपंथी ताकतों का हावी होते जाना तथा पर्यावरण संकट, धरती का विनाश और युद्ध की विभीषिका इत्यादि सब शामिल है। हालाँकि अपने स्वरूप, कारण और प्रभाव के मामले में इन समस्याओं की अपनीअपनी विशिष्टता और एकदूसरे से भिन्नता है, लेकिन ये सब एक ही जटिल जाला समूह में एकदूसरे से गुँथी हुई हैं तथा एक दूसरे को प्रभावित और तीव्र करती हैं। इन सबके मूल में पूँजी संचय की साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था है जो दुनिया भर के सट्टेबाजों, दैत्याकार बहुराष्ट्रीय निगमों और अलगअलग सरकारों के बीच साँठगाँठ और टकरावों के बीच संचालित होती है। इसका एक ही नारा हैमुनाफा, मुनाफा, हर कीमत पर मुनाफा ।वैसे तो दुनिया की तबाही के लिये आर्थिक संकट, पर्यावरण संकट और युद्ध में से कोई एक ही काफी है लेकिन  इन विनाशकारी तत्वों के एक साथ सक्रिय होने के कारण मानवता के आगे एक बहुत बड़ी चुनौती मुँह बाये खड़ी हैं। कुल मिलाकार यह संकट ढाँचागत है और इसका समाधान भी ढाँचागत बदलाव में ही है।


इस बुनियादी बदलाव के लिये वस्तुगत परिस्थिति आज जितनी अनुकूल है, इतिहास के किसी भी दौर में नहीं रही है। इस सदी की शुरुआत में रूसी क्रांति के समय पूरी दुनिया में मजदूर वर्ग की कुल संख्या दस करोड़ से भी कम थी, जबकि आज दुनिया की लगभग आधी आबादी, तीन अरब मजदूर हैं। इनमें बड़ी संख्या उन मजदूरों की है जो शहरी हैं और संचार माध्यमों से जुड़े हुए हैं। इनके संगठित होने की परिस्थिति पहले से कहीं बेहतर है। दूसरे, वैश्वीकरणउदारीकरणनिजीकरण की लुटेरी नीतियों और उनके दुष्परिणामों के चलते पूरी दुनिया में मेहनतकश वर्ग का असंतोष और आक्रोश लगातार बढ़ता गया है। इसकी अभिव्यक्ति दुनिया के कोनेकोने में निरंतर चलने वाले स्वत%स्फूर्त संघर्षों में हो रही है। तीसरे, आज उत्पादन शक्तियों का विकास उस स्तर पर पहुँच गया है कि पूरी मानवता की बुनियादी जरूरतें पूरी करना मुश्किल नहीं। फिर भी दुनिया की बड़ी आबादी आभाव ग्रस्त है और धरती विनाश के कगार पर पहुँच गयी है, क्योंकि बाजार की अंधी ताकतें और मुनाफे के भूखे भेड़िये उत्पादक शक्तियों के हाथपाँव में बेड़ियाँ डाले हुए हैं। इन्हें काट दिया जाय तो धरती स्वर्ग से भी सुन्दर हो जायेगी।

लेकिन बदलाव के लिये जरूरी शर्तमनोगत शक्तियों की स्थिति भी क्या अनुकूल है ? निश्चय ही आज दुनियाभर में वैचारिक विभ्रम का माहौल है और परिवर्तन की ताकतें बिखरी हुई हैं। ऐसे में निराशा और आशा, व्यक्तिवाद और सामूहिकता, अकेलापन और सामाजिकता, निष्क्रियता और सक्रियता, खुदगर्जी और कुरबानी, प्रगतिशीलता और प्रतिक्रियावाद, सभी तरह की प्रवृतियाँ समाज में संक्रमणशील हैं। बुनियादी सामाजिक बदलाव में भरोसा रखने वाले मेहनतकशों और उनके पक्षधर बुद्धिजीवियों का यह ऐतिहासिक दायित्व है कि जमीनी स्तर पर क्रान्तिकारी सामाजिक शक्तियों को चेतनासम्पन्न और संगठित करें। वर्तमान मानव द्रोही, सर्वनाशी सामाजिकआर्थिक ढाँचे के मलबे पर न्यायपूर्ण, समतामूलक और शोषणविहीन समाज की बुनियाद खड़ी करने की यह प्राथमिक शर्त है, जिसके बिना आज के इस चैतरफा संकट और विनाशलीला से निजात मिलना असम्भव है।

पहला भाग यहाँ पढ़ें

दूसरा भाग यहाँ पढ़ें

तीसरा भाग यहाँ पढ़ें

चौथा भाग यहाँ पढ़ें

दुनिया की अर्थव्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में (पाँच भागों में)

चौथा भाग


इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनिया को तबाही की ओर ले जाने वाला विश्वव्यापी आर्थिक संकट हो, पर्यावरण विनाश का खतरा हो या युद्ध और नरसंहार से होने वाली तबाही, ये सब प्राकृतिक आपदाएँ नहीं हैं। इनके लिये दुनियाभर के शोषकों द्वारा सोचसमझ कर लागू की गयी नीतियाँ जिम्मेदार हैं। 1990 के आसपास बर्लिन की दीवार ढहने, रूसी खेमे के पतन और युगोस्लाविया के बिखराव के बाद विश्वशक्तिसंतुलन में भारी बदलाव आया। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष और समाजवाद की ओर से 1917 की रूसी क्रांति सम्पन्न होने के बाद से ही पूँजीवादी खेमे को मिलने वाली चुनौती, वैसे तो सोवियत संघ में ख्रुश्चोव द्वारा तख्तापलट के बाद से ही लगातार क्षीण हो रही थी, अब रूसी साम्राज्यवादी खेमे की रहीसही चुनौती भी समाप्त हो गयी। इसके चलते पूरी दुनिया में अमरीकी चैधराहट वाले साम्राज्यवादी खेमे का पलड़ा भारी हो गया।

इस बदले हुए माहौल में विश्व पूँजीवाद को दुनिया के बाजार, कच्चे माल के स्रोत और सस्ते श्रम पर कब्जा जमाने का अनुकूल अवसर मिल गया। साथ ही आत्मनिर्भर विकास का सपना देखने वाले तीसरी दुनिया के तमाम शासकों ने भी हवा का रुख देखते हुए साम्राज्यवाद के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की देखरेख में वाशिंगटन आमसहमतिके नाम से एक नयी आर्थिक विश्व व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया, जिसका मकसद सम्पूर्ण विश्व में पूँजी की लूट के मार्ग से सभी बाधाओं को एकएक कर हटाना था। तटकर और व्यापार पर आम सहमति (गैट) की जगह डंकल प्रस्ताव के अनुरूप विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की गयी, जिसने दुनियाभर में बहुराष्ट्रीय निगमों, शेयर बाजार के निवेशकों और बैंकों की लूट का रास्ता आसान बना दिया। प्रकृति के दोहन और मानव श्रमशक्ति के शोषण की रफ्तार सारी सीमाएँ लाँघ गयी।

पूरी दुनिया पर पूँजीवाद की निर्णायक जीत और इतिहास के अंतकी दुंदुभि बजाते हुए दुनिया के पैमाने पर अतिरिक्त मूल्य की उगाही के लिये अमरीका की चैधराहट में आर्थिक नवउपनिवेशवादी व्यवस्था का एक मुकम्मिल ढाँचा तैयार किया गया। इस पिरामिडनुमा ढाँचे के शीर्ष पर अमरीका और उसके नीचे ग्रुप 7 के बाकी देश काबिज थे। उनके नीचे हैसियत के मुताबिक दूसरे पूँजीवादी देश और सबसे नीचे सम्राज्यवादी लूट और कर्जजाल में फँसकर तबाह हो चुके तीसरी दुनिया के देशों को जगह दी गयी थी। इस नये लूटतंत्र के अंदर माले गनीमत (लूट के माल) में किसे कितना हिस्सा मिलेगा, यह इस बात से तय होना था कि किस देश के पास कितनी पूँजी है और टेक्नोलॉजी का स्तर क्या है। अब संकट की घड़ी में इसकी कीमत भी अलगअलग देशों को अपनी हैसियत के मुताबिक ही चुकानी होगी, यानी क्रमश% ऊपर के पायदानों पर खड़े साम्राज्यवादी देश कम प्रभावित होंगे और सबसे गरीब, तीसरी दुनिया के देश पहले से भी अधिक तबाही के शिकार होंगे।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की इन नीतियों ने पूरी दुनिया को एकाधिकारी पूँजी संचय की एक ऐसी व्यवस्था के भीतर जकड़ दिया, जिस पर कहीं से कोई अंकुश, कोई नियंत्रण नहीं रहा। यही कारण है कि इस नयी विश्व व्यवस्था में एक तरफ जहाँ अमीरीगरीबी के बीच की खाई बेहिसाब चैड़ी होती गयीदुनियाभर में अर्थव्यवस्थाएँ ठहराव और वित्तीय उथलपुथल का शिकार हुईं, दूसरी ओर हमारी धरती भी विनाश के कगार पर पहुँचा दी गयी। लेकिन इस के बावजूद, विश्व पूँजीवाद का अन्तर्निहित संकट हल होने के बजाय और भी घनीभूत, और भी असमाधेय होता गया। कारण यह कि श्रम की लूट और पूँजी संचय जितने बड़े पैमाने पर होगा, पूँजी निवेश का संकट उतना ही विकट होता जायेगा। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जो पूँजीवाद के प्रारंभिक दौर, मुक्त व्यापर के जमाने से ही बना रहा है। लेकिन एकाधिकारी पूँजी के मौजूदा दौर में यह संकट इसलिए असाध्य है, क्योंकि यह अब सम्पूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचागत संकट बन चुका है।

प्रारम्भिक पूँजीवाद के दौर में आने वाला आवर्ती संकट और वर्तमान ढाँचागत संकट के बीच साफसाफ फर्क है। इसे स्पष्ट रूप से समझकर ही भविष्य की सही दिशा तय की जा सकती है। क्योंकि नयी और जटिल समस्याओं का समाधान पूराने सूत्रों और समीकरणों से नहीं हो सकता। आवर्ती या मीयादी संकट जब भी आता था, तो उसका समाधान पहले से स्थापित ढाँचे के भीतर ही हो जाता था, लेकिन आज का बुनियादी संकट समूचे ढाँचे को ही संकट ग्रस्त कर देता है। यह किसी एक भौगोलिक क्षेत्र या उद्योग की किसी खास शाखा तक या किसी खास अवधि तक सीमित नहीं होता। यह सर्वग्रासी होता है, जिसकी चपेट में वित्त, वाणिज्य, कृषि, उद्योग और सभी तरह की सेवाएँ आ जाती हैं।

पुराने जमाने में उच्च स्तर कि तकनोलॉजी और उत्पादकता वाले उद्योग गलाकाटू प्रतियोगिता और मंदी की मार से बच जाते थे, लेकिन एकाधिकारी वित्तीय (सटोरिया) पूँजी के वर्तमान दौर में, सर्वग्रासी संकट की घड़ी में अब ये कारक उद्धारकर्ता की भूमिका नहीं निभा सकते। उल्टे आज तकनीकी श्रेष्ठता वाले विकसित पूँजीवादी देशों में ही संकट ज्यादा गहरा है।

दूसरे, ऐसा नहीं कि मंदी एक खास अवधि तक ही बनी रहे तथा पूँजी और उत्पादक शक्तियों की क़ुर्बानी लेने के बाद फिर आर्थिक गतिविधियों का ग्राफ उठने लगे, जैसा पुराने दौर में हुआ करता था।अब तो अर्थव्यवस्था मंदी में दोहरी, तिहरी डुबकी लगाने के बाद भी उससे उबर नहीं पाती। सीमित समय के लिये चक्रीय क्रम में आने वाली मंदी अब चिरस्थायी और दीर्घकालिक चरित्र ग्रहण कर चुकी है।

तीसरे, पुराने समय में मंदी किसी एक देश या एक भौगोलिक क्षेत्र तक ही सीमित होती थी। दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा, जो पूँजीवादी दुनिया का अंग नहीं बना था, वहाँ भले और ढेर सारी समस्याएँ थीं, लेकिन पूँजीवादी संकट जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं था। पूँजी के वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में विश्वअर्थव्यवस्था आपस में इस तरह अंतरगुम्फित है कि धरती के किसी भी कोने से शुरू होने वाला संकट धीरेधीरे पूरी दुनिया में पाँव पसारने लगाता है। अमरीकी गृह ऋण संकट का बुलबुला फटने के बाद से अब तक की घटनाएँ इस बात की जीतीजागती मिसाल हैं।



पहला भाग यहाँ पढ़ें

दूसरा भाग यहाँ पढ़ें

तीसरा भाग यहाँ पढ़ें

पाँचवाँ भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें

दुनिया की अर्थव्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में (पाँच भागों में)


तीसरा भाग 

जहाँ तक हथियारों की होड़ और युद्ध का सवाल है, चरम परजीवी और मरणासन्न वित्तीय पूँजी के इस युग का एक चारित्रिक लक्षण है युद्ध। पिछली एक सदी के इतिहास पर नजर डालें, तो शायद ही कोई दिन गुजरा होगा जब धरती के किसी न किसी कोने में साम्राज्यवादियों द्वारा थोपा गया युद्ध या गृहयुद्ध जारी न रहा हो। 1929 की महामंदी के बाद भी व्यापार युद्ध और आगे चलकर विश्व युद्ध की फिजा बनने लगी थी और अपने संकट से निजात पाने के लिये साम्राज्यवादी खेमे ने पूरी दुनिया को विश्वयुद्ध की आग में झोंक दिया था। आज स्थिति हूहू वैसी ही नहीं है। साम्राज्यवादी देशों के बीच फिलहाल आपसी कलह और टकराव का स्तर वहाँ नहीं पहुँचा है कि वे आमनेसामने खड़े हो जायें। खेमेबंदी और गलाकाट प्रतियोगिता उसी रूप में नहीं है। लेकिन संकट गहराने के साथ ही अंदरअंदर टकराव और मोर्चाबंदी चल रही है। नये संश्रय कायम हो रहे हैं, एक धु्रवीय विश्व की छाती पर नयीनयी गोलबन्दियाँ हो रही हैं। हालाँकि अभी अमरीका को सीधे चुनौती देने वाला कोई गुट नहीं उभरा है, लेकिन विश्व रंगमंच की ढेर सारी घटनाएँ बताती हैं कि अब बीस साल पहले वाली बात नहीं रही। वाशिंगटन आम सहमतिके भीतर दरार दिखने लगे हैं, चाहे ईरान पर प्रतिबन्ध की बात हो, सीरिया का मामला हो या संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न प्रस्तावों का।

आने वाले समय का अनुमान लगाने के लिये सितम्बर 2002 में प्रकाशित अमरीकी सुरक्षा रणनीति दस्तावेज पर गौर करना जरूरी है, जिसमें कहा गया था कि हम दूसरी महाशक्तियों का मजबूती से प्रतिरोध करेंगे।...हम महाशक्तियों के बीच प्रतियोगिता की पुरानी बुनावट के दुबारा उभरने की सम्भावना के प्रति सचेत हैं। आज अनेक महाशक्तियाँ आतंरिक संक्रमण से गुजर रही हैं, जिनमें रूस, भारत और चीन अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।... यह अमरीकी सैन्य शक्ति की अनिवार्य भूमिका को एक बार फिर सुनिश्चित करने का समय है। हमें अपने सुरक्षा बल का इस तरह निर्माण और देखरेख करना जरूरी है, कि कोई उसे चुनौती न दे सके।इस दस्तावेज में असली चिन्ता चीन को लेकर थी । उल्लेखनीय है कि इसी के बाद से भारत में महाशक्ति बनने का शेखचिल्लीपन पैदा हुआ जो बेबुनियाद है बहरहाल एक ध्रुवीय विश्व और साम्राज्यवादी समूह के निर्विकल्प चै/ारी की यह चिंता वैश्वीकरण के इस दौर में काफी महत्त्व रखता है ।
सच तो यह है कि आज विश्व शांति के लिये अमरीका से बढ़कर कोई दूसरा खतरा नहीं है । इसकी अर्थव्यवस्था भले ही लगातार नीचे लुढ़क रही हो, सैनिक ताकत के मामले में आज भी इसका कोई सानी नहीं। पिछले बीस बरसों से दुनिया के कुल सैनिक खर्च का एक तिहाई अकेले अमरीका करता है। 2011 में यह खर्च चीन से पाँच गुना, रूस से दस गुना, भारत से पन्द्रह गुना और ईरान से चालीस गुना था। आर्थिक रूप से संकट ग्रस्त होने के बावजूद अमरीका अपनी सैनिक वरीयता बनाये हुए है और इसी से अपनी आर्थिक बर्बादी की क्षतिपूर्ती करता है। सैनिक मामलों में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये उसके पास दो बहाने हैंतेल के स्रोतों पर कब्जा और चीन का भय।

साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था में शामिल होने के बाद चीन का जिस तरह विकास और विस्तार हुआ है, उसे देखते हुए अमरीका का यह भय बेबुनियाद नहीं। चीनी अर्थवयवस्था सट्टेबाजी पर नहीं, बल्कि मूलत% वास्तविक उत्पादन के दम पर गतिमान है। दो सौ साल देर से पूँजीवादी दौड़ में शामिल होने के बावजूद, लगभग तीन दशकों तक वहाँ लागू की गयी समाजवादी नीतियाँ और उत्पादक शक्तियों का चहुँमुखी विकास आज भी वहाँ पूँजीवादी विकास का उत्प्रेरक है। दुनिया के कुल लौह अयस्क की सालाना खपत का 30 प्रतिशत, इस्पात 27 प्रतिशत, अल्युमिनियम 25 प्रतिशत, कोयला 31 प्रतिशत और पेट्रोलियम का 7 प्रतिशत अकेले चीन करता है। उसने ईरान से 7,000 करोड़ डॉलर का तेल और गैस खरीदने का सौदा किया है। चीन का कुल विदेशी मुद्रा भंडार 2,300 अरब डॉलर है, जिसमें से 1,700 अरब का निवेश डॉलर परिसंपत्तियों में किया हुआ है। निश्चय ही ये तथ्य अमरीका को बेचैन करने के लिये काफी हैं।

अमरीकी नेशनल इंटेलिजेंस काउन्सिल ने कहा था कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में उभरती ताकतें अमरीकी वर्चस्व के लिये चुनौती हैं। हालाँकि अभी यह मुख्यत% व्यापार, पूँजी निवेश, नयी तकनोलॉजी और दूसरी कम्पनियों के अधिग्रहण के इर्दगिर्द ही है । व्यापार युद्ध को वास्तविक युद्ध बदलते देर नहीं लगती। इसी बौखलाहट में अमरीका ने चीन को घेरने की एक बहुआयामी और दीर्घकालिक योजना बनायी है, जिसमें जापान, आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया में इंटरसेप्टर मिसाइल लगाना, ताईवान को हथियारों से लैस करना और भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी शामिल हैं। हालाँकि चीन आज भी साम्राज्यवादी शक्ति नहीं बना है, लेकिन भविष्य की गति इसी दिश की ओर संकेत करती है।

आज साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच में आपसी टकराव और उनके युद्ध आसन्न नहीं है, लेकिन इसकी सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता। कारण यह कि एकाधिकारी पूँजी के मरणासन्न और चिरस्थाई ढाँचागत संकट के मौजूदा दौर में साम्राज्यवाद अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये मानवता को युद्ध की आग में झोंकने से भी बाज नहीं आयेगा। पहला और दूसरा विश्व युद्ध आर्थिक संकट का ही नतीजा था, जो अब पहले से भी विकट हो चुका है । विश्व युद्ध भले ही न हों, लेकिन उद्धत अमरीका का जो युद्धोन्माद इराक, अफगानिस्तान और लीबिया में दिखायी दिया, वही अब इरान और सीरिया के खिलाफ दिख रहा है। हालाँकि अमरीका की अब वैसी ही साख नहीं है जो इराक और अफगानिस्तान पर हमले के समय थी।

पहला भाग यहाँ पढ़ें

दूसरा भाग यहाँ पढ़ें

चौथा भाग यहाँ पढ़ें

पाँचवाँ भाग यहाँ पढ़ें

दुनिया की अर्थव्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में (पाँच भागों में)


दूसरा भाग 

औद्योगिक क्रांति के बाद लगातार
200 सालों तक कोयला, पेट्रोलियम और ऊर्जा के अन्य साधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल और कच्चा माल के लिये प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन के चलते धरती तेजी से गर्म होती गयी। नतीजा यह कि साइबेरिया के बर्फीले मैदान पिघल रहे हैं और उनसे मिथेन गैस का रिसाव हो रहा है जो धरती और जलवायु के लिये कार्बन डाई ऑक्साइड से 30 गुना ज्यादा खतरनाक है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक महासागर की बर्फीली सतह और हिमालय सहित दुनियाभर के ग्लेसियर पिघलने से समुद्र का जलस्तर हर साल 2 सेंटी मीटर ऊपर उठ रहा है। इसी का नतीजा है 1998 में बांग्लादेश का 65 प्रतिशत इलाका बाढ़ में डूब गया था। 16 लाख की आबादी वाले भोला द्वीप का आधा हिस्सा बाढ़ में बह गया। अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग से पैदा होने वाली बीमारियों की चपेट में आने से बांग्लादेश के डेढ़ लाख लोग हर साल मर जाते हैं। बांग्लादेश ही नहीं, दुनिया के कई इलाके ऐसा ही प्रकोप झेल रहे हैं।

विकास के नाम पर पूँजीवाद ने पूरी दुनिया में जो विध्वंस किया है उसके कारण आज हर घंटे पौधे और जानवरों की तीन प्रजातियाँ लुप्त हो जा रही हैं । पिछले 35 सालों में ही रीढ़धारी प्राणियों की एक तिहाई प्रजातियाँ धरती से गायब हो गईं। और अब इंसानों की बारी है। पूर्वी अफ्रीका के अर्धसिंचित इलाकों में बारिस न होने के चलते इथोपिया, सोमालिया, केन्या और सूडान में लगातार सूखा पड़ रहा है । दारफुर में 1984–85 के अकाल में एक लाख लोग मर गये । यह हालत तो तब है जब कार्बन की मात्रा 3870 लाख अंश प्रति टन है। अनुमान है कि जल्दी ही यह 4000–4500 लाख अंश प्रति टन हो जाने वाला है। इसके कारण धरती का औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा और जलवायु में अचानक भारी बदलाव आयेगा। तब धरती को बचाना भी असम्भवप्राय हो जायेगा।

दुनियाभर के वैज्ञानिक धरती पर मँडराने वाले खतरे की चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन शोषकशासक पूँजीपति वर्ग के कान पर जूँ नहीं रेंगती। वे ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठकर जश्न मना रहे हैं और पूरी धरती को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। विश्व पर्यावरण सम्मेलन मजाक बन कर रह गये हैं। पृथ्वी सम्मेलन (1992) से लेकर रियो सम्मेलन (2012) तक, और इन बीस वर्षों में हुए क्वेटो, कोपेनहेगन और कानकुन बैठकों की असफलता से जाहिर है कि दुनिया के शासकों को धरती के विनाश की कोई परवाह नहीं। उल्टे अब वे जलवायु संकट या ग्लोबल वार्मिंग की सच्चाइयों को ही झुठलाने पर आमादा हैं।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के बाद से प्रकृति का दोहन और ऊर्जा का इस्तेमाल पहले से कईकई गुना अधिक हो गया है। भारत में भी आज देशीविदेशी पूँजी के नापाक गठबंधन से हर तरह के खनिज पदार्थ की लूट अपने चरम पर है। इसके लिये कानून की धज्जी उड़ाना, उन इलाकों के निवासियों को उजाड़ना और विरोध के स्वर को बंदूकों के दम पर कुचलना, औपनिवेशिक दौर में गुलाम बनाये गये देशों पर ढाये जाने वाले कहर की याद ताजा करते हैं। पहले जो दमनउत्पीड़न विदेशी आक्रांता करते थे, वही अब बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ साँठगाँठ करके अपने ही देश के शासक कर रहे हैं।

दुनिया की अर्थव्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में (पाँच भागों में)



आज पूरी दुनिया एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट के भंवर में गोते लगा रही है। 2007–08 में अमरीका में सबप्राइम गृह ऋण का बुलबुला फूटने के बाद शुरू हुआ वित्तीय महासंकट अब पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाएँ एकएक कर तबाह होती जा रही हैं। भारत में भी विकास का गुब्बारा पिचकने लगा है। बीस साल पहले उदारीकरणनिजीकरण की जिन नीतियों को रामबाण दवा बताते हुए लागू किया गया था, उनकी पोलपट्टी खुल चुकी है। विकास दर, विदेश व्यापार घाटा, मानव सूचकांक, महँगाई, बेरोजगारी जैसे लगभग सभी आर्थिक मानदण्ड इसकी ताईद कर रहे हैं। कमोबेश यही हालत दूसरे देशों की भी है।

विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का यह संकट ढाँचागत, सर्वग्रासी और असमाधेय है। मानव जीवन का कोई भी पहलू इससे अछूता नहीं है। आर्थिक संकट राजनीतिक संकट को जन्म दे रहा है, जो आगे बढ़ कर सामाजिकसांस्कृतिकवैचारिक संकट को गहरा रहा है। यहाँ तक कि हमारा भूमंडल भी पूँजीवाद की विनाशलीला को अब और अधिक बर्दाश्त कर पाने में असमर्थ हो चुका है। प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन और बेहिसाब कार्बन उत्सर्जन से होनेवाले जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण आज पूरी धरती पर विनाश का खतरा मंडरा रहा है।

इस चैतरफा संकट के आगे पूँजीवादी शासक और उनके विद्वान हतप्रभ, हताश और लाचार नजर आ रहे हैं। इसका ताजा उदहारण है जून माह में मौजूदा संकट को लेकर आयोजित दो विश्व स्तरीय सम्मेलनों का बिना किसी समाधान तक पहुँचे ही समाप्त हो जाना। इनमें से एक था, रियो द जेनेरियो (ब्राजील) में धरती को विनाश से बचाने के लिये आयोजित रियो़ पर्यावरण सम्मेलन और दूसरा यूरोपीय देशों के आर्थिक संकट के बारे में लोस काबोस (मैक्सिको) में आयोजित जी–20 की बैठक। इन दोनों ही सम्मेलनों के दौरान भारी संख्या में एकत्रित आन्दोलनकारियों ने इस संकट के लिये जिम्मेदार, साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ लोगों ने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया।

2007 में विराट अमरीकी निवेशक बैंक लेहमन ब्रदर्स के डूबने के साथ ही वहाँ 1929 के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक विध्वंश शुरू हुआ । इसे रोकने के लिये अमरीका ने मुक्त व्यापार के ढकोसले को त्यागते हुए सरकारी खजाने से 1900 अरब डॉलर सट्टेबाजों को दिवालिया होने से बचाने के लिये झोंका । तभी से यह कहावत प्रचलित हुई– “मुनाफा निजी, घाटा सार्वजनिक ।

इस भारी रकम से वित्तीय तंत्र तत्काल ध्वस्त होने से तो बच गया, लेकिन संकट और गहराता गया। हुआ यह कि बैंकों ने अपने 3400 अरब डॉलर के सीधे नुकसान और अरबोंखरबों डॉलर के डूबे कर्जों से खुद को सुरक्षित रखने के लिये सरकार से मिले डॉलरों से नये कर्ज बाँटने के बजाय अपनी तिजोरी में दबा लिये। सटोरियों की करनी का फल वास्तविक उत्पादन में लगी अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ा, क्योंकि उत्पादन जारी रखने के लिये जरूरी उधार की कमी से जूझ रहे उद्योगों के लिये कार्यशील पूँजी का संकट ज्यों का त्यों बना रहा। बैंकों को दी गयी सरकारी सहायता राशि रसातल में समा गयी। शेयर बाजार का भूचाल पूरी अर्थव्यवस्था और सरकारी मशीनरी को झकझोरने लगा। आज वहाँ बेरोजगारी 10 फीसदी है, जबकि भारी संख्या में लोग अर्द्ध बेरोजगार हैं। लेकिन यह संकट अमरीका तक ही सीमित नहीं रहा। जल्दी ही यह संकट पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर अपना असर डालने लगा। विश्व व्यापार में 12 फीसदी की कमी आयी है, जो महामंदी के बाद की सबसे बड़ी गिरावट है।

यूनान दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया । यही हाल यूरोप के कुछ अन्य देशोंइटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और स्पेन का भी हुआ । उन्हें उबारने के लिये झोंकी गयी मुद्राकोष और यूरोपीय संघ की पूँजी भी अर्थव्यवस्था को गति देने के बजाय रसातल में समाती गयी । आर्थिक विध्वंस की कीमत हर जगह मेहनतकश जनता को चुकानी पड़ी। सरकारों ने सट्टेबाजों, बैंकों और निगमों के हित में अपने जनविरोधी कदमों को और कठोर किया। मकसद साफ थास्वास्थ्य, शिक्षा जैसी जरूरी सरकारी सेवाओं और सब्सीडी में कटौती, आम जनता पर टैक्स का बोझ और वेतन में कमी करके उससे बचे धन से सटोरियों की हिफाजत । यह फैसला पूँजीवाद के संचालकों के वैचारिक दिवालियेपन की ही निशानी है, क्योंकि मंदी के दौरान सरकारी खर्च और लोगों की आय में कटौती करके जानबूझ कर माँग कम करना आत्मघाती कदम होता है । इन उपायों ने मंदी को और भी गहरा कर दिया ।
पूँजीवाद जब भी संकट ग्रस्त होता है तो उसके रक्षकों को मसीहा के रूप में जॉन मेनार्ड कीन्स की याद आती है, जिन्होंने 1929 की मंदी के बाद सरकारी खर्च बढ़ा कर लोगों की माँग बनाये रखने का सुझाव दिया था। इस बार भी पॉल क्रुग्मान सरीखे कई अर्थशास्त्रियों ने वही पुराना राग अलापा। अव्वल तो सट्टेबाजी के वर्चस्व वाले इस अल्पतंत्र से ऐसी उम्मीद ही बेकार है, लेकिन यदि वे ऐसा करें भी तो इस खर्च से बढ़ने वाले सरकारी कर्ज को भी वित्तीय उपकरण बना कर उसे शेयर बाजार में उतार दिया जायेगा। उधर संकुचन के माहौल में ऐसे बॉण्ड को भला कौन खरीदेगा ? तब सरकारी कर्ज का संकट बढ़ेगा और सरकार का ही दिवाला पिट जायेगा, जैसा यूरोप के देशों में हुआ।

पूँजीवादी दायरे में संकट का हल तो यही है कि आर्थिक विकास तेजी आये तथा माँग और पूर्ति के बीच संतुलन कायम हो । लेकिन यह इंजन पहले ही फेल हो चुका है । 1970 के दशक में रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थेचर ने राष्ट्रीय आय को मजदूरों से छीनकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने की दिशा में मोड़ दिया था । आर्थिक विकास और मुनाफे की दर बढ़ाने के लिये /ान जुटाने के नाम पर मजदूरी और सरकारी सहायता में कटौती की गयी थी । पूँजीवाद के इन नीम हकीमों का नया अर्थशास्त्र (रीगोनॉमिक्सथैचरोनॉमिक्स) जिसे कई दूसरे देशों ने भी अपनाया, रोग से भी घातक साबित हुआ । इससे आय की असमानता तेजी से बढ़ी, बहुसंख्य आबादी की क्रयशक्ति गिरी और माँग में भारी कमी आयी।

शेयर बाजार में पूँजी निवेश और बाजार की माँग बढ़ाने के लिये अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण किया गया, जिसमें सरकार द्वारा कर्ज लेकर सरकारी माँग को फर्जी तरीके से बढ़ाना, बाजार और मुनाफे से सभी नियंत्रण हटाना, ब्याजदर में भारी कमी और कर्ज की शर्तें आसान बनाना, सट्टेबाजी के नये उपकरणों, जैसे- ऑप्संस, फ्यूचर्स, हेज फंड इत्यादि का आविष्कार करना और घरेलू कर्ज के गुब्बारे को फुलाते जाना शामिल था। 1980–85 में अमरीका का कुल कर्ज सकल घरेलू उत्पाद का डेढ़ गुना था, जो 2007 में बढ़ कर साढ़े तीन गुना हो गया। उधर पूँजीपतियों का मुनाफा भी 1950 के 15 प्रतिशत से बढ़ कर 2001 में 50 प्रतिशत हो गया। लोगों की आय बढ़ाये बिना ही मुनाफा बाजार में तेजी कायम रही। लोग उस पैसे को खर्च कर रहे थे जो उनका था ही नहीं। 1970 से 2006 के बीच घरेलू कर्ज दो गुना हो गया। लेकिन 2007 आतेआते सबप्राइम गृह ऋण के विध्वंस के रूप में कर्ज की हवा से फुलाया गया विकास का गुब्बारा फट गया। इस पूरे प्रकरण ने पूँजीवाद की चरम पतनशीलता, परजीविता और मरणासन्नता को सतह पर ला दिया।

सतत विकास पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का स्वाभाविक लक्षण नहीं है और पिछले 2 सौ वर्षों से यदि यह व्यवस्था मंदी की मार से बचती चली आ रही है तो इसके पीछे अलगअलग दौर में सक्रिय बाहरी कारकों की ही भूमिका रही है। इनमें प्रमुख हैंउपनिवेशों का विराट बाजार, सस्ता श्रम और कच्चे माल का विपुल भंडार, दुनिया के बँटवारे और पुनर्बंटवारे के लिये लड़ा गया साम्राज्यवादी युद्ध, नरसंहार और तबाही के हथियारों का तेजी से फैलता उद्योग, युद्ध की तबाही से उबारने और पुनर्निर्माण के ऊपर भारी पूँजी निवेश, अकूत पूँजीनिवेश की संभावना वाली (जैसेरेल या मोटर कार) नयी तकनीक की खोज, शेयर बाजार की अमर्यादित  सट्टेबाजी इत्यादि। और जब एक के बाद एक, ये सारे मोटर फुँकते चले गये तो आखिरकार अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण करके सस्ते कर्ज के दम पर उसे गतिमान बनाये रखने का नुस्खा आजमाया गया। मौजूदा विश्व आर्थिक संकट इसी की देन है।

इस जर्जर विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ठहराव अब स्थाई परिघटना बन गया है । अतिरिक्त उत्पादन क्षमता, अत्यल्प उपभोग और मुनाफे में लगातार गिरावट के लाइलाज रोग का इसके पास कोई निदान नहीं है। पूँजीवादी देश अपने संकट का बोझ एकदूसरे पर डालने के लिये धींगामुश्ती कर रहे हैं।

इस संकट के परिणामस्वरूप पूरी दुनिया पर दो अत्यंत गम्भीर खतरे मंडरा रहे हैंपहला, प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन के कारण धरती के विनाश का खतरा और दूसरा, हथियारों की होड़, युद्ध, नरसंहार का खतरा, जिनका जिक्र करना बहुत जरूरी है।