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सामाजिक सांस्कृतिक चेतना और संवाद का मंच
Sunday, November 24, 2013
मैं जनता हूँ, मैं प्रजा- कार्ल सैंडबर्ग
मैं जनता हूँ, मैं प्रजा- मैं भीड़- मैं जनसमूह
क्या आप जानते हैं कि
दुनिया की हर महान रचना
की गयी है मेरे द्वारा?
मैं मजदूर हूँ, मैं इजाद करने वाला,
मैं पूरी दुनिया के लिए भोजन और वस्त्र बनाने वाला।
मैं वो दर्शक, जो इतिहास का गवाह है।
नेपोलियन हमारे बीच से आया, और लिंकन भी।
वे मर गए। तब मैंने और-और नेपोलियन और लिंकन पैदा किये।
मैं एक क्यारी हूँ। मैं एक बुग्याल हूँ,
घास का एक विस्तीर्ण मैदान
जो बार-बार जोते जाने के लिए तैयार है।
गुजरता है मेरे ऊपर से भयंकर तूफ़ान।
और मैं भूल जाता हूँ।
निचोड़ ली गयी हमारे भीतर की बेहतरीन चीजें
और उन्हें बर्बाद कर दिया गया। और मैं भूल गया।
मौत के अलावा हर चीज आती है हमारे करीब
और मुझसे काम करने और जो कुछ हमारे पास है
उसे त्यागने को मजबूर करती है। और मैं भूल जाता हूँ।
कभी-कभी गरजता हूँ, मैं अपने आप को झिंझोड़ता हूँ
और छींटता हूँ कुछ लाल रंग की बूँदें
कि इतिहास उन्हें याद रखे।
और फिर भूल जाता हूँ।
अगर मैं, जन-साधारण, याद रखना सीख जाऊं,
जब मैं, प्रजा, अपने बीते हुए कल से सबक लूँ
और यह न भूलूं कि पिछले साल किसने मुझे लूटा
किसने मुझे बेवकूफ बनाया-
तब दुनिया में कोई भाषणबाज नहीं होगा
जो अपनी जुबान पर ला पाये यह नाम- ‘जनता’
अपनी आवाज में हमारे उपहास की छाप लिए
या मजाक की कुटिल मुस्कान लिए।
तब उठ खड़े होंगे जन साधारण- भीड़- जनसमूह।
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(1916 में प्रकाशित ‘शिकागो पोएम्स’ संग्रह से)
(अनुवाद- दिगम्बर)
Friday, November 15, 2013
अगर तुम मुझे भूल जाओ - पाब्लो नेरुदा
(नेरुदा की यह प्रेम कविता अपने प्यारे वतन चिल के लिए है जिससे वे बेपनाह मुहब्बत करते थे, फिर भी उन्हें राजनीतिक कारणों से देश निकाला हुआ था. प्रेम कविता के रूप में भी यह उदात्त भावों से परिपूर्ण है.)
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मैं चाहता हूँ तुम्हें बताना
एक बात.
जानती हो कैसा लगता है
जब मैं देखता हूँ
मणिमय चाँद की ओर,
मेरी खिड़की पर धीमे कदमों से आती
शरद की लाल टहनियों की ओर,
अगर मैं स्पर्श करता हूँ
आग के आसपास
या लट्ठे की झुर्रीदार देह पर,
हर चीज ले जाती है मुझे तेरी ओर,
मानो हर वो चीज जो मौजूद है यहाँ,
गंध, रोशनी, धातु,
छोटी नावें हैं
जो तैरती हुई
जा रही हैं मेरे लिए प्रतीक्षारत
तुम्हारे द्वीपों की ओर.
खैर, अब,
अगर तुम धीरे-धीरे छोड़ दो मुझे चाहना
मैं छोड़ दूँगा तुम्हें चाहना धीरे-धीरे.
अगर अचानक
तुम मुझे भूल जाओ
तो मेरी राह मत देखना,
कि मैं तो पहले ही भुला दिया रहूँगा तुम्हें.
अगर तुम मानती हो इसे उत्कट अभिलाषा और पागलपन
लहराते झंडों की हवा
जो गुजरती है मेरी जिन्दगी से होकर,
और फैसला करती हो तुम
मुझे छोड़ने का सागर किनारे
दिल के पास जहाँ मेरी जड़ें हैं,
याद रहे
की उस दिन,
उस पहर,
उठाउँगा मैं अपनी बाहें
और हमारी जड़ें प्रयाण करेंगी
किसी दूसरे देश की तलाश में.
लेकिन
अगर हर दिन
हर घंटे,
तुम्हे लगता है कि तुम मेरी तक़दीर हो
बेरहम मिठास के साथ,
अगर हर दिन एक फूल
आरोहित हो तुम्हारे होठों पर मेरी चाहत में,
आह मेरी प्यारी, आह मेरी अपनी,
मुझमें भी तो धधकते हैं ये सभी आग,
कुछ भी भूला या बुझा नहीं है मेरे भीतर,
मेरा प्यार पलता है तुम्हारे प्यार पर, प्रिया,
और जब तक इसे जियोगी तुम रहेगा तुम्हारी बाँहों में
मेरी बाँहों को त्यागे बिना.
(अनुवाद- दिगम्बर)
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