Friday, July 15, 2011

सोजे वतन - कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अमर रचना


सोजे वतन, यानि देश का दर्द. प्रेमचंद की उर्दू कहानियों का यह पहला संग्रह १९०७ में ‘नवाब राय’ के नाम से छपा. अंग्रेजी हुक्मरानों को इन कहानियों में बगावत की गूँज सुनाई दी. हम्मीरपुर के कलक्टर ने प्रेमचंद को बुलवाकर उनसे इन कहानियों के बारे में पूछताछ की. प्रेमचंद ने अपना जुर्म कबूल किया. उन्हें कड़ी चेतावनी दी गयी और सोजे वतन की ५०० प्रतियाँ जो अंग्रेजी हुकूमत के अफसरों ने जगह-जगह से जप्त की थीं, उनको सरे आम जलाने का हुक्म दिया.

हालाँकि सोजे वतन में शामिल सभी पाँच कहानियाँ उर्दू मासिक ‘जमाना’ में पहले ही छप चुकी थीं और इन में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेज हुकूमत की नींद हराम हो जाये. लेकिन अंग्रेजी राज की लूटपरस्ती को कायम रखने के लिए जनता का चेतनाहीन और सुसुप्त हालत में पड़े रहना जरुरी था. इसीलिए वे देशप्रेम और जागृति के इस छोटे से अँखुए को भी तत्काल मसल देने पर आमादा थे. लेकिन इस घटना का उल्टा ही असर हुआ. नवाब राय प्रेमचंद हुए और उर्दू-हिंदी साहित्य को कल्पनालोक से बाहर निकालकर यथार्थ की ठोस जमीन पर ला खड़ा करने की जो शुरुआत उन्होंने सोजे वतन के रूप में की थी, उसे प्रगतिशील साहित्य के बुलंद परचम का रूप दे दिया.

प्रस्तुत है सोजे वतन की भूमिका जो प्रेमचंद ने नवाब राय के नाम से लिखी थी.

“हरेक कौम का इल्मो-अदब अपने ज़माने की सच्ची तस्वीर होता है. जो खयालात कौम के दिमाग को गतिमान करते हैं और जो जज्बात कौम के दिलों में गूँजते हैं, वो नज्मो-नस्त के सफों में ऐसी सफाई से नजर आते हैं जैसे आईने में सूरत.हमारे लिटरेचर का शुरूआती दौर वो था कि लोग गफलत के नशे में मतवाले हो रहे थे. इस ज़माने की अदबी यादगार बजुज़ आशिकाना गज़लों और चंद फदहास किस्सों के और कुछ नहीं. दूसरा दौर उसे सझना चाहिए जब कौम के नए और पुराने खयालात में जिंदगी और मौत कि लड़ाई शुरू हुई और इस्लाहे-तमद्दुन (सांस्कृतिक सुधार) की तजवीजें सोची जाने लगी. इस जमाने के कसम-व-हिकायत ज्यादातर इस्लाह और तज्दीद ही का पहलू लिए हुए है. अब हिन्दुस्तान के कौमी ख्याल ने बालिगपन के जीने पर एक कदम और बढ़ाया है और हुब्बे-वतन के जज्बात लोगों के दिलों में उभरने लगे हैं. क्यूँकर मुमकिन था कि इसका असर अदब पर न पड़ता? ये चंद कहानियाँ इसी असर का आगाज है और यकीन है कि जूं-जूं हमारे ख़याल वसीह होते जायेंगे, इसी रंग के लिटरेचर का रोज-बरोज फरोग होता जायेगा. हमारे मुल्क को ऐसी की किताबों की असद जरूरत है, जो नयी नस्ल के जिगर पर हुब्बे-वतन की अज़मत का नक्शा जमाएँ.”
-नवाब राय

Thursday, July 14, 2011

इकबाल के चंद अशआर जो आज के दौर में बेहद मौजूँ हैं

अता ऐसा बयाँ मुझको हुआ रंगीं बयानों में
कि बामे अर्श के ताईर हैं मेरे हमजुबानों में

रुलाता है तेरा नज्जारा ए हिन्दोस्तां मुझको
कि इबरत खेज़ है तेरा फ़साना सब फसानों में

निशाने बर्गे गुल तक भी न छोड़ा बाग़ में गुलचीं
तेरी किस्मत से रज्म आराइयाँ हैं बागबानों में

वतन की फ़िक्र कर नादाँ! मुसीबत आने वाली है
तेरी बर्बादियों के मश्वरें हैं आसमानों में

जरा देख उसको जो कुछ हो रहा है, होने वाला है
धरा क्या है भला उहदे कुहन की दास्तानों में

ये ख़ामोशी कहाँ तक ? लज्ज़ते फरियाद पैदा कर!
जमीं पर तू हो, और तेरी सदा हो आसमानों में!

न समझोगे तो मिट जाओगे ए हिन्दोस्तां वालो!
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में!