- माइकल
जैकोब्स
(क्वेटो सम्मेलन से
लेकर कोपेनहेगन और अब डरबन में भी जलवायु वार्ताओं के दौरान साम्राज्यवादी देशों
का रवैया टालमटोल रहा है. जिन देशों ने का बेपनाह दोहन करके उसे कबही की गर्त में
धकेल दिया, वे अरब उसे बचने के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं. और पूरी मानवता का
विनाश करने पर आमादा हैं. जहाँ एक-एक दिन भरी पद रहा हो वहाँ ये साल डर साल की
मोहलत लेना कहते हैं. इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत है यह लेख.)
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध |
मनोवैज्ञानिकों ने
जब ज्ञान-वैषम्य (cognitiv dissonance) की परिघटना, यानी एक ही समय दो परस्पर
बातों पर यकीन करने की क्षमता को पहचाना तो शायद वे अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन
समझौतों की व्याख्या कर रहे थे.
केवल इसी महीने, दो
आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने ध्यान दिलाया है कि दुनिया के पास अब कुछ ही
वर्ष बचे हैं जिसके भीतर खतरनाक ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए पर्याप्त कार्रवाई
शुरू कर देनी होगी.
संयुक्त राष्ट्र संघ
पर्यावरण कार्यक्रम ने कार्बन उत्सर्जन की खाई पाटने सम्बंधी जो रिपोर्ट प्रस्तुत
की है उसके अनुसार अगर सभी देश 2020 तक अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को अधिकतम सीमा तक
लागू कर दें, तब भी कुल उत्सर्जन उस लक्ष्य से अधिक होगा, जो संयुक्त राष्ट्र संघ
ने ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने देने के लिए निर्धारित
किया है.
रिपोर्ट में बताया
गया है कि यदि उत्सर्जन की इस खाई को पाटना है तो और भी आगे बढ़कर कार्रवाई करने की
जरूरत है.
इसी समय
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने चेतावनी दी है कि अब दुनिया के पास पेट्रोलियम
पदार्थों की जगह कम कार्बन उत्सर्जन वाली ऊर्जा का इस्तेमाल और ऊर्जा कुशलता की
दिशा में गंभीर शुरुआत करने के लिए केवल पांच वर्ष का समय है. 2017 तक जरुरी निवेश
करने में असफलता, भविष्य में अत्यधिक उत्सर्जन की जकड़बंधी को इस हद तक पहुंचा देगी
कि 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करना असंभव हो जायेगा.
इसके बावजूद डरबन
में संयुक्तराष्ट्र जलवायु वार्ता में शामिल प्रतिनिधि इस बात पर तर्क-वितर्क कर
रहे हैं कि नए दौर की समझौता-वार्ताएँ 2015 से पहले शुरू हो भी पाएंगी या नहीं.
कुछ देश तो लगता है कि 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को ही कूड़ेदान में फेंक देना
चाहते हैं, भले ही वे इस पर सहमति जताने का शब्दजाल फैलाते हों.
अलग-अलग देश अपने
निकम्मेपन को छुपाने के लिये गड़े गए इस झूठे आरोप के आधार पर अपना दृष्टिकोण तय कर
रहे हैं की जलवायू वार्ताएँ हमेशा ही विकसित बनाम विकासशील देशों के मुद्दे पर
जाकर अटकती रही है. इस तर्क-वितर्क के एक छोर पर वे देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के
आगे सबसे अधिक लाचार हैं- छोटे द्वीप और अल्प विकसित राष्ट्र और यूरोपीय संघ. ये
देश चाहते हैं कि नए वैधानिक सहमति को
लेकर समझौते की शुरुआत अगले साल हो जाये, 2015 तक निष्कर्ष निकल आये और उसके बाद
जितनी जल्दी संभव हो, उन्हें लागू कर दिया जाये (यूरोपीय संघ ने कहा है कि हद से
हद 2020 तक). दूसरा छोर जो इस बात की वकालत कर रहा है कि नयी वार्ताएँ 2015 के बाद
ही शुरू होनी चाहिए, वह परंपरागत विकसित देशों में फिसड्डी रहे- अमरीका, कनाडा,
रूस और जापान तथा दो बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाएं चीन और भारत का एक असंभव सा गठजोड़
है.
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध |
देर करने वाले दलील
देते हैं कि एक नए चरण की वार्ताएँ करने का अभी समय नहीं आया है. एक साल पहले
कानकुन में अंतिम दौर की वार्ता समाप्त होने के बाद, आज की प्राथमिकता उन निर्णयों
को लागू करना है जिन पर सहमति बनी है. उनका कहना है कि देशों ने अभी-अभी तो अपने
घरेलू उत्सर्जनों में कटौती की योजनाएँ लागू करना शुरू किया है. इनमें से अधिकांध
देश निम्न कार्बन और हरित विकास की नीतियों को अपनाने के लिए जूझ रहे हैं, इसलिए
वे नए समझौतों के बारे में सोचने के लिए तैयार नहीं हैं.
मौजूदा आर्थिक
वातावरण में 2020 के लिए नयी वचनबद्धता पर सहमति की सम्भावनाएं लगभग नहीं के बराबर
हैं. तर्क यह दिया गया है कि संयुक्तराष्ट्र 2013-15 में होने वाले 2 डिग्री
सेल्सियस के लक्ष्य की समीक्षा के लिए पहले ही वचनबद्ध है जो उसके बाद के नए
समझौतों के लिए उपयुक्त आधार प्रदान करेगा (एक भारतीय प्रतिनिधि ने डरबन में कहा
कि इस बात का फैसला करने के लिये कि क्या तथ्यत: कोई उत्सर्जन की खाई है भी या
नहीं, 2014 में इंटर गवर्मेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की 2014 में अपनी अगली
रिपोर्ट आने तक दुनिया को इंतजार करना चाहिये.) देर करने वाले समूह में शामिल कई
देशों के लिए ये तर्क-वितर्क केवल इस बात को ढकने का बहाना भर है कि वे किसी नयी
वैधानिक सहमति के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं हैं.
क्वेटो को नकारने
वाले (अमरीका, जिसके साथ अब कनाडा भी जुड़ गया) किसी भी तरह अंतरराष्ट्रीय
जिम्मेदारी के बंधन को नापसंद करते हैं, जबकी चीन और भारत उस तारीख को टालकर आगे
बढ़ाने की माँग कर रहे हैं, जिस दिन से ये समझौते लागू होने हैं. हालाँकि इस बात का
जवाब किसी के पास नहीं कई कि जिस 2 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को सबने गले लगाया, उसे
देर करते जाने पर कैसे हासिल किया किया जा सकता है.
सच तो यह है कि इस
बात को लेकर ‘तत्काल वार्ता शुरू करो’ खेमे के भीतर भी असहमति है. छोटे द्वीप और
अल्पविकसित देश चाहते हैं की कोई भी अवधि केवल अगले पांच वर्ष (2013-17) तक बढ़ायी
जानी चाहिये और नए चरण के लक्ष्य 2018 में शुरू हो जाने चाहिये. लेकिन यूरोपीय संघ
को अपने घरेलू जलवायु नीतियों के विशाल और नाजुक ढांचे को दुबारा शुरू करने से
नफ़रत है जो सभी 2020 से जुड़े हुए हैं. उन्हें भय है कि इन्हें कड़ा करने के बनिस्बत
सुलझा लेने की सम्भावना अधिक है.
यह तय है कि समाधान
इस बात में निहित है कि 2013-15 के लिए निर्धारित संयुक्त राष्ट्र समीक्षा, कितनी
वृहतर तात्कालिक महत्वाकांक्षा उत्पन्न कर पाती है.
डरबन सम्मेलन में
शामिल विभिन्न पक्षों के भीतर इस बात पर अभी तक मतभेद हैं की समीक्षा आखिर क्या
बाला है. कुछ इसे महज एक रिपोर्टिंग प्रक्रिया के रूप में देखते हैं कि अलग-अलग
देश अपनी वचनबद्धता को लागू करने के लिए क्या कर रहे हैं. लेकिन दूसरे इसे इस आकलन
की सम्भावना के रूप में देखते हैं कि 2 डिग्री सेल्सियस वास्तव में सही वैश्विक
लक्ष्य है भी या नहीं (छोटे द्वीप की सरकारें चाहती हैं कि यह 1.5 डिग्री सेल्सियस
होना चाहिये) और उत्सर्जन में कमी लाने के लिए मिल-जुल कर प्रयास कैसे किया जा
सकता है. यह न केवल 2025 और 2030 के लिए नयी वचनबद्धताएं निर्धारित करने की अनुमति
देगा- जो निश्चय ही किसी नये लक्ष्य- क्वेटो प्रोटोकॉल के नए संसकरण के लिए
आधारशिला का काम करेगी, बल्कि 2020 के लिए की गयी वचनबद्धता के लिए मजबूती प्रदान
करेगी. इस बात की सम्भावना बहुत ही कम है कि फ़िलहाल कुछ हो पायेगा.
लेकिन 2015 तक, जब
हो सकता है कि बदतरीन आर्थिक संकट (शायद) खत्म हो जाये और नयी आईपीसीसी रिपोर्ट एक
बार फिर दुनिया को उस खतरे के प्रति आगाह करे जो जलवायु परिवर्तन के चलते उत्पन्न
हो रहा है, उम्मीद है की शायद कुछ हो पाए.
(लेखक : माइकल
जैकोब्स, लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में जलवायु परिवर्तन के अतिथि प्राध्यापक हैं.द हिन्दू 3 दिसम्बर 2011 में
प्रकाशित. क्लाइमेट टाक्स : ‘डिलेयर
कंट्रीज’ फ्लेक्स मसल्स का हिन्दी
अनुवाद)