Saturday, December 22, 2012

वही करो जो मैं कहता हूँ, वैसा नहीं जैसा मैं करूँ!


-माइक फर्नर


(कनेक्टिकट, अमरीका के स्कूल में हुई अंधाधुंध गोलीबारी की घटना पर एक बेबाक टिप्पणी जो हमारे लिए भी विचारणीय है.)

अपनी भोली-भाली जवानी के दिनों में आपने अपने माता-पिता या बड़े भाई-बहनों की तरफ से इन शब्दों को उछाले जाते सुना होगा, खास कर तब जब आपने उनकी किसी ऐसी गलती पर ऊँगली उठाई हो, जिसके बारे में वे आपसे ऊँचे मापदंड अपनाने को कहा करते हों.

“व्यवहार, शब्दों से अधिक मुखर होता है” और “हम उदाहरण से सीखते हैं,” ये दो ऐसी सच्चाइयाँ हैं जिसे इतिहास ने सही ठहराया है. लेकिन इनको व्यवहार में उतरना आसान नहीं है.

एक राष्ट्र के रूप में हम पिछले हफ्ते कनेक्टिकट में भयावह रूप से हताहत लोगों के परिवारों और प्रियजनों के साथ मिल कर शोक मानते हैं. लेकिन उस शोक के साथ चूँकि यह मत भी जुड़ा हुआ है कि आखिर ऐसी नृशंसता दुबारा कैसे घटित हुई, तो मेरी राय में हम इस घटना के शिकार हुए लोगों के परिजनों और खुद अपने साथ भी अपकार करेंगे, यदि  हम सामूहिक कत्लेआम को लेकर अमरीकियों की अभिरुच की छानबीन करते हुए “हमारे आगे जितने भी विकल्प सामने हैं” उन सब पर विचार नहीं करते.

अगर व्यवहार सचमुच शब्दों से अधिक मुखर होता है, तो हमारी युवा पीढ़ी को भला और क्या संस्कार और सीख मिल सकती है, जब हम हरसाल शिक्षा और स्वास्थ्य की तुलना में कहीं ज्यादा मौत और पीड़ा खरीदते हैं; जब हम एक ऐसी संस्कृति को जन्म देते हैं जिसमें हिंसा और सैन्यवाद का उत्सव मनाया जाता है जबकि शान्ति और अहिंसा चाहनेवालों को अनाड़ी, अनुभवहीन स्वप्नदर्शी और यहाँ तक कि एकदम गद्दार करार दिया जाता है; जब हम सेना को महिमामंडित करते हैं और बढ़ावा देते हैं, सेना के कुकृत्यों पर पर्दा डालते हैं; जब हमारा देश इतने हथियार बेचता है जितना पूरी दुनिया मिलकर नहीं बेचती; जब हमारे एक दूतावास पर हमले के बाद देश का नेता कहता है कि “हिंसा के इस्तेमाल के लिए कोई माफ़ी नहीं,” और दूसरे दिन वह अपनी फेहरिस्त के अगले देश और उसके समर्थकों पर बमबारी करने के लिए ड्रोन बम्बबर्षक रवाना करता है?

क्या हम सचमुच यह सोचते हैं कि हम कहें कुछ और करें कुछ, बिना साफ तौर पर यह सीखे कि हिंसा चाहे जितनी भी उत्तेजक और भयावह हो, उससे हमें कैसे निपटना है?
  
इसमें कोई शक नहीं कि जो ताकतें इंसान के दिमाग को इस हद तक मोड़ देती हैं कि वह दर्जनों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दे, वह निश्चय ही जटिल और भयावह होगा. उनमें से कुछ तो इंसान के मन में इतनी गहराई से बैठी हो सकती हैं, जहाँ तक हमारी पहुँच ही न हो. जो भी हो, हमें जानना चाहिए कि आखिर "क्यों"?


अगर हम ऐसा करते हुए इससे मिलने वाले जवाब से इस हद तक भयभीत न हों कि अगली त्रासदी के घटित होने तक हम भाग कर खोल में ही सिमट जाएँ, तो हमें डॉ. मार्टिन लूथर किंग के शब्दों को अपने दिमाग में रखना होगा, जिन्होंने दुर्भाग्यवश अपने देश को “आज की दुनिया में हिंसा का सबसे बड़ा पोषक” कहा था और चेतावनी दी थी कि “जो राष्ट्र साल दर साल सामाजिक उन्नति के कार्यक्रमों की तुलना में सैन्य सुरक्षा पर अधिक खर्च कर रहा है वह आत्मिक मृत्यु के निकट पहुँच रहा है.”

“वही करो जो मैं कहता हूँ, वैसा नहीं जैसा मैं करूँ,” बचपन में ही काम नहीं आया था. यह अब भी काम नहीं आएगा.

(माइक फर्नर ओहियो निवासी लेखक हैं और वेटरन फॉर पीस संस्था के पूर्व अद्ध्यक्ष हैं. मंथली रिव्यू से आभार सहित. अनुवाद- दिगम्बर) 

Wednesday, December 19, 2012

क्या है जो मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी बनाता है?



-माइकल ए. लेबोवित्ज़

ऐसा क्या है जो मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी बनाता है? वह हीगल का रहस्यवाद नहीं है - कि यह एक सर्वव्यापी वर्ग या निरपेक्ष आत्मा की भौंडी नकल है. ऐसा भी नहीं कि मजदूर वर्ग अपनी भौतिक स्थिति की वजह से ही क्रांतिकारी है, यानी उद्योग के पहियों को जाम कर देने के लिये कूटनीति तौर पर उसे वहां बहाल किया गया है.

इसमें ज्यादा हैरत की बात नहीं है कि ये अच्छी-बुरी सारी व्याख्यायें बहुत थोड़े लोगों को ही कायल बना पाती हैं. निश्चय ही, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो पहले इस बात की बहुत अच्छी तरह व्याख्या करते थे कि मजदूर वर्ग क्रांतिकारी क्यों है, लेकिन अब वे कहते हैं कि मजदूर वर्ग का समय आया और चला गया. उदाहरण के लिये, कुछ लोग यह मानते हैं कि, एक ज़माने में, पूंजी मजदूरों को सकेंद्रित करती थी, उन्हें एक साथ आने, संगठित होने और संघर्ष करने का अवसर प्रदान करती थी; मगर, अब पूंजी ने मजदूरों को विकेन्द्रीकृत कर दिया है और उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ इस तरह खड़ा कर दिया है कि अब वे साथ मिलकर संघर्ष नहीं कर पाते. एक ज़माना था, जब मजदूरों के पास खोने के लिये अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ भी नहीं था. लेकिन  अब पूंजीवाद ने उसे अपने अंदर समाहित कर लिया है, वह अब उपभोक्तावाद की जकड़बंदी में है और उसके उपभोग के सामान ही अब उसके मालिक हैं और वे ही उसका इस्तेमाल करते हैं.    

जो लोग यह नतीजा निकालते हैं कि मजदूर वर्ग अब इसलिए क्रांतिकारी नहीं रह गया क्योंकि पूंजीवाद ने उसे रूपांतरित कर दिया है, वे यह दर्शाते हैं कि उन्हें मार्क्सवाद की रत्ती भर भी समझ नहीं है. अपने संघर्षों के जरिये ही मजदूर वर्ग खुद को क्रांतिकारी बनाता है – खुद को रूपांतरित करता है. हमेशा से यही मार्क्स का दृष्टीकोण था – उनका “क्रांतिकारी व्यवहार” कि अवधारणा, जिसके दौरान हालात भी बदलते हैं और साथ ही साथ खुद मजदूर वर्ग में भी बदलाव आते हैं. अपने संघर्षों के जरिये ही मजदूर वर्ग खुद को बदलता है. वह खुद को नयी दुनिया का निर्माण करने के लायक बनाता है.

लेकिन मजदूर संघर्ष क्यों करते हैं? मजदूरों के सभी संघर्षों में एक ही बुनियादी बात है जिसे मार्क्स “विकास के लिए मजदूरों की अपनी जरुरत” कहते हैं. हम जानते हैं कि मार्क्स का यह मानना था कि वेतन-भत्ते के संघर्ष अपने आप में अपर्याप्त हैं. लेकिन वह यह भी मानते थे कि इन संघर्षों में शामिल न होना, मजदूरों को “उदासीन, विचारहीन और कमोबेश उत्पादन के खाते-पीते उपकरण” बना देगा. मार्क्स का तर्क था कि संघर्षों के अभाव में मजदूर “उदास, मानसिक रूप से कमज़ोर, क्लांत और विरोध न करने वाली भीड़” बनकर रह जायेंगे. संघर्ष उत्पादन की एक प्रक्रिया हैं- जो एक अलग तरह के मजदूर का निर्माण करती है, एक ऐसा मजदूर जो अपने आप को उत्पादित करता/करती है, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसका सामर्थ्य बढ़ता है, आत्मविश्वास विकसित होता है और जिसकी संगठित होने और आपस में जुड़ने की क्षमता विस्तृत होती है. लेकिन हम ऐसा क्यों सोचते हैं कि यह संघर्ष सिर्फ वेतन-भत्ते की लड़ाई तक ही सीमित है? हर एक संघर्ष जिसमें लोग खुद हि मजबूती से डटे रहते हैं, हर एक संघर्ष जिसमें लोग सामाजिक न्याय पर जोर देते हैं, हर एक संघर्ष जिसमें वे खुद अपनी संभावनाओं और अपने विकास की जरुरत समझते हैं, उसमें शामिल लोगों के सामर्थ्य को बढ़ाते हैं.      

      इतना ही नहीं, ये संघर्ष हमें पूंजी के खिलाफ खड़ा करते हैं. क्यों? क्योंकि पूंजी एक ऐसा  अवरोध है जो हम सब के बीच और हमारे खुद के विकास के बीच बाधा बन कर खड़ी होती है. और ऐसा इसलिये है कि पूंजी ने सारी सभ्यताओं से हासिल उपलब्धियों को अपने कब्जे में कर लिया है, क्योंकि यह सामाजिक मष्तिस्क और सामाजिक श्रम का मालिक बन बैठी है, और यह हमारे उत्पादों को और मजदूरों के उत्पादों को हमारे ही खिलाफ खड़ा कर देती है; जिसके पीछे  सिर्फ एक ही मकसद होता है, खुद का फायदा – यानी मुनाफा. अगर हमें अपनी जरूरतों को पूरा करना है और अपनी क्षमता का विकास करना है, तो हमें पूंजी के खिलाफ संघर्ष करना जरूरी है  और इसी के दौरान हम मजदूर खुद को क्रांतिकारी बनाते हैं.  

लेकिन हम लोग कौन हैं? वह मजदूर वर्ग कौन है जो क्रांतिकारी है? आपको पूँजी के अंतर्गत इसका जवाब नहीं मिलेगा. मार्क्स की पूंजी मजदूर वर्ग के बारे में नहीं है – सिवाय इसके कि मजदूर वर्ग उसका एक लक्ष्य है. पूंजी में जिस चीज की ब्याख्या की गयी है वह है पूंजी की प्रकृति, इसका लक्ष्य और इसकी गतिकी. मगर मजदूर वर्ग के बारे में यह सिर्फ इतना ही बताती है कि पूंजी मजदूर वर्ग के खिलाफ काम करती है. और चूँकि वह मजदूर वर्ग को एक विषय के तौर पर पेश नहीं करती, इसलिये वह इस बात पर केंद्रित नहीं है कि पूंजी अपने इस मातहत के खिलाफ कैसे लड़ती है. इसके लिये हमें मार्क्स की दूसरी रचनाओं और उनकी टिप्पणियों को देखना होगा कि कैसे पूंजीपति वर्ग मजदूरों को बाँटकर और उन्हें अलग-थलग करके अपनी सत्ता बनाये रखता है (विशेष तौर पर अंग्रेज और आयरिश मजदूरों को). और, हालाँकि मार्क्स ने स्पष्ट तौर पर टिप्पणी की है कि “पूंजी की समकालीन सत्ता” मजदूरों में नयी जरूरतें पैदा करने पर ही “पूंजी की समकालीन सत्ता निर्भर” है, लेकिन उन्होंने किसी भी  जगह इस प्रश्न की जांच-पड़ताल नहीं की है.  

इसलिये, समकालीन मजदूर वर्ग की प्रकृति एक ऐसा महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका जवाब किसी किताब में नहीं ढूंढा जा सकता. हमें खुद ही इस सवाल का जवाब तलाशना होगा. आज कौन है जिसके पास पूंजी नहीं है? कौन है जो उत्पादन के साधनों से अलग है और जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिये पूंजी के आगे एक याचक की तरह खड़ा होता है? निश्चय ही, इसमें सिर्फ वही शामिल नहीं है जो पूंजी को अपनी श्रम शक्ति बेचता है, बल्कि वे भी शामिल हैं जिनकी हैसियत पूंजी को अपनी श्रम शक्ति बेचने लायक भी नहीं हैं – सिर्फ शोषित मजदूर ही नहीं, बल्कि वे भी जिन्हें हासिये पर फेंक दिया गया है. और निश्चय ही, इसमें वे भी शामिल हैं, जो बेरोजगारों की विशाल आरक्षित सेना मौजूद होने के चलते, पूंजी के विस्तार के अधीन काम करते हैं और सारा जोखिम खुद ही उठाने को मजबूर हैं – अर्थात जो लोग अनौपचारिक (असंगठित) क्षेत्र में अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत हैं. भले ही वे फैक्ट्री में काम करने वाले पुरुष मजदूर के घिसेपिटे मानदण्ड पर खरे नहीं उतारते हों, क्योंकि यह मानदण्ड तो हमेशा से ही गलत था.                

निश्चय ही, हमें मजदूर वर्ग की विविधतापूर्ण प्रकृति की पहचान करने से शुरु करना होगा. क्योंकि मार्क्स जानते थे कि मजदूर वर्ग के बीच के मतभेद पूंजी के शासन का जारी रहना संभव बनाते हैं. लेकिन मार्क्स यह भी जानते थे कि संघर्षों के दौरान ही हमारी एकता का निर्माण होता है. और हम अपने खुद के विकास की जरुरत के सामूहिक लक्ष्य को पहचान कर और यह पहचान कर कि “प्रत्येक व्यक्ति का स्वतंत्र विकास सभी के स्वतंत्र विकास की जरूरी शर्त है”, उस एकता का निर्माण कर सकते है. हमें यह विश्वास दिलाकर कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, पूंजी विचारों की इस लड़ाई को जीतती आ रही है और जो लोग मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी मानने से इंकार करते हैं, वे इस काम में पूँजी के मददगार हैं. हालाँकि, अपने  विकास के अधिकार पर जोर देकर हम विचारों की इस लड़ाई को लड़ सकते हैं. मार्क्स और एंगल्स यह जानते थे कि मजदूरों से “अपने अधिकारों के लिये लड़ने का आह्वान करना ‘उन्हें’, क्रांतिकारी, संगठित समूह में ढालने का एक साधन मात्र है.” हमारे पास जीतने के लिये एक पूरी दुनिया है – वह दुनिया जिसका हम हर रोज निर्माण करते हैं.
(माइकल ए. लेबोवित्ज़ वेंकूवर (कनाडा) के साईमन फ्रेसर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर और बियोंड कैपिटल, बिल्ड ईट नाउ, और द सोसिअलिस्ट अल्टरनेटिव सहित कई पुस्तकों के लेखक हैं. यह लेख उनकी किताब बियोंड कैपिटल के आने वाले ईरानी संस्करण का प्राक्कथन है. मंथली रिव्यू के प्रति आभार सहित. अनुवाद- दिनेश पोसवाल)

Monday, December 17, 2012

गाजा के बारे में ख़ामोशी – महमूद दरवेश



(अगर गद्य कवियों के लिए कसौटी है तो फिलीस्तीनी शायर महमूद दरवेश इस पर पूरी तरह खरे उतरते हैं. गाजा पर इजरायली हमले के समय 2007 में लिखी गयी उनकी  इस रचना का अंग्रेजी अनुवाद सिनान अन्तून ने की थी. हिंदी अनुवाद  उसी पर आधारित है.)

गाजा अपने रिश्तेदारों से बहुत दूर और दुश्मनों के करीब है, क्योंकि जब कभी धमाका करता है गाजा, तो यह एक टापू में तब्दील हो जाता है और कभी यह धमाका करना बंद नहीं करता. इसने दुश्मन के चेहरे को खरोंचा, उसके मंसूबों को ध्वस्त किया और वक्त के साथ उसके इत्मीनान को रोक दिया.
क्योंकि गाजा में वक्त कुछ अलग ही चीज है.
क्योंकि गाजा में गैरतरफ़दार नहीं है वक्त का मिजाज.
यह लोगों को अपने इरादे ठंडा करने पर मजबूर नहीं करता, बल्कि धमाका करने और हकीकत से टकराने की सीख देता है.
वक्त यहाँ बच्चों को बचपन से बुढापे की ओर नहीं ले जाता, बल्कि दुश्मन से पहली झड़प के साथ ही उन्हें इन्सान बना देता है.
गाजा में वक्त आराम नहीं, बल्कि तपती दोपहर की आंधी है. क्योंकि गाजा के उसूल बिलकुल अलग हैं, बिलकुल अलग.
जो दूसरे के कब्जे में हो, उसका वसूल सिर्फ यही होता है कि किस हद तक वह कब्जे का विरोध करता है. सिर्फ यही एक मुकाबला है वहाँ. गाजा इस जालिम और शानदार उसूल को जानने-समझने का आदी हो गया है. वह इसे किताबों से, उतावले स्कूली सेमिनारों से, धुआँधार प्रचार करते भोंपुओं से या गानों से नहीं सीखता. वह महज तजुर्बे और कार्रवाई से सीखता है इसे, जो इस्तहार और दिखावे के लिए नहीं किया जाता.
गाजा का गला नहीं है. इसकी सुराखें हैं जो बोलती हैं पसीने, खून और आग की जुबान. इसीलिए दुश्मन इससे मौत की हद तक नफ़रत करता है और जुर्म की हद तक डरता है. और इसीलिए इसके रिश्तेदार और दोस्त शरमाते हुए इससे प्यार करते हैं जो समय-समय पर जलन और खौफ की वजह बन जाता है, क्योंकि गाजा अपने दुश्मनों और दोस्तों, दोनों के लिए एक ही साथ जालिमाना सबक और चमकदार मिशाल है.
गाजा कोई बेहद खूबसूरत शहर नहीं है.
इसके समुद्री किनारे अरबी शहरों के किनारों से ज्यादा नीले नहीं हैं.
इसके संतरे भूमध्य सागर के पूर्वी छोर के निहायत खूबसूरत संतरों जैसे नहीं हैं.
गाजा सबसे अमीर शहर नहीं है.
यह सबसे खूबसूरत और सबसे बड़ी जगह नहीं है, मगर एक भरे-पूरे वतन की तारीख़ के बराबर है, क्योंकि दुश्मन की निगाह में यह कहीं ज्यादा बदसूरत, कंगाल, दुखी और शातिर है. क्योंकि दुश्मन के मिजाज और सकून को परेशान करने में हम सब में इसे ही सबसे ज्यादा महारत हासिल है. क्योंकि उसके लिए यह एक खौफनाक ख्वाब है. क्योंकि यह बारूदी संतरा है, बिन बचपन के बच्चे, बिन बुढ़ापा के बूढ़े और बगैर ख्वाहिश की औरतें. इन्हीं चीजों के चलते यह हम सब में सबसे खूबसूरत, पाक और अमीर है और सबसे ज्यादा प्यार के काबिल है.
हम गाजा के साथ नाइंसाफी करते हैं जब हम इसकी नज्मों की तलाश करते हैं, इसलिए हमें गाजा की खूबसूरती को बिगाडना नहीं चाहिए. इसमें जो सबसे सुन्दर है वह ये कि ऐसे वक्त यह शायरी से महरूम है जब हमने कोशिश की कि दुश्मन पर शायरी के जरिये जीत हासिल करें, और इस तरह हमने खुद पर भरोसा किया और बहुत खुश थे कि दुश्मन हमें गाने दे रहा है. हमने उसे जीतने दिया, और फिर गाते-गाते जब हमारे होंठ खुश्क हो गये, तब हमने देखा कि दुश्मन ने शहरों, किलों और सड़कों की तामीर पूरी कर ली. हमने गाजा के साथ नाइंसाफी की जब हमने इसे मिथ में तब्दील कर दिया, क्योंकि हम इस बात से नफरत करेंगे जब हम पायेंगे कि यह एक छोटे से गरीब शहर के सिवा कुछ भी नहीं जो कब्ज़े की मुखालफत करता है.
हम नाइंसाफी करते हैं जब इस बात पर ताज्जुब करते हैं- वो क्या था जिसने इसे मिथ में बादल दिया? अगर हममें वकार होता तो हमने सारे शीशे चकनाचूर कर दिये होते और अगर खुद के खिलाफ बगावत करने से इनकार करते तो इस बात पर रोते और लानत भेजते. हम गाज़ा के साथ नाइंसाफी करते हैं जब इसे आसमान पर चढाते हैं, क्योंकि इसका जादुई असर हमें इंतज़ार के आखिरी छोर तक ले जायेगा और गाजा कभी हमारे हाथ नहीं आएगा. गाजा हमें आजाद नहीं करता. गाजा के पास घोड़े, हवाईजहाज और जादू की छड़ी नहीं हैं, राजधानियों में दफ्तर नहीं हैं. गाजा हमारी खूबियों से खुद को आजाद करता है और साथ ही हमारी जुबान को गजाओं से आज़ाद करता है. जब ख्वाबों में हमारी मुलाकात इसके साथ हो तो शायद यह हमें पहचान भी न पाए, क्योंकि गाजा का जन्म आग से हुआ था, जबकि हम लावारिस छोड़ दिये गये मकानों में इंतजार करते और रोते-बिलखते पैदा हुए थे.
ये सच है कि गाजा के अपने खास हालात और इसकी अपनी इंकलाबी रवायतें हैं. लेकिन इसका राज कोई गडबडझाला नहीं- कब्जे के मुखालफत की इसकी लड़ाई आमफहम है और आपस में मजबूती से जुड़ी हुई है और इसे पता है कि उसे क्या चाहिए (यह दुश्मन को अपनी सरहद के बाहर खदेड़ना चाहता है). कब्जे की मुखालफत की लड़ाई और आम अवाम के बीच का रिश्ता वैसा ही है जैसे चमड़े और हड्डी के बीच, न कि उस्ताद और शागिर्द के बीच.  गाजा में मुखालफत की लड़ाई किसी पेशे में या संस्था में नहीं बदली है.
इसे किसी का दुमछल्ला बनना काबूल नहीं और अपनी किस्मत किसी के दस्तखत या मुहर के साथ टांकना भी मंजूर नहीं.
यह इस बात की भी परवाह नहीं करता कि हम इसके नाम, तस्वीर या वाक्पटुता से वाकिफ हैं या नहीं. यह नहीं मानता कि यह मीडिया के लिए कोई मसाला है. यह कैमरे के लिए तैयारी नहीं करता और न ही अपने चेहरे पर मुस्कराहट थोपता है.
इन सब की न तो इसे ख्वाहिश है, न हमलोगों को.
इसीलिए तो सौदागरों की निगाह में गाजा एक खराब कारोबार है और इसीलिए अरबों की निगाह में एक लाजवाब नैतिक खजाना.
गाजा की खूबसूरती यह है कि हमारी आवाज इस तक नहीं पहुँचती. कोई चीज इसे टस से मस नहीं करती; कोई चीज इसकी मुट्ठी को दुश्मन के चेहरे से इधर-उधर नहीं कर पाती. हम चाँद के पूरब की ओर या मंगल की खोज हो जाने पर उसके पश्चिम की ओर फिलीस्तीनी रियासत का ढाँचा खड़ा नहीं करेंगे. गाजा नामंजूरी के लिए हरदम तैयार है....भूख और नामंजूरी, प्यास और नामंजूरी, बेदखली और नामंजूरी, अत्याचार और नामंजूरी, घेराबंदी और नामंजूरी, मौत और नामंजूरी.
हो सकता है कि दुश्मन गाजा पर जीत हासिल कर ले (तूफानी समुन्दर एक छोटी सी टापू पर जीत हासिल कर सकता है... वे इसके सारे दरख्तों को काट कर गिरा सकते हैं).
वे इसकी हड्डियां तोड़ सकते हैं.
वे इसके बच्चों और औरतों के भीतर टैंक घुसा सकते हैं. वे इसे समन्दर, रेत या लहू में डुबो सकते हैं.
लेकिन यह झूठ को नहीं दुहरायेगा और हमलावरों के आगे “हाँ” नहीं कहेगा.
यह लगातार धमाका करता रहेगा.
यह मौत नहीं, न ही यह ख़ुदकुशी है. यह गाजा का अपना खास अंदाज है इस बात के ऐलान का कि उसे जीने का हक है. यह लगातार धमाका करता रहेगा.

Tuesday, December 4, 2012

धरती : एक वर्जित ग्रह



-जोर्ज मोनबियट
मानवता के सबसे बड़े संकट के साथ-साथ एक ऐसी विचारधारा का भी उदय हुआ, जो उस संकट के समाधान को असंभव बना देती है. 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, जब यह साफ़ हो गया कि मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन ने इस जानदार ग्रह और इसके निवासियों को खतरे में डाल दिया है, उसी समय दुनिया एक अतिवादी राजनीतिक सिद्धांत की गिरफ्त में आ गयी, जिसके जड़सूत्र ऐसे किसी भी हस्तक्षेप का निषेध करते हैं जो इस संकट से निजात पाने के लिए जरूरी हैं.
नवउदारवाद, जो बाजार-कट्टरपन्थ या मुक्त-बाजार अर्थव्यवस्था के नाम से भी जाना जाता है, इसका अभिप्राय बाजार को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना है. इसका जोर इस बात पर है कि राज्य को बाजार की हिफाजत करने, निजी सम्पत्ति की रक्षा करने और व्यापार के रास्ते की बाधाएँ हटाने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहिए. व्यवहार में यह चीज देखने को नहीं मिलती. नवउदारवादी सिद्धांतकार जिसे सिकुड़ना कहते हैं, वह लोकतंत्र के सिकुड़ने जैसा दिखता है- नागरिक जिन साधनों से अभिजात वर्ग की सत्ता पर अंकुश रख सकते हैं, उन्हें कम करते  जाना. जिसे वे “बाजार” कहते हैं, वह वास्तव में बहुराष्ट्रीय निगमों और चरम-धनवानों का स्वार्थ ही दिखाई देता है. लगता है, जैसे नवउदारवाद केवल अल्पतन्त्र को उचित ठहराने का साधन मात्र हो.
इस सिद्धांत को पहलेपहल 1973 में चिली पर आजमाया गया था. शिकागो विश्वविद्यालय के एक पुराने विद्यार्थी ने जो मिल्टन फ्रीडमैन के अतिवादी नुस्खों में दीक्षित हुए थे, सीआइए के पैसे से जेनरल पिनोचे के साथ मिल कर वहाँ इस सिद्धांत को जबरन लागू करवाया, जिसको किसी लोकतान्त्रिक देश में थोपना असंभव होता. इसका नतीजा एक ऐसी आर्थिक तबाही के रूप में सामने आया जिसमें धनी वर्ग, जिसने चिली के उद्योगों के निजीकरण के बाद उनका मालिकाना हथिया लिया था और वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया था, लगातार समृद्ध होता गया.
इस पंथ को मारग्रेट थैचर और रोनाल्ड रीगन ने अपना लिया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश और विश्व बैंक ने इसे गरीब देशों पर जबरदस्ती थोपा. जब 1988 में जेम्स हानसेन ने अमरीकी सीनेट में पहली बार धरती के तापमान में भावी बढ़ोतरी के बारे में अपना विस्तृत माडल प्रस्तुत किया, तब इस सिद्धांत को पूरी दुनिया में लागू करवाया जा रहा था.
जैसा कि हमने 2007 और 2008 में देखा (जब नवउदारवादी सरकारों को बाध्य किया जा रहा था कि वे बैंकों को उबारने से सम्बंधित अपनी नीति को त्यागें), तब किसी तरह के संकट का सामना करने की इतनी खराब परिस्थिति इससे पहले शायद ही कभी रही हो. जब कोई विकल्प न रह जाय तबतक, संकट चाहे जितना ही तीक्ष्ण हो और उसके परिणाम चाहे जितने भी गम्भीर क्यों न हों, आत्म-घृणाशील राजसत्ता दखल नहीं देगा. लेकिन नवउदारवाद सभी तरह की मुसीबतों से अभिजात वर्ग की हिफाजत करता है.
विश्व बैंक, अंतरार्ष्ट्रीय ऊर्जा एजेन्सी और प्राइसवाटरहाउसकूपर जैसे हरित अतिवादियों ने इस शताब्दी के लिए चार डिग्री, पांच डिग्री और छः डिग्री ग्लोबल वार्मिंग का जो पूर्वानुमान लगाया है, उसके चलते होनेवाले पर्यावरण विनाश से बचने का मतलब होगा- तेल, गैस और कोयला उद्योग से सीधे टक्कर लेना. इसका मतलब है उद्योगों पर इस बात के लिए दबाव डालना कि वे अपने अस्सी फीसदी से भी अधिक खनिज तेल भंडार का त्याग करें, जिसे जलाए जाने से होने वाला नुकसान हमारे बर्दास्त से बाहर है. इसका मतलब है नए तेल भंडारों का पता लगाने और उन्हें विकसित करने कि कार्रवाइयों को रद्द करना, क्योंकि जब हम पहले वाले भण्डार का ही इस्तेमाल नहीं कर सकते, तो नया खोजने से क्या फायदा? और इसका मतलब होगा ऐसे किसी भी नए संरचनागत ढाँचे के निर्माण (जैसे- हवाई अड्डे) पर रोक लगाना, जिसे बिना तेल के चलाना ही सम्भव न हो.
लेकिन आत्म-घृणाशील राजसत्ता कोई कार्रवाई कर ही नहीं सकती. जिन स्वार्थों से लोकतंत्र को बचना चाहिए, उनकी गिरफ्त में होने के चलते वे केवल बीच सड़क पर बैठे, कान खोदते और मूँछ ऐंठते रहेंगे, जबकि धड़धड़ करता ट्रक उनकी ओर आता जायेगा. टकराहट वर्जित है, कार्रवाई करना प्राणघातक पाप है. आप चाहें तो कुछ पैसे वैकल्पिक ऊर्जा पर बिखेर सकते हैं, लेकिन पुराने कानूनों की जगह कोई नया कानून नहीं बना सकते.
बराक ओबामा वे उस नीति को आगे बढ़ाते हैं जिसे वे “सबसे श्रेष्ठ” बताते हैं- हवा, सौर, तेल और गैस को प्रोत्साहन देना. ब्रिटिश जलवायु परिवर्तन सचिव, एड डेवी पिछले हफ्ते सामान्य सदन में ऊर्जा बिल पेश करते हैं, जिसका उद्देश्य ऊर्जा आपूर्ति को कार्बन रहित बनाना है. उसी बहस के दौरान वे वादा करते हैं कि वे उत्तरी सागर और दूसरे विदेशी तेल कुओं में तेल और गैस के उत्पादन की “क्षमता को बढ़ाएंगे.”
लोर्ड स्टर्न ने जलवायु परिवर्तन को परिभाषित करते हुए कह था कि यह “यह बाजार व्यवस्था की ऐसी विराटतम और व्यापक दायरे वाली असफलता है, जो पहले कभी देखने में नहीं आई थी.” जून में बेमतलब का पृथ्वी सम्मेलन, दोहा में आजकल जिस पर बहस हो रही है वे बोदे उपाय, ऊर्जा बिल और ब्रिटेन में पिछले हफ्ते जारी बीजली की माँग घटाने से सम्बंधित परचा (बेहतर होता कि ये सारे उपाय समस्या की गंभीरता के मद्देनजर इतने गये-गुजरे न होते), ये सब कुछ बाजार कट्टरपंथ की विराटतम और व्यापकतम असफलता को बेनकाब करते हैं- यह हमारे अस्तित्व से जुड़ी इस समस्या को हल करने में इस व्यवस्था की अक्षमता को दर्शाता है.
हजार वर्षों की विरासत में मिला मौजूदा कार्बन उत्सर्जन ही मानव सभ्यता से मिलतीजुलती किसी भी चीज को चकनाचूर कर देने के लिए काफी है. जटिल समाजों ने समय-समय पर साम्राज्यों के उत्थान-पतन, प्लेग, युद्ध और अकालों को  झेल लिया. वे छः डिग्री जलवायु परिवर्तन को नहीं झेलपाएंगे जिसे शहस्राब्दी तक जारी रहना है. 150 वर्षों के विस्फोटक उपभोग की एवज में, जिसके ज्यातर हिस्से का मानवता की भलाई से कोई लेना-देना नहीं रहा, हम प्राकृतिक विश्व और उस पर निर्भर मानवीय व्यवस्था को खंड-खंड बिखेर रहे हैं.
दोहा जलवायु शिखर (या तलहटी) वार्ता तथा नए उपायों के बारे ब्रिटिश सरकार की चीख-पुकार से यह थाह लग जाता है कि मौजूदा राजनीतिक कार्रवाइयों की कितनी सीमाएं हैं. आप आगे बढ़े नहीं कि सत्ता के साथ आपकी प्रतिज्ञा भंग हुई, दोनों तरह की प्रतिज्ञाएं- चाहे वह परदे के पीछे की गयी हो या नवउदारवादी पंथ द्वारा उसे मान्यता मिली हो.       
नवउदारवाद इस समस्या की जड़ नहीं है – अक्सर इस विचारधारा का इस्तेमाल बेलगाम अभिजात वर्ग द्वारा दुनिया के पैमाने पर सत्ता, सार्वजनिक सम्पत्तियों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माने को उचित ठहराने के लिए किया जाता है. लेकिन इस समस्या का तब तक समाधान नहीं किया जा सकता जब तक एक प्रभावशाली राजनितिक विकल्प के जरिये इस सिद्धांत को चुनौती नहीं दी जाती.     
दूसरे शब्दों में जलवायु परिवर्तन- और वे तमाम संकट जो मानव तथा प्रकृति को अपने शिकंजे में जकड़े हुए हैं- उनके खिलाफ संघर्ष में तब तक  जीत हासिक नहीं  की जा सकती है जब तक एक  व्यापक राजनीतिक संघर्ष न छेडा जाय, धनिक तंत्र के खिलाफ व्यापक जनता कि जनवादी गोलबंदी न की जाय. मेरा मानना है कि इसकी शुरुआत उस वित्तीय व्यवस्था के खिलाफ सुधार अभियान के जरिये होनी चाहिए जिसके माध्यम से बहुराष्ट्रीय निगम और धनाढ्य वर्ग राजनीतिक फैसलों और नेताओं की खरीद-फरोख्त करते हैं. अगले कुछ हफ़्तों के भीतर ही हमारे साथियों में से कुछ लोग ब्रिटेन में एक याचिका दायर करके इस मुहीम की शुरुआत करेंगे. मुझे यकीन है कि आप उस पर जरुर हस्ताक्षर करेंगे.          
लेकिन यह तो एक विनम्र शुरुआत भर होगी. निश्चय ही हमें एक नयी राजनीति की रूपरेखा तैयार करनी होगी- जो जन हस्तक्षेप को न्यायसंगत मानती हो, जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों  द्वारा बाजार को मुक्त कराने के घिनौने मकसद से कहीं ज्यादा महान उद्देश्य अन्तर्निहित हो, जो मुठी-भर उद्योगों को को खास तरजीह देकर उन्हें बचने के बजाय, आम जनता और इस सजीव संसार के अस्तित्व को ज्यादा अहमियत देती हो. दूसरे शब्दों में, एक ऐसी राजनीति जो हमारी अपनी हो, न कि मुट्ठी भर चरम अमीर तबके के लिए.
(4 दिसम्बर को गार्जियन में प्रकाशित लेख का आभार सहित प्रस्तुति. अनुवाद – दिगम्बर)
इस लेख में दिये गये पाद-टिप्पणियों का अनुवाद नहीं किया गया है. जिन पाठकों की रूचि हो, वे कृपया मूल अंग्रेजी पाठ देख लें, जिसका लिंक नीचे दिया गया है.

Tuesday, November 27, 2012

दुनिया का ‘सबसे गरीब’ राष्ट्रपति : जोसे मुजिका



जोसे मुजिका का खेत में बना मकान, उनकी पत्नी और कुत्ता (फोटो- बीबीसी)
-व्लादिमीर हर्नान्डेज



यह एक आम शिकायत है कि राजनीतिज्ञों की जीवनशैली उन लोगों से बिलकुल अलहदा होती है जो उन्हें चुनते हैं. लेकिन उरूग्वे में ऐसा नहीं है. यहाँ के राष्ट्रपति से मिलें– जो खेत में बने एक जर्जर मकान में रहते हैं और अपनी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा दान कर देते हैं.

अपने कपड़े वे खुद ही धोकर घर के बाहर सूखाते हैं. पानी उनके अहाते में बने कुएँ से आता है, जहाँ घास-फूस फैली रहती है. सिर्फ दो पुलिस अधिकारी और एक तीन टांग वाला कुत्ता, मनुएला बाहर रखवाली करते हैं.

यह उरूग्वे के राष्ट्रपति, जोसे मुजिका का घर है जिनकी जीवनशैली दुनिया के दूसरे नेताओं से साफ तौर पर बिलकुल अलग है.

राष्ट्रपति मुजिका ने उस आरामदेह निवास को त्याग दिया जो उरूग्वे की सरकार अपने नेताओं को उपलब्ध कराती है और उन्होंने राजधानी के बाहर मोंटेवीडियो में, धूलभरी सड़क पर स्थित, अपनी पत्नी के खेत में बने घर में रहने का विकल्प चुना.

राष्ट्रपति और उनकी पत्नी जमीन पर खुद खेती करते हुए, फूल उगाते हैं.

इस सीधी-सरल जीवनशैली और इस तथ्य ने कि मुजिका अपनी मासिक तनख्वाह का 90 फीसदी, यानी लगभग 12,000 डॉलर, परोपकार के लिये दान कर देते हैं – मुजिका पर दुनिया के सबसे गरीब राष्ट्रपति होने का तमगा लगा दिया है.

बगीचे में एक पुरानी कुर्सी पर अपने प्यारे कुत्ते मनुएला को तकिये की तरह बगल में लिटाकर बैठे, वे कहते हैं, “मैंने अपना ज्यादातर जीवन इसी तरह जिया है.”

“मेरे पास जो कुछ है, उससे मैं अच्छी तरह जी सकता हूँ.”

उनकी तनख्वाह एक औसत उरूग्वेवासी की मासिक आय लगभग 775 डॉलर के बराबर है. 2010 में, उनकी घोषित वार्षिक आय– उरुग्वे में अधिकारियों के लिये इसकी घोषणा करना अनिवार्य है– 1800 डॉलर थी, जो उनकी 1887 मॉडल फ़ोल्क्सवेगन बीटल मोटर गाड़ी की कीमत है.

इस साल उन्होंने इस सम्पत्ति में अपनी पत्नी की आधी सम्पत्ति को भी शामिल कर लिया है, जिसमें जमीन, ट्रेक्टर्स और एक घर शामिल है. इसके कारण उनकी कुल सम्पत्ति बढ़कर 2,15,000 डॉलर हो गयी, जो अभी भी उप-राष्ट्रपति डनिलो एस्टोरी की घोषित सम्पति का सिर्फ दो-तिहाई, और मुजिका के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति, तबारे वास्कुएज़ की सम्पत्ति से एक-तिहाई कम है.

2009 में निर्वाचित, मुजिका ने 1960 और 1970 के दशक उरूग्वे के टुपामारोस गुरिल्ला के सदस्य के रूप में बिताये. यह क्यूबा की क्रांति से प्रेरित एक वामपंथी सशस्त्र संगठन था. उन्हें छह बार गोली लगी और उन्होंने १४ साल जेल में बिताये. उनके कारावास का ज्यादातर समय कठोर परिस्थितियों और एकांतवास में गुजरा, जब १९८५ में उरूग्वे में जनतंत्र की बहाली हुयी और उन्हें आजाद कर दिया गया, तबतक.

मुजिका कहते है, जेल में बिताये गये उन वर्षों के दौरान ही उन्हें जीवन के प्रति अपना नजरिया गढ़ने में मदद मिली.

“मुझे ‘सबसे गरीब राष्ट्रपति’ कहा जाता है, परन्तु मैं गरीब महसूस नहीं करता. गरीब लोग वे हैं जो सिर्फ एक महंगी जीवनशैली को बनाये रखने के लिये काम करते हैं, और हमेशा पहले से ज्यादा हासिल करना चाहते हैं,” वह कहते हैं.

उनका मानना है कि “यह आज़ादी का मामला है. अगर आपके पास बहुत ज्यादा सम्पति नहीं है, तब आपको उसे बनाये रखने के लिये एक गुलाम की तरह सारी उम्र काम करने की जरुरत नहीं है और इस तरह आपके पास अपने लिये ज्यादा वक्त होता है.”

“मैं एक पागल और सनकी बूढ़ा आदमी लग सकता हूँ. लेकिन यह एक अपनी मर्जी से चुना गया विकल्प है.”

उरूग्वे के इस नेता ने इस साल जून में सम्पन्न, रियो+२० सम्मेलन में दिये गये अपने व्याख्यान में भी इसी तरह की बात रखी- “हम पूरी दोपहरी टिकाऊ विकास के बारे में बातें करते रहे. आम आदमी को गरीबी से उबारने के बारे में बातें करते रहे.

“लेकिन हम क्या सोच रहे हैं? क्या हम अमीर देशों के विकास और उपभोग के माडल को अपनाना चाहते हैं? अब मैं आपसे पूछता हूँ- इस ग्रह का क्या होगा अगर अमेरिकी महाद्वीप के हर मूलनिवासियों के घर में उसी अनुपात में कारें होंगी जितनी जर्मनी वालों के पास हैं? तब हमारे पास कितनी आक्सीजन शेष बचेगी?

“क्या इस ग्रह के पास इतने पर्याप्त संसाधन है कि सात या आठ अरब लोग उसी स्तर पर उपभोग और फिजूलखर्ची कर सकें, जैसा कि आज हम अमीर समाजों में देखते हैं? यह अत्याधिक-उपभोग का स्तर है जो हमारे ग्रह को हानि पहुँचा रहा है.”

मुजिका दुनिया के ज्यादातर नेताओं में “उपभोग के सहारे विकास हासिल करने के प्रति अंधा जूनून होने,” का इल्जाम लगाते हैं, “मानो इसका उल्टा हो, तो दुनिया का अन्त हो जायेगा.”

मुजिका अपने पूर्ववर्तियों की तरह एक विशाल आधिकारिक निवास में रह सकते थे. लेकिन शाकाहारी मुजिका और दूसरे नेताओं के बीच का अंतर भले ही कितना ज्यादा हो, वह अपने राजनैतिक जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव के मामले में उनसे ज्यादा सुरक्षित नहीं हैं.

इस संबंध में उरूग्वे के एक मतदान सर्वेक्षक इग्नासियो जुआस्नाबर कहते हैं- “क्योंकि जिस तरह वह रहते हैं उसकी वजह से बहुत से लोग राष्ट्रपति मुजिका से सहानुभूति रखते हैं. लेकिन इससे उनकी इस बात के लिए आलोचना रुक नहीं जाती कि उनकी सरकार कैसा काम कर रही है.” उरूग्वे के विपक्षी दल कहते हैं कि देश की हालिया आर्थिक सम्रद्धि के बावजूद स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक सेवाओं में बेहतर बदलाव नहीं आया है. शायद यही कारण है कि 2009 में चुनाव के बाद से पहली बार मुजिका की लोकप्रियता 50 फीसदी से भी नीचे गिर गयी है.

इस साल दो विवादित कार्यवाहियों के चलते उन्हें काफी आलोचना का सामना करना पड़ा. उरूग्वे की कांग्रेस ने हाल ही में एक बिल पास किया, जिसमे १२ हफ़्तों तक के भ्रूण का गर्भपात कराना क़ानूनी रूप से वैध बना दिया गया है. अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत, मुजिको ने इसे वीटो नहीं किया.

ऐसा करने बजाय, उन्होंने अपनी पत्नी के मकान पर ही रुके रहने का विकल्प चुना.

वह भांग के उपभोग को क़ानूनी वैधता दिलाने की बहस का भी समर्थन कर रहे हैं, एक ऐसा बिल जो राष्ट्र को इसके व्यापार पर एकाधिकार भी दिला देगा.

“भांग का उपभोग सबसे ज्यादा चिंता की बात नहीं है, नशीली दवाओं का व्यापार वास्तविक समस्या है,” वह कहते हैं.

फिर भी, उन्हें अपनी लोकप्रियता की रेटिंग को लेकर ज्यादा चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है – उरूग्वे के कानून के मुताबिक वह 2014 में फिर से चुनाव नहीं लड़ सकते. और चूँकि वे 77 साल के हैं, इसलिए शायद वे उससे पहले ही रिटायर हो जायेंगे.

जब वह रिटायर होंगे, तब वह राष्ट्र से मिलने वाली पेंशन के अधिकारी होंगे– और दूसरे पूर्व राष्ट्रपतियों के विपरीत, उन्हें आय में होने वाली कमी का अभ्यस्त होने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी.


टुपामारोस गुरिल्ला

· प्रारम्भ में गरीब गन्ना कामगारों और विद्यार्थियों को मिलाकर इस वामपंथी गुरिल्ला दल का गठन किया गया.

· इंका राजा टुपाक अमारू के नाम पर इसका नामकरण किया गया.

· राजनैति़क अपहरण इनकी मुख्य रणनीति थी– 1971 में ब्रिटेन के राजदूत जिओफ्री जैक्सन को आठ महीने तक कैद में रखा.

· 1973 में राष्ट्रपति जुआन मारिया बोरडाबेरी के तख्तापलट के बाद इसे कुचल दिया गया.

· मुजिका जेल जाने वाले कई विद्रोहियों में से एक थे, उन्होंने ने 14 साल सलाखों के पीछे बिताये – जब तक 1985 में संवैधानिक सरकार की वापसी हुयी.

· उन्होंने टुपामारोस को एक क़ानूनी राजनैतिक पार्टी में रूपांतरित करने में मुख्य भूमिका निभायी, जो फ्रंटे अम्प्लियो (व्यापक मोर्चे) गठबंधन में शामिल हो गया.


(बीबीसी न्यूज से साभार. अनुवाद- दिनेश पोसवाल)

नायपॉल को क्यों सम्मानित किया जा रहा है?


(लैंडमार्क लिटरेचर लाइव के मुम्बई साहित्य उत्सव में गिरीश कर्नाड को नाटककार के रूप में अपने जीवन की उपलब्धियों पर विचार रखने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन उन्होंने वहाँ नायपॉल के व्यक्तित्व और कृतित्व का खुलासा करना जरूरी समझा, जिन्हें लाइफटाइम अचिवमेन्ट अवार्ड दिये जाने के अवसर पर वह कार्यक्रम आयोजित था. आयोजकों को भले ही यह नागवार गुजरा हो, लेकिन उनके इस भाषण ने नायपॉल के विचारों और उनको पुरस्कृत-प्रतिष्ठित किये जाने की पूरी परिघटना को समझने का एक सही परिप्रेक्ष दिया है. प्रस्तुत है उस भाषण का सम्पादित अंश.)

लैंडमार्क लिटरेचर लाइव ने मुम्बई साहित्य उत्सव में सर बिदिया नायपॉल को इस वर्ष का लाइफटाइम अचिवमेन्ट अवार्ड प्रदान किया. नेशनल सेन्टर फॉर परफोर्मिंग आर्ट्स में 31 अक्टूबर को आयोजित पुरष्कार समारोह में किसी ने शर्म के मारे इस बात की चर्चा नहीं की कि नायपॉल न तो भारतीय हैं और न ही उन्होंने कभी ऐसा दावा ही किया है. किसी ने इस पर कोई सवाल नहीं उठाया और उपन्यास लेखिका शशि देशपाण्डे ने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा आयोजित नीमराना उत्सव के बारे में जो कुछ कह था, वाह इस आयोजन पर भी सटीक बैठता है- “यह एक नोबेल पुरष्कार विजेता का जश्न था, जिसे भारत बड़ी उम्मीद और चापलूसी भरे अंदाज में भारतीय मानता है.”

उनके दो उपन्यासों में भारत से सम्बंधित घटनाएँ हैं और उनमें काफी गहराई है. इसके अलावा नायपॉल ने भारत के बारे में तीन किताबें लिखीं हैं, जो शानदार तरीके से लिखी गयी हैं- निश्चय ही वे हमारी पीढ़ी के महान अंग्रेजी लेखकों में से एक हैं. आधुनिकता की और भारत की यात्रा की निरन्तर खोज के रूप में इन कृतियों का स्वागत हुआ है, लेकिन उनकी पहली ही किताब द उंडेड सिविलाइजेशन से ही जो चीज किसी को भी खटकती है, वह है भारतीय मुसलमानों के प्रति उनका उन्मादपूर्ण विद्वेष. शीर्षक में जिस “जख्म” का उल्लेख है, वह बाबर के हमले द्वारा भारत को दिया गया जख्म है. तभी से, नायपॉल ने यह बताने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया कि उन्होंने भारत को पाँच सौ सालों तक क्षत-विक्षत किया, दूसरी तमाम बुराइयों के अलावा उन्होंने यहाँ गरीबी पैदा की और यहाँ की गौरवशाली संस्कृति को नष्ट किया.   
     
इन किताबों के बारे में एक बात जो एकदम खटकती है वह यह कि भारतीय संगीत के बारे में इन में से किसी भी किताब में एक भी शब्द नहीं है. और मेरा मानना है कि अगर संगीत पर ध्यान नहीं देते तो आप भारत को समझ ही नहीं सकते. संगीत भारतीय अस्मिता को परिभाषित करने वाला कला रूप है. आधुनिक भारतीय संस्कृति की समग्र खोज करते हुए इस विषय पर नायपॉल की चुप्पी मेरे लिए इस बात का सबूत है कि वे सुर बधिर हैं- जिसकी बजह से वे हिंदू-मुस्लिम सृजनशीलताओं के उस जटिल अन्तरगुम्फन के प्रति असंवेदनशील हो गये हैं जो भक्ति और सूफी आन्दोलनों का प्रतिफल है, जिसने हमें असाधारण विरासत सौंपी है जो हर भारतीय परिवार के दिल में जिन्दा है.

हालाँकि इस कमी के बावजूद, नायपॉल ने विलियम जोन्स जैसे 18वीं और 19वीं सदी के ब्रिटिश संगीतशास्त्रियों से भारी मात्रा में भारतीय संस्कृति के सिद्धांत उधार लिए हैं. ये विद्वान कई दूसरी प्राचीन सभ्यताओं से भी परिचित थे, जैसे- मिस्र, यूनान और रोम. लेकिन वे इस बात से चकित थे कि इन सभ्यताओं के साथ ही इनकी संगीत परंपरा पूरी तरह विलुप्त हो गयी, जबकि भारतीय संगीत परंपरा जीवित और फलती-फूलती रही. उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि एक समय का यह विशुद्ध और प्राचीन संगीत लंबे इतिहास के दौरान किसी खास मोड़ पर भ्रष्ट और विकृत कर दिया गया- और इस खलनायक को उन्होंने हमलावर मुसलमानों के रूप में ढूँढ निकाला. इस तरह उनकी राय में, किसी समय एक प्राचीन भारतीय संगीत की संस्कृति रही थी, जिसके साथ मुसलमानों ने छेड़खानी की.
   
भारतीय संस्कृति के अपने विश्लेषण में नायपॉल ने सीधे-सीधे इसी तर्क-रेखा को उधार लेकर उसे पुनर्बहाल किया है- अपनी मौलिक धरना के रूप में. और ऐसा उन्होंने कोई पहली बार नहीं किया है.

नायपॉल ने आर.के. नारायण पर आरोप लगाया कि वे विजयनगर के खण्डहरों से जिस तबाही और मौत का संकेत मिलता है, उसके प्रति उदासीन हैं, जो उनकी निगाह में हिंदू संस्कृति का एक गढ़ था और जिसे लूटेरे मुसलमानों ने तबाह कर दिया. लेकिन विजयनगर के इतिहास की यह व्याख्या, उन्हें सन 1900 में प्रकाशित रॉबर्ट सेवेल की किताब ऐ फॉरगोटन एम्पायर से पका-पकाया मिल गया. नायपॉल, हमेशा की तरह अपने औपनिवेशिक स्रोतों के प्रति नतमस्तक, किसी सिद्धांत को सीधे-सीधे उधार लेते हैं और उसे पूरी तरह अपना बताते हुए दुहराने लगते हैं. पिछली सदी से ही उस स्थल पर कार्यरत इतिहासकारों  और पुरातत्ववेत्ताओं ने यह साबित किया है कि परिस्थितियां कहीं ज्यादा जटिल थीं और दिखाया है कि इस टकराव में धर्म की नाममात्र की भी किसी भूमिका का उनके लिए कोई मायने नहीं.

ताज के बारे में, जो भारत में सबसे प्यारा स्मारक है, नायपॉल लिखते हैं- “ताज इतना फालतू, इतना पतनशील और अंततः इतना क्रूरतापूर्ण है कि वहाँ देर तक ठहरना पीड़ादायी है. यह एक फिजूलखर्ची है जो जनता के खून का बयान करता है.” इतिहासकार रोमिला थापर के इस तर्क को कि मुग़ल काल हिंदू और मुस्लिम शैली के मिश्रण की समृद्ध प्रफुल्लता को दर्शाता है, वे यह कहते हुए नकार देते हैं कि उनका यह निर्णय मार्क्सवादी पूर्वाग्रह की देन है और कहते हैं- “सही सच्चाई यह है कि हमलावर अपनी कार्रवाइयों को कैसे देखते थे. वे जीत रहे थे. वे गुलाम बना रहे थे.” नायपॉल के लिए भारतीय मुसलमान हमेशा हमलावर बने रहते हैं, हमेशा निंदनीय और निरादर के लायक हैं, क्योंकि उनमें से कुछ के पूर्वज हमलावर थे. यह एक ऐसी रीति है जिसे अमरीका पर आजमाया जय तो इसके कुछ विस्मयकारी नतीजे सामने आयेंगे. 
            
जहाँ तक नायपॉल के आधुनिक भारत की पत्रकारों जैसी खोज की बात है, यह मुख्यतः नाना प्रकार के भारतीय लोगों के साक्षात्कार की एक पूरी श्रृंखला की शैली में है. मानना पड़ेगा कि यह बहुत ही अच्छी तरह लिखी गयी है और वे जिन लोगों से मिलते हैं और जहाँ-जहाँ जाते हैं, उनका बहुत ही तीक्ष्ण और सटीक चित्र खींचते हैं. जो चीज कुछ ही देर बाद झुंझलाहट पैदा करती है, वह यह कि बिना किसी अपवाद के वे जिस भी व्यक्ति से बात करते हैं, वह ऐसा लगता है कि वे जो भी सवाल करते हैं, उसका वह उसी विवेकशीलता और रमणीयता से जवाब देता है, जो खुद उन्हीं की शैली है. यहाँ तक कि काम पढ़े-लिखे लोग भी उनके प्रश्नों का निस्संकोच उत्तर देने की व्याधि से ग्रस्त होते हैं.

वे जिन वार्तालापों को रिकार्ड करते हैं, वे कितने विश्वसनीय होते हैं? अपने एक मशहूर निबंध में नायपॉल ने नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ डिजाइन, अहमदाबाद की यात्रा का वर्णन किया है जहाँ वे उस संस्थान के निदेशक, अपने मित्र, अशोक चटर्जी के साथ ठहरे थे. हालही में एक इमेल में श्री चटर्जी ने कहा कि वह लेख “एक ऐसी कथानक है, जैसा हो सकता था, लेकिन वह नहीं है जो (नायपॉल ने) वहाँ वास्तव में देखा था. यथार्थ के टुकड़े, चुनिन्दा और विशुद्ध कल्पना के कोलाज में एक साथ सजाये गये.” चटर्जी की नायपॉल के साथ मित्रता का अचानक अंत हो गया, जब चटर्जी ने नायपॉल से कह कि उनकी किताब, ऐ उंडेड सिविलाइजेशन  को गल्प की श्रेणी में रखा जाना चाहिए.

एक ताजा किताब में नायपॉल ने जो 19वीं सदी के अंत में सूरीनाम जा कर बसनेवाले मुंसी रहमान खान की आत्मकथा का परीक्षण किया है और गांधी के साथ उनका विरोधाभास चिन्हित किया है. इतिहासकार संजय सुब्रमण्यम ने उस निबंध की समीक्षा की और उनको यह पता लगाने में ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ा कि नायपॉल ने महज उसके मूल पाठ का तीसरी भाषा में किया गया अनुवाद ही पढ़ पाये. “यह वैसे ही है, जैसे गोरखपुर का कोई पाठक नायपॉल को मैथिली भाषा में पढे और वह भी तब जबकि उसका अनुवाद जापानी भाषा से किया गया हो.” लेकिन यह चीज नायपॉल को रहमान खान की शैली और उनके भाषा सम्बंधी प्रयोग पर नरनायक टिप्पणी करने से नहीं रोकती.  
  
निश्चय ही यह सवाल है कि लाइफटाइम अचीवमेन्ट अवार्ड देकर पुरस्कार देनेवालों द्वारा क्या सन्देश दिया जा रहा है. एक पत्रकार के रूप में वे भारत के बारे में क्या लिखते हैं, यह उनका मामला है. कोई भी उनके लापरवाह होने और छलकपट करने के अधिकार पर सवाल नहीं उठा सकता.

लेकिन नोबेल पुरष्कार ने उन्हें एक अचानक प्राधिकार दे दिया है और उनके द्वारा इसके इस्तेमाल पर नजर रखना जरूरी है.

नोबेल पुरष्कार मिलने के बाद नायपॉल ने सबसे पहले जो काम किये, उनमें से एक यह था कि वे भाजपा के दिल्ली कार्यालय में गये. जिन्होंने पहले यह घोषित किया था कि वे राजनीतिक नहीं हैं, क्योंकि “राजनीतिक दृष्टिकोण रखना प्रोग्राम्ड होना है,” अब घोषित किया कि वे राजनीतिक रूप से “सही जगह आकर” खुश हैं. यह तभी की बात है जब उन्होंने अपनी बहुत ही प्रसिद्द टिप्पणी की थी- उन्होंने कहा था कि “अयोध्या एक तरह का जूनून है. कोई भी जूनून रचनात्मक होता है. भावोद्रेक रचनात्मकता की और ले जाता है.”
सलमान रुश्दी की प्रतिक्रिया थी कि नायपॉल का व्यवहार “फासीवाद के सहयात्री जैसा है और वे नोबेल पुरष्कार का अपमान कर रहे हैं.” 

एक विदेशी के लिए अयोध्या किसी अमूर्त सिद्धांत का मनोरंजक प्रमाण हो सकता है जिसे उसने खुद गढा हो (या उसे पका-पकाया मिल गया हो). लेकिन इसी अयोध्या के चलते अकेले मुम्बई की सडकों पर ही 1500 मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था. जिस समय दंगा भड़का, मैं दिल्ली के एक फिल्म फेस्टिवल में शामिल था और मुम्बाई से मेरे दोस्तों के आक्रोश भरे फोन आ रहे थे कि मुसलमानों को उनके घरों से खींचकर निकाल कर या सडकों पर रोक कर उनकी हत्या की जा रही है. मैंने अपने मुस्लिम संपादक को फोन करके बताया कि जब तक स्थिति सामान्य न हो जाय, वह अपने परिवार सहित हमारे फ़्लैट में जा सकता है, जो पारसी बहुल इलाके में है. महान मराठी अभिनेत्री फय्याज़, जिसके बारे में आख़िरकार एक हफ्ते बाद मुझे पता चला कि वह डर कर मुम्बई से पुणे भाग आयी थी. उसने बताया कि किस तरह शिव सैनिकों ने मुस्लिम झुग्गी-बस्तियों में बम फेंक कर आग लगाई और जब वहाँ के निवासी आतंकित हो कर घरों से बाहर निकले तो पुलिस ने उन्हें बलवाई कह कर गोली मार दी.


सात साल बाद नायपॉल इन घटनाओं का बड़े ही निर्मम ढंग से “जूनून” कह कर महिमामण्डित कर रहे थे, इसे “रचनात्मक कार्रवाई” बता रहे थे.

यह ध्यान देने योग्य है कि पुरष्कार के प्रसस्ति-पत्र में नायपॉल के समाजशास्त्रीकरण के इस पहलू का कोई उल्लेख नहीं किया गया है. फार्रुख ढोंडी ने भी अपने साक्षात्कार में इसका जिक्र नहीं किया, हालाँकि उन्होंने एमंग द विलिव्हर किताब  का नाम लिया और फिर तुरंत इस बात की लम्बी-चर्चा में मशगूल हो गये कि 13 साल पहले किस तरह उन्होंने विदिया को एक बिल्ली गोद लेने लेने में मदद की थी और कैसे एक दिन वह उनकी गोद में पड़ी-पड़ी सो रही थी- जिस बात ने नायपॉल एक और मौका दे दिया कि वे भावुकता में बह कर फूट-फूट कर रो पड़ें. शायद ढोंडी यह साबित करने की कोशिश कर रहे थे नायपॉल कितने “मानवीय” हैं.

लेकिन जिस लैंडमार्क लिटरेचर लाइव ने इस अवार्ड की घोषणा की है, उसकी यह जिम्मेदारी है कि वे हमलोगों को बताएं कि वे नायपॉल की टिप्पणियों से सहमत हैं या नहीं. क्या वे नायपॉल की इस समझ का भाव बढ़ाना चाहते हैं कि भारतीय मुसलमान आक्रांता और लूटेरे हैं? क्या वे उनके द्वारा लगातार दिये जानेवाले इस तर्क का समर्थन कर रहे हैं कि भारत की मुस्लिम इमारतें बलात्कार और लूट के स्मारक हैं? या वे अपनी चुप्पी के जरिये यह बता रहे हैं कि इन विचारों का कोई मायने ही नहीं है?

अगर यह अवार्ड देनेवाले लोग इस बाहरी व्यक्ति द्वारा भारतीय आबादी के एक समूचे तबके को बलात्कारी और हत्यारा बताते हुए उसे अपराधी करार देने की अपनी राय पर जानबूझ कर चुप हैं, तो हमें कहने दिया जाय कि यह चुप्पी लापरवाही से भी अधिक बुरी है. यह हतप्रभ कर देने वाला है.

जहाँ तक इस अवार्ड का सवाल है, इसे शर्मनाक ही कह जा सकता है.

(गिरीश कर्नाड के भाषण का सम्पादित अंश मिन्ट से साभार. अनुवाद- दिगम्बर)

Wednesday, November 21, 2012

कविता : आओ कसाब को फाँसी दें

-अंशु मालवीय


आओ कसाब को फाँसी दें !

उसे चौराहे पर 
फाँसी दें !

बल्कि उसे उस चौराहे पर 
फाँसी दें

जिस पर फ्लड लाईट लगाकर

विधर्मी औरतों से बलात्कार किया गया

गाजे-बाजे के साथ

कैमरे और करतबों के साथ

लोकतंत्र की जय बोलते हुए

उसे उस पेड़ की डाल पर 
फाँसी दें

जिस पर कुछ देर पहले खुदकुशी कर रहा था किसान

उसे पोखरन में 
फाँसी दें

और मरने से पहले उसके मुंह पर

एक मुट्ठी रेडियोएक्टिव धूल मल दें

उसे जादूगोड़ा में 
फाँसी दें

उसे अबूझमाड़ में 
फाँसी दें

उसे बाटला हाउस में 
फाँसी दें

उसे 
फाँसी दें.........कश्मीर में

गुमशुदा नौजवानों की कब्रों पर

उसे एफ.सी.आई. के गोदाम में 
फाँसी दें

उसे कोयले की खदान में 
फाँसी दें.

आओ कसाब को 
फाँसी दें !!

उसे खैरलांजी में 
फाँसी दें

उसे मानेसर में 
फाँसी दें

उसे बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर 
फाँसी दें

जिससे मजबूत हो हमारी धर्मनिरपेक्षता

कानून का राज कायम हो

उसे सरहद पर 
फाँसी दें

ताकि तर्पण मिल सके बंटवारे के भटकते प्रेत को

उसे खदेड़ते जाएँ माँ की कोख तक......और पूछें

जमीनों को चबाते, नस्लों को लीलते

अजीयत देने की कोठरी जैसे इन मुल्कों में

क्यों भटकता था बेटा तेरा

किस घाव का लहू चाटने ....

जाने किस ज़माने से बहतें हैं

बेकारी, बीमारी और बदनसीबी के घाव.....

सरहद की औलादों को ऐसे ही मरना होगा

चलो उसे रॉ और आई.एस.आई. के दफ्तरों पर 
फाँसी दें

आओ कसाब को 
फाँसी दें !!

यहाँ न्याय एक सामूहिक हिस्टीरिया है

आओ कसाब की 
फाँसी को राष्ट्रीय उत्सव बना दें

निकालें प्रभातफेरियां

शस्त्र-पूजा करें

युद्धोन्माद,

राष्ट्रोन्माद,

हर्षोन्माद

गर मिल जाए कोई पेप्सी-कोक जैसा प्रायोजक

तो राष्ट्रगान की प्रतियोगिताएं आयोजित करें

कंगलों को बाँटें भारतमाता की मूर्तियां

तैयारी करो कम्बख्तो ! 
फाँसी की तैयारी करो !

इस एक 
फाँसी से

कितने मसले होने हैं हल

निवेशकों में भरोसा जगना है

सेंसेक्स को उछलना है

ग्रोथ रेट को पहुँच जाना है दो अंको में

कितने काम बाकी हैं अभी

पंचवर्षीय योजना बनानी है

पढनी है विश्व बैंक की रपटें

करना है अमरीका के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास

हथियारों का बजट बढ़ाना है...

आओ कसाब को 
फाँसी दें !

उसे गांधी की समाधि पर 
फाँसी दें

इस एक काम से मिट जायेंगे हमारे कितने गुनाह

हे राम ! हे राम ! हे राम !

Saturday, November 10, 2012

पूँजीवाद और “मानव स्वभाव” : एक भंडाफोड

अमरीकी महाद्वीप के मूलनिवासियों का उपहार पर्व- पोटलैच

 -जय मूर 
द वेल्थ ऑफ नेशंस के सबसे मशहूर हिस्से में, जहाँ श्रम विभाजन के फायदों की चर्चा की गयी है, एडम स्मिथ इस सिद्धांत को आगे बढ़ाते हैं कि “यह चीज सभी मनुष्यों में समान है” कि उनमें “एक चीज के बदले दूसरी चीज की लेन-देन, अदला-बदली और विनिमय की स्वाभाविक प्रवृति” पायी जाती है. स्मिथ इस बात को खोल कर नहीं बताते कि क्या यह “प्रवृति” मूल मानवीय स्वभाव का मामला है या, प्रबोधनकालीन एडम स्मिथ के लिए ऐसा मानना सुविधाजनक है कि यह मनुष्य की वैसी ही अनोखी क्षमता है जिस तरह चेतना और बोलने की क्षमता. लेकिन इसी अप्रमाणित धारणा के ऊपर कि ऐसी किसी “प्रवृति” का अस्तित्व है, और इसी के साथ एक और ऐसी ही अप्रमाणित धारणा को मिला कर कि अभाव की परिस्थिति में बेपनाह जरूरतों की ख्वाहिश रखने वाला “स्वामित्वशाली व्यक्तिवाद” विश्वव्यापी जन्मजात मानवीय प्रवृति है, पूरा का पूरा आधुनिक नव-क्लासिकीय अर्थशास्त्र इसी पर टिका हुआ है. मुख्यधारा के अर्थशास्त्र की कोई भी किताब पलट के देखिये तो आपका सामना एडम स्मिथ के प्रसिद्द उद्धरण से होगा, जिसे पूँजीवाद और तथाकथित “मुक्त बाजार” की श्रेष्ठता के पक्ष में एक स्वयंसिद्ध प्रस्थान बिन्दु माना जाता है, क्योंकि उन फर्जी आर्थिक रूपों से इस फर्जी मानवीय प्रवृति का काफी मेल बैठता है.

जिस किसी को भी इतिहास और मानवशास्त्र के गहन अध्ययन का अवसर मिला हो, जैसा कि मुझे, जिसने स्थान और काल से परे मानव समाजों और संस्कृतियों की बड़े पैमाने पर परिवर्तनशीलता पर मुग्ध हुआ हो और कुछ बुनियादी समानताओं और विन्यासों पर विचार किया हो (जिनके अस्तित्व को ऐतिहासिक भौतिकवाद दर्शाता है) तो उसने उपरोक्त धारणा के इस चरम कुतर्क पर ध्यान दिया होगा कि आधुनिक बुर्जुआ का ठेठ चरित्र ही सर्वव्यापी मानव चरित्र है. इतिहास के पूरे दौर में अधिकांश मनुष्यों ने ऐसी “प्रवृति” को नहीं दर्शाया है.

कई समाजों में, और शायद सभी समाजों में व्यापारियों का अस्तित्व रहा है, लेकिन जिन लोगों ने भी खुद को धनी बनाने के उद्देश्य से पेशे के रूप में यह काम किया, उन्हें संदेह से देखा जाता रहा है. व्यापार मुख्यतः सामाजिक हासिये पर ही किया जाता था. और, जैसा कि डेविड ग्राएबर ने “कर्ज” के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में अपनी चिरस्मरणीय रचना में दर्शाया है, अब तक ज्ञात कोई भी समाज वस्तु विनिमय पर आधारित नहीं रहा है. आधुनिक युग के पहले तक उपहार की अर्थव्यवस्था सबसे अधिक प्रचलित थी, जिसमें समाज में चीजें एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक परिचालित होती थीं और कोई इस बात की गणना नहीं करता था कि उसने जो कुछ दिया उसके बदले उसी के बराबर या उससे बड़ी कोई चीज वापस मिले, यानी कोई भी व्यक्ति संभावित लाभ की उम्मीद नहीं करता था. “अग्रिम भुगतान” की अवधारणा इसी का आधुनिक प्रतिरूप है.

जब यूरोप के लोगों का पहले-पहल उत्तर-पश्चिमी तटवासी इन्डियन (अमरीका के मूलनिवासी) लोगों से सामना हुआ तो वे यह देख कर हैरान रह गये कि वहाँ के निवासियों में धन बटोरने की अंतहीन पूँजीवादी हवस नहीं थी, बल्कि समाजिक जरूरतें पूरी करने के उद्देश्य से संग्रह करने या उपहार देकर अपनी स्थिति सुधारने की प्रथा थी और उपहार पर्व मनाने और अपनी सम्पदा को बाँट कर खत्म करने का चलन था. इसीलिए उन्होंने वहाँ के लोगों का दमन किया तथा इंडियन लोगों के मन में कार्य नैतिकता, बचत और निवेश के बारे में बुर्जुआ विचारों को ठूँस-ठूँस कर भर दिया. कनाडा की सरकार ने 1884 में उपहार पर्व को गैरकानूनी घोषित कर दिया; फिर भी कुछ मूलनिवासी इंडियनों ने इस “असभ्य” प्रथा को जारी रखा तो उन्हें जेल में ठूँस दिया गया और उनके आनुष्ठानिक स्मरण-चिन्हों को उनसे छीन लिया गया. (उन स्मरण चिन्हों को अजायब घरों में रख दिया गया, जहाँ शीशे के खाने में पड़े-पड़े वे विस्मृति के गर्त में चले गये.) अफ्रीका में, सभी यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने एक ही तरह के निराशा का इजहार किया, जब बाजार के प्रलोभनों के जरिये वे वहाँ के मूलनिवासियों से अधिक उत्पादन के लिए कठिन श्रम नहीं करवा पाए. उल्टे हुआ यह कि अफ्रीकी ग्रामीण अगर कुछ अधिक अर्जित करने में समर्थ भी थे, जैसा कि आधुनिक युग से पहले की दुनिया के कई दूसरे हिस्से के किसान, तो वे अक्सर काम काम करना पसंद करते थे और छुट्टी का जम के मजा लेते थे. जब उन पर झोपड़ी टैक्स थोपा गया और हिंसा का तांडव किया गया, तब मजबूर होकर उन्होंने बाजार के लिए अधिक उत्पदान किया.
   
इसके अलावा, यह भी जरूरी नहीं कि बाज़ार में छोटे पैमाने की भागीदारी पक्के तौर पर पूँजीवादी मूल्यों को अपनाने का इजहार करती है, हालाँकि एक लंबे अरसे के दौरान विचारों और कार्रवाइयों पर इसका विनाशकारी प्रभाव जरुर हुआ होगा. लोगों ने “परंपरागत” सामाजिक उत्पादन के लिए “एक चीज के बदले दूसरी चीज की लेन-देन, अदला-बदली और विनिमय” करने का फैसला लिया होगा और जरूरी नहीं कि इसके पीछे मुनाफा कमाना ओर “तरक्की करना” उनका उद्देश्य रहा हो. उपहार की अर्थव्यवस्था भी उसी के साथ-साथ या बाजार आर्थव्यवस्था के साथ तालमेल करते हुए चलती रही होगी. उत्तरी-पश्चिमी तटवासी अमरीकी मूलनिवासी यूरोप के साथ ऊन और मछली का व्यापार करते थे, ताकि बदले में वे अपने उपहार पर्व (पोटलैच) के लिए अनोखी वस्तुएँ हासिल कर सकें.

हालही में मैंने एक दिलचस्प किताब पढ़ी- द डिस्कवरी ऑफ फ़्रांस: ऐ हिस्टोरिकल जोगरफी फ्रॉम द रेवोलूशन टू द फर्स्ट वर्ल्ड वार, जिसके लेखक ग्राहम रोब हैं. इसमें विस्तार से यह बताया गया है कि प्रांतीय फ़्रांस में रोजमर्रे का जनजीवन कैसा था और आधुनिकता के उभर के बाद उसमें किस तरह बदलाव आया. यह ठीक वही समय था जब व्यावहारिक रूप से अब तक अपनी कीमत पर पूरी जिन्दगी गुजारते आ रहे ग्रामीण लोग, अमूमन हैरत और नाउम्मीदी के साथ देख रहे थे कि अब वे “फ़्रांस” नामक एक कहीं बड़े सत्ता के अंग हैं. एक छोटी सी कहानी खास तौर पर मेरे दिमाग में बस गयी है- ऑरजेनिया इलाके में महिलाओं का एक समूह कपड़ों की सिलाई-बुने के लिए एकत्र होता था जहाँ दूसरों के लिए काम करने के बदले घुमंतू व्यापारी उनको बहुत ही थोड़े पैसे देते थे. लेकिन वहाँ मामला पैसा कमाने का था ही नहीं. असली बात शाम होने के बाद भी घर से बाहर निकलने और आपसी मेलजोल की थी. कपड़ों की सिलाई-कढाई से जितने पैसे मिलते थे वे तो चिराग जलाने के लिए तेल खरीदने में ही लग जाते थे. रोब कहते हैं कि इन महिलाओं जैसे लोगों के व्यवहार को प्रेरित करने वाला कारक किसी आर्थिक जरुरत से कहीं ज्यादा अपनी ऊब मिटाना होता था.

ऐसे ही कई और उदाहरण दिये जा सकते हैं जो दिखाते हैं कि एडम स्मिथ ने मानव जाति का जो काल्पनिक खाका बनाया है उसमें अधिकांश मनुष्य फिट नहीं बैठते, न तो स्वाभाविक रूप से और नही “तर्क” का अभ्यास करने से. जैसा कि कार्ल पोलान्यी ने द ग्रेट ट्रांसफोर्मेशन में दिखाया है, मानव समाज विभिन्न प्रकार की आर्थिक तार्किकताओं का वाहक रहा है; सब को उन्होंने इन समूहों में रखा है- परस्पर लेनदेन, पुनर्वितरण, परिवार के उपभोग के लिए उत्पादन और बाजार व्यवस्था. बाजार व्यावस्था की प्रधानता से पहले की अर्थव्यवस्थाएं अकेले व्यक्ति की सत्ता नहीं होती थीं. बावजूद इसके कि वहाँ विभिन्न सत्रों और अधिक समानता वाले समाजों में अंतर मौजूद था, सभी अर्थव्यवस्थाएँ सामाजिक संबंधों में “सन्निहित” या “अंतर्गुम्फित” थीं और सम्मान जैसी नीतियों पर आधारित थीं- सीधे निजी आर्थिक स्वार्थों से उनका कोई लेना-देना नहीं था. पोलान्यी दर्शाते हैं कि किस तरह “एक चीज के बदले दूसरी चीज की लेन-देन, अदला-बदली और विनिमय,” जो इस हद तक समाज की चारित्रिक विशेषता बन गये हैं, इंग्लैण्ड में, जो कि इनका मुख्य उद्भव स्थल है, स्वाभाविक रूप से नहीं आए थे. 18वीं सदी के उत्तरार्ध और 19वीं सदी की शुरुआत (जो इस किताब का शीर्षक है) में मुक्त व्यापार अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों की आड़ में कठोर कानूनों की एक पूरी श्रृंखला को जबरन लागू करके इसे संस्थाबद्ध किया गया था. पूँजीवादी सम्पत्ति संबंधों और पूँजीवादी मानदंडों को थोपने और बनाये रखने में राजसत्ता ने केन्द्रीय भूमिका निभाई थी और आज भी निभा रही है.

अच्छी हैसियत वाले पूँजीपतियों और मुख्यधारा के पूँजीवाद समर्थक अर्थशास्त्रियों की निगाह में निजी स्वार्थों को अधिकाधिक बढ़ाने वाले व्यवहारों के अलावा सभी तरह के आचरण “अतार्किक” होते हैं. स्कूलों में “व्यापार में कैसे सफल हों,” इस बारे में तो ढेर सारे पाठ्यक्रम होते हैं, लेकिन सहकारी समितियों का गठन और संचालन कैसे करें या शोषणकारी और अलगाव का शिकार बनाने वाली “मुक्त बाजार” प्रक्रिया के किसी दूसरे विकल्प के पाठ्यक्रम शायद ही होते हों.

आश्चर्य की बात नहीं कि इस माहौल में एक सामूहिक सुर उभरता है जो किसी भिन्न राय पर विचार करते हुए उसे विदेशी और ‘काल्पनिक” बताता है और कहता है कि इसे तो असफल होना ही है. लेकिन हम यह पूछ सकते हैं कि हमारा यह समाज कितना तार्किक है जहाँ धनी और गरीब के बीच, 1 % और 99 % के बीच विकराल और विस्मयकारी असमानता मौजूद है, जहाँ एक अरब लोग रोज भूखा सोते हैं, जबकि बेलगाम विकास और उसे टिकाये रखने के लिए बेशुमार उपभोग की आदत ने समूची पृथ्वी के पर्यावरण को तबाह कर दिया और इसके विनाश का खतरा पैदा कर दिया?

हालाँकि आधुनिक काल से पहले या उसके शुरूआती युग के लोगों का रोमानी चित्र खींचना उचित नहीं, फिर भी रोब कंगाली की गर्त में पड़े, अनिश्चितता में डूबे फ़्रांसिसी किसान का वर्णन करते हैं जो कुर्क अमीन या मूसलाधार बारिश का इंतजार करता थरथर काँपता रहता था. कितना अच्छा होता कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के चलते उत्पादन क्षमता में जो अद्भुत वृद्धि हुई है उसका संचालन एक समकालीन “सहकारी राष्ट्रमंडल” के जरिये होता, जो पूँजीवादी निजी मुनाफाखोरी से नहीं, बल्कि उपहार अर्थव्यवस्था और इतिहासकारों द्वारा वर्णित मानवीय किस्म की मूल्य-मान्यताओं से प्रेरित होता. 

(जय मूर एक रेडिकल इतिहासकार हैं. वेरमौंट के ग्रामीण इलाके में रहते हैं और जब कभी काम मिल जाता है तो पढाने का काम करते हैं. मंथली रिव्यू से आभार सहित. अनुवाद- दिगम्बर)