Tuesday, April 16, 2013

पता है, आधार क्यों अनिवार्य नहीं है?


-राम कृष्णास्वामी 

आधार/एकल पहचान पत्र (यूआईडी)का विरोध कर रहे आंदोलनकारी पिछले तीन सालों से यह दलील दे रहे हैं कि यह सांप्रदायिक हमले की और ले जा सकता है, गैरकानूनी प्रवासियों की मदद कर सकता है, निजता में दखलंदाजी कर सकता है, असंसदीय है, इसे संसद से स्वीकृति नहीं मिली है, गैरकानूनी है, इत्यादि. फिर भी एकल पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) और संप्रग नेतृत्व द्वारा इन सभी आपत्तियों की अनसुनी की गयी.

साथ ही, आधार अनिवार्य नहीं है और इसीलिए कहा गया कि ये आपत्तियाँ अमान्य हैं. मध्यम और उच्च वर्ग के भारतीय यूआईडी की बहस पर चुप्पी साधे रहे, क्योंकि इससे उनके ऊपर जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता. यूआईडी नामांकन केन्द्रों पर लोगों की लंबी कतारों को देखने से इस धारणा की पुष्टि होती है.

नंदन नीलकानी और यूआईडी महानिदेशक आर एस शर्मा ने बार-बार राष्ट्र को कहा कि यूआईडी, जिसे अब आधार कहा जाता है, बाध्यकारी नहीं है. फिर भी, वे कहते हैं कि एक समय बाद यह सर्वव्यापी भी हो सकता है, जब सेवा देने वाली संस्थाएं सेवा लेने के लिए इसे अनिवार्य बनाने पर जोर डालें. नंदन नीलकानी के ही शब्दों में- “हाँ, यह स्वैच्छिक है. लेकिन सेवा देनेवाले इसे बाध्यकारी बना सकते हैं. आने वाले समय में, मैं इसे अनिवार्य नहीं कहूँगा. इसकी जगह मैं कहूँगा कि यह सर्वव्यापी हो जायेगा.”

जबसे भारत सरकार ने गरीब और हाशिए पर धकेल दिये गये लोगों के लिए एकल पहचान संख्या के विचार से खेलना शुरू किया, तभी से राष्ट्र को यही बताया जाता रहा कि यह बाध्यकारी नहीं है.
कभी इस पर आश्चर्य हुआ कि क्यों?

एक सवाल आन्दोलनकारियों ने कभी नहीं पूछा कि “आधार अनिवार्य क्यों नहीं है?”

इसका कारण बहुत साफ़ है और लगातार हम सब की आँखों में घूरता रहा है, फिर भी शायद किसी ने यह सवाल  नहीं उठाया. आज क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, उस पर यह सवाल कुछ और रोशनी डालता है.

सरसरी तौर पर देखने से ही इन दोनों मंसूबों में भारतीय इतिहास के सबसे विद्वान मुर्ख तुगलक की प्रतिध्वनि सुनाई देती है. इस तरह के मंसूबों का मकसद महान राष्ट्र का निर्माण करना नहीं होता, वास्तव में ये कंगालों की पीढ़ी तैयार करने का अचूक तरीका हो सकते हैं. गरीबी तब तक “अच्छी” थी जब तक ग़रीबों में उससे संघर्ष करने और ऊपर उठने की गरिमा कायम थी. जबकि कंगालीकरण उस चेतना और आत्म-गौरव को ही मार देगा जो एक अरब से भी अधिक आबादी वाले एक राष्ट्र के कायम रहने और आगे बढ़ने के लिए बहुत ही जरूरी है.

मानव जाति का इतिहास गवाह है कि जो लोग मालिक की स्थिति में थे, वे हमेशा अपने गुलामों के लिए किसी न किसी तरह का पहचान-चिन्ह चाहते थे. सिर्फ गुलाम और उसके परिवार का नाम लिखना ही पर्याप्त नहीं था. गुलामों को नाव में लादते समय मालिक उनकी बाँहों को दाग कर कोई चिन्ह बना देते थे. रूसी साम्राज्य के ज़माने में कतोर्श्निकी (सार्वजनिक गुलामों) को भयानक तरीके से चिन्हित किया जाता था- उनके ललाट और गाल पर  गुलाम शब्द गोद कर उस पर बारूद रगड़ दिया जाता था. कई देशों में गुलामों का सिर मूड कर सिर्फ एक चुटिया छोड़ दी जाती थी. सिर मूडना पुंसत्व-हरण, यानी मर्दानगी, सत्ता और आजादी छीन जाने का प्रतीक था. वर्चश्व के संबंधों के सबसे चरम रूपों में से एक है गुलामी, जिसमें मालिक के लिए सम्पूर्ण सत्ता और गुलाम के लिए पूरी तरह सत्ताहीनता की सारी हदें पार कर ली जाती हैं.

भारत में, वर्तमान सन्दर्भ में राजसत्ता “मालिक” है जो कहती है कि ग़रीबों को जिन्दा रहने के लिए सिर्फ 32 रुपया ही काफी है, जबकि पूँजीवादी मालिक 500 की थाली का खर्च उठा सकते हैं. भारतीय जनता “गुलाम” है जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करती है, जिनको कहा गया है कि जब तक तुम्हारे पास ऊँगली की छाप सहित  एक नंबर नहीं है, तब तक तुमको सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान से तीन रुपये किलो चावल पाने का हक नहीं है. भारत में एक गुलाम सामाजिक रूप से मृत प्राणी है, जिसकी पहचान मालिक द्वारा जारी की गयी एक संख्या से की जा सकती है, न कि उसके पिता, माता या दुनिया के साथ जोड़ने वाली कोई दूसरी सामाजिक कड़ी से.

यह सवाल अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं से पूछा जाता रहा है कि “आपको निजता के बारे में परेशान होने की क्या जरूरत है, अगर आपके पास छुपाने के लिए कुछ है ही नहीं?” इसी सिद्धांत से यह बात भी तो निकलती है कि “जिन लोगों के पास छुपाने के लिए कुछ हो, वे निश्चय ही कोई ऐसी विशिष्ट पहचान संख्या नहीं चाहते जो उनके जैविक मापकों, जैसे ऊँगली की छाप या पुतलियों के फोटो से जुड़ा हो.”

हाल ही में किये गये स्टिंग ऑपरेशन से पता चला कि कई बैंक भ्रष्ट लोगों को बिना उनकी पहचान खोले, उनकी हराम की काली कमाई सफ़ेद करने की सहूलियत मुहैय्या करते हैं. कमाल है कि बैंकर काला धन सफ़ेद बनाने में भ्रष्ट लोगों की इतनी आसानी से मदद करते है. अब कल्पना कीजिए कि भारत के भ्रष्ट लोग आधार को अनिवार्य बनाये जाने पर क्या प्रतिक्रिया देंगे. कानून का पालन करवाने वाली संस्थाएं छुपाये गये धन को बेनकाब करने में आधार संख्या और उससे सम्बंधित जैविक माप का इस्तेमाल करेंगी और वह भी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि स्विस बैंकों और सिंगापुर के बैंकों में भी, क्योंकि आजकल सिंगापुर गैरकानूनी धन छुपाने वालों का नया स्वर्ग बन गया है.

अगर समय के साथ आधार को बाध्यकारी बना दिया गया, तो इससे सम्बंधित जैविक माप का इस्तेमाल सारे भ्रष्ट नौकरशाहों, राजनेताओं और पूँजीपतियों का भंडाफोड करने में हो सकता है. तब उनकी हालत खस्ता हो जायेगी. तय है की सरकार ऐसे दानव को सुलभ बनाना नहीं चाहती. इसीलिए आधार बाध्यकारी नहीं है. इसलिए कार्यकर्ताओं को  विशिष्ट पहचान संख्या प्राधिकरण के अध्यक्ष और संप्रग सरकार को खुली चुनौती देनी चाहिए कि अगर हिम्मत है तो वे आधार को सबके लिए बाध्यकारी बनाएँ और देश को भीतर से खोंखला कर रहे इन कीड़ों को नेस्तनाबूद करने में मदद करें.

नीलकानी महोदय, एक बार आपने पूछा था कि “मैं क्या हूँ? कोई विषाणु?”

आधार को सभी भारतीयों के लिए बाध्यकारी बना कर, चाहे अमीर हो या गरीब, आप साबित करो कि विषाणु नहीं हो, और दिखाओ कि तुम्हारे “कल्पना का भारत” राष्ट्र की सच्ची सेवा का प्रयास है.

जाहिर है कि आप एक ऐसी व्यवस्था मुहय्या नहीं करना चाहते जहाँ सभी लोग बराबर हों, बल्कि कुछ लोगों को  ज्यादा बराबर बनाना चाहते हैं, जिन्हें आधार को नकारने का अधिकार हो. लेकिन पक्के तौर पर जान लीजिए कि जिस दिन आप का प्राधिकरण और भारत सरकार आधार को बाध्यकारी बनती है, उसी दिन यह राष्ट्र, यानी धनाढ्य और शक्तिशाली वर्ग आप लोगों को विशिष्ट पहचान संख्या का असली रंग दिखा देगा.

एक राष्ट्र के रूप में हम सब एकजुट हो कर इस सरकार से सवाल कर सकते हैं—

“आधार बाध्यकारी क्यों नहीं है?”

धनवानों और वंचितों में भेदभाव करके आधार एक नयी तरह की जाति व्यवस्था क्यों बना रही है, जो पहले से ही खंडित देश को और अधिक तोड़ने का काम करेगी?

आधार इसलिए बाध्यकारी नहीं है, ताकि इसका फायदा उठाते हुए नीच कोटि के अपराधी, जैसे हत्यारे, बलात्कारी, गबन करने वाले, टैक्स चोर, आयकर जालसाज़, भ्रष्ट अफसर और नेता, और यहाँ तक कि कोई आतंकवादी भी बेधड़क कानून को ठेंगा दिखाते रहें.
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आधार का विरोध करने वाले लोगो के कुछ मशहूर कथन—

“विशिष्ट पहचान योजना भारतीय नागरिकों की निजता छीन लेगी” – मैथ्यू थॉमस

“निजता ऐसी चीज नहीं जिसे लोग बिना इससे वंचित हुए महसूस कर सकें. इसे खत्म कर दो और आप मनुष्य होने के लिए सबसे जरूरी चीज को नष्ट कर देंगे.” – फिल बूथ, नो टू आई डी

“आधार परियोजना भारतीय संविधान को मुर्दा दस्तावेज में तब्दील कर देगी” – एस जी वोम्बातकेरे
“यूआईडी सांप्रदायिक हमले में सहायक होगा.” – अरुणा राय और निखिल डे, राष्ट्रिय सलाहकार समिति के सदस्य

“आधार बाध्यकारी नहीं है – यह तो बस स्वैच्छिक “सहूलियत” है. इसके प्राधिकरण की टिप्पणी में यह जोर देकर कहा गया है कि “पंजीयन करवाना बाध्यकारी नहीं होगा.” लेकिन एक चाल चली गयी है- “...जिन सहूलियतों और सेवाओं को यूआईडी से जोड़ा जाएगा वे इस संख्या की माँग को सुनिश्चित कर सकते हैं.” यह किसी गाँव के कुँए में जहर घोल कर उस गाँव वालों पानी की बोतल बेचने और यह दावा करने के सामान है कि लोग स्वेच्छा से पानी खरीद रहे हैं. अगला वाक्य भी अमंगलकारी है – “हालाँकि यह सरकार और रजिस्ट्रार को इस बात से रोकेगा नहीं कि वे पंजीयन को अनिवार्य बनायें.” – जिन द्रेज, अर्थशास्त्र के मानद प्रोफ़ेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, राष्ट्रिय सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य.

“नीलकानी का रिपोर्ट करने का तौर-तरीका इतिहास में अभूतपूर्व है, वे सीधे प्रधान मंत्री को रिपोर्ट करते हैं, और इस तरह सरकार के भीतर के सभी नियंत्रणों और संतुलनों को दरकिनार करते हैं.” – गृह मंत्री चिदंबरम

“यूआईडी एक कारपोरेट घोटाला है, जो सुचना प्रद्योगिकी क्षेत्र में अरबों डॉलर झोंक रहा है.” – अरुंधती राय

“अगर सरकार इस देश को बेच रही है तो हम सबको कम से कम यह जानना चाहिए कि वह किसको बेच रही है.” – वीरेश मलिक 
    
उँगलियों की छाप का सबसे प्रबल विरोध करने वाला कोई और नहीं, बल्कि खुद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे, जिन्होंने कहा था कि “जेनेरल स्मट के नए क़ानून के बारे में ...हम पहले ही साफ़ हो लें. अब सभी भारतीयों की उँगलियों के छाप लिए जायेंगे...अपराधियों की तरह. चाहे मर्द हों या औरतें. ईसाई विधि से की गयी शादी के अलावा कोई भी शादी वैध नहीं होगी. इस क़ानून के तहत हमारी पत्नियाँ और माताएँ वेश्या हैं. और यहाँ हर मर्द हरामी है.” 

लेकिन आज के शासकों में से आज कौन है जो महात्मा गांधी को याद करता है, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने क्या कह था, यह तो बहुत दूर की बात है.  

(काफिला डॉट ऑर्ग से आभार सहित. अनुवाद - दिगम्बर) 

  

Saturday, April 6, 2013

उत्तरी कोरिया में युद्ध टालने का कर्तव्य

फिदेल कास्त्रो - फोटो राइटर से साभार


-फिदेल कास्त्रो

आज के दौर में मानवता जिन बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही है, मैंने उनकी चर्चा कुछ दिन पहले ही की थी. हमारी धरती पर बौद्धिक जीवन लगभग 2,00,000 वर्ष पहले उत्पन्न हुआ था, हालाँकि नयी खोजों से कुछ और ही बात का पता चला है.

हमें बौद्धिक जीवन और उस सामान्य जीवन के अस्तित्व के बीच भ्रमित नहीं होना चाहिए, जो अपने शुरुआती रूप में हमारे सौर मंडल के अंदर करोड़ों साल पहले से मौजूद था.

दरअसल पृथ्वी पर जीवन के अनगिनत रूप मौजूद हैं. दुनिया के अत्यंत जानेमाने वैज्ञानिकों ने बहुत पहले ही अपनी श्रेष्ठ रचनाओं में इस विचार की कल्पना की थी कि 13.7 अरब वर्ष पहले ब्रह्माण्ड की सृष्टि के समय जो महा विस्फोट हुआ था, उस समय उत्पन्न हुई ध्वनि को पुनरुत्पादित किया जा सकता है.

यह भूमिका काफी विस्तृत होती, लिकिन यहाँ हमारा मकसद कोरयाई प्रायदीप में जिस तरह की परिस्थिति निर्मित हुई है, उसमें एक अविश्वसनीय और असंगत घटना की गंभीरता को व्याख्यायित  करना है, जिस भौगोलिक क्षेत्र में दुनिया की लगभग सात अरब आबादी में से पाँच अरब आबादी रहती है.

यह घटना अब से 50 वर्ष पहले, 1962 में क्यूबा के इर्द-गिर्द उत्पन्न अक्टूबर संकट के बाद नाभिकीय युद्ध की गंभीर चुनौती से मिलती-जुलती है.

1950 में वहाँ (कोरियाई प्रायदीप में) एक युद्ध छेड़ा गया था जिसकी कीमत लाखों लोगों ने अपनी जान देकर चुकायी थी. अमरीका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी शहरों के निहत्थे लोगों पर दो नाभिकीय बम गिराए जाने के कुछ ही सेकण्ड के अंदर लाखों लोगों की या तो मौत हुई थी या वे विकिरण के शिकार हुए थे जबकि इस घटना के महज पाँच साल बाद ही कोरिया में युद्ध थोपा गया था.

उस युद्ध के दौरान जेनरल डगलस मैकार्थर ने कोरिया जनवादी जन गणराज्य पर भी नाभिकीय हथियारों का इस्तेमाल करना चाहा था. लेकिन हैरी ट्रूमैन ने इसकी इजाजत नहीं दी थी.
इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि चीन ने अपने देश की सरहद से लगे एक देश में अपने दुश्मन की सेना को पैर ज़माने से रोकने के प्रयास में अपने दस लाख बहादुर सैनिकों को गवाँ दिया था. सोवियत सेना ने भी अपनी ओर से हथियार, वायु सैनिक सहयोग, तकनीक और आर्थिक मदद दी थी.

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐतिहासिक व्यक्ति, अत्यंत साहसी और क्रन्तिकारी नेता किम इल सुंग से मिला था. अगर वहाँ युद्ध छिड़ गया तो उस महाद्वीप के दोनों ओर की जनता को भीषण बलिदान देना पड़ेगा, जबकि उनमें से किसी को भी इससे कोई लाभ नहीं होगा. कोरिया जनवादी जन गणराज्य हमेशा से क्यूबा का मित्र रहा है तथा क्यूबा भी हमेशा उसके साथ रहा है और आगे भी रहेगा.

अब जबकि उस देश ने वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियाँ हासिल कर ली है, तब हम उसे उन तमाम देशों के प्रति उसके कर्तव्यों की याद दिलाना चाहेंगे, जो उसके महान दोस्त रहे हैं और उसका यह भूलना अनुचित होगा कि इस तरह का युद्ध खास तौर पर इस ग्रह की सत्तर फीसदी आबादी को प्रभावित करेगा.

अगर वहाँ इस पैमाने की लड़ाई फूट पड़ती है, तो दूसरी बार चुनी गयी बराक ओबामा की सरकार ऐसी छबियों के सैलाब में डूब जायेगी जो उनको अमरीका के इतिहास के सबसे मनहूस चरित्र के रूप में प्रस्तुत करेंगे. युद्ध को टालना उनका और अमरीकी जनता का भी कर्तव्य बनता है.

फिदेल कास्त्रो रुज
4 अप्रैल, 2013 

(मूल अंग्रेजी लेख dianuke.org से आभार सहित. अनुवाद- दिगम्बर)