Monday, May 28, 2012

अमीरों की मितव्ययिता                   


--पी. साईनाथ
           
योजना आयोग के अनुसार अगर एक ग्रामीण भारतीय प्रतिदिन २२ रुपये ५० पैसे खर्च करता है तो वह गरीब नहीं माना जायेगा, जबकि पिछले साल मई और अक्टूबर के बीच इसी योजना आयोग के उपाध्यक्ष की विदेश यात्राओं पर २.०२ लाख रुपये रोजाना औसत खर्च आया है.

खर्चों में कटौती के प्रणव मुखर्जी के भावनात्मक आह्वान ने देश को भावुक कर दिया था. इससे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इसकी वकालत कर चुके थे और उन्होंने अपनी जमात के लोगों को रचनात्मक तरीकों से इसे अपनाते देखा. यहाँ तक कि विदेश मंत्रालय को २००९ में किये गये इस आह्वान पर काम करते देखते (किफायती दर्जे में हवाईयात्रा, खर्चों में कटौती), हम इस महान खोज के चौथे साल में प्रवेश कर चुके हैं.     

निश्चय ही, हमारे यहाँ कई प्रकार की मितव्ययितायें हैं. इन अनेकों आजमायी गयी विविधताओं में से  योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया वाली किस्म को लेते है. खर्चों में कटौती के लिये डा. अहलूवालिया की वचनबद्धता को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता. देखिये वह किस तरह गरीबी की रेखा के बारे में उस लोकलुभावन मांग के खिलाफ अडिग खड़े रहे हैं जो मानीखेज है. जनता की कतई खुशामद नहीं की गयी. शहरी भारत में २९ रूपये या ग्रामीण भारत में २३ रूपये रोज खर्च करें तो आप गरीब नहीं हैं. यहां तक कि  उन्होंने उच्चतम न्यायालय से भी  अपने लाखों-करोंडों  देशवासियों के प्रति  इस कठोरता को बनाये रखने का अनुरोध किया है. योजना आयोग द्वारा दायर एक हलफनामे में ३२ रूपये (शहरी) और २६ रूपये (ग्रामीण) प्रतिदिन की रेखा की वकालत की गयी  है. उसके बाद से, इस पदम विभूषण विजेता और सके कुछ सहयोगियों ने इस रेखा को र कम करने के लिये बेहिचक अपनी राय पेश की है.

आरटीआई पूछताछ

डा. अहलूवालिया मितव्ययिता को खुद पर लागू करते हैं इस बात की पुष्टि दो आरटीआई प्रश्नों से हो जाती है. दोनों ही आरटीआई-आधारित पत्रकारिता के बेहतरीन उदाहरण हैं, परन्तु उन्हें उतनी तवज्जो नहीं मिल पायी जिसके वे हकदार हैं. उनमे से एक श्यामलाल यादव द्वारा दी गयी इंडिया टुडे (जिसमें जून २००४ से जनवरी २०११ के बीच डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है) की खबर है. यह पत्रकार (जो अब इंडियन एक्सप्रेस में काम करते हैं) पहले भी आरटीआई-आधारित बेहतरीन ख़बरें दे चुके हैं.

दूसरी खबर, इस साल फ़रवरी में, द स्टेट्समेन न्यूज़ सर्विस में प्रकाशित हुई (पत्रकार का नाम नहीं दिया गया है). इसमें मई और अक्टूबर २०११ के बीच में डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है. एसएनएस की रिपोर्ट कहती है कि "इस अवधि में, १८ रातों के दौरान चार यात्राओं के लिये राजकोष को कुल ३६,४०,१४० रुपये कीमत चुकानी पड़ी, जो औसतन २.०२ लाख रुपये प्रतिदिन बैठती है.”

जिस दौरान यह सब हुआ, उस समय के हिसाब से २.०२ लाख रुपये ४,००० डॉलर प्रतिदिन के बराबर बैठते हैं. (अहा! हमारी खुशकिस्मती है कि मोंटेक मितव्ययी हैं. अन्यथा कल्पना करें कि उनके खर्चे कितने अधिक होते). प्रतिदिन का यह खर्चा उस ४५ सेंट की अधिकतम सीमा से ९,००० गुना ज्यादा है जितने पर उनके अनुसार एक ग्रामीण भारतीय ठीक-ठाक जी ले रहा है, या उस शहरी भारतीय के लिये ५५ सेंट की अधिकतम सीमा से ७,००० गुना ज्यादा है जिसे डा. अहलूवालिया “सामान्य तौर पर पर्याप्त” मानते हैं.

यहां हो सकता है कि १८ दिनों में खर्च किये गये ३६ लाख रूपये (या ७२,००० डॉलर) उस साल विश्व पर्यटन के लिये दिया गया उनका निजी प्रोत्साहन हो. आख़िरकार, २०१० में पर्यटन उद्योग अभी भी २००८-०९ के विनाश से उभर ही रहा था, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन ध्यान दिलाता है. दूसरी तरफ, यू.एन. संस्था ने पाया कि २०१० में वैश्विक यात्राओं पर वार्षिक आय 1,000 अरब  डॉलर तक पहुँच गयी. वार्षिक आय में सबसे ज्यादा बढ़त अमेरिका और यूरोप में देखी गयी (जहाँ उन १८ दिनों में से ज्यादातर दिन व्यतीत किये गये). भारतीय जनता इस बात पर खुशी मना सकती है कि उन देशों के स्वास्थ्य लाभ में उन्होंने भी एक सादगीपूर्ण भूमिका निभायी, तब भी जबकि वे घर पर खर्चों में कटौती की मार झेल रहे थे.

श्यामलाल यादव की आरटीआई में दिये गये आकड़े बेहद दिलचस्प हैं. शुरुआत के लिये, उनकी जाँच दिखाती है कि अपने सात साल के कार्यकाल में डा. अहलूवालिया ने ४२ आधिकारिक विदेश यात्रायें की और विदेशों में २७४ दिन बिताये. इस तरह यह “हर नौ में से एक दिन” विदेश में पड़ता है. और इसमें यात्रा करने में लगे दिन शामिल नहीं हैं. इंडिया टुडे की खबर ने पाया कि उनके इस भ्रमण के लिये राजकोष से २.३४ करोड़ रूपये खर्च किये गये, यह बताया गया है कि उनकी यात्राओं के संबंध में उन्हें तीन अलग- अलग अनुमान प्राप्त हुए थे और उदारतापूर्वक उन्होंने अपनी खबर के लिये सबसे कम खर्च वाले अनुमान को चुना. साथ ही, इंडिया टुडे की खबर कहती है, “यह स्पष्ट नहीं है कि इन आकड़ों में भारतीय दूतावास के द्वारा विदेश में किये गये अतिरिक्त खर्चे, जैसे-  लिमोसिन को किराये पर लेना शामिल हैं या नहीं. वास्तविक खर्चे काफी ज्यादा हो सकते हैं.”

चूँकि जिस पद पर वह हैं उसके लिये ज्यादा विदेश यात्राओं की आवश्यकता नहीं है – हालाँकि, यह सब “प्रधानमंत्री की इजाजत” से किया गया है– यह काफी दुविधा में डाल देने वाला है. ४२ यात्राओं में से २३ अमेरिका के लिये थी, जो योजना में विश्वास नहीं करता ( योजना में तो, शायद डॉ. अहलूवालिया भी विश्वास नहीं करते), तब यह और भी ज्यादा दुविधा में डाल देने वाली बात है. ये यात्रायें किस बारे में थी? मितव्ययिता के बारे में वैश्विक जागरूकता का प्रसार करने के लिये? यदि ऐसा है तो, हमें उनकी यात्राओं पर ओर ज्यादा खर्च करना होगा: एथेन्स की सड़कों पर इस ध्येय का क़त्ल करते हुए विद्रोही ग्रीसवासियों पर ध्यान दें. और उससे भी ज्यादा उनकी अमरीका यात्राओं पर जहाँ अमीरों की मितव्ययिता असाधारण है. यहाँ तक उस देश के मैनेजरों ने २००८ में भी करोड़ों रूपये बोनस लिये, जिस साल वाल स्ट्रीट ने विश्व अर्थव्यवस्था का भट्टा बिठा दिया था. इस साल, अमरीका में बेहद-अमीर मीडिया अखबार भी लिख रहे हैं कि ये मैनेजर ही कम्पनियों, नौकरियों और तमाम चीजों का विनाश कर रहे हैं– और इस सबसे व्यक्तिगत लाभ उठा रहे हैं. लाखों अमरीकावासी, जिनमे वे भी शामिल है जो बंधक घरों की नीलामी का शिकार हुए हैं, वे अलग तरह की मितव्ययिता भुगत रहे हैं. उस तरह की, जिससे फ्रांसीसी घबराये हुए थे और जिसके खिलाफ उन्होंने वोट दिया.

२००९ में जब डा. सिंह ने खर्चों में कटौती का अनुरोध किया, तब उनके मंत्रिमंडल ने इस आह्वान का शानदार जवाब दिया. अगले २७  महीनों के दौरान, हर सदस्य ने औसतन, कुछ लाख रूपये प्रति महीने अपनी सम्पति में जोड़े. यह सब उस दौरान, जब वे मंत्रियों के तौर पर कठिन मेहनत कर रहे थे. प्रफुल पटेल इनमे सबसे आगे रहे, जिन्होंने इस दौरान अपनी सम्पति में हर २४ घंटे में, औसतन पांच लाख रुपये जोड़े. तब जब एयर इंडिया के कर्मचारी, जिस मंत्रालय का ज्यादातर समय वह मन्त्री थे, हफ़्तों तक अपनी तनख्वाह पाने के लिये संघर्ष कर रहे थे. अब जबकि प्रणव अपना कोड़ा फटकार रहे हैं, तब ओर भी ज्यादा मितव्ययिता देखने को मिलेगी.

अब इस मितव्ययिता के द्विदलीय भाईचारे को देखें: प्रफुल पटेल (यूपीए–एनसीपी) और नितिन गडकरी (एनडीए–बीजेपी) ने अभी तक की दो सबसे महंगी शादियों का आयोजन किया, जिसमे किसी आईपीएल फ़ाइनल से भी ज्यादा मेहमान शामिल थे. लिंग-संतुलन का कठोर अनुशासन, भी. ये आयोजन, मि. पटेल की बेटी के लिये और मि. गडकरी के बेटे के लिये थे. 

इनके कारपोरेट प्रतिरूपों ने इसे ओर आगे बढ़ाया. समकालीन स्मृति में मुकेश अंबानी का सबसे महंगा २७ मंजिल (पर उसकी ऊंचाई ५० मंजिल तक है) का घर. और विजय माल्या ने– किंगफिशर में जिनके कर्मचारी अपनी तनख्वाहों के लिये संघर्ष कर रहे हैं–  ५ मई को ट्वीट किया: “दुबई में बुर्ज खलीफा के १२३वें माले पर एटमोसफियर में रात्रिभोज कर रहा हूँ. मैं अपने जीवन में कभी इतनी ऊंचाई पर नहीं आया. शानदार दृश्य.” यह शायद उससे ज्यादा ऊंचाई पर है जहाँ अभी किंगफिशर उड़ान भर रही है. दोनों की आईपीएल में खुद की टीमें हैं. एक ऐसी संस्था जिसे सार्वजनिक आर्थिक सहायता मिली है (उदाहरण के लिये, मनोरंजन कर में छूट). यह तब तक, जब तक मामला बम्बई उच्च न्यायालय में नहीं गया. आईपीएल से जुड़ी  जनता के पैसे से चलने वाली अन्य मितव्ययितायें भी  हैं – इन खबरों का इंतज़ार करें.

वाल स्ट्रीट मॉडल   

कारपोरेट जगत आम तौर पर वाल स्ट्रीट के मॉडल का अनुसरण करता है. वहाँ, नौ बैंकों, जिसमे सिटीग्रुप और मेर्रिल लिंच शामिल हैं, ने “२००८ में ३२.६ बिलियन डॉलर बोनस के तोर पर दिये, उस समय जब उन्होंने करदाताओं द्वारा जमा धन से १७५ बिलियन डॉलर प्राप्त किये,” ब्लूमबर्ग ने २००९ में रिपोर्ट दी. उसने इस विषय पर न्यूयॉर्क के अटॉर्नी जनरल एंडरयू कयूओमो की रिपोर्ट से उद्धृत किया: “जब बैंक बेहतर कर रहे थे, तब उनके कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह दी जा रही थी. जब बैंक खराब प्रदर्शन कर रहे थे तब भी उनके कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह दी जा रहती थी. जब बैंकों ने बेहद खराब प्रदर्शन किया तो करदाताओं ने उनकी जमानत ली और उनके कर्मचारियों को तब भी अच्छी तनख्वाह दी गयी. जैसे-जैसे मुनाफा कम होता गया, उनके बोनस और दूसरे पारितोषिकों में कोई कमी नहीं आयी.”

ध्यान दें  कि  पिछले सप्ताह प्रणव की मितव्ययिताओं की प्रार्थना ने बेहद-अमीरों के प्रवक्ताओं को टीवी पर बहुत जोरशोर से यह कहते हुए देखा कि घाटा पूरी तरह से “एक के बाद एक होने वाली लोकलुभावन कार्यवाहियों” की वजह से है, जिसमे  ऐसे मूर्खतापूर्ण काम शामिल हैं,- जैसे लोगों को काम देना, भुखमरी को कम करना, बच्चों को स्कूल भेजना. इसमें धनाड्य वर्ग के लिये किये गये लुभावने कामों का कोई जिक्र नहीं है जिसमें  इन्ही प्रणव के बजट के माध्यम से कारपोरेट टैक्स, उत्पाद और सीमा शुल्क में रियायत देकर लगभग ५ लाख करोड़ रुपये (उस समय लगभग १०० बिलियन डॉलर) मुख्य रूप से अमीर और कारपोरेट वर्ग को तोहफे में दे दिये गये. सीताराम येचुरी ने इस बात की ओर संसद का ध्यान दिलाया है कि बेहद-अमीरों के लिये बट्टे खाते में डाले गये इन पैसों की वजह से राजकोषीय घाटा ८,००० करोड़ रुपये ज्यादा बढ़ गया है. परन्तु वह गरीबों के लिये किये जाने वाले “लोकलुभावन काम” हैं जिन्हें आलोचना झेलनी पड़ती है.

अमर्त्य सेन खेदपूर्वक पूछते हैं कि “राजस्व से सम्बंधित समस्याओं पर मिडिया में किसी भी तरह की बहस क्यों नहीं होती है, जैसे कि सोने और चांदी को सीमा शुल्क में छूट, वित्त मंत्रालय के अनुसार, इसमें राजस्व को उससे ज्यादा राशि का नुकसान शामिल है (प्रति वर्ष ५०,००० करोड़ रूपये) जितनी खाद्य सुरक्षा बिल के लिये जरूरी अतिरिक्त राशि (२७,००० करोड़ रूपये) है.”

इस सर्वगुण संपन्न सम्मोहक दायरे के बाहर रहने वाले भारतीय एक अलग तरह की मितव्ययिता जानते हैं. खाद्य मुद्रास्फीति दो अंको में है. एक साल में सब्जियों के दाम ६० प्रतिशत बढ़ चुके हैं. बच्चों में कुपोषण सब-सहारा अफ्रीका से दोगुना है. परिवार दूध और दूसरी जरुरी चीजों का उपयोग तेजी से कम कर रहे हैं. स्वास्थ्य सेवाओं में भारी वृद्धि लाखों लोगों को कंगाल कर रही है. किसान निवेश करने में और कर्ज हासिल करने में असमर्थ हैं. बहुत से लोगों को पीने के पानी की कमी है, जैसे- जैसे इस जीवनदायिनी वस्तु को दूसरे कामों के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है. उच्च वर्ग के लिये मितव्ययिता का अभ्यास करना कितना बेहतर होगा.  
(द हिन्दू में प्रकाशित पी. साईनाथ के लेख की आभार सहित प्रस्तुति. अनुवाद- दिनेश पोसवाल)  

Saturday, May 19, 2012

जख्म


-नॉर्मन बेथ्यून 


वानपिंग किला, बीजींग में नार्मन बेथ्यून की प्रतिमा 
 (यह दुर्लभ रचना एक ऐसे विशाल ह्रदय, निःस्वार्थ और कर्मठ क्रन्तिकारी का प्रत्यक्ष अनुभव है, जिसने निःस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा करते हुए अपने प्राण निछावर कर दिए. पेशे से डॉक्टर और शोधकर्ता नार्मन बेथ्यून कनाडा के निवासी थे. स्पेन के गृहयुद्ध में और चीन पर दूसरे जापानी हमले के खिलाफ वहाँ की जनता द्वारा चलाये जा रहे प्रतिरोधयुद्ध के दौरान वहाँ घायलों की सेवा के लिए चिकित्सकों के अंतर्राष्ट्रीय भाईचारा मिशन में शामिल हुए थे. घायलों की सेवा के दौरान ही उन्होंने स्पेन में खून चढाने की सचल सेवा और चीन में युद्धभूमि में शल्यक्रिया की विधि विकसित की थी. चीन में घायल क्रन्तिकारी योद्धाओं की सेवा के दौरान 12 नवंबर 1939  को 49 वर्ष की उम्र में  उनकी मृत्यु हो गयी थी.

       नार्मन बेथ्यून कनाडा की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे. उनका मानना था कि युद्ध किसी उसूल के लिए नहीं, बल्कि मुनाफे की हवस का नतीजा होते हैं. उनका जीवन विश्वबंधुत्व, समानता और न्याय में विश्वास रखने वाले युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है. हिंदी अनुवाद- दिनेश पोसवाल.) 
   
    सिर के ऊपर मिट्टी तेल का लैम्प मधुमक्खियों के उत्तेजित झुण्ड जैसी स्थायी भिनभिनाहट वाली आवाज कर रहा है. मिट्टी की दीवारें. मिट्टी के बिस्तर. सफ़ेद कागज जैसी खिड़कियाँ. खून और क्लोरोफार्म की गंध. ठण्ड. सुबह के तीन बजे, 1 दिसम्बर, उत्तरी चीन, लिन चू के निकट, ८वीं रूट आर्मी के साथ. जख्म खाये हुए आदमी. छोटे सूखे तालाब जैसे जख्म, जो काली-भूरी मिट्टी से ढँके हुए हैं; काली गैंग्रीन जैसे झालरनुमा खुरदरे किनारों वाले जख्म; साफ जख्म जो अपनी गहराइयों में मवाद छिपाये हुए हैं, जो बेहतरीन मजबूत माँसपेशियों में अंदर और उसके बीच में एक ठहरी हुई नदी की तरह पैवस्त है और जो माँसपेशियों के अंदर और उसके आसपास गर्म धारा की तरह बह रहा है; जख्म जो बाहर की तरफ फैल रहे हैं, सड़ते हुए आर्किड या कुचली हुई लालिमा की तरह, मानव देह पर दारुण पुष्प; जख्म जिनसे मनहूस गैस के बुलबुलों के साथ, खून के काले थक्के वेगपूर्वक बाहर निकलते हैं, जो अभी भी निरंतर जारी खून के ताजा बहाव पर तैर रहे हैं.

      पुरानी गंदी पट्टियाँ खून के सूखने के चलते खाल से चिपक गयी हैं. सावधानी से. पहले उसे नम होने दो. जांघ के आरपार. टांग को ऊपर उठाओ. यह एक थैले की तरह क्यों है, एक शिथिल लंबे झोले की तरह. कैसा लंबा झोला? क्रिसमस के तोहफों से भरा लंबा झोला. वह हड्डी का मजबूत दंड कहाँ हैं? वह दो दर्जन टुकड़ों में टूट गया है. अपनी अँगुलियों से एक-एक करके उन्हें बाहर निकालो; किसी कुत्ते के दांतों की तरह सफ़ेद, तीखे और नुकीले टुकड़े. अब महसूस करो. क्या ओर भी बची हैं? हाँ, यहां. सब हो गया? हाँ; नहीं, यहां एक ओर टुकड़ा बाकी है. क्या यह मांसपेशी मृत हो गयी है? चिकोटी काट कर देखो. हाँ, यह बेजान है, इसे काट कर निकाल दो. इसे कैसे ठीक किया जा सकता है? किस तरह ये मांसपेशियाँ, जो कभी इतनी मजबूत थीं, जो अब इतनी विदीर्ण, इतनी बरबाद, इतनी नष्ट हो चुकी हैं, वे फिर से अपना कसाव वापस हासिल कर सकती हैं? खींचो, आराम से. खींचो, आराम से. यह कैसा तमाशा था! अब ये काम खत्म हुआ. अब यह काम पूरा हो गया. अब हम बरबाद हो गए हैं. अब हम खुद का क्या करेंगे?

      अगला. कैसा नाबालिग बच्चा है! सत्रह साल का. इसके पेट में गोली मारी गयी है. क्लोरोफार्म. तैयार? उदर-झिल्ली में छेद होने के कारण तेजी से बाहर निकलती है. मल की दुर्गन्ध. फैली हुए अंतड़ियों की गुलाबी कुंडली. चार छिद्र. इन्हें बंद करो. टांके लगाओ. कमर को स्पंज से साफ़ कर दो. नली. तीन नलियाँ. इन्हें बंद करना मुश्किल है. उसे गर्म रखो. कैसे? इन ईंटों को गर्म पानी में डुबाओ.

      गैंग्रीन एक धूर्त, दबे पाँव अंदर आने वाली चीज है. क्या यह जख्मी अभी जीवित है? हाँ, यह जिन्दा है. तकनीकी रूप से कहें तो जिन्दा है. इसे नस के जरिये लवण का घोल चढ़ा दो. शायद इसके शरीर की असंख्य छोटी-छोटी कोशिकायें याद कर सकें. शायद वे उष्ण खारे समुद्र, अपने पैतृक घर, अपने पहले भोजन को याद कर सकें. लाखों सालों की यादों के बीच, वे शायद दूसरे ज्वारभाटाओं, दूसरे महासागरों, और समुद्र और सूर्य से पैदा हुए जीवन को याद रख सकें. शायद यह उसे अपने थके हुए छोटे सिर को फिर से उठाने में, जी भरकर पीने में मदद कर सके और एक बार फिर उसे जीवन के संघर्षों में वापस ला सके. शायद ऐसा हो जाय.

      और यह जख्मी. क्या यह एक बार फिर अगली फसल के वक्त अपने खच्चर के साथ, असीम आनंद और प्रसन्ता से चिल्लाते हुए, सड़क के किनारे दौड़ पायेगा? नहीं, यह  अब फिर कभी नहीं दौड़ पायेगा. आप एक टांग से कैसे दौड़ सकते हैं? वह क्या करेगा? क्यों, वह बैठेगा और दूसरे लड़कों को दौड़ते हुए देखेगा. वह क्या सोचेगा? वह वही सोचेगा जो हम और आप सोचते हैं. दया दिखाने का क्या फायदा है? उससे हमदर्दी ना दिखायें! हमदर्दी उसके बलिदान को कम कर देगी. उसने यह सब चीन की रक्षा के लिये किया. उसकी मदद करो. उसे मेज पर से उठाओ. उसे अपनी बाँहों में उठाकर ले चलो. क्यों, वह एक बच्चे की तरह हल्का है! हाँ, आपका बच्चा, मेरा बच्चा.

      उसका शरीर कितना खुबसूरत है: उसकी चाल कितनी निश्छल है; वह कितने उम्दा तरीके से चलता है; कितना आज्ञाकारी, गर्वीला और मजबूत. और कितना दारुण जब चोट खाये हुए है. जिंदगी की छोटी सी शमाँ मद्धम होती जाती है, और एक झिलमिलाहट के बाद, बुझ जाती है. वह एक मोमबत्ती की तरह बुझ जाता है. धीमे से और हल्के से. वह अपने अन्त पर अपना विरोध दर्ज करता है, फिर समर्पण कर देता है. उसका भी कभी अपना समय था, अब वह खामोश है.

      क्या और भी हैं? चार जापानी कैदी. इन्हें अंदर ले आओ. दर्द के इस जमात में कोई भी शत्रु नहीं है. इनकी खून से सनी वर्दी काट कर उतार दो. इस रक्तस्राव को रोको. इन्हें दूसरों के बगल में लिटा दो. क्यों, ये भाइयों की तरह हैं! क्या ये सिपाही पेशेवर मानव-हत्यारे हैं? नहीं, ये हथियार लिये हुए अनाड़ी हैं. मजदूरों के हाथ. ये वर्दीधारी मजदूर हैं.

      अब और नहीं हैं. सुबह के छह बज रहे हैं. हे भगवान, इस कमरे में काफी ठण्ड हो गयी है. दरवाजा खोल दो. दूर, गहरे-नीले पर्वतों के पार, पूरब में, एक मद्धिम, धुंधली रोशनी प्रकट हो रही है. एक घंटे में सूरज निकल आएगा. बिस्तर पर जाने और सोने का समय.

      लेकिन नींद नहीं आएगी. इस क्रूरता, इस मूर्खता की क्या वजह है? जापान से दस लाख मजदूर दस लाख चीनी मजदूरों को मारने या अपंग करने के लिये आते हैं. जापानी मजदूरों को अपने चीनी मजदूर भाइयों पर हमला क्यों करना चाहिये, जो स्वयं की सुरक्षा करने के लिये मजबूर हैं. क्या चीनियों की मौत से जापानी मजदूरों का फायदा होगा? नहीं, उन्हें कैसे फायदा हो सकता है? तब, भगवान के नाम पर, किसे फायदा होगा? इन जापानी मजदूरों को इस खूनी अभियान पर भेजने के लिये कौन जिम्मेदार है? इससे किसे फायदा होगा? इन जापानी मजदूरों को चीनी मजदूरों पर हमला करने के लिये राजी करना कैसे संभव हो सका – जो उनके ही गरीब भाई, उनके ही जैसे मुसीबत के मारे साथी हैं.

      क्या यह संभव है कि कुछ अमीर आदमी, मुट्ठी भर लोगों का एक छोटा-सा वर्ग, दस लाख लोगों को उन दूसरे दस लाख लोगों पर हमला करने, उन्हें नष्ट करने के लिये उकसाए जो उन्ही की तरह गरीब हैं? ताकि ये अमीर लोग और अमीर बन सकें. एक दारुण विचार! वे इन गरीब आदमियों को चीन आने के लिये कैसे फुसला सके? उन्हें सच्चाई बताकर? नहीं, अगर उन्हें सच्चाई पता होता तो वे कभी भी यहाँ नहीं आते. क्या इन मजदूरों को बताया गया कि अमीर सिर्फ सस्ता कच्चा माल, ज्यादा बाज़ार और ज्यादा मुनाफा चाहते हैं? नहीं, उन्होंने बताया कि यह बर्बर युद्ध उनकी “जाति की नियति” है, यह “सम्राट की शान” के लिए है, यह “राष्ट्र के सम्मान” के लिए है, यह उनके “राजा और देश” के लिए है.

      झूठ, सफ़ेद झूठ!

      हमले के अपराधी युद्ध थोपने वालों की नजर में यह युद्ध, किसी भी अन्य अपराध, जैसे- क़त्ल की तरह है, जिन्हें इन अपराधों से फायदा होता है. क्या जापान के 80,000,000 मजदूरों, गरीब किसानों, बेरोजगार औध्योगिक मजदूरों को– इससे कोई फायदा होगा? आक्रामक युद्धों के पूरे इतिहास में, स्पेन द्वारा मैक्सिको पर विजय, इंग्लैंड द्वारा भारत पर कब्ज़ा, इटली द्वारा इथोपिया में जबरन लूटपाट, क्या कभी भी इन “विजेता” देशों के मजदूरों को कोई भी फायदा हुआ है? नहीं, वे ऐसे युद्धों से कभी भी लाभान्वित नहीं होते. यहाँ तक कि जापान के मजदूरों को अपने देश के प्राकृतिक संसाधनों से भी क्या कोई लाभ मिलता है, सोने से, चांदी से, लोहे से, कोयले से, तेल से? बहुत पहले ही इस प्राकृतिक सम्पदा पर उन्होंने अपना हक खो दिया था. यह अमीर, शासक वर्गों के कब्ज़े में है. लाखों लोग जो उन खानों में काम करते हैं वे गरीबी में जीवन बीताते हैं. तो फिर किस तरह वे हथियारों के दम पर चीन के सोना, चांदी, लोहा, कोयला, और तेल की लूटपाट से फायदा उठा सकते है? क्या ये अमीर मालिक अपने मुनाफे के लिये दूसरों की सम्पदा को हड़प नहीं लेते? क्या वे हमेशा से ऐसा ही नहीं करते आ रहे हैं?

      यह अपरिहार्य लगता है कि जापान के सैन्यवादी और पूँजीवादी ही वह एकमात्र वर्ग है जिसे इस बड़े पैमाने पर किये गये खूनखराबे, इस अधिकृत पागलपन, इस पवित्र कत्लेआम से फायदा होगा. यह शासक वर्ग, जो वास्तविक राष्ट्र है, वही असली अपराधी है.

      तो क्या आक्रमण के युद्ध, उपनिवेशों पर विजय के लिये युद्ध, तब, वास्तव में सिर्फ बड़े व्यापार हैं? हाँ, ऐसा ही प्रतीत होता है, यद्यपि इन राष्ट्रीय अपराधों को अंजाम देने वाले अपने असली उद्देश्यों को उच्च कोटि के भाववाचक शब्दों और आदर्शों के पीछे छुपाने का प्रयास करते हैं. वे क़त्ल के जरिये नये बाज़ारों पर, जबरन लूट के द्वारा कच्चे माल पर कब्ज़ा करने के लिये युद्ध छेड़ते हैं. वे आदान-प्रदान के बजाय चुराने का आसान रास्ता अपनाते हैं; खरीदने के बजाय क़त्ल करके हथियाने का आसान रास्ता अपनाते हैं. यही युद्धों का रहस्य है. यह सभी युद्धों का रहस्य है. मुनाफा. व्यापार. मुनाफा. क़त्ल के बदले में मुनाफा.

      इस सबके पीछे व्यापार और क़त्ल का डरावना, निर्दयी ईश्वर खड़ा है जिसका नाम मुनाफा है. पैसा, एक अतृप्त मोलोच[*] की तरह, अपने ब्याज, अपने सूद की माँग करता है और वह किसी भी कीमत पर नहीं रुकता, यहाँ तक कि अपने लालच को संतुष्ट करने के लिये, लाखों लोगों का क़त्ल करने के बाद भी नहीं रुकता. सेनाओं के पीछे सैन्यवादी खड़े हैं. सैन्यावादियों के पीछे वित्तीय पूँजी और पूँजीपति खड़े हैं. कातिल ; अपराध के सहभागी.

      मानवता के ये शत्रु कैसे दिखते हैं? क्या इनके मस्तक पर कोई चिन्ह होता है कि उन्हें पहचाना जा सके, उनसे दूर रहा जा सके और अपराधियों के तौर पर उन्हें दंड दिया जा सके? नहीं. इसके विपरीत, ये सम्मानित लोग हैं. ये इज्जतदार लोग हैं. ये स्वयं को सज्जन कहते हैं, और इन्हें सज्जन कहा जाता है. सज्जन शब्द के साथ यह कैसी विडंबना है! ये देश, समाज और चर्च के आधारस्तंभ हैं. ये अपनी धनदौलत के आधिक्य से निजी और सार्वजनिक परोपकारिता को मदद देते हैं, ये संस्थाओं को दान देते हैं. अपने निजी जीवन में ये दयालु और विचारशील हैं, वे कानून का पालन करते हैं, उनका अपना कानून, निजी संपत्ति का कानून. लेकिन एक ऐसा लक्षण है जिससे इन बंदूकधारी महानुभावों को पहचाना जा सकता है. उनकी दौलत के मुनाफे में कमी का खतरा आने दें और तब इनके अंदर का शैतान एक गुर्राहट के साथ जाग उठता है. ये जंगलियों की तरह निर्दयी, पागलों की तरह कठोर, जल्लाद की तरह क्रूर हो जाते हैं. अगर मानव जाति को बचाये रखना है तो ऐसे लोगों को खत्म हो जाना चाहिये. जब तक ये लोग जीवित हैं विश्व में कभी भी स्थायी शांति नहीं हो सकती. मानव समाज की जो व्यवस्था ऐसे लोगों के अस्तित्व की इज़ाज़त देती है, उसे मिटा दिया जाना चाहिये.

      ये ही वे लोग हैं, जो जख्म देते हैं.




[*] मोलोच- एक प्राचीन देवता जो माँ-बाप से अपने बच्चों की बलि लेता है.      

Sunday, May 13, 2012

किसी गरीब बच्चे को किस तरह से न पढ़ाया जाय

(सबके लिए प्राथमिक शिक्षा कानून बन जाने के बावजूद गरीब बच्चों की शिक्षा सरकारी उपेक्षा और दुर्दशा का शिकार है. देश के पांच प्रमुख शिक्षा शास्त्रियों का यह खुला पत्र हिन्दुस्तान टाइम्स अखबार द्वारा गरीब बच्चों की शिक्षा का मजाक उड़ाने के खिलाफ तो है ही,यह बाल शिक्षण से सम्बंधित कुछ बुनियादी सैद्धान्तिक बिंदुओं को भी बहुत ही गंभीरता से उठाता है और विचार-विमर्श का आधार प्रदान करता है.)

खुला पत्र

सेवा में,
प्रधान सम्पादक
दि हिन्दुस्तान टाइम्स

दि हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा की गयी इस घोषणा ने हम सब को आकर्षित किया कि वह अपनी हर प्रति की बिक्री से प्राप्त आय में से 5 पैसा गरीब बच्चों की शिक्षा पर खर्च करेगा। हालाँकि हमें यह नहीं बताया गया कि इस पैसे को कैसे खर्च किया जायेगा। यह महत्त्वपूर्ण है कि किसी बच्चे की शिक्षा चलताऊ ढ़ंग से किया जाने वाला काम नहीं है। स्कूली शिक्षा कई तरह के घटकों से युक्त एक समग्रतावादी अनुभव है जिसकी पहचान और चुनाव पाठ्यक्रम के प्रारूप द्वारा की जाती है और जिसका उद्देश्य शिक्षा का वह लक्ष्य हासिल करना होता है जिसे समाज समय-समय पर अपने लिए निर्धरित करता है।

हिन्दुस्तान टाईम्स ने 19 अप्रैल, 2012 को हिन्दी और अंग्रेजी में चित्रमय बारहखड़ी भी प्रकाशित की थी। अपने पाठकों से उसने कहा था कि इस सभी पन्नों को काटकर उन्हें एक साथ मिलाकर स्टेपल कर के वर्णमाला की किताब बनायें और उन्हें किसी गरीब बच्चे को देकर उसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। इसका मकसद नेक लगता है। जबकि साफ तौर पर यह एक नासमझी भरा, दिशाहीन और निरर्थक निवेश है जिससे किसी गरीब बच्चे की कोई मदद नहीं होती। ऐसा कहने के पीछे सामाजिक व शैक्षिक कारण हैं। शिक्षा का अधिकार विधेयक के अनुसार शिक्षा पाना एक अधिकार है, जिसका हकदार भारत का हर एक बच्चा है। इस लक्ष्य को कुछ सदासयी लोगों द्वारा किये जाने वाले परोपकार द्वारा नहीं पाया जा सकता। यह समानता के सिद्धांत पर आधारित है जिसका अर्थ यह है कि बच्चा एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा का हकदार है। इसका कार्यान्वयन एक सुपरिभाषित संस्थागत तौर-तरीके से किया जाना चाहिए। हिन्दुस्तान टाईम्स ने जो किया है वह यह कि उसने अपने पाठकों की अंतरात्मा से विनती की है, ताकि उसके पाठक गरीब बच्चों के साथ सहानुभूति के कारण इन पन्नों को फाड़कर उन्हें स्टेपल करके उनके लिये भाषा की पहली किताब बनाने के लिए थोड़ा समय निकालें। यह एक तरह से उनके ऊपर तरस खाना है जिसे कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा। इस अभियान की रूपरेखा बनाने वालों को अपने आप से यह सवाल पूछना चाहिए- क्या वे अपने बच्चों के साथ ऐसा करेंगे? अगर नहीं, तो एक गरीब बच्चे के साथ ऐसा करना कैसे ठीक हैअभियान प्रबंधकों के लिए यह भी रुचिकर होगा कि वे एक सर्वे करके पता करें कि इस परोपकार में उनके कितने पाठक सचमुच शामिल हुए। 

समता और समानता को लेकर अपनी असंवेदनशीलता के अलावा आज शिक्षाशास्त्र के दृष्टिकोण से भी यह अभियान गलत है। 2012 में कोई भी भाषा शिक्षक वर्णमाला की किताब को भाषा सीखने के लिए शुरूआती उपकरण के रूप में नहीं सुझाएगा. भाषा शिक्षा शास्त्र उस ज़माने से बहुत आगे निकल गया है  जब अक्षर ज्ञान कराना भाषा सीखने की दिशा में पहला कदम हुआ करता था। अगर अभियान कर्ताओं ने राष्ट्रीय पाठ्क्रम रूपरेखा 2005 और भाषा सीखने पर केन्द्रित समूह के सुझावों पर ध्यान दिया होता तो शायद वे समझ जाते कि अब भाषा सीखना बहुत ही विवेकपूर्ण शिक्षण विधि हो गया है। अगर उनका तर्क यह है कि जो बच्चे भाषा सीखने के आधुनिक तरीकों से वंचित हैं, उन्हें कम से कम इतना तो मिल ही जाना चाहिए, तो यह एक बार फिर समानता के संवैधानिक सिद्धान्त की अवहेलना है।

काफी अधिक प्रयासों के बाद हम क से कबूतरके जरिये भाषा सीखाने की बेहूदगी से आगे निकल पाये हैं और यह क्षोभकारी है कि बिना सोचे-समझे एक बड़ी मीडिया एजेन्सी इसे दुबारा वापस ला रही है। 

हालाँकि पाठ्य-पुस्तक महत्वपूर्ण होते हैं, पर ये इसका केवल एक भाग ही हैं। पाठ्य-पुस्तक की अर्न्तवस्तु और कलेवर एक दूसरे से पूरी तरह गुंथे होते हैं वे सिर्फ काटने-चिपकाने-सिलने का धंधा नहीं होते। बहुभाषिक संदर्भ में किसी बच्चे के लिए भाषा की पहली किताब का प्रारूप तैयार करने के लिए बहुत ही जिम्मेदारी भरे चिन्तन की जरूरत होती है और जो लोग भाषा सीखने के मामलों में अशिक्षित हों और इस क्षेत्र में ताजा शोध से परिचित नहीं हैं उन्हें इस काम में हाथ नहीं डालना चाहिए। किसी बच्चे के हाथों में भाषा की पहली किताब एक सम्पूर्ण अनुभव होती है। इसे बच्चे की सभी ज्ञानेन्द्रियों को जागृत एवं उत्तेजित करने में समर्थ होना चाहिए। इसके अलावा, बहुत कम उम्र में पढ़ने को अब बहुत ही गम्भीरता से लिया जाता है। इस अभियान की रूपरेखा बनाने वाले अगर एनसीईआरटी और कई राज्यों द्वारा पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों के लिये चलाये जा रहे पठन-कार्यक्रम को देख लेना सही रहेगा। पाठ्य-पुस्तकों और पाठ्य सामग्री गरीब बच्चे, अच्छी तरह डिजाईन की गयी और अच्छे कागज पर छपी बेहतरीन पाठ्य-पुस्तकों और पठन सामग्री के हकदार हैं जो अखबारी कागज पर न छपें हों और जो पूरे साल चल सकें।

सामाजिकता विविधता के दृष्टिकोण से देखा जाय तब भी हिन्दी अक्षरों के साथ दर्शाये गये चित्र इस तरह के होते हैं जो बच्चों की उस भारी बहुसंख्या को ध्यान में रखकर नहीं बनाये जाते, जिनका ऊँच्च वर्ण पुरुष हिन्दु प्रतीकों वाली परम्परा में लालन पालन नहीं हुआ होता।

जिस तिरस्कारपूर्ण तरीके से पूरे अभियान की रूपरेखा तैयार की गयी है, वह इसके पीछे काम करने वाले दिमागों की ओर ध्यान खींचती है और इसे संचालित करने वाले लोगों को संदेह के घेरे में ला खड़ा करती है- क्या वाकई शिक्षा-प्रणाली को मदद पहुँचाने के प्रति गम्भीर हैं? अगर हाँ तो उन्हें यह पैसा इस तरह की सांकेतिक चेष्ठाओं पर उड़ाने के बजाय शिक्षा के कारोबार में लगी पेशेवर संस्थाओं को दे देना चाहिये, हालाँकि यह भी एक घटिया निवेश ही है।

विश्वास भाजन,

अपूर्वानन्द, प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय, सदस्य, फोकस ग्रुप ऑन इण्डियन नेशनल लैग्वेज करिकुलम फ़्रेफ्रेमवर्क, 2005.

कृष्ण कुमार, प्रोफेसर, सीआईई, दिल्ली विश्वविद्यालय, पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी.

कुमार राणा, प्रतिची, कोलकाता.

शबनम हाशमी, सदस्य, एमएईएपफ, एनएलएमए.

विनोद रैना, सदस्य, एएनसी-आरटीआई.

(आभार- काफिला डॉट ऑर्ग, अनुवाद- सतीश.)

Wednesday, May 9, 2012

1857 : सामान की तलाश


(अठारह सौ सत्तावन के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 
की महाकाव्यात्मक गाथा का सिंहावलोकन 
असद जैदी ने हमारे मौजूदा दौर की सच्चाइयों
 की चट्टानी जमीन पर खड़े होकर किया है.
10 मई की पूर्वसंध्या पर अपने पुरखों की शहादत 
को याद करते हुए यह कविता बरबस याद आई)  

1857 : सामान की तलाश

1857 की लड़ाइयाँ जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयाँ हैं


ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर गलती अपनी ही की हुई लगती है
सुनायी दे जाते हैं ग़दर के नगाडे और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी


हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो


पर यह उन 150 करोड़ रुपयों के शोर नहीं
जो भारत सरकार ने `आजादी की पहली लड़ाई' के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफी माँगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
कुर्बान करने को तैयार है


यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बन्किमों और अमीचंदों और हरिश्न्द्रों
और उनके वंशजों ने
जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंद्रों, सय्यद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलिशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल बाद सुभद्रा को ही आयी


यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?


1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है


लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्ही और हथियारों से
कई दफे तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नज़फगढ़ की तरफ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावारपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे


कुछ अपनी बताओ


क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय। 


-असद ज़ैदी




Tuesday, May 8, 2012

गरीब अब हमारे साथ नहीं हैं


-मार्ज पियर्सी  
अब कोई गरीब नहीं रहा
सुनो नेताओं का बयान.
हम देख रहे हैं उन्हें बिलाप करते
उस मध्यवर्ग के लिए
जो सिकुड़ रहा है.

गरीब इस तरह धकेले गए
गुमनामी के गर्त में
कि बयान करना मुमकिन नहीं.

बिलकुल वही बर्ताव
जो कभी कोढियों के साथ होता था,
जहाज में ठूंस कर भेजते थे काला पानी,
यादों से परे सड़ने को धीरे-धीरे.

अगर गरीबी रोग है तो इसके शिकार लोगों को
अलग रखो सबसे काट कर.
सामाजिक समस्या है तो उन्हें
कैद करो ऊँची दीवारों के पीछे.

मुमकिन है यह आनुवंशिक रोग हो-
अक्सर शिकार हो जाते हैं वे आसानी से
रोक-थाम होने लायक रोगों के.

खिलाओ उन्हें कूड़ा-कचरा कि वे मर जाएं
और तुमको खर्च न करना पड़े एक भी कौड़ी
उनके दिल के दौरे या लकवा के इलाज पर.

मुहय्या करो उन्हें सस्ती बंदूकें
कि वे क़त्ल करें एक-दूजे को
तुम्हारी निगाहों से एकदम ओझल.
झोपड़पट्टियाँ ऐसी ही खतरनाक जगहें हैं.

ऐसे स्कूल हो उनके लिए जो उन्हें सिखाए
कि वे कितने बेवकूफ हैं.
लेकिन हमेशा यह दिखावा करो
कि उनका वजूद ही नहीं है,
क्योंकि वे ज्यादा कुछ खरीदते नहीं,
ज्यादा खर्च नहीं करते,
नहीं देते तुमको घूस या चंदा.

उनकी बोदी बचत नहीं है विज्ञापनों का निशाना.
वे असली जनता नहीं है
बहुराष्ट्रीय निगमों की तरह. 



(मर्ज पियर्सी के अब तक अठारह कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. यह कविता मंथली रिव्यू से साभार ले कर अनूदित और प्रस्तुत किया गया है. अनुवाद- दिगम्बर)