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Wednesday, April 11, 2012

किराये की कोख


पूँजीवाद का यह आम नियम है कि वह हर चीज को 'माल' में बदल कर मुनाफा कमाता है। इसलिए पतन की सारी हदों को पार करना और मानवीय मूल्यों का गला घोंटना भी इस लुटेरी व्यवस्था के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। औरत की 'कोख' को एक 'माल' में बदल दिया जाना इसका जीवन्त उदाहरण है। किराये की 'कोख' का व्यापार अब एक उद्योग का रूप ले चुका है और मौजूदा कानून के हिसाब से कोई जुर्म नहीं है। हर साल भारी संख्या में विदेशी दम्पत्ति हमारी गरीबी का लाभ उठाकर किराये की कोख लेने भारत आ रहे हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में इसका बाजार 2000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा है।   
'किराये की माताओं' के रूप में महिलाओें की बाजार में उपस्थित उन्हें तमाम तरह की व्याधियों का शिकार बना देता है और इस दौरान उन्हें भयानक पीड़ा से गुजरना पड़ता है। इन महिलाओं को कृतिम गर्भाधान विधि से गर्भधारण कराने से पहले कई तरह के हार्मोन इंजेक्सन और दवाईयाँ दी जाती हैं जो इनके स्वास्थ्य पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव डालती हैं। ऐसे कई असपफल प्रयासों के बाद ही गर्भाधारण सपफल हो पाता है। इसमें सपफलता का प्रतित केवल 25 से 40 के बीच है। एक महिला को इस तरह के कितने चक्रों से गुजारा जाय ताकि उसके स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव न पड़े, यह धन लोलुप डॉक्टरों द्वारा तय किया जाता है जो ज्यादातर मामलों में उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव की अनदेखी करते हैं। इस प्रक्रिया में गर्भ में एक से अधिक बच्चे ठहरने की सम्भावना भी बहुत ज्यादा होती है और किराये की माताएँ अक्सर गर्भपात का शिकार हो जाती हैं। इस तरह ये सभी जोखिम उठाने के बदले उन्हें कितना पैसा दिया जाय इसका कोई मापदण्ड निर्धारित नहीं है। असली कमाई निजी अस्पतालों के मालिक और इस धन्धे में लगे डॉक्टरों की ही होती है।
एक साल पहले फिल्म अभिनेता आमिर खान ने भी 'किराये की कोख' से अपना बच्चा पैदा करवाया था। इस घटना का समाचार देने वाले समाचार पत्रों और टीवी चैनलों ने 'किराये की कोख' को सन्तानहीन दम्पत्तियों के लिए वरदान के रूप में महिमामण्डित किया। मीडिया का यह रुख कोई नया नहीं। इस अमानवीय कारोबार को एक सुनहरे अवसर के रूप में प्रस्तुत करने वाले लेख और रिपोर्ट आये दिन मीडिया में देखने को मिलते हैं। सन्तान पैदा करने में असमर्थ दम्पत्तियों के लिए 'किराये की कोख' का एक उद्योग के रूप में फलना-फूलना लोगों के दिमाग में रक्त सम्बन्धों की पवित्रता और अपनी सन्तान की लालसा जैसी दकियानूसी सोच का नतीजा है। इसकी जगह 'बच्चा गोद लेना' कहीं ज्यादा मानवीय और संवेदनशील विकल्प है।
हालांकि हमारे दे में 'किराये की कोख' से संतान उत्पन्न करना कोई नयी बात नहीं है। पहले भी पत्नी की जगह कोई दूसरी महिला किराये की माँ बनती थी जिसे बिना किसी धन लाभ के सन्तान पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन इसे व्यापक समाज में स्वीकृति नहीं मिलती थी। परम्परागत रूप से अन्य व्यभिचारों, जैसे- वेश्यवृत्ति आदि की तरह इसे गुप्त रखा जाता था। आज की तरह यह खुले रूप में और इतने बड़े पैमाने पर नहीं होता था। पिछले कुछ सालों के दौरान मीडिया ने इस कारोबार को खूब प्रचारित प्रसारित किया है लेकिन निवे के लिए बाजार ढूँढ रही इस मरणासन्न पूँजीवादी व्यवस्था को जहाँ कहीं भी निवे की थोड़ी सी गुंजाइश दिखती है, खुद को जिन्दा रखने के लिए वह उसी ओर भागती है, चाहे वह कितना भी घटिया, अमानुषिक और घृणास्पद क्यों न हो।

कोई भी संवेदनशील व्यक्ति और समाज इस घृणित, विकृत और अनैतिक पेशे को भला कैसे बढ़ावा दे सकता है। मुनाफाखोरी की व्यवस्था हमारे समाज को पतन के जिस गर्त में ले जा रही है उसी का एक रूप है- मातृत्व को बाजार के अधीन लाना। यह अत्यन्त क्षोभकारी है।