Sunday, December 4, 2011

डरबन जलवायु सम्मेलन : अडंगेबाज देशों की धींगामुश्ती

                                                             - माइकल जैकोब्स

(क्वेटो सम्मेलन से लेकर कोपेनहेगन और अब डरबन में भी जलवायु वार्ताओं के दौरान साम्राज्यवादी देशों का रवैया टालमटोल रहा है. जिन देशों ने का बेपनाह दोहन करके उसे कबही की गर्त में धकेल दिया, वे अरब उसे बचने के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं. और पूरी मानवता का विनाश करने पर आमादा हैं. जहाँ एक-एक दिन भरी पद रहा हो वहाँ ये साल डर साल की मोहलत लेना कहते हैं. इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत है यह लेख.)
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध
मनोवैज्ञानिकों ने जब ज्ञान-वैषम्य (cognitiv dissonance) की परिघटना, यानी एक ही समय दो परस्पर बातों पर यकीन करने की क्षमता को पहचाना तो शायद वे अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन समझौतों की व्याख्या कर रहे थे.
केवल इसी महीने, दो आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने ध्यान दिलाया है कि दुनिया के पास अब कुछ ही वर्ष बचे हैं जिसके भीतर खतरनाक ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए पर्याप्त कार्रवाई शुरू कर देनी होगी.
संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम ने कार्बन उत्सर्जन की खाई पाटने सम्बंधी जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है उसके अनुसार अगर सभी देश 2020 तक अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को अधिकतम सीमा तक लागू कर दें, तब भी कुल उत्सर्जन उस लक्ष्य से अधिक होगा, जो संयुक्त राष्ट्र संघ ने ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने देने के लिए निर्धारित किया है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि उत्सर्जन की इस खाई को पाटना है तो और भी आगे बढ़कर कार्रवाई करने की जरूरत है.
इसी समय अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने चेतावनी दी है कि अब दुनिया के पास पेट्रोलियम पदार्थों की जगह कम कार्बन उत्सर्जन वाली ऊर्जा का इस्तेमाल और ऊर्जा कुशलता की दिशा में गंभीर शुरुआत करने के लिए केवल पांच वर्ष का समय है. 2017 तक जरुरी निवेश करने में असफलता, भविष्य में अत्यधिक उत्सर्जन की जकड़बंधी को इस हद तक पहुंचा देगी कि 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करना असंभव हो जायेगा.
इसके बावजूद डरबन में संयुक्तराष्ट्र जलवायु वार्ता में शामिल प्रतिनिधि इस बात पर तर्क-वितर्क कर रहे हैं कि नए दौर की समझौता-वार्ताएँ 2015 से पहले शुरू हो भी पाएंगी या नहीं. कुछ देश तो लगता है कि 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को ही कूड़ेदान में फेंक देना चाहते हैं, भले ही वे इस पर सहमति जताने का शब्दजाल फैलाते हों.
अलग-अलग देश अपने निकम्मेपन को छुपाने के लिये गड़े गए इस झूठे आरोप के आधार पर अपना दृष्टिकोण तय कर रहे हैं की जलवायू वार्ताएँ हमेशा ही विकसित बनाम विकासशील देशों के मुद्दे पर जाकर अटकती रही है. इस तर्क-वितर्क के एक छोर पर वे देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के आगे सबसे अधिक लाचार हैं- छोटे द्वीप और अल्प विकसित राष्ट्र और यूरोपीय संघ. ये देश चाहते हैं कि नए वैधानिक सहमति  को लेकर समझौते की शुरुआत अगले साल हो जाये, 2015 तक निष्कर्ष निकल आये और उसके बाद जितनी जल्दी संभव हो, उन्हें लागू कर दिया जाये (यूरोपीय संघ ने कहा है कि हद से हद 2020 तक). दूसरा छोर जो इस बात की वकालत कर रहा है कि नयी वार्ताएँ 2015 के बाद ही शुरू होनी चाहिए, वह परंपरागत विकसित देशों में फिसड्डी रहे- अमरीका, कनाडा, रूस और जापान तथा दो बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाएं चीन और भारत का एक असंभव सा गठजोड़ है.
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध
देर करने वाले दलील देते हैं कि एक नए चरण की वार्ताएँ करने का अभी समय नहीं आया है. एक साल पहले कानकुन में अंतिम दौर की वार्ता समाप्त होने के बाद, आज की प्राथमिकता उन निर्णयों को लागू करना है जिन पर सहमति बनी है. उनका कहना है कि देशों ने अभी-अभी तो अपने घरेलू उत्सर्जनों में कटौती की योजनाएँ लागू करना शुरू किया है. इनमें से अधिकांध देश निम्न कार्बन और हरित विकास की नीतियों को अपनाने के लिए जूझ रहे हैं, इसलिए वे नए समझौतों के बारे में सोचने के लिए तैयार नहीं हैं.
मौजूदा आर्थिक वातावरण में 2020 के लिए नयी वचनबद्धता पर सहमति की सम्भावनाएं लगभग नहीं के बराबर हैं. तर्क यह दिया गया है कि संयुक्तराष्ट्र 2013-15 में होने वाले 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य की समीक्षा के लिए पहले ही वचनबद्ध है जो उसके बाद के नए समझौतों के लिए उपयुक्त आधार प्रदान करेगा (एक भारतीय प्रतिनिधि ने डरबन में कहा कि इस बात का फैसला करने के लिये कि क्या तथ्यत: कोई उत्सर्जन की खाई है भी या नहीं, 2014 में इंटर गवर्मेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की 2014 में अपनी अगली रिपोर्ट आने तक दुनिया को इंतजार करना चाहिये.) देर करने वाले समूह में शामिल कई देशों के लिए ये तर्क-वितर्क केवल इस बात को ढकने का बहाना भर है कि वे किसी नयी वैधानिक सहमति के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं हैं.
क्वेटो को नकारने वाले (अमरीका, जिसके साथ अब कनाडा भी जुड़ गया) किसी भी तरह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी के बंधन को नापसंद करते हैं, जबकी चीन और भारत उस तारीख को टालकर आगे बढ़ाने की माँग कर रहे हैं, जिस दिन से ये समझौते लागू होने हैं. हालाँकि इस बात का जवाब किसी के पास नहीं कई कि जिस 2 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को सबने गले लगाया, उसे देर करते जाने पर कैसे हासिल किया किया जा सकता है.
सच तो यह है कि इस बात को लेकर ‘तत्काल वार्ता शुरू करो’ खेमे के भीतर भी असहमति है. छोटे द्वीप और अल्पविकसित देश चाहते हैं की कोई भी अवधि केवल अगले पांच वर्ष (2013-17) तक बढ़ायी जानी चाहिये और नए चरण के लक्ष्य 2018 में शुरू हो जाने चाहिये. लेकिन यूरोपीय संघ को अपने घरेलू जलवायु नीतियों के विशाल और नाजुक ढांचे को दुबारा शुरू करने से नफ़रत है जो सभी 2020 से जुड़े हुए हैं. उन्हें भय है कि इन्हें कड़ा करने के बनिस्बत सुलझा लेने की सम्भावना अधिक है.
यह तय है कि समाधान इस बात में निहित है कि 2013-15 के लिए निर्धारित संयुक्त राष्ट्र समीक्षा, कितनी वृहतर तात्कालिक महत्वाकांक्षा उत्पन्न कर पाती है.
डरबन सम्मेलन में शामिल विभिन्न पक्षों के भीतर इस बात पर अभी तक मतभेद हैं की समीक्षा आखिर क्या बाला है. कुछ इसे महज एक रिपोर्टिंग प्रक्रिया के रूप में देखते हैं कि अलग-अलग देश अपनी वचनबद्धता को लागू करने के लिए क्या कर रहे हैं. लेकिन दूसरे इसे इस आकलन की सम्भावना के रूप में देखते हैं कि 2 डिग्री सेल्सियस वास्तव में सही वैश्विक लक्ष्य है भी या नहीं (छोटे द्वीप की सरकारें चाहती हैं कि यह 1.5 डिग्री सेल्सियस होना चाहिये) और उत्सर्जन में कमी लाने के लिए मिल-जुल कर प्रयास कैसे किया जा सकता है. यह न केवल 2025 और 2030 के लिए नयी वचनबद्धताएं निर्धारित करने की अनुमति देगा- जो निश्चय ही किसी नये लक्ष्य- क्वेटो प्रोटोकॉल के नए संसकरण के लिए आधारशिला का काम करेगी, बल्कि 2020 के लिए की गयी वचनबद्धता के लिए मजबूती प्रदान करेगी. इस बात की सम्भावना बहुत ही कम है कि फ़िलहाल कुछ हो पायेगा.
लेकिन 2015 तक, जब हो सकता है कि बदतरीन आर्थिक संकट (शायद) खत्म हो जाये और नयी आईपीसीसी रिपोर्ट एक बार फिर दुनिया को उस खतरे के प्रति आगाह करे जो जलवायु परिवर्तन के चलते उत्पन्न हो रहा है, उम्मीद है की शायद कुछ हो पाए.
(लेखक : माइकल जैकोब्स, लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में जलवायु परिवर्तन के अतिथि प्राध्यापक हैं.द हिन्दू 3 दिसम्बर 2011 में प्रकाशित. क्लाइमेट टाक्स : ‘डिलेयर कंट्रीज’ फ्लेक्स मसल्स का हिन्दी अनुवाद)       



Wednesday, November 30, 2011

खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत : विनाश को बुलावा

 -दिगम्बर
दिल्ली में फेरी-खोमचे वालों का प्रदर्शन : फोटो -द हिन्दू 
मनमोहन सिंह सरकार ने आखिरकार खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत दे दी। सरकार का यह फैसला इस कारोबार से अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले करोड़ों परिवारों के लिए तबाही और बर्बादी का फरमान है। अनेक ब्राण्ड वाले खुदरा व्यापार में पहले विदेशी पूँजी का प्रवेश वर्जित था, वहाँ अब 51 फीसदी पूँजी निवेश के साथ विदेशी नियंत्रण की छूट हो गयी। एक ब्राण्ड वाली दुकानों में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा 51 फीसदी थी जिसे हटा कर अब 100 फीसदी पूँजी निवेश की इजाजत दे दी। विपक्षी पार्टियों और खुद अपने ही गठबन्धन के कुछ सहयोगी पार्टियों के विराध को पूरी तरह नजरन्दाज करते हुए सरकार ने यह फैसला मंत्रीमंडल की बैठक में लिया। संसद का सत्र जारी होने के बावजूद उसने इस मुद्दे पर बहस चलाने की औपचारिकता भी पूरी करना भी जरूरी नहीं समझा। सरकार की साम्राज्यवाद परस्ती और विदेशी पूँजी के प्रति प्रेम को देखते हुए यह कोई अचरज की बात नहीं।
खुदरा व्यापार में विदेशी सरमायादारों की हिस्सेदारी और नियंत्रण की पूरी तरह इजाजत देने के लिए सरकार पर लम्बे अरसे से विदेशी दबाव पड़ रहा था। अमरीका और यूरोप में मंदी और संकट के गहराते जाने के साथ ही यह बेचैनी और भी बढ़ती गयी। जॉर्ज बुश की भारत यात्रा के समय दुनिया का विराट खुदरा व्यापारी कम्पनी वालमार्ट का प्रतिनिधि भी यहाँ आया था और दोनों देशों के पूँजीपतियों के साझा प्रतिनिधि मंडल ने उस वक्त सरकार को जो माँगपत्र पेश किया था, उसमें खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी निवेश की जबरदस्त सिफारिश की गयी थी। सरकार उस दौरान ही इसके लिए तत्पर थी। लेकिन अपने गठबन्धन के प्रमुख सहयोगी, वामपंथी पार्टियों के विरोध को देखते हुए इस काम को एक झटके में कर डालना उसके लिए आसान नहीं था। इसी लिए सरकार ने इस एजन्डे को टुकड़े-टुकड़े में और कई चरणों में पूरा करने की रणनीति अपनायी। अनाज और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की थोक खरीद-बिक्री में विदेशी पूँजी लगाने की छूट देना, कोटा-परमिट-लाइसेंस की समाप्ति, वैट लागू करके पूरे देश में बिक्री कर को सरल और समरूप बनाना, सीलिंग के जरिये आवासीय इलाकों से दुकानें हटवाना, छोटे-बड़े शहरों में मॉल, मार्केटिंग कॉमप्लेक्स और व्यावसायिक इमारतों के लिए पूँजीपतियों को सस्ती जमीनें मुहैया कराना और ऐसे ही ढेर सारे उपाय इसी दिशा में उठाये गये कदम हैं। इसी के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के उपभोक्ता वस्तुओं के थोक व्यापार, रखरखाव, भंडारण, कोल्डस्टोरेज, फूड प्रोसेसिंग, माल ढुलाई और आपूर्ति जैसे खुदरा व्यापार के लिए जरूरी और सहायक कामों में सरकार ने सौ फीसदी विदेशी पूँजी निवेश की पहले ही इजाजत दे दी थी।
सरकार की इन्हीं मेहरबानियों का लाभ उठाते हुए दैत्याकार अमरीकी बहुराष्ट्रीय खुदरा व्यापारी वालमार्ट के 2006 में सुनील मित्तल की कम्पनी भारती इन्टरप्राइजेज के साथ गठजोड़ करके भारत के बाजार में दाखिल होने का ऐलान किया था। चूंकि खुदरा दुकान खोलने की इजाजत विदेशी कम्पनी को नहीं थी। इसलिए वालमार्ट को पृष्टभूमि में रहकर आपूर्ति और अन्य जिम्मेदारियाँ निभानी थी। इन देशी-विदेशी सरमायादारों ने आजादी की 60वीं वर्षगाँठ पर 15 अगस्त 2007 को ही देश के विभिन्न शहरों में लगभग 100 खुदरा बिक्री केन्द्रों की शुरूआत करने का फैसला लिया था।
लगभग पाँच वर्ष पहले ही वालमार्ट ने भारत में अपना बिजनेस डेवलमेन्ट एण्ड मार्केट रिसर्च ऑफिस खोला था। इसका मकसद भारत के खुदरा व्यापार में मुनाफे का अनुमान लगाने के अलावा यहाँ नेताओं, मंत्रियों, आला अफसरों, अर्थशास्त्रिायों और मीडिया से तालमेल बिठा कर खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना था। साथ ही, अमरीकी सरकार भी भारत सरकार पर लगातार इसके लिए दबाव देती रही। इन सारी बातों को देखते हुए सरकार का यह फैसला कोई अप्रत्याशित नहीं।
भारत का कुल खुदरा व्यापार लगभग 25,00,000 करोड़ रुपये है जिसमें भारी हिस्सा छोटे-बड़े किराना दुकान, फड-खोखा, ठेला-खोमचा, हाट-व्यापार या फेरी वालों का है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2009-10 के अनुसार थोक और खुदरा व्यापार में 4 करोड़ 40 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है जो कुल श्रमशक्ति के 10 फीसदी से भी अधिक है। इनमें से बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो स्वरोजगार में लगे हुए हैं। इन लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए तेजी से फलफूल रहे खुदरा व्यापार पर पहले ही बड़ी कम्पनियों के मेगामार्ट, सुपर बाजार और बडे़ मॉल की घुसपैठ शुरू हो गयी थी। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में मित्तल, अम्बानी, टाटा, बिड़ला जैसे इजारेदार घरानों की दिलचस्पी काफी बढ़ी है। इसके बीच कई खुदरा कम्पनियों के विलय और गठजोड़ भी हुए हैं।
खुदरा व्यापार में भारी मुनाफे के लोभ में पिछले कुछ वर्षों से हर छोटे-बड़े शहर में पुराने ढर्रे की दुकानों की जगह चमक-दमक वाले मेगा मार्ट और डिपार्टमेंटल स्टोर खुलने लगे। सुभेक्षा, स्पेंसर, बिग बाजार, विशाल मेगामार्ट, त्रिनेत्र और सुपर रिटेल जैसी संगठित खुदरा व्यापार कंपनियों की भारी कमाई को देखते हुए कई दूसरे इजारेदार घराने भी इस दौड़ में शामिल होने लगे. छोटी पूंजी और अपने परिवार की मेहनत से रोजी-रोटी चलानेवाले छोटे दुकानदारों को उजाड़ने के लिए तो अरबों-खरबों की पूंजी लेकर अखाड़े में उतरने वाले देशी सरमायेदार ही काफी थे. अब खुदरा व्यापार पर निर्भर लोगों को निगलने के लिए सरकार ने खुद अपने ही देश में ‘बेन्तोविले का दानव’ नाम से कुख्यात वालमार्ट जैसी विदेशी कंपनियों को भी बुला लिया.
पांच साल पहले वालमार्ट और भारती के बीच गठजोड़ के बाद खुदरा व्यापार क्षेत्र में पांव पसारने के लिए भारत के बड़े पूंजीपतियों की सरगर्मी को देखते हुए यह लगभग तय था कि सरकार इसे विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोल देगी. टाटा ने आस्ट्रेलिया की कंपनी बुलवर्थस् के साथ गठजोड़ करके क्रोमा नाम से खुदरा दुकानों की शृंखला शुरू की. अम्बानी ने भी रिलाएंस फ्रेश के नाम से खुदरा चेन शुरू की तथा शुभेक्षा, अदानी और अन्य खुदरा कंपनियों के अधिग्रहण का प्रयास किया. पेंटालून रिटेल के किशोर बियानी ने 2007 में 100 नए बिग बाजार खोलने की घोषणा की थी. बिडला ग्रुप ने 172 सुपर बाजारों के मालिक त्रिनेत्र कंपनी का अधिग्रहण किया था. दूसरी ओर केयरफोर, मेंट, मेट्रो और टेस्को भी भारत में अपने संश्रयकारी (कोलेबोरेटर) की तलाश करने में मशगूल थे और उनकी आड़ में अपनी दुकानें भी खोल रहे थे.
मॉल और सुपर बाजार का फैलता जाल 
विदेशी बहुराष्ट्रीय खुदरा कंपनियों के मुनाफे का बड़ा हिस्सा विदेशी कारोबार से आता है. 2007 में अमरीकी कंपनी वालमार्ट का विदेशों से आनेवाला मुनाफा 379 अरब डॉलर था जो भारत के कुल खुदरा व्यापार से भी ज्यादा और भारत के सकल घरेलु उत्पाद के एक चौथाई के बराबर बैठता है. भारतीय पूंजीपति इन विराट पूंजी और तकनोलोजी के मालिक कंपनियों के साथ साझेदारी करके अपने देश की लूट में हिस्सा पाने को लालायित हैं.
दुनिया का अनुभव बताता है कि जिन देशों में इन दैत्याकार कंपनियों ने अपना कारोबार फैलाया वहाँ अपनी भारी-भरकम पूंजी और अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति पर इजारेदारी के दम पर खरीद, भण्डारण और वितरण में लगे आपूर्ति शृंखला के तमाम बिचौलियों को तबाह कर दिया. उनके भारी मुनाफे का राज यही है. देशी बिचौलियों को समाप्त करने के बाद उन कंपनियों ने एक तरफ छोटे-मझोले उत्पादकों और दूसरी ओर विशाल उपभोक्ता समूह को दोनों हाथों से लूटना शुरू किया. हमारे देश में पहले ही खेती में घाटा उठाकर आत्महत्या कर रहे किसानों और महँगाई की मार झेल रहे उपभोक्ताओं के ऊपर इस सरकारी फैसले का क्या असर होगा, इसे समझने के लिए हमें मनमोहन सिंह या मोंटेक सिंह अहलुवालिया जितना अर्थशास्त्र पढने की जरुरत नहीं है.
वे हमें बताना चाहते हैं कि विदेशी खुदरा व्यापार कम्पनियाँ यहाँ एक करोड नए रोजगार पैदा करेंगी. वे यह नहीं बताते कि इसकी कीमत उन साढ़े चार करोड़ परिवारों को चुकाना पड़ेगा जिनकी जीविका उन कम्पनियों के आते ही दाँव पर लग जायेगी. ऊँची तकनीक और कम मजदूर रखनेवाली इन कंपनियों का रोजगार के मामले में क्या रिकार्ड है, इसे वालमार्ट के उदहारण से ही समझा जा सकता है. दुनिया के 14 देशों में वालमार्ट के 6200 मेगामार्ट हैं जिनमें 16 लाख लोग काम करते हैं और भारत के कुल खुदरा व्यापारियों के बराबर कमाई करके वालमार्ट को देते हैं. जाहिर है कि ये कम्पनियाँ कुछ लाख लोगों से ही अपना सारा काम करवाएँगी और पहले से रोजगार में लगे करोड़ों लोगों को सडकों पर फेंक देंगी.
अपने ही देश अमरीका में वालमार्ट एक बदनाम कंपनी है जहाँ इसके खिलाफ मुकदमें, विरोध और प्रदर्शनों का सिलसिला चलता ही रहता है. न्यू यार्क और लॉस एंजेल्स के स्थानीय लोगों के विरोध के चलाते वहाँ आज तक उसकी एक भी शाखा खुल नहीं पायी. इंडोनेशिया में वालमार्ट द्वारा उजाड़े गये दुकानदारों ने लगातार उसके ऊपर हमले किये जिसके बाद कंपनी को वहाँ से अपना बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा.
खुदरा व्यापार में उतरने वाले देशी-विदेशी सरमायादारों की प्राथमिकता उत्पादन बढ़ाना और उसका स्तर सुधारना नहीं है. उनका मकसद यहाँ रोजगार के अवसर पैदा करना भी नहीं है. उनकी निगाह 5 करोड़ उच्च मध्यवर्ग और उससे निचले पायदान पर खड़े 10 करोड़ मध्य वर्ग कि ओर लगी है जिन्हें रिझाने के लिए वे वितरण और विक्री की व्यवस्था को अत्याधुनिक और आकर्षक बनाने में लगे हैं. इसीलिए उन्होंने मध्यवर्ग की कुल संख्या, उसकी खरीद क्षमता, अभिरुचियों और जरूरतों पर ढेर सारे शोध और अध्ययन करवाए हैं. इन्हीं मुट्ठी भर लोगों कि माँग के अनुरूप वातानुकूलित मॉल में सजी-धजी चीजें उपलब्ध करने में उनकी दिलचस्पी है. देश की आम जनता जो खरीदने की क्षमता न होने के चलते बाजार की परिधि से बाहर है, वह उनकी कार्यसूची से भी बाहर है.
अमरीका में वालमार्ट के खिलाफ प्रदर्शन  : फोटो -अर्थ फर्स्ट  
ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारत में आने के बाद यहाँ के मुट्ठी भर विश्वासघाती लोगों के साथ दुरभिसंधि करके षड्यंत्रों के जरिये इस देश को गुलाम बनाया था. नयी गुलामी के वर्तमान दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने उस पुरखे को भी मत दे दी है. भारत में प्रवेश से पहले ही उन्होंने यहाँ की सरकार और सरमायादारों के साथ मिलकर षडयंत्रकारी तरीके से अपने अनुकूल कायदे-कानून बनावा लिये. सरकार की पूरी राज मशीनरी उनकी हिफाजत के लिए मुस्तैद है.
लेकिन विदेशी खुदरा व्यापारियों के लिए भारत में पांव पसारना निरापद नहीं. 22 फरवरी 2007 को, जब वालमार्ट का प्रतिनिधि-मंडल खुदरा व्यापार में उतरने की अपनी रणनीति को अंतिम रूप देने भारत आया था, तब दिल्ली, मुंबई और बंगलुरु सहित देश के कई शहरों में खुदरा व्यापारियों, फेरी-खोमचा-ठेले वालों, व्यापारी संगठनों और कई संगठनों ने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किये थे. दिल्ली के वाणिज्य मंत्रालय की तरफ कूच करते प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. हालांकि प्रतिरोध अभी काफी कमजोर है और राजनीतिक पार्टियों का रुख भी औपचारिक और ठंडा है, लेकिन हालात ऐसे ही नहीं बने रहेंगे. आखिर कोई तो हद होगी? लोग कब तक चुपचाप बैठे अपनी बर्बादी का तमाशा देखते रहेंगे?    
   

Monday, November 21, 2011

एक परिवार की कहानी : जो बत्तीस रुपये रोज से अधिक खर्च करता है



अमरपाल/ पारिजात

(योजना आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्र में 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र में 26 रुपये प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खर्च करने वाला परिवार गरीबी रेखा से ऊपर माना जायेगा।
इस 32 रुपये और 26 रुपये में भोजन, आवास, वस्त्र, शिक्षा, स्वास्थ्य और मनोरंजन जैसे सभी खर्चे शामिल हैं। हमने अपने आस-पास के कुछ परिवारों से बातचीत कर उनकी जिन्दगी की हकीकत जानने की कोशिश की। स्थानाभाव के कारण हम उनमें से एक ही परिवार की स्थिति यहाँ दे रहे हैं। बाकी लोगों की कहानी भी लगभग ऐसी ही है।)
अब से 14 साल पहले चंद्रपाल (उम्र- 45 वर्ष) एक लोहा फैक्ट्री में काम करते थे, जहाँ भारी वजन उठाने के चलते उनकी रीढ़ की हड्डी खिसक गयी। तभी से वे कोई भारी काम करने लायक नहीं रहे। उन्हें घर बैठना पड़ा। इलाज के अभाव में वे अब लगभग अपंग हो गए हैं।
चंद्रपाल मूल रूप से खुर्जा (बुलंदशहर) के रहने वाले हैं। जब वह छोटे थे तभी दवा के अभाव में डायरिया से उनके पिता की मौत हो गयी थी। चंद्रपाल बताते हैं कि उनके माता-पिता की दस संताने हुईं, जिनमें से सिर्फ तीन ही बच पायीं। बाकी सभी बच्चे बीमारी और कुपोषण से मर गये। जो बचे रहे उनमें भी बड़े भाई टीबी होने और खुराक न मिलने से मर गए। उनकी माँ ने खेत में मजदूरी करके किसी तरह अपने बच्चों को पाला-पोसा और चंद्रपाल को 12वीं तक पढ़ाया। इसके बाद वे खुर्जा शहर में ही एक लोहे की फैक्ट्री में काम करने लगे। फैक्ट्री में काम दौरान रीढ़ की हड्डी की परेशानी और बेहतर काम की तलाश में वे दिल्ली चले आये।
दिल्ली के पास लोनी में उनका 50 गज का अपना मकान है तीन कमरों का, जिस पर पलस्तर नहीं हुआ है। 1997 में उन्होंने यह जमीन 55 हजार रुपये में खरीदी थी जो अपने खून पसीने की कमाई और खुर्जा का पुश्तैनी मकान बेचकर जुटाया था। उन्होंने अपना सारा पैसा इसी घर में लगा दिया, लेकिन फिर भी मकान अधूरा ही बन पाया। चंद्रपाल और उनका बेटा अब खुद ही उसे थोड़ा-थोड़ा करके पूरा करते हैं। मकान में काम करते हुए ही चंद्रपाल के एक हाथ की हड्डी भी टूट गयी, जो इलाज के बाद भी नहीं जुड़ी। परिवार की आमदनी इतनी नहीं कि ऑपरेशन करवा सकें। ये दर्द अब उनकी जिन्दगी का हिस्सा बन गया है। अब वे हाथ से भी भारी काम करने में अक्षम हैं।
परिवार का खर्च उनकी पत्नी अंगूरी देवी चलाती हैं। वे दिल्ली में किसी सेठ की कोठी पर घरेलू नौकरानी का काम करती हैं। पूरे दिन घर का सारा काम करने के बदले उन्हें हर महीने 5 हजार रुपये मिलते हैं। पिछले 14 साल में केवल एक हजार रुपये की बढ़ोत्तरी हुई। वे सारा पैसा घर में देती हैं। अपने पास एक धेला भी नहीं रखती। इसका कारण बताते हुए कहती हैं कि बाजार में चलते हुए कभी उनका मन ललचा गया तो गलती से वह कुछ खरीद न लें। इसीलिए उनके पास सिर्फ 70 रुपये का रेल पास रहता है, ताकि वे रोज लोनी से दिल्ली आ-जा सकें।
चंद्रपाल के घर में बिजली कनेक्शन नहीं है। किराये पर जनरेटर का कनेक्शन है जो रात को तीन घण्टे बिजली देता है , जिससे 15 वाट का एक बल्ब जलता है। इसके लिए उन्हें 100 रुपये महीना देना होता है। बाकी समय वे ढिबरी से काम चलाते हैं। पीने के पानी का कनेक्शन भी नहीं है। घर में एक हैंडपम्प है। 120 फीट गहरा।  दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में इतनी गहराई पर पीने लायक पानी नहीं मिलता। जगह-जगह बोर्ड लगे हैं कि हैंडपम्प के पानी का प्रयोग पीने के लिए न करें। लेकिन यहाँ तो इसी पानी से काम चलाना पड़ता है।
गंदे पानी की निकासी का कोई इंतजाम नहीं है और न ही गलियों की साफ सफाई का। घर के आगे नाली का पानी बहता है और घर के पीछे सड़ता-बजबजाता पानी का गड्ढा।  परिवार में हरदम कोई न कोई बीमार रहता है। हर महीने इलाज पर औसतन 200 रुपये का खर्चा आता है। जो कुल आमदनी का 4 प्रतिशत बैठता है। चंद्रपाल के टूटे हाथ का इलाज कराना परिवार के बस का नहीं है। वे इस पर सोचते भी नहीं। वे जानते हैं कि सरकारी अस्पताल में ऑपरेशन करवाने पर भी उसमें कम से कम दो महीने की कमाई लग जाएगी।
बीमारी के बारे में चन्द्रपाल ने कहा कि लोनी में किसी को डेंगू नहीं होता। लोगों को सबसे ज्यादा मलेरिया होता है। डेंगू के मच्छर तो साफ पानी में पलते हैं। यहाँ तो पीने के लिए भी साफ पानी नहीं है। घर के आगे-पीछे हमेशा गन्दा पानी भरा रहता है। उसमें तो मलेरिया के मच्छर ही पलते हैं। मच्छर इतने कि घर में बैठ नहीं सकते। बीमारी की जड़ यही सब है।
इस परिवार का मुख्य भोजन आलू की सब्जी या चटनी और रोटी है। अंगूरी देवी अपने मालिक के यहाँ से कभी कोई सब्जी ले आयें, तभी उन्हें सब्जी नसीब होती है। हफ्ते में एक या दो दिन ही घर में सब्जी बनती है।  हमारा देश मसालों के लिए मशहूर है, लेकिन इस घर में हल्दी ,जीरा, धनिया और लाल मिर्च के अलावा और कोई मसाला इस्तेमाल नहीं होता।
चंद्रपाल के लिए फल खरीद पाना मुमकिन नहीं। सालों से परिवार में कोई फल नहीं आया। परिवार में माँस-मछली नहीं बनती। पनीर खाने के बारे में वे सोच भी नहीं सकते।  अंगूरी देवी बताती है की जब से कोठी में काम करने लगीं तब से उन्हें चाय पीने की लत लग गयी। सुबह 6 बजे चाय पीकर ही वह काम पर जाती हैं। इसी बहाने घर में रोज 10 रुपये का 300 ग्राम दूध आता है। अपनी पत्नी की इस बुरी लत से चंद्रपाल खुश हैं क्योंकि इसी बहाने उन्हें भी दूध की चाय मिल जाती है। ईंधन में 3 लीटर मिट्टी का तेल राशन की दुकान से और 4 किलो रसोई गैस ब्लैक खरीद कर इस्तेमाल होता है। खाने के मद में औसतन 3000 रुपये महीने का खर्च आता है जो की कुल आय का 60 प्रतिशत है।
जब हमने उनसे महँगाई के बारे में पूछा कि क्या इससे घर के खर्च पर कोई फर्क पड़ा है, तो वह बेबस होकर बोले ‘‘सरकार गरीबों की दुश्मन हो गयी है। हमसे न जाने किस जनम का बदला ले रही है। महँगाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। पहले एक आदमी काम करता था और पूरा परिवार खाता था। ठीक से गुजारा होता था। लेकिन अब तो महँगाई के मारे सबको काम करना पड़ता है, फिर भी किसी का गुजारा नहीं होता। हमारे सामने वाले परिवार में माँ-बाप और एक लड़की है, तीनों काम करते हैं। माँ-बाप बाहर और लड़की घर पर ही किसी के दो बच्चों की देखभाल का काम करती है। अपने घर का सारा काम भी वही करती है, फिर भी गुजारा नहीं। वे भी हमारे ही तरह हैं।’’
भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 9 गज कपड़े की खपत होती है। चंद्रपाल के परिवार ने पिछले 14 सालों से शायद ही कभी कोई नया कपड़ा खरीदा हो। अंगूरी देवी जिस कोठी पर काम करती हैं वहीं से मिले उतरन को इस्तेमाल करने लायक बना लिया जाता है। यानी कपड़े के मद में वे कुछ भी खर्च नहीं करते।
परिवार की खराब स्थिति के बारे में बात चली तो अंगूरी देवी गुस्से में बोलीं-‘‘अरे भइया क्या करें, कौन अपने बच्चों को अच्छा खिलाना-पिलाना नहीं चाहता। महँगाई ने मार डाला। हमारी जिन्दगी तो नरक बन गयी है। गरीबों का कोई नहीं है। पर क्या करें, भइया जीना तो पड़ता ही है।’’
चंद्रपाल के दो बच्चे हैं बड़ा लड़का सरकारी स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ता है। उसकी फीस 550 रुपये छमाही है। लड़की प्राइवेट स्कूल में 9वीं में पढ़ती है। पहले वे दोनों ही प्राइवेट स्कूल में पढ़ते थे, लेकिन फीस न भर पाने के कारण लड़के को सरकारी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा। सरकार कुल जीडीपी का शिक्षा के मद में जितना खर्च करती है उससे ज्यादा यह परिवार करता है- कुल आय का लगभग 6.2 प्रतिशत और वह भी सबसे घटिया दर्जे की शिक्षा के बदले।
अंगूरी देवी ने बताया कि बच्चे कभी नहीं खेलते। चन्द्रपाल ने बीच में टोका कि पूरी लोनी में खेलने की कहीं  कोई जगह भी है क्या, जो खेलें। और खेल का सामान भी तो  हो। उनका कहना था कि हमारा लड़का पढ़ाई में बहुत होशियार था। लेकिन अब पता नहीं उसे क्या हो गया है, पढ़ने में जी नहीं लगाता। 11वीं में फेल भी हो गया था पिछले साल। (हफ्ते भर बाद पता चला कि उनके लड़के ने पढ़ाई छोड़ दी है और अब कहीं काम ढूँढ रहा है।)
चंद्रपाल बताते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी के साथ 1992 में सिनेमा हॉल में कोई फिल्म देखी थी, वही पहला और आखरी मौका था। चंद्रपाल बहुत साल पहले पोस्टमैन की भर्ती परीक्षा में खुर्जा से लखनऊ गये थे। उसमें भी रेल में किराया नहीं दिया था और रात स्टेशन पर ही बितायी थी, पैसे के अभाव के कारण। यही उनकी जिन्दगी की सबसे लम्बी यात्रा रही।
पति-पत्नी दोनों का मानना है कि आज वह जिस हालत में हैं वह सब बाबा गोरखनाथ की कृपा है, इसलिए महीने में दो बार वे हरियाणा के किसी आश्रम में जाते हैं। इस यात्रा में लगभग 500 रुपये मासिक खर्च आता है। यदि इसे पर्यटन माने (जो है भी) तो इसमें उनकी आय का कुल 10 प्रतिशत खर्च होता है।
मनोरंजन का कोई साधन घर में नहीं है। चन्द्रपाल ने बताया कि ‘‘बहुत समय से एक रेडियो खरीदना चाहता हूँ, लेकिन तंगी की वजह से नहीं खरीद पाया। टीवी तो बहुत बड़ी बात है हमारे लिए, सपने जैसा।’’
उनके घर में 2 टूटी खाट, वर्षों से खराब पड़ा एक 14 इंच का ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी, एक मेज और एक डबल बेड है। टीवी और डबल बेड अंगूरी देवी के मालिक ने बहुत ही सस्ते में दिया था, इसके अलावा मालिक का दिया हुआ एक मोबाइल फोन भी है। इसमें वे हर महीने औसतन 15 रुपये का रिचार्ज करवाते हैं। इस तरह संचार पर उनकी आमदनी का 0.3 प्रतिशत खर्च है। अखबार कभी कहीं दिख गया तो चन्द्रपाल उसे पढ़ लेते हैं। खरीद पाना उनके बस का नहीं।
इस परिवार की प्रति व्यक्ति मासिक आमदनी 1250 रुपये यानी प्रतिदिन 41 रुपये 70 पैसे है जो सरकार द्वारा तय किये गये गरीबी रेखा के पैमाने (960 रुपये) की तुलना में 290 रुपये ज्यादा है। जबकि परिवार के लोग ठीक से खाना भी नहीं खा पाते, भोजन में प्रोटीन, वसा और विटामीन का कोई नामों निशान नहीं, कपड़ा नहीं खरीदते, रहन-सहन का स्तर बहुत ही खराब है, पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं, बीमार पड़ने पर उचित इलाज नहीं करा सकते, बच्चों को पढ़ा नहीं सकते, मनोरंजन के बारे में सोच भी नहीं सकते, त्योहार नहीं मनाते, सर के ऊपर किसी तरह छत तो है लेकिन, दड़बेनुमा, गन्दगी भरे माहौल में वे दिन काट रहे हैं। जाड़े में सीलन और ठण्ड, बरसात में कीचड़, गर्मी में तपिस। चारों ओर बदबू और मच्छर। इस नरक से भी बदतर जिन्दगी की गाड़ी उसी दिन पटरी से उतर जायेगी जिस दिन किसी कारण से परिवार की आय का एक मात्र जरिया, अंगूरी देवी की घरेलू नौकरानी की नौकरी छूट जायेगी।
लेकिन योजना आयोग की नजर में यह परिवार गरीबी रेखा से ऊपर है। चूँकि यह परिवार गरीब नहीं है, इसलिए यह कोई भी सरकारी सहायता पाने का हकदार नहीं है।
अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक 77 फीसदी लोगों की आय प्रतिव्यक्ति 20 रुपये रोज, यानी 600 रुपये प्रतिमाह है। उसकी तुलना में तो इस परिवार की आय दुगुने से भी ज्यादा है। यह सब अकल चकरा देनी वाली बातें हैं। देश में गरीबी का अन्दाजा लगाइये। 
(देश-विदेश पत्रिका के अंक 12 में प्रकाशित)



योजना आयोग ने कहा- गाँव में 26 और शहर में 32 रुपए से ज्यादा खर्च करने वाले गरीब नहीं हैं।
अर्जुन सेनगुप्ता कमिटी ने कहा- 80 करोड़ देशवासी 20 रुपये रोज पर गुजर-बसर करते हैं।
दोनों सही हैं तो देश में गरीबों की कुल संख्या का अंदाजा लगाइए। 80 करोड़? 90 करोड़? 100 करोड़?
आँकड़े निर्मम होते हैं।
आँकड़ों से खिलवाड़ करने वाले जालिम होते हैं।

Wednesday, November 16, 2011

डॉ. कलाम, आपका लेख जितने जवाब नहीं देता, उससे ज्यादा सवाल खड़ा करता है


(नाभिकीय ऊर्जा पूरी दुनिया में विनाश का पर्याय बन चुका है। अमरीका के थ्री माइल्स वैली, रूस के चेर्वोनिल और अभी हाल ही में जापान के फुकुशिमा ने बार-बार यह चेतावनी दी है कि नाभिकीय ऊर्जा मानवता के लिए अत्यन्त घातक है। इससे निकलने वाले विकिरण का प्रभाव मौजूदा पीढ़ी को ही नहीं बल्कि आने वाली असंख्य बेगुनाह पीढ़ीयों को अपंग बनाता रहता है। यह बात जगजाहिर है।
पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश के शासक इन सच्चाइयों की अनदेखी करते हुए नाभिकीय ऊर्जा को हर कीमत पर बढ़़ावा दे रहे हैं। संसद में ‘‘नोट के बदले वोट’’ का खेल खेलकर भी अमरीका के साथ नाभिकीय समझौते को अन्तिम रूप दिया गया। जैतापुर और कुडानकुलम में वहाँ के स्थानीय लोगों द्वारा प्रबल विरोध के बावजूद हर कीमत पर नाभिकीय संयंत्र लगाया जा रहा है।  
पिछले कुछ दिनों से पूर्व-राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम जी कुडानकुलम नाभिकीय प्लांट के पक्ष में अभियान चला रहे हैं। आसपास की जनता लंबे अरसे से इस विनाशकारी परियोजना का विरोध कर रही है। श्री कलाम ने आसपास के गावों के लिए 200 करोड़ रुपये कि एक विकास योजना भी प्रस्तावित की है, जिसका अभिप्राय समझना कठिन नहीं. इस सन्दर्भ में भारत सरकार के पूर्व ऊर्जा सचिव और योजना आयोग के पूर्व ऊर्जा सलाहकार श्री ई.ए.एस. शर्मा का श्री कलाम के नाम यह खुला पत्र।  अनुवाद - सतीश पासवान  )

भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम के नाम पत्र

प्रेषक:
डॉ. ई. ए. एस. शर्मा
पूर्व सचिव (विद्युत ), भारत सरकार
पूर्व सलाहकार (ऊर्जा), योजना आयोग

प्रिय श्री अब्दुल कलम,

मैं नाभिकीय शक्ति पर द हिन्दू में प्रकाशित आपके अति-आश्वासनकारी लेख की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूँ। मैं समझता हूँ कि आप कुडानकुलम के लोगों को इस बात के लिए आश्वस्त करने की हद तक चले गये कि नाभिकीय ऊर्जा ‘‘100 प्रतिशत सुरक्षित है’’। मैं आँकडों की जानकारी के मामले में बहुत ही अनाड़ी हूँ, फिर भी मुझे आश्चर्य है कि कैसे कोई व्यक्ति इतना प्रशंसात्मक दावा कर सकता है, विशेषतया तब जब कि तकनोलोजी से थोड़ा भी परिचित व्यक्ति इस तरह के दावे करने से हिचकेगा!

मैं श्रीकाकुलम, आंध्र प्रदेश का रहने वाला हूँ। मेरे निवास के बहुत ही नजदीक, कोव्वाडा में न्यूक्लियर पावर कारपोरेशन आफ इंडिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल)ने एक बहुत बड़ा नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र का काम्प्लेक्स लगाने का प्रस्ताव रखा है। नाभिकीय ऊर्जा कि सुरक्षा को लेकर मेरी गंभीर आशंकायें हैं। अब जब कि यह मेरे घर के पिछवाड़े ही लगाने जा रहा हैं, मेरी आशंकायें कई गुना बढ़ गयी हैं। जो व्यक्ति ऐसी तकोनोलोजी से प्रभावी होने वालों में शामिल हो उसके मन में ऐसी आशंकायें होना स्वाभाविक है, भले ही कहीं दूर बैठकर लेख लिखने वाले व्यक्ति को, ऐसी आशंकायें किसी हास्य-विनोद की किताबी कल्पना’’ जैसी लगाती हों।

मैं समझता हूँ कि एनपीसीआईएल ने नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र के स्थान के चारों ओर बसे लोगों को चेतावनी देने के लिए उस संयंत्र के इर्द-गिर्द एक जोनिंग प्रणाली स्थापित की है। मैं समझता हूँ कि, ”वर्जित क्षेत्र“, ‘‘विकिरण मुक्त किया गया क्षेत्रऔर आपातकालीन जाँच-पड़ताल क्षेत्र’’ उस संयंत्र के घेरे से 16 किलोमीटर दूर तक फैला हुआ है। श्रीकाकुलम मे रह रहे मेरे परिवार को अभी तक यह सब नहीं बताया गया है। शायद, प्रभावित होने वाले सिरे पर स्थित लोगों को इसकी सूचना देने से पहले ही एनपीसीआईएल संयंत्र के पूरा हो जाने कि प्रतीक्षा कर रहा है। आपका लेख निश्चय ही इस बात पर कूटनीतिक चुप्पी साधे हुए है। शायद एनपीसीआईयल ऐसे तुच्छ तथ्यों को तूल देना नहीं चाहता हो!

आपकी प्रतिष्ठा को ध्यान मे रखते हुए, मैंने आपके लेख को बहुत ही सावधानी से पढकर यह समझने की कोशिश की कि कोव्वाडा नाभिकीय पार्कके बिलकुल नजदीक रहने वाला खुद मैं, कितना सुरक्षित रह पाऊँगा।  एनपीसीआईएल ने इस संयंत्र को स्वच्छऔर हरितदिखाने के लिए उसे कितना खूबसूरत नाम दिया है-नाभिकीय पार्क।"

एक स्थान पर, आपने निम्नलिखित दावा करने कि कृपा की है। 

"नाभिकीय बहस के इर्द-गिर्द एक अन्य दलील यह है कि नाभिकीय दुर्घटना और उसके बाद होने वाला विकिरण केवल उसकी चपेट मे आनेवाली पीढ़ी को ही नुकसान नहीं पहुँचायेगा, बल्कि आनेवाली पीढ़ियों पर भी अपना घातक प्रभाव डालता रहेगा। अगर केवल अटकलबाजी और हास्य-विनोद की किताबी कल्पना की तुलना मे उपलब्ध तथ्यों और वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल को ज्यादा महत्त्व दिया जाय , तो यह दलील हर तरह से एक मिथक साबित होगी।"

इस तरह का बयान देने से पहले निश्चित तौर पर आपने इस विषय पर उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य के सारे स्रोतों  की छानबीन की होगी। मुझे यकीन है कि आपने ऐसा जरूर किया होगा। मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि अनुभव और अटकलबाजी की तुलना में वैज्ञानिक जाँच-परख को ज्यादा महत्त्व दिया जाना चाहिए। लेख का एक-एक वाक्य पढ़ने के बाद मैं निम्नलिखित चिंताओ का निवारण करने मे असमर्थ रहा हूँ, जो अब भी मेरे दिमाग को मथ रही है।

1- आपने नाभिकीय तकनोलोजी की  सुरक्षा से जुड़े मसलों को महज अटकलबाजी कहते हुए दरकिनार कर दिया। लेकिन क्या आपने नाभिकीय संस्थापन से यह पूछने का प्रयत्न किया कि एनपीसीआईएल ने हरेक मौजूदा नाभिकीय संयंत्र के भीतर किसी खास अवयव में खराबी आने के चलते पैदा होने वाली यांत्रिकी की गड़बड़ी से होने वाली दुर्घटना की जटिल सम्भावना का अनुमान लगाने के लिए कभी विश्वस्त अभियांत्रिकी सम्बन्धी अध्ययन कराया? यदि ऐसा नहीं हुआ, तो क्या आप केवल कुछ एक दुर्घटनाओं के अपने मूल्यांकन के आधार पर, जो पिछले कुछ दशकों में घटित हुई हैं, इस निष्कर्ष तक छलांग लगा सकते हैं कि दुर्घटना होने कि संभावना नगण्य है? क्या इस तरह का निष्कर्ष जो अत्यन्त कृत्रिम नमूने पर आधारित हैं और सांख्यिकी के लिहाज से बेहद कमजोर  हैंभ्रामक अनुमान की ओर नहीं ले जाता?

2- आपने कृतज्ञतापूर्वक यह स्वीकार किया है कि विकिरण से प्रभावित होने और कैंसर के खतरे में कुछ सह-सम्बन्ध है। फिर भी आपने रेडीयोएक्टिविटी के दूरगामी हानिकारक प्रभावों की सम्भावना, विशेषकर मानव कोशिकाओं पर इसके दुष्प्रभाव को कम करके आंका है। क्या संयोगवश आपने इस विषय पर उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य कि विस्तृत जाँच-पड़ताल की? क्या आप पूरे आत्म-विश्वास से इस तथ्य को नकार सकते हैं कि लघु-तीव्रता और उच्च-तीव्रता के विकिरण का मानव स्वास्थ्य पर सम्भावित प्रभाव, अनुवांशिकी प्रभाव सहित, के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान में भारी अंतर है? लघु-तीव्रता तक के विकिरण का भी मानव कोशिकाओं पर सम्भावित खतरे एक उदाहरण के तौर मैंने एक लेख संलग्न किया है जो कुछ दिनों पहले द हिन्दूमें उसी तरह छपा था, जिस तरह आपका यह लेख इस प्रतिष्ठित समाचार-पत्र  में छपा था। मुझे उम्मीद है कि आपने स्वास्थ्य पर विकिरण के प्रभाव के बारे में दावे के साथ कहने से पहले वैज्ञानिक साहित्य का सावधानी से अध्ययन किया होगा।

3- नाभिकीय तकनोलोजी के सकारात्मक पहलुओं पर वाक्पटुता के बावजूद आपने इसके नकारात्मक पहलुओं की पूरी तरह अनदेखी की है। मैं इसके कारणों को समझ सकता हूँ। तकनोलोजी के अनेक मामलों में, तकनोलोजी संस्थाएँ, अपनी तकनोलोजी को आगे बड़ाने की बेचैनी में, कीमतों का कम, लेकिन फायदों का अधिक आंकलन करती है। लोक-नीति के मामले में किसी भी व्यक्ति को अनिवार्य रूप से इसके प्रति हमेशा सतर्क रहना चाहिए।

4- क्या आपने अब तक बन्द हुए किसी नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र के आधार पर किसी नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र को बंद करने की कीमत का अनुमान लगाने का प्रयत्न किया? आपने अवसर लागतके बारे मे तो बताया है, लेकिन क्या आपने लम्बे समय तक संचित होने वाले रेडीयोएक्टीव कचरे के प्रबंधन की लगत का भी आंकलन का प्रयास किया? क्या आप जानते हैं कि इसकी लागत कितनी अधिक होगी यह आंकलन लगाना मुश्किल है? चेर्नोबिल को बन्द करने की कीमत का आंकलन कभी नहीं हो पायेगा, क्योंकि उसे कभी भी बन्द नहीं किया जा सकेगा। रूस सरकार दूषित चेर्नोबिल रिएक्टर के चारों तरफ विदेशी वित्तीय सहायता से पत्थर का एक विराट ताबूत बना रही है! फुकुशिमा की क्या कीमत चुकानी पड़ी, आज तक किसी को नहीं पता।

5- आपने ऊर्जा और अर्थव्यवस्था के बीच के सम्बन्धों की बात कही हैं। इस मामले मे आपके विवेक पर सवाल खड़ा करने में मुझे हिचकिचाहट हो रही है। हालाँकि मैं सुनिश्चित नहीं हूँ कि आप ऊर्जा और आर्थिक विकास के ऊपर कुशलता सुधार, माँग प्रबंधन और दूसरे उपायों के प्रभाव से अवगत हैं या नहीं। मुझे उम्मीद है कि इस विषय पर आपने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइन्स के प्रो. अमूल्य रेड्डी से, जब वे जीवित थे, आपको इस विषय पर बातचीत का अवसर मिला होगा। मैं अपने पूरे सामर्थ्य से आपको पेंगुइन प्रकाशन के लेखक एमोरी बी लोविंस की किताब सॉफ्ट इनर्जी पाथ्स: टुवार्ड्स ए ड्यूरेबल पीसपड़ने की सलाह देता हूँ। इस विचारोत्तेजक किताब को पड़कर बहुत लाभान्वित हुआ हूँ।

श्री कलाम, इस पत्र को लिखने का मेरा मकसद किसी भी तरीके से आपके लेख में खोट निकालना नहीं, बल्कि अपनी सच्ची मानवीय चिंताओं को प्रकट करना है। आप एक विद्वान लेखक हैं। लेकिन मेरी जगह बैठे किसी व्यक्ति के लिए या मौजूदा नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र के आस-पास बसे लोगों के लिए जो बात महत्त्वपूर्ण है, वह पूर्व-कल्पित धारणा पर आधारित लेख नहीं, बल्कि वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित तर्क है। मैं भयभीत हूँ कि आपका लेख जितने जवाब नहीं देता उससे ज्यादा सवाल खड़े करता है।

सादर,
आपका,
डॉ. ई. ए.एस. शर्मा
पूर्व सचिव(विद्युत),भारत सरकार
पूर्व सलाहकार(ऊर्जा ),योजना आयोग
विशाखापट्टनम (दिनांक 6-11-11)


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