Thursday, June 27, 2013
व्लादिमीर मायकोवस्की की कविता- तुम
तुम, जो व्याभिचार के कीचड़ में लगातार लोट रहे हो,
गरम गुसलखाने और आरामदायक शौचालय के मालिक!
तुम्हारी मजाल कि अपनी चुन्धियायी आँखों से पढ़ो
अखबार में छपी सेंट जोर्ज पदक दिये जाने जैसी खबर!
तुमको परवाह भी है, उन बेशुमार मामूली लोगों की
जिन्हें चिंता है कि वे कैसे पूरी करते रहे तुम्हारी हवश,
कि शायद अभी-अभी लेफ्टिनेंट पेत्रोव की दोनों टांगें
उड़ गयीं हैं बम के धमाके से?
कल्पना करो कि अगर वह, जिसे बलि देने के लिये लाया गया,
अपने खून से लतपथ टांगे लिये आये और अचानक देख ले,
कि वोदका और सोडा-वाटर गटकते अपने पियक्कड थोबड़े से
गुनगुना रहे हो तुम सेवेरियाती का कामुक गीत!
औरतों की देह, मुर्ग-मुसल्लम और मोटर गाड़ियों के पीछे पागल
तुम्हारे जैसे अय्याश लोगों के लिये, मैं अपनी जान दे दूँ?
इससे लाख दर्जे अच्छा है कि मास्को के भटियारखाने में जाकर
वहाँ रंडियों को शरबत पिलाने के काम में लग जाऊं.
(अनुवाद- दिगम्बर)
Friday, June 21, 2013
उत्तराखण्ड में भयावह तबाही : प्राकृतिक आपदा नहीं, अंधाधुंध पूँजीवादी विकास का नतीजा
प्रकृति के साथ आपराधिक छेड़-छाड और विकास के नाम पर हो रहे पर्यावरण विनाश के कारण उत्तराखंड में जो भयावह तबाही मची है वह प्राकृतिक आपदा नहीं है. बल्कि यह अंधाधुंध और बदहवास पूँजीवादी विकास का नतीजा है.
अब से 137 साल पहले महान विचारक फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ नामक अपने लेख में प्रकृति और मानव जाति के बीच सामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों को बाधित किये जाने के दुष्परिणामों के बारे में जो राय व्यक्त की थी वह आज हू-ब-हू हमारे सामने आ रहे हैं. प्रस्तुत है उस लेख का एक अंश--
...प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि वह हर ऐसी विजय का हमसे प्रतिशोध लेती है. यह सही है कि प्रत्येक विजय से पहले-पहल वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं, जिनका हमने भरोसा किया था, पर दूसरी और तीसरी बार उसके बिलकुल ही भिन्न और अप्रत्याशित परिणाम होते हैं, जिनसे अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है. मेसोपोटामिया, यूनान, एशिया माइनर तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषियोग्य भूमि प्राप्त करने के लिये वनों को बिलकुल ही नष्ट कर डाला, उन्होंने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन करके वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं. आल्प्स के इटलीवासियों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के वनों को (ये उत्तरी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गये थे) पूरी तरह से तबाह काट डाला तब उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करके वे अपने प्रदेश के पहाड़ी पशु-पालन पर कुठाराघात कर रहे हैं. इससे भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिये जलहीन बना रहे हैं और साथ ही इन स्रोतों के लिये यह सम्भव बना रहे हैं कि वे वर्षाऋतु में मैदान में और भी भयावह बाढ़ें लाया करें... हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उसके ही मध्य है और उसके ऊपर हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस मानी में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक लागू कर सकते हैं.
...जैसा समाज के संबंध में वैसे ही प्रकृति के संबंध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है. और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस उद्देश्य की पूर्ति के किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव बिलकुल दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उल्टे ही प्रकार के होते हैं; कि पूर्ति और माँग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है...
अब से 137 साल पहले महान विचारक फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ नामक अपने लेख में प्रकृति और मानव जाति के बीच सामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों को बाधित किये जाने के दुष्परिणामों के बारे में जो राय व्यक्त की थी वह आज हू-ब-हू हमारे सामने आ रहे हैं. प्रस्तुत है उस लेख का एक अंश--
...प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि वह हर ऐसी विजय का हमसे प्रतिशोध लेती है. यह सही है कि प्रत्येक विजय से पहले-पहल वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं, जिनका हमने भरोसा किया था, पर दूसरी और तीसरी बार उसके बिलकुल ही भिन्न और अप्रत्याशित परिणाम होते हैं, जिनसे अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है. मेसोपोटामिया, यूनान, एशिया माइनर तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषियोग्य भूमि प्राप्त करने के लिये वनों को बिलकुल ही नष्ट कर डाला, उन्होंने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन करके वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं. आल्प्स के इटलीवासियों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के वनों को (ये उत्तरी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गये थे) पूरी तरह से तबाह काट डाला तब उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करके वे अपने प्रदेश के पहाड़ी पशु-पालन पर कुठाराघात कर रहे हैं. इससे भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिये जलहीन बना रहे हैं और साथ ही इन स्रोतों के लिये यह सम्भव बना रहे हैं कि वे वर्षाऋतु में मैदान में और भी भयावह बाढ़ें लाया करें... हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उसके ही मध्य है और उसके ऊपर हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस मानी में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक लागू कर सकते हैं.
...जैसा समाज के संबंध में वैसे ही प्रकृति के संबंध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है. और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस उद्देश्य की पूर्ति के किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव बिलकुल दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उल्टे ही प्रकार के होते हैं; कि पूर्ति और माँग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है...
Labels:
उत्तराखण्ड,
जलवायु संकट,
पर्यावरण संकट,
पूँजीवाद,
पूंजीवाद
Tuesday, June 11, 2013
आनेवाली पीढ़ी के नाम – बर्तोल्त ब्रेख्त
ब्रेख्त की इस कविता का अनुवाद मैंने 80 के दशक में किया था और वह 'वर्तमान साहित्य 'में प्रकाशित हुआ था. अब उसे ढूँढना तो मुश्किल ही है. यह कविता मुझे पसंद है तो इसका मैं तीसरी बार अनुवाद किया हूँ. अभी भी मुझे लगता है कि पहलेवाला ज्यादा बढ़िया था. फिर भी, किया तो किया. अपनी बेबाक राय दीजियेगा.)
1.
सचमुच मैं अँधिआरे दौर में जी रहा हूँ!
सीधी-सच्ची बात करना बेवकूफी है.
बेशिकन माथा निशानी है
पत्थर दिल होने की. वह जो हँस रहा है
उसने अभी तक सुनी नहीं
खौफनाक ख़बरें.
उफ़, कैसा दौर है ये
जब पेड़ों के बारे में बतियाना अमूमन जुर्म है
क्योंकि यह नाइंसाफी के मुद्दे पर एक तरह से ख़ामोशी है!
और वह जो चुपके से सड़क पार कर रहा है,
क्या अपने उन दोस्तों की पहुँच से बाहर नहीं
जो मुसीबत से घिरे हैं?
ये सही है कि मैं चला ले रहा हूँ अपनी रोजी-रोटी
मगर, यकीन करें, यह महज एक इत्तफाक है.
जो कुछ भी मैं करता हूँ, वह नहीं बनाता मुझे
पेट भर खाने का हकदार.
इत्तफाकन बच गया मैं. (किस्मत ने साथ छोड़ा नहीं
कि मैं गया काम से.)
वे मुझ से कहते हैं कि खाओ-पियो.
खुश रहो कि ये सब मयस्सर है तुम्हें.
मगर मैं कैसे खा-पी सकता हूँ
जबकि मेरा निवाला छीना हुआ है किसी भूखे से
और मेरे गिलास का पानी है किसी प्यासे आदमी का हिस्सा?
और फिर भी मैं खा-पी रहा हूँ.
मैं समझदार हो सकता हूँ खुशी-खुशी.
पुरानी किताबें बताती हैं कि समझदारी क्या है-
नजरअंदाज करो दुनिया की खींचातानी
अपनी छोटी सी उम्र गुजार दो
बिना किसी से डरे
बिना झगड़ा-लड़ाई किए
बुराई के बदले भलाई करते हुए—
इच्छाओं की पूर्ति नहीं बल्कि उन्हें भुलाते हुए
इसी में समझदारी है.
मैं तो इनमें से कुछ भी नहीं कर पाता-
सचमुच मैं अँधिआरे दौर में जी रहा हूँ!
2.
उथल-पुथल के दौरान मैं शहरों में आया
जब हर जगह भूख का राज था.
बगावत के समय आया मैं लोगों के बीच
और उनके साथ मिलकर बगावत की.
इस तरह गुजरा मेरा वक्त
जो मिला था मुझे इस धरती पर.
कत्लेआमों के दरमियान मैंने खाना खाया.
मेरी नींद में उभरती रहीं क़त्ल की परछाइयाँ.
और जब प्यार किया, तो लापरवाही से प्यार किया मैंने.
कुदरत को निहारा किया बेसब्री से.
इस तरह गुजरा मेरा वक्त
जो मिला था मुझे इस धरती पर.
हमारे दौर के रास्ते हमें ले जाते थे बलुई दलदल की ओर.
हमारी जुबान ने धोखा दिया कातिल के आगे.
मैं कुछ नहीं कर सकता था. लेकिन मेरे बगैर
हुक्मरान कहीं ज्यादा महफूज रह सकते थे. यही मेरी उम्मीद थी.
इस तरह गुजरा मेरा वक्त
जो मिला था मुझे इस धरती पर.
3.
तुम, जो इस सैलाब से बच निकलोगे
जिसमें डूब रहे हैं हम ,
जब भी बोलना हमारी कमजोरियों के बारे में,
तो ख्याल रखना
इस अंधियारे दौर का भी
जिसने बढ़ावा दिया उन कमजोरियों को.
जूतों से भी ज्यादा मर्तबा बदले हमने देश.
वर्ग युद्ध में, निराश-हताश
जब सिर्फ नाइंसाफी थी और कोई मजम्मत नहीं.
और हमें अच्छी तरह पता है
कि नफरत, कमीनगी के खिलाफ भी
चेहरे को सख्त कर देती है.
गुस्सा, नाइंसाफी के खिलाफ भी
आवाज़ को तल्ख़ कर देता है.
उफ़, हम जो इस दुनिया में
हमदर्दी की बुनियाद रखना चाहते थे
खुद ही नहीं हो पाये हमदर्द.
लेकिन तुम, जब आखिरकार ऐसा दौर आये
कि आदमी अपने संगी-साथी का मददगार हो जाए,
तो हमारे बारे में फैसला करते वक्त
बेमरौवत मत होना.
(अनुवाद – दिगम्बर)
Subscribe to:
Posts (Atom)