Sunday, October 30, 2011

आधार : मिथकों के आधार पर

आर. रामकुमार

दो देश। दोनों के प्रधानमंत्रियों की अपनी-अपनी प्रिय योजनाएँ। दोनों के सुर बिलकुल एक जैसे। टोनी ब्लेयर ने नवम्बर 2006 में पहचान पत्र विधेयक 2004 के लिए समर्थन जुटाते समय कहा था कि पहचान पत्र का मामला स्वतंत्रता का मामला नहीं हैं, बल्कि आधुनिक दुनिया का मामला है।मनमोहन सिंह ने सितम्बर 2010 में नंदुरबार में पहला आधार संख्या वितरित करते हुए कहा कि आधार... नए और आधुनिक भारत का प्रतीक है। मि. ब्लेयर ने कहा कि हम पहचान पत्रों के साथ जो करने कि कोशिश कर रहे हैं वह आधुनिक प्रौद्योगिकी को उपयोग में लाना है।डॉ सिंह ने कहा कि आधार योजना आज के नवीनतम और आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करेगा।समान सोच कि कोई हद नहीं है।

मि. ब्लेयर ने पहचान पत्र लागू करने के लिए जो बहुचर्चित प्रोत्साहन कार्यक्रम चलाये उसका अन्त लेबर पार्टी कि राजनितिक त्रासदी के रूप में हुआ। ब्रिटेन की जनता ने लगभग पाँच सालों तक इस योजना का विरोध किया। अंततः कैमरून सरकार ने 2010 में पहचान पत्र अधिनियम रद्द कर दिया, इसी प्रकार पहचान पत्रों और एक राष्ट्रीय पहचान रजिस्टर बनाने कि योजना भी खत्म कर दी। दूसरी तरफ, भारत सरकार आधार या एकल पहचान (यूआईडी) परियोजना को उत्साहपूर्वक प्रोत्साहित कर रही है। यूआईडी योजना को गृहमंत्रालय के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के साथ नत्थी किया जा चुका है। ‘‘राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण अधिनियम’’ संसद के पटल पर रखा गया है। दुनिया भर में पहचान नीतियों के पर्यवेक्षक देख रहे हैं कि भारत ‘‘आधुनिक’’ दुनिया से कुछ सबक लेता है या नहीं।

ब्रिटेन में पहचान पत्रों का अनुभव बताता हे कि मि. ब्लेयर मिथकों के सहारे इस कार्यक्रम की तिजारत कर रहे थे। पहला, उन्होंने कहा कि, पहचान पत्रों के लिए नामांकन कराना ‘‘स्वैच्छिक’’ होगा। दूसरा, उन्होंने तर्क दिया कि पत्र राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र और दूसरे हकदारी योजनाओं के दुरूपयोग को कम करेगा, डेविड ब्लंकेट ने तो इसे ‘‘पहचान पत्र’’ के बजाय ‘‘हकदारी पत्र’’ घोषित कर दिया। तीसरा, मि. ब्लेयर ने तर्क दिया कि पहचान पत्र नागरिकों को ‘‘आतंकवाद’’ और ‘‘पहचान की धोखाधड़ी से बचायेगा। इसके लिए बायोमिट्री तकनीक को रामबाण के रूप में पेश किया गया था। इस सभी दावों पर विद्धानों और जनमत द्वारा सवाल खड़े किये गये थे। लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स ने बहुत ही सावधानीपूर्वक एक रिपोर्ट दी थी जिसने उन सभी दावों की जाँच-पड़ताल करके उन्हें खारिज कर दिया (देखें ‘‘हाई कॉस्ट, हाई रिस्क’’ फ्रण्टलाइन, 14 अगस्त, 2009)। इस रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि सरकार पहचान पत्र को इतने तरह के कार्यक्रमों के लिए जरूरी बनाती जा रही है कि वास्तव में यह अनिवार्य हो जायेगा। इसने यह भी तर्क दिया है कि पहचान पत्र के जरिये हकदारी कार्यक्रमों के लिए पहचान की धोखाधड़ी को खत्म करना भी सम्भव नहीं। बायोमीट्रिक तकनीक नकल रोकने का भरोसेमंद तरीका नहीं है।

आधारा को लेकर भारत में चलने वाली चर्चाएँ इसी से मिलती जुलती हैं। भारत के एक अरब से भी ज्यादा लोगों को यूआईडी संख्या प्रदान करने के लिए इस योजना के समर्थन में वैसी ही घिसीपिटी दलीलें पेश की गयीं। मेरा कहना है कि ब्रिटेन में विफल हो चुकी पहचान पत्र योजना की तरह भारत में भी मिथकों के आधार पर ही आधार योजना को प्रवर्तित किया गया। स्थानाभाव में हम यहाँ केवल तीन बड़े मिथकों की चर्चा करेंगे।

पहला मिथक: आधार संख्या अनिवार्य नहीं है।

यह गलत है। आधार को चोरी छुपे अनिवार्य बना दिया गया है। आधार को स्पष्टतया राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के साथ नत्थी कर दिया गया है। भारतीय जनगणना वेबसाइट में बताया गया है कि ‘‘एनपीआर में एकत्रित डाटा भारतीय एकल पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के अधीन होगा। दुहराव न हो, इसकी जाँच करने के बाद यूआईडीएआई एकल पहचान संख्या जारी करेगा। यह संख्या एनपीआर का हिस्सा होगा और एनपीआर कार्ड पर यह संख्या दर्ज रहेगी।

एनपीआर नागरिकता कानून 1955 में 2003 में किये गये संशोधन का नतीजा है। नागरिकता कानून 2003 की धारा 3(3) के अनुसार भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में प्रत्येक नागरिक के बारे में उसकी एकत्र की गयी जारकारी में उसकी ‘‘राष्ट्रीय पहचान संख्या’’ दर्ज करना जरूरी होगा। इसके अलावा, नियम 7(3) कहता है कि ‘‘प्रत्येक नागरिक का यह उत्तरदायित्व होगा कि वह एक बार स्थानीय नागरिकता रजिस्ट्रार के यहाँ जाकर अपना पंजीकरण कराये और अपने बारे में सही व्यक्तिगत विवरण दे। इससे भी आगे, नियम 17 कहता है कि ‘‘नियम 5, 7, 8, 10, 11 और 14 के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर दण्डस्वरूप जुर्माना देना होगा जिसे हजार रुपये तक बढ़ाया जा सकता है।’’

निष्कर्ष बिल्कुल साफ है : संसद में विधेयक पास होने से पहले ही आधार को अनिवार्य बना दिया गया है। इस परियोजना की आड़ में, सरकार लोगों को निजी सूचना देने के लिये जोर-जबरदस्ती कर रही है यह जबरदस्ती सजा देने की धमकी के रूप में सामने आती है।

दूसरा मिथक : आधार संयुक्त राज्य अमरीका के सामाजिक सुरक्षा संख्या (एसएसएन) की तरह ही है।

एसएसएन और आधार में बहुत ज्यादा फर्क है। अमरीकी सामाजिक सुरक्षा के प्राविधानों को आसान बनाने के लिये 1936 में एसएसएन लागू किया गया था। एसएसएन की एक घोषित विशेषता यह है कि इसे 1974 के गोपनीयता अधिनियम द्वारा सीमित कर दिया गया है। इस अधिनियम के अनुसार ‘‘किसी भी सरकारी एजेंसी के लिए किसी व्यक्ति को कानून द्वारा प्राप्त किसी अधिकार, लाभ या विशेषाधिकार से इसलिए इनकार करना गैर-कानूनी होगा कि व्यक्ति विशेष अपनी सामाजिक सुरक्षा संख्या बताने से मना करता है। इसके अलावा, संघीय एजेन्सियों को उन व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा संख्याओं को किसी तीसरे पक्ष को बताने से पहले उनको सूचना देना और उनसे सहमति लेनी पड़ती है।

सामाजिक सुरक्षा संख्या को कभी भी पहचान का दस्तावेज नहीं समझा गया। फिर भी, 2000 के दशक में सामाजिक सुरक्षा संख्या का विभिन्न वितरण/प्रवेश केन्द्रों पर किसी की पहचान साबित करने के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल होने लगा। परिणामस्वरूप, व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा संख्यायें विभिन्न प्रकार के निजी खिलाड़ियों को पता चल गयी, जिसे पहचान चोरों ने बैंक खाता, उधार खाता, प्रसाधन ब्योरों और दूसरे निजी सूचना स्रोतों तक पहुँचने के लिए इस्तेमाल किया। 2006 में, सरकारी जवाबदेही विभाग ने विवरण दिया की ‘‘एक साल के अन्दर, लगभग एक करोड़ लोगों, यानी अमरीका की 4.6 प्रतिशत जनसंख्या ने यह पाया कि वे किसी न किसी तरह के पहचान चोरी के शिकार हुए थे, जिससे उन्हें अनुमानतः 50 अरब डॉलर से भी अधिक का नुकसान हुआ। लोगों के कड़े विरोध के दबाव में राष्ट्रपति ने 2007 में पहचान-धोखाधड़ी पर एक टास्क फोर्स गठित की। इस रिपोर्ट पर अमल करते हुए राष्ट्रपति ने एक योजना घोषित की ‘‘पहचान-चोरी का मुकाबला: एक रणनीतिक योजना।’’ इस योजना के तहत सभी सरकारी कार्यालयों को ‘‘एसएसएन का अनावश्यक प्रयोग खत्म करने’’ और घटाने तथा जहाँ सम्भव हो, व्यक्तियों की पहचान में एसएसएन के प्रयोग की आवश्यकता को खत्म करने का निर्देश दिया गया। भारत में स्थिति बिलकुल उल्टी है। नन्दन निलकानी के अनुसार, आधार संख्या ‘‘सर्वव्यापी’’ होगी, यहाँ तक कि उन्होंने लोगों को सलाह दी है कि ‘‘अपने शरीर पर इसे गोदवा लो, ताकि भूल न जाओ।’’

तीसरा मिथक: पहचान चोरी को बायोमीट्रिक से खत्म किया जा सकता है।

पहचान सिद्ध करने में बायोमिट्रिक की सीमाओं के बारे में वैज्ञानिक एवं कानूनी विशेषज्ञों के बीच आम-सहमती है। पहला ऐसी कोई सूचना मौजूद नहीं है जिसके आधार पर यह माना जाय कि ऊंगली के छाप के मिलान में गलती बहुत कम या नहीं होती है। उपभोगकर्ताओं के एक छोटे हिस्से की ऊंगलियों का निशान हमेशा ही डाटाबेस से या तो गलत मेल खायेगा या मेल ही नहीं खायेगा।

दूसरा, भारत जैसे देश में ऐसे मिलान की गड़बड़ी बहुत अधिक बढ़ जायेगी। यूआईडीएआई ने बायोमिट्रिक यंत्रों की आपूर्ति के लिए जिस 4जी आइडेन्टिटी सोल्यूसन्स को ठेका दिया था उसने एक रिपोर्ट में कहा है किः ‘‘अनुमान है कि दाग या बुढ़ापे या अस्पष्ट छाप के कारण किसी भी आबादी के लोगों की ऊंगली की छाप घिचपिच होती है। भारतीय वातावरण का अनुभव यह बताता है कि यहाँ की बहुत बड़ी आबादी शारीरिक श्रम पर काफी अधिक निर्भर होती है, जिसके कारण नामांकन करने में नाकामयाबी 15 प्रतिशत तक है।’’ 15 प्रतिशत नाकामयाबी की दर का मतलब है लगभग बीस करोड़ लोगों को इस योजना से निकाल बाहर करना। यदि मनरेगा (महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना) के कार्यस्थल और राशन की दुकानों पर ऊंगली की छाप जाँचने वाली मशीन लगा दी जाय तथा रोजगार और राशन खरीदने के लिए सही तस्दीक को जरूरी शर्त बना दिया जाय तो लगभग 20 करोड़ लोग इन कार्यक्रमों की पहुँच से हरदम बाहर रहेंगे।

असल में यूआईडीएआई ‘‘बायोमिट्रिक स्टैण्डर्ड कमेटी’’ की रिपोर्ट इन चिन्ताओं को ठीक मानता है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सही दोहराव न हो पाने की पूरी तरह गारंटी करने वाली एक महत्त्वपूर्ण शर्त ऊंगली की छाप का भारतीय परिस्थितियों में गहराई से अध्ययन नहीं किया गया है। लेकिन तकनीक की इस गम्भीर आलोचना के बावजूद सरकार इस परियोजना को लेकर अंधेरे में छलांग लगाने से नहीं मान रही है जिस के ऊपर 50,000 करोड़ रुपये से अधिक का खर्च आयेगा।

कहा गया है कि सच का सबसे बड़ा दुश्मन झूठ नहीं बल्कि मिथक होता है। एक लोकतांत्रिक सरकार को आधार जैसी विराट परियोजना को मिथकों के आधार पर शुरू नहीं करना चाहिए। ब्रिटेन के अनुभव से हमें यह सबक मिलता है कि सरकार द्वारा फैलाये गये मिथकों का भंडाफोड़ लगातार सार्वजनिक अभियान चला कर ही किया जा सकता है। भारत में आधार परियोजना का भंडाफोड़ करने के लिए एक जनांदोलन की शुरूआत करना बेहद जरूरी है।

(आर. रामकुमार टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में सहायक प्रोफेसर हैं। यह लेख 17 जुलाई को अंग्रेजी दैनिक द हिन्दूसाभार लिया गया है। अनुवाद- सतीश पासवान)

Wednesday, October 26, 2011

दीवाली के दीप जले-- फिराक गोरखपूरी





नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले
नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले
निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कह ता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले
कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले
मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले
तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले
जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले
देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले
जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले
रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले
जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले
लाखों चराग़ों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले
ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले
बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले
छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज फ़िराक़ सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले

Monday, October 24, 2011

मेरी वसीयत- कर्नल गद्दाफी


"यह मेरी वसीयत है. मैं मोहम्मद बिन अब्दुल्लस्सलाम बिन हुमायद बिन अबू मानयर बिन हुमायद बिन नयिल अल फुह़शी गद्दाफ़ी, कसम खाकर कहता हूँ कि दुनिया में अल्लाह़ के अलावा कोई खुदा नहीं, और मोहम्मद ही उस अल्लाह के पैगंबर हैं. उनके नाम पर अमन कायम हो. मैं कसम खता हूँ कि मैं एक सच्चे मुसलमान की तरह मरुंगा.
अगर मैं मारा गया तो जिन कपड़ों में मेरी मौत हो उन्हीं कपड़ों में, मेरी लाश को बिना नहलाए, सिर्त में अपने परिवार और रिश्तेदारों की कब्र के पास, मुस्लिम रस्मो-रिवाज़ के मुताबिक दफ़नाया जाना चाहूँगा.
मैं चाहूँगा कि मेरी मौत के बाद मेरे परिवार, खास तौर पर औरतों और बच्चों के साथ अच्छा सलूक किया जाए.
लीबियाई जनता को चाहिए की वे अपनी पहचान, अपनी कामयाबियां,अपना इतिहास तथा अपने पुरखों और वीर नायकों की गौरव-गाथा की हिफाजत करें. लीबियाई जनता को अपने आज़ाद और बेहतरीन लोगों की कुर्बानियों को कभी भूलना नहीं चाहिए.
मैं अपने समर्थकों का आह्वान करता हूँ कि वे प्रतिरोध-संघर्ष चलाते रहें और विदेशी हमलावरों के खिलाफ आज, कल हमेशा-हमेशा के लिए अपनी लड़ाई जरी रखें.
दुनिया की आज़ाद जनता को हम यह बताना चाहेंगे कि अगर हम चाहते तो अपनी निजी हिफाजत और सुकूनभरी जिंदगी के बदले अपने पवित्र उद्देश्यके साथ समझौता करके उसे बेच सकते थे. हमें इसके लिए कई प्रस्ताव मिले लेकिन हमने अपने कर्तव्य और सम्मानपूर्ण पद के अनुरूप इस लड़ाई के हरावल दस्ते में रहना पसंद किया.
अगर हम तुरंत जीत हासिल न कर पायें तो भी, आने वाली पीढ़ियों को यह सीख दे जाएँगे कि अपने कौम की हिफाजत करने के बजाय उसे नीलाम कर देना इतिहास की सबसे बड़ी गद्दारी है, जिसे इतिहास हमेशा याद रखेगा, भले ही दूसरे लोग इसकी कोई दूसरी ही कहानी गढते और सुनाते रहें.
टिप्पणी : इस्लाम में शहीद की लाश को बिना नहलाए ही दफनाया जाता है, उसी तरह जैसे मक्का की सेना के साथ अहद की लड़ाई में शहीद होने वाले मुहम्मद साहब के अनुयाइयों की लाश को दफनाया गया था.
(मुअम्मर गद्दाफी लीबियाई क्रान्ति के नेता ओर नीति निर्माता थे. वे अपने देश की स्वतंत्रता ओर संप्रभुता की पवित्र उद्देश्य के लिए बलिदान हुए. २० अक्टूबर २०११ साम्राज्यवादी सैनिक गठबंधन नाटो की चाकरी करने वाले अपने ही देश की गद्दारों के हाथों उनकी राजनीतिक ह्त्या कर दी गयी. उनकी यह वसीहत मंथली रिव्यू से लेकर अनूदित है.)

Thursday, October 20, 2011

बर्बर अमरीका के हाथों तबाह एक और राष्ट्र - लीबिया

जिस धज से कोई मकतल को गया वो शान सलामत रहती है,

ये जान तो आनी-जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं.

--फैज़

(लीबिया पर नाटो के हमले के बाद गद्दाफी की हार तय थी. अचरज यह नहीं कि गद्दाफी को क़त्ल कर दिया गया या अमरीकी चौधराहट में नाटो की दैत्याकर फौज के दम पर वहाँ के साम्रज्यवादपरस्त बागियों ने लीबिया पर कब्ज़ा कर लिया. अचरज तो यह है कि गाद्दफी और उनके समर्थक नौ महीने तक उस साम्राज्यवादी गिरोह की बर्बरता के आगे डटे रहे. फिदेल कास्त्रो ने 28 मार्च 2011को अपने एक विमर्श में कहा था कि...

"उस देश (लीबिया) के नेता के साथ मेरे राजनीतिक या धार्मिक विचारों का कोई मेल नहीं है। मैं मार्क्सवादी-लेनिनवादी हूँ और मार्ती का अनुयायी हूँ, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है।

मैं लीबिया को गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के एक सदस्य और संयुक्त राष्ट्रसंघ के लगभग 200 सदस्यों में से एक सम्प्रभु देश मानता हूँ।

कोई भी बड़ा या छोटा देश, एक ऐसे सैनिक संगठन की वायु सेना द्वारा जघन्य हमले का इस तरह शिकार नहीं हुआ था, जिसके पास हजारों लड़ाकू बमवर्षक विमान, 100 से भी अधिक पनडुब्बी, नाभिकीय वायुयान वाहक और धरती को कई बार तबाह करने में सक्षम शस्त्र-अस्त्रों का जखीरा है। हमारी प्रजाति के आगे ऐसी परिस्थिति कभी नहीं आयी और 75 साल पहले भी इससे मिलती-जुलती कोई चीज नहीं रही है जब स्पेन को निशाना बनाकर नाजी बमवर्षकों ने हमले किये थे।

हालाँकि अपराधी और बदनाम नाटो अब अपने ‘‘लोकोपकारी’’ बमबारी के बारे में एक ‘‘खूबसूरत’’ कहानी गढ़ेगा।

अगर गद्दाफी ने अपनी जनता की परम्पराओं का सम्मान किया और अन्तिम साँस तक लड़ने का निर्णय लिया, जैसा कि उसने वादा किया है और लीबियाई जनता के साथ मिलकर मैदान में डटा रहा जो एक ऐसी निकृष्टतम बमबारी का सामना कर रही है जैसा आज तक किसी देश ने नहीं किया, तो नाटो और उसकी अपराधिक योजना शर्म के कीचड़ में धँस जायेगी।

जनता उसी आदमी का सम्मान करती है और उसी पर भरोसा करती है जो अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।...अगर वे (गद्दाफी) प्रतिरोध करते हैं और उनकी (नाटो) माँगों के आगे समर्पण नहीं करते तो वे अरब राष्ट्रों की एक महान विभूति के रूप में इतिहास में शामिल होंगे।"

गद्दाफी ने फिदेल को हू-ब-हू सही साबित किया और पलायन की जगह संघर्ष का रास्ता अपनाया।

लीबियाई जनता पर बर्बर नाजी-फासीवादी हमले का प्रतिरोध करते हुए जिस तरह गद्दाफी ने शहादत का जाम पिया, वह निश्चय ही उन्हें साम्राज्यवाद-विरोधी अरब योद्धाओं की उस पंक्ति में शामिल कर देता है जिसमें लीबियाई मुक्तियोद्धा उमर मुख़्तार का नाम शीर्ष पर है। गद्दाफी की साम्राज्यवादविरोधी दृढता को सलाम करते हुए प्रस्तुत है फ्रेड पियर्स का यह लेख)

आतंकी और बर्बर अमरीका का शिकार एक और राष्ट्र. लीबिया
फ्रेड पीयर्स

मैं लीबिया में 12 वर्ष रहा हूँ। वहां नागरिको को संपूर्ण शिक्षा (जिसमें विदेश में जाकर शिक्षा लेना भी शामिल है), चिकित्सा (जिसमें विदेश में जाकर उपचार लेने का खर्चा भी शामिल है) और लोगो को घर बना कर देना सब कुछ सरकार करती है। उसने पूरे देश में नई सड़कें (जिन पर कोई टोल नहीं लगता है), अस्पताल, स्कूल, मस्जिदें, बाजार सब कुछ नया बनवाया था। मुझसे भी पूरे 12 वर्षो में नल, बिजली, टेलीफोन का कोई पैसा नहीं लिया। मुझे खाने.पीने, पेट्रोल, सब्जी, फल, मीट, मुर्गे, गाड़ियां, फ्रीज, टीवी, बाकी घर की सुविधाएं, एयर ट्रेवल और सब कुछ सुविधाएँ मुफ्त में मिली हुई थी।


उसने लीबिया को जो एक रेगिस्तान है, हरा-भरा ग्रीन बना दिया था। एक बार हमारे भारत के राजदूत ने मेरे डायरेक्टर को कहा था कि हम भारतवासी हरे भारत को काट कर रेगिस्तान बना रहे हैं और मैं यहां आकर देखता हूँ कि आपने रेगिस्तान को हरा-भरा बना दिया है। गद्दाफी ने लीबिया में मेन मेड रीवर बनवाई थी जो दुनिया का सबसे मंहगा प्रोजेक्ट है, जिसके बारे में कहा गया था कि यह प्रोजेक्ट इतना अनाज पैदा कर सकता है जिससे पूरे अफ्रीका का पेट भर जाये, और जिसका ठेका कोरिया को दिया गया था। जब गद्दाफी यह ठेका देने कोरिया गया था तो उसके स्वागत में कोरिया ने चार दिन तक स्वागत समारोह किये थे और उसके स्वागत में चालीस किलोमीटर लंबा कालीन बिछाया था। इस ठेके से कोरिया ने इतना कमाया था कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था जापान जैसी हो गई थी। मुझ पर विश्वास नहीं हो तो गूगल की पुरानी गलियों में जाओ, आपको सारे सबूत मिल जायेंगे। मैं उस महान शासक को श्रद्धांजलि देता हूँ और उसकी आत्मा की शांति के लिए दुआ करता हूँ। उसे मिस्र के जमाल अब्दुल नासर नें मात्र 28 वर्ष की उम्र में लीबिया का शासक बना दिया था। वह भारत का अच्छा मित्र था। मालूम हो कि गद्दाफी ने 41 साल तक लीबिया पर राज किया है।

गद्दाफी था महान नदी निर्माता

लीबीया और गद्दाफी का नाम आजकल हम सिर्फ इसलिए सुन रहे हैं क्योंकि गद्दाफी को गद्दी से हटाने के लिए अमेरिका बमबारी कर रहा हैण् लेकिन गद्दाफी के दौर में उनके काम का जिक्र करना भी जरूरी है जो न केवल लीबीया बल्कि विश्व इतिहास में अनोखा है- गद्दाफी की नदी। अपने शासनकाल के शुरूआती दिनों में ही उन्होंने एक ऐसे नदी की परियोजना पर काम शुरू करवाया था जिसका अवतरण और जन्म जितना अनोखा था शायद इसका अंत उससे अनोखा होगा।
लीबिया की गिनती दुनिया के कुछ सबसे सूखे माने गए देशों में की जाती है। देश का क्षेत्रफल भी कोई कम नहीं। बगल में समुद्रए नीचे भूजल खूब खारा और ऊपर आकाश में बादल लगभग नहीं के बराबर। ऐसे देश में भी एक नई नदी अचानक बह गई। लीबिया में पहले कभी कोई नदी नहीं थी। लेकिन यह नई नदी दो हजार किलोमीटर लंबी है, और हमारे अपने समय में ही इसका अवतरण हुआ है! लेकिन यह नदी या कहें विशाल नद बहुत ही विचित्र है। इसके किनारे पर आप बैठकर इसे निहार नहीं सकते। इसका कलकल बहता पानी न आप देख सकते हैं और न उसकी ध्वनि सुन सकते हैं। इसका नामकरण लीबिया की भाषा में एक बहुत ही बड़े उत्सव के दौरान किया गया था। नाम का हिंदी अनुवाद करें तो वह कुछ ऐसा होगा। महा जन नद।
हमारी नदियां पुराण में मिलने वाले किस्सों से अवतरित हुई हैं। इस देश की धरती पर न जाने कितने त्याग, तपस्या, भगीरथ प्रयत्नों के बाद वे उतरी हैं। लेकिन लीबिया का यह महा जन नद सन् 1960 से पहले बहा ही नहीं था। लीबिया के नेता कर्नल गद्दाफी ने सन् 1969 में सत्ता प्राप्त की थी। तभी उनको पता चला कि उनके विशाल रेगिस्तानी देश के एक सुदूर कोने में धरती के बहुत भीतर एक विशाल मीठे पानी की झील है। इसके ऊपर इतना तपता रेगिस्तान है कि कभी किसी ने यहां बसने की कोई कोशिश ही नहीं की थी। रहने-बसने की तो बात ही छोड़िए, इस क्षेत्र का उपयोग तो लोग आने-जाने के लिए भी नहीं करते थे। बिल्कुल निर्जन था यह सारा क्षेत्र।
नए क्रांतिकारी नेता को लगा कि जब यहां पानी मिल ही गया है तो जनता उनकी बात मानेगी और यदि इतना कीमती पानी यहां निकालकर उसे दे दिया जाए तो वह हजारों की संख्या में अपने-अपने गांव छोड़कर इस उजड़े रेगिस्तान में बसने आ जाएगी। जनता की मेहनत इस पीले रेगिस्तान को हरे उपजाऊ रंग में बदल देगी।
अपने लोकप्रिय नेता की बात लोक ने मानी नहीं। पर नेता को तो अपने लोगों का उद्धार करना ही था। कर्नल गद्दाफी ने फैसला लिया कि यदि लोग अपने गांव छोड़कर रेगिस्तान में नहीं आएंगे तो रेगिस्तान के भीतर छिपा यह पानी उन लोगों तक पहुंचा दिया जाए। इस तरह शुरू हुई दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे महंगी सिंचाई योजना। इस मीठे पानी की छिपी झील तक पहुंचने के लिए लगभग आधे मील की गहराई तक बड़े-बड़े पाईप जमीन से नीचे उतारे गए। भूजल ऊपर खींचने के लिए दुनिया के कुछ सबसे विशालकाय पंप बिठाए गए और इन्हें चलाने के लिए आधुनिकतम बिजलीघर से लगातार बिजली देने का प्रबंध किया गया।
तपते रेगिस्तान में हजारों लोगों की कड़ी मेहनत, सचमुच भगीरथ-प्रयत्नों के बाद आखिर वह दिन भी आ ही गया, जिसका सबको इंतजार था। भूगर्भ में छिपा कोई दस लाख वर्ष पुराना यह जल आधुनिक यंत्रों, पंपों की मदद से ऊपर उठाए ऊपर आकर नौ दिन लंबी यात्रा को पूरा कर कर्नल की प्रिय जनता के खेतों में उतरा। इस पानी ने लगभग दस लाख साल बाद सूरज देखा था।

कहा जाता है कि इस नदी पर लीबिया ने अब तक 27 अरब डालर खर्च किए हैं। अपने पैट्रोल से हो रही आमदनी में से यह खर्च जुटाया गया है। एक तरह से देखें तो पैट्रोल बेच कर पानी लाया गया है। यों भी इस पानी की खोज पैट्रोल की खोज से ही जुड़ी थी। यहां गए थे तेल खोजने और हाथ लग गया इतना बड़ा, दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञात भूजल भंडार।
बड़ा भारी उत्सव था। 1991 के उस भाग्यशाली दिन पूरे देश से, पड़ौसी देशों से, अफ्रीका में दूर-दूर से, अरब राज्यों से राज्याध्यक्ष, नेता, पत्रकार जनता- सबके सब जमा थे। बटन दबाकर उद्घाटन करते हुए कर्नल गद्दाफी ने इस आधुनिक नदी की तुलना रेगिस्तान में बने मिस्र के महान पिरामिडों से की थी।
लोग बताते हैं कि इन नद से पैदा हो रहा गेहूं आज शायद दुनिया का सबसे कीमती गेहूं है। लाखों साल पुराना कीमती पानी हजारों-हजार रुपया बहाकर खेतों तक लाया गया है- तब कहीं उससे दो मुट्ठी अनाज पैदा हो रहा है। यह भी कब तक? लोगों को डर तो यह है कि यह महा जन नद जल्दी ही अनेक समस्याओं से घिर जाएगा और रेगिस्तान में सैकड़ों मीलों में फैले इसके पाईप जंग खाकर एक भिन्न किस्म का खंडहर, स्मारक अपने पीछे छोड़ जाएंगे।
लीबिया में इस बीच राज बदल भी गया तो नया लोकतंत्र इस नई नदी को बहुत लंबे समय तक बचा नहीं सकेगा। और देशों में तो बांधों के कारण, गलत योजनाओं के कारण, लालच के कारण नदियां प्रदूषित हो जाती हैं, सूख भी जाती हैं। पर यहां लीबिया में पाईपों में बह रही इस विशाल नदी में तो जंग लगेगी। इस नदी का अवतरण, जन्म तो अनोखा था ही, इसकी मृत्यु भी बड़ी ही विचित्र होगी।
(फ्रेड पीयर्स का यह लेख गांधी मार्ग में प्रकाशित हुआ है, प्रस्तुति- अनुपम मिश्र)

Wednesday, October 19, 2011

वशिष्ठ अनूप की पांच ग़ज़लें















1

गाँव-घर का नज़ारा तो अच्छा लगा

सबको जी भर निहारा तो अच्छा लगा।

गर्म रोटी के ऊपर नमक-तेल था

माँ ने हँसकर दुलारा तो अच्छा लगा।

अजनबी शहर में नाम लेकर मेरा

जब किसी ने पुकारा तो अच्छा लगा।

एक लड़की ने बिख़री हुई जु़ल्फ़ को

उँगलियों से सँवारा तो अच्छा लगा।

हर समय जीतने का चढ़ा था नशा

अपने बेटे से हारा तो अच्छा लगा।

रेत पर पाँव जलते रहे देर तक

जब नदी ने पखारा तो अच्छा लगा।

एक खिड़की खुली एक परदा उठा

झिलमिलाया सितारा तो अच्छा लगा।

दो हृदय थे उफ़नता हुआ सिन्धु था

बह चली नेह-धारा तो अच्छा लगा।

चाँद-तारों की फूलों की चर्चा चली

ज़िक्र आया तुम्हारा तो अच्छा लगा।


2

खेलते मिट्टी में बच्चों की हंसी अच्छी लगी

गाँव की बोली हवा की ताज़गी अच्छी लगी।

मोटी रोटी साग बथुवे का व चटनी की महक

और ऊपर से वो अम्मा की खुशी अच्छी लगी।

अप्सराओं की सभा में चहकती परियों के बीच

एक ऋषिकन्या सी तेरी सादगी अच्छी लगी।

सभ्यता के इस पतन में नग्नता की होड़ में

एक दुल्हन सी तेरी पोशीदगी अच्छी लगी।

दिल ने धिक्कारा बहुत जब झुक के समझौता किया

जु़ल्म से जब भी लड़ी तो ज़िन्दगी अच्छी लगी।


3

बिजलियों का जहाँ निशाना है

हाँ वहीं मेरा आशियाना है।

खूब पहचानता हूँ मैं ग़म को

मेरे घर उसका आना-जाना है।

आँधियाँ तेज़तर हुई जातीं

दीप की लौ को टिमटिमाना है।

शर्त ये है कि लब हिले भी नहीं

और सब हाल भी बताना है।

तेरी मुस्कान है लबों पे मेरे

उम्र भर तुमको गुनगुनाना है।

सारे इल्जा़म मैंने मान लिये

अब तुम्हें फैसला सुनना है।

है यहाँ आज कल कहीं होंगे

हम परिन्दों का क्या ठिकाना है।

खोया-खोया-सा सदा रहता है

उसका अन्दाज़ शायराना है।


4

कुछ सकुचाना कुछ घबराना अच्छा लगता है

तेरा हँसना फिर शरमाना अच्छा लगता है।

मोटी-मोटी पोथी पढ़कर थक जाने के बाद

मन के पृष्ठों को दुहराना अच्छा लगता है।

तेरी एक झलक पाने को तुझसे मिलने को

हर दिन कोई नया बहाना अच्छा लगता है।

फास्ट फूड और चमक-दमक वाले इस युग में भी

अम्माँ के हाथों का खाना अच्छा लगता है।

फूलों की घाटी में तितली के पीछे-पीछे

दूर देश तक उड़ते जाना अच्छा लगता है।

मन में यदि सकंल्प भरे हों सुन्दर दुनिया के

तूफानों से भी टकराना अच्छा लगता है।


5

जलाते हैं अपने पड़ोसी के घर को

ये क्या हो गया है हमारे शहर को।

समन्दर का पानी भी कम ही पडेगा

जो धुलने चले रक्तरंजित नगर को।

सम्हालो ज़रा सिर फिरे नाविकों को

ये हैं मान बैठे किनारा भँवर को।

मछलियों को कितनी गल़तफह़मियाँ हैं

समझने लगीं दोस्त खूनी मगर को।

दिखा चाँद आरै ज्वार सागर में आया

कोई रोक सकता है कैसे लहर को।

मैं डरता हूँ भोली निगाहों से तेरी

नज़र लग न जाये तुम्हारी नज़र को।

परिन्दो के दिल में मची खलबली है

मिटाने लगे लोग क्यों हर शज़र को।

समन्दर के तूफां से वो क्या डरेंगे

चले ढूंढने हैं जो लालो-गुहर को।

उठो और बढ़ो क्योंकि हमको यकीं है

हमारे कदम जीत लेंगे सफर को।


वशिष्ठ अनूप

- प्रो0 हिन्दी विभाग

बी0एच0यू(वाराणसी)