रामधारी सिंह 'दिनकर' की शतवार्षिकी पर उनकी यह कविता
हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों
कहता हूँ, ओ मखमल-भोगियो।
श्रवण खोलो,
रुक सुनो, विकल यह नाद
कहाँ से आता है।
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गाँवों में चिल्लाता है?
जनता की छाती भिंदे
और तुम नींद करो,
अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।
तुम बुरा कहो या भला,
मुझे परवाह नहीं,
पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।।
हो कहाँ अग्निधर्मा
नवीन ऋषियों? जागो,
कुछ नई आग,
नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।
शीतल प्रमाद से ऊँघ रहे हैं जो, उनकी
मखमली सेज पर
चिनगारी की वृष्टि करो।
गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूँ साथी,
झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।
है जहाँ-जहाँ तमतोम
सिमट कर छिपा हुआ,
चुनचुन कर उन कुंजों में
आग लगाता हूँ।
हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों
कहता हूँ, ओ मखमल-भोगियो।
श्रवण खोलो,
रुक सुनो, विकल यह नाद
कहाँ से आता है।
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गाँवों में चिल्लाता है?
जनता की छाती भिंदे
और तुम नींद करो,
अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।
तुम बुरा कहो या भला,
मुझे परवाह नहीं,
पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।।
हो कहाँ अग्निधर्मा
नवीन ऋषियों? जागो,
कुछ नई आग,
नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।
शीतल प्रमाद से ऊँघ रहे हैं जो, उनकी
मखमली सेज पर
चिनगारी की वृष्टि करो।
गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूँ साथी,
झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।
है जहाँ-जहाँ तमतोम
सिमट कर छिपा हुआ,
चुनचुन कर उन कुंजों में
आग लगाता हूँ।
लोहिया कहते थे कि दिनकर, तुम कविता में क्रांतिकारी हो लेकिन संसद मे कांग्रेसी!
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