Wednesday, October 19, 2011

वशिष्ठ अनूप की पांच ग़ज़लें















1

गाँव-घर का नज़ारा तो अच्छा लगा

सबको जी भर निहारा तो अच्छा लगा।

गर्म रोटी के ऊपर नमक-तेल था

माँ ने हँसकर दुलारा तो अच्छा लगा।

अजनबी शहर में नाम लेकर मेरा

जब किसी ने पुकारा तो अच्छा लगा।

एक लड़की ने बिख़री हुई जु़ल्फ़ को

उँगलियों से सँवारा तो अच्छा लगा।

हर समय जीतने का चढ़ा था नशा

अपने बेटे से हारा तो अच्छा लगा।

रेत पर पाँव जलते रहे देर तक

जब नदी ने पखारा तो अच्छा लगा।

एक खिड़की खुली एक परदा उठा

झिलमिलाया सितारा तो अच्छा लगा।

दो हृदय थे उफ़नता हुआ सिन्धु था

बह चली नेह-धारा तो अच्छा लगा।

चाँद-तारों की फूलों की चर्चा चली

ज़िक्र आया तुम्हारा तो अच्छा लगा।


2

खेलते मिट्टी में बच्चों की हंसी अच्छी लगी

गाँव की बोली हवा की ताज़गी अच्छी लगी।

मोटी रोटी साग बथुवे का व चटनी की महक

और ऊपर से वो अम्मा की खुशी अच्छी लगी।

अप्सराओं की सभा में चहकती परियों के बीच

एक ऋषिकन्या सी तेरी सादगी अच्छी लगी।

सभ्यता के इस पतन में नग्नता की होड़ में

एक दुल्हन सी तेरी पोशीदगी अच्छी लगी।

दिल ने धिक्कारा बहुत जब झुक के समझौता किया

जु़ल्म से जब भी लड़ी तो ज़िन्दगी अच्छी लगी।


3

बिजलियों का जहाँ निशाना है

हाँ वहीं मेरा आशियाना है।

खूब पहचानता हूँ मैं ग़म को

मेरे घर उसका आना-जाना है।

आँधियाँ तेज़तर हुई जातीं

दीप की लौ को टिमटिमाना है।

शर्त ये है कि लब हिले भी नहीं

और सब हाल भी बताना है।

तेरी मुस्कान है लबों पे मेरे

उम्र भर तुमको गुनगुनाना है।

सारे इल्जा़म मैंने मान लिये

अब तुम्हें फैसला सुनना है।

है यहाँ आज कल कहीं होंगे

हम परिन्दों का क्या ठिकाना है।

खोया-खोया-सा सदा रहता है

उसका अन्दाज़ शायराना है।


4

कुछ सकुचाना कुछ घबराना अच्छा लगता है

तेरा हँसना फिर शरमाना अच्छा लगता है।

मोटी-मोटी पोथी पढ़कर थक जाने के बाद

मन के पृष्ठों को दुहराना अच्छा लगता है।

तेरी एक झलक पाने को तुझसे मिलने को

हर दिन कोई नया बहाना अच्छा लगता है।

फास्ट फूड और चमक-दमक वाले इस युग में भी

अम्माँ के हाथों का खाना अच्छा लगता है।

फूलों की घाटी में तितली के पीछे-पीछे

दूर देश तक उड़ते जाना अच्छा लगता है।

मन में यदि सकंल्प भरे हों सुन्दर दुनिया के

तूफानों से भी टकराना अच्छा लगता है।


5

जलाते हैं अपने पड़ोसी के घर को

ये क्या हो गया है हमारे शहर को।

समन्दर का पानी भी कम ही पडेगा

जो धुलने चले रक्तरंजित नगर को।

सम्हालो ज़रा सिर फिरे नाविकों को

ये हैं मान बैठे किनारा भँवर को।

मछलियों को कितनी गल़तफह़मियाँ हैं

समझने लगीं दोस्त खूनी मगर को।

दिखा चाँद आरै ज्वार सागर में आया

कोई रोक सकता है कैसे लहर को।

मैं डरता हूँ भोली निगाहों से तेरी

नज़र लग न जाये तुम्हारी नज़र को।

परिन्दो के दिल में मची खलबली है

मिटाने लगे लोग क्यों हर शज़र को।

समन्दर के तूफां से वो क्या डरेंगे

चले ढूंढने हैं जो लालो-गुहर को।

उठो और बढ़ो क्योंकि हमको यकीं है

हमारे कदम जीत लेंगे सफर को।


वशिष्ठ अनूप

- प्रो0 हिन्दी विभाग

बी0एच0यू(वाराणसी)

2 comments:

  1. Man ko chhu lene wali in panktiyo ko pad kar bada achha laga vastvikt aur bhvukta ke lahro me bahna bada achha laga...dhanyawad Vashisth Anup ji.

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  2. गर्म रोटी के ऊपर नमक-तेल था

    माँ ने हँसकर दुलारा तो अच्छा लगा।

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