Tuesday, May 14, 2013

रसूल हमजातोव की कविता

rasul hamjatov

मेरी मातृभाषा

हमारी नींदों में आते हैं

अजीबोगरीब ख़यालात-

कल रात मैंने ख्वाब में देखा

कि मरा पड़ा हूँ

एक गहरे खड्ड के किनारे

सीने में धंसी है एक गोली.

 

हहराती-शोर मचाती

बह रही है कोई नदी पास में.

मदद के लिये कर रहा हूँ

वेवजह इंतजार.

पड़ा हुआ हूँ धुल भरी धरती पर

धूल में मिलनेवाला हूँ शायद.

 

किसी को क्या पता

कि मैं मर रहा हूँ यहाँ पड़े-पड़े

कोई हमदर्द नहीं आसपास.

आकाश में मंडरा रहे हैं चील

और शर्मीली हिरने भर रही हैं कुलांचे.

 

कोई नहीं जो मातम मनाये

मेरी बेवक्त मौत पर कोई नहीं रोवनहार

न माँ, न बीवी, न साथी-संगाती

न गाँव-जवार के लोग-बाग.

 

पर ज्योंही मरने को तैयार हुआ

बेखबर और गुमनाम

कि कानों में पड़ी जानी-पहचानी आवाज

मेरी मातृभाषा, अवार भाषा में बतियाते

गुजर रहे थे दो लोग.

 

एक गहरे खड्ड में पड़ा

खत्म हो रहा हूँ मैं नाचीज

और वे मस्ती में बतियाए जा रहे हैं

किसी हसन की मक्कारी या

किसी अली की साजिश के किस्से.

 

जैसे ही मेरे कानों घुली

अवार भाषा की खुशनुमा बातचीत,

मेरी जान आ गयी वापस.

और महसूस हुआ जैसे

किसी हकीम, किसी वैद्य के पास

नहीं है कोई इलाज,

संजीवनी है तो बस अवार भाषा.

 

दूसरी कोई भाषा अपने खास अंदाज में

कर सकती है किसी दूसरे का उपचार,

लेकिन मैं ठहरा अवार.

अगर कल को मिट जाना

नियति है मेरी भाषा की,

तो मैं आज ही मर जाना चाहूँगा.

 

क्या फर्क पड़ता है अगर

नहीं गूँजती बड़ी महफ़िलों में,

पर मेरे लिये अपनी अवार भाषा

माँ के दूध के साथ हासिल अवार ही

सबसे महान है इस धरती पर!

 

आनेवाली नस्लें

सिर्फ तर्जुमा में पढ़ेंगी महमूद की शायरी?

क्या मैं आखिरी आदमी हूँ

अवार भाषा में लिखने

और समझे जाने लायक?

 

मैं प्यार करता हूँ जिन्दगी से

और पूरी दुनिया से

निहारता हूँ टकटकी लगाये

उसका सुन्दर सुहाना रूप.

लेकिन सबसे प्यारी, सबसे न्यारी

हमारी सोवियत भुमि

जिसका गुणगान किया मैंने

अपनी अवार भाषा में.

 

पूरब से पश्चिम तक विस्तृत

मेहनतकशों के इस आजाद देश पर

जान लुटाता हूँ मैं.

पर ख्वाहिश यही है मन में

कि मेरी कब्र बने उस जगह

जहाँ के लोग बोलते हों अवार.

 

और जमा हों वहाँ अवार लोग

बतियाएं आपस में मिलजुल

अवार भाषा में चर्चा करें

कि यहाँ लेटा है हमारा अपना कवि

रसूल, हमारे अपने कवि का बेटा और वारिस.

(अनुवाद- दिगम्बर)

Sunday, May 12, 2013

राय जाहिर करने के बारे में

 

–लू शुन


lu shun


मैनें सपना देखा


कि मैं प्राथमिक विद्यालय की एक कक्षा में था । एक लेख लिखने की तैयारी कर रहा था और मैंने शिक्षक से पूछा कि कोई राय जाहिर करनी हो तो कैसे करें ।

“यह तो कठिन काम है ।” अपने चश्में के बाहर से मेरी ओर निहारते हुए उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ–
“एक परिवार में जब बेटा पैदा हुआ, तो पूरे घराने में खुशी की लहर दौड़ गयी । जब वह बच्चा एक महीने का हो गया, तो वे लोग उसे मेहमानों को दिखाने के लिए बाहर ले आये । जाहिर है कि उन्हें उन लोगों से शुभकामनाओं की उम्मीद थी ।
“एक ने कहा– ‘यह बच्चा धनवान होगा ।’ उसे लोगों ने हृदय से धन्यवाद दिया ।
“एक ने कहा– ‘यह बच्चा बड़ा होकर अफसर बनेगा ।’ उसे भी जवाब में लोगों की प्रशंसा मिली ।
“एक ने कहा– ‘यह बच्चा मर जायेगा ।’ उसके बाद पूरे परिवार ने मिल कर उसकी कस के धुनाई की ।
“बच्चा मरेगा, यह तो अवश्यंभावी है, जबकि वह धनवान होगा या अफसर बनेगा, ऐसा कहना झूठ भी हो सकता है । फिर भी झूठ की प्रशंसा की जाती है, जबकि अपरिहार्य सम्भावना के बारे में दिये गये वक्तव्य पर मार पिटाई होती है । तुम–––”
“मैं झूठी बात नहीं कहना चाहता श्रीमान, और पिटना भी नहीं चाहता । तो मुझे क्या कहना चाहिए ?”
“ऐसी स्थिति में कहो– ‘आ हाहा! जरा इस बच्चे को तो देखो! मेरी तरफ से इसे––– आ हाहा! मेरा मतलब आहाहा! हे, हे! हे, हे, हे, हे।