देश-विदेश के नए अंक -८ में छपी बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता आज के दौर में काफी प्रासंगिक है -
जब किताबों की होली जली
जब सरकार ने आदेश दिया
कि हानिकारक ज्ञान वाली किताबें
जलाई जाएँगी सार्वजानिक रूप से
और हर तरफ़ हाँका गया बैलों को
खींच लाने को किताबों से लदी गाड़ियाँ
अग्नि कुंड तक,
एक निर्वासित लेखक
सर्वोतम लेखकों में से एक,
जांचते हुए जली हुई किताबों कि फेहरिस्त
भौंचक्का रह गया यह जान कर कि
उसमें शामिल नहीं थीं उसकी किताबें
वह दौड़ा अपनी मेज की ओर
आग बबूला क्रोध से,
और लिखा एक पत्र सत्ताधारिओं के नाम
जला दो मुझे !
क्या मेरी किताबों ने
हमेशा सच्चाई का इजहार नहीं किया?
और तुम मेरे साथ व्यवहार करते हो
किसी झूठे कि तरह!
मैं तुम्हे आदेश देता हूँ -
जला दो मुझे!
जब किताबों की होली जली
जब सरकार ने आदेश दिया
कि हानिकारक ज्ञान वाली किताबें
जलाई जाएँगी सार्वजानिक रूप से
और हर तरफ़ हाँका गया बैलों को
खींच लाने को किताबों से लदी गाड़ियाँ
अग्नि कुंड तक,
एक निर्वासित लेखक
सर्वोतम लेखकों में से एक,
जांचते हुए जली हुई किताबों कि फेहरिस्त
भौंचक्का रह गया यह जान कर कि
उसमें शामिल नहीं थीं उसकी किताबें
वह दौड़ा अपनी मेज की ओर
आग बबूला क्रोध से,
और लिखा एक पत्र सत्ताधारिओं के नाम
जला दो मुझे !
क्या मेरी किताबों ने
हमेशा सच्चाई का इजहार नहीं किया?
और तुम मेरे साथ व्यवहार करते हो
किसी झूठे कि तरह!
मैं तुम्हे आदेश देता हूँ -
जला दो मुझे!
_बर्तोल्त ब्रेख्त
bahut badhiya sahitya saheja hai blog me.
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