Sunday, November 24, 2013

मैं जनता हूँ, मैं प्रजा- कार्ल सैंडबर्ग

carl sandbarg


मैं जनता हूँ, मैं प्रजा- मैं भीड़- मैं जनसमूह

 

क्या आप जानते हैं कि

दुनिया की हर महान रचना

की गयी है मेरे द्वारा?

 

मैं मजदूर हूँ, मैं इजाद करने वाला,

मैं पूरी दुनिया के लिए भोजन और वस्त्र बनाने वाला।

मैं वो दर्शक, जो इतिहास का गवाह है।

 

नेपोलियन हमारे बीच से आया, और लिंकन भी।

वे मर गए। तब मैंने और-और नेपोलियन और लिंकन पैदा किये।

 

मैं एक क्यारी हूँ। मैं एक बुग्याल हूँ,

घास का एक विस्तीर्ण मैदान

जो बार-बार जोते जाने के लिए तैयार है।

गुजरता है मेरे ऊपर से भयंकर तूफ़ान।

और मैं भूल जाता हूँ।

निचोड़ ली गयी हमारे भीतर की बेहतरीन चीजें

और उन्हें बर्बाद कर दिया गया। और मैं भूल गया।

मौत के अलावा हर चीज आती है हमारे करीब

और मुझसे काम करने और जो कुछ हमारे पास है

उसे त्यागने को मजबूर करती है। और मैं भूल जाता हूँ।

 

कभी-कभी गरजता हूँ, मैं अपने आप को झिंझोड़ता हूँ

और छींटता हूँ कुछ लाल रंग की बूँदें

कि इतिहास उन्हें याद रखे।

और फिर भूल जाता हूँ।

 

अगर  मैं, जन-साधारण, याद रखना सीख जाऊं,

जब मैं, प्रजा, अपने बीते हुए कल से सबक लूँ

और यह न भूलूं कि पिछले साल किसने मुझे लूटा

किसने मुझे बेवकूफ बनाया-

तब दुनिया में कोई भाषणबाज नहीं होगा

जो अपनी जुबान पर ला  पाये यह नाम- ‘जनता’

अपनी आवाज में हमारे उपहास की छाप लिए

या मजाक की कुटिल मुस्कान लिए।

तब उठ खड़े होंगे जन साधारण- भीड़- जनसमूह।

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(1916 में प्रकाशित ‘शिकागो पोएम्स’ संग्रह से)

(अनुवाद- दिगम्बर)

Friday, November 15, 2013

अगर तुम मुझे भूल जाओ - पाब्लो नेरुदा


कवि का दायित्व -पाब्लो नेरुदा

(नेरुदा की यह प्रेम कविता अपने प्यारे वतन चिल के लिए है जिससे वे बेपनाह मुहब्बत करते थे, फिर भी उन्हें राजनीतिक कारणों से देश निकाला हुआ था. प्रेम कविता के रूप में भी यह उदात्त भावों से परिपूर्ण है.)

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मैं चाहता हूँ तुम्हें बताना

एक बात.

 
जानती हो कैसा लगता है

जब मैं देखता हूँ

मणिमय चाँद की ओर,

मेरी खिड़की पर धीमे कदमों से आती

शरद की लाल टहनियों की ओर,

अगर मैं स्पर्श करता हूँ

आग के आसपास

या लट्ठे की झुर्रीदार देह पर,

हर चीज ले जाती है मुझे तेरी ओर,

मानो हर वो चीज जो मौजूद है यहाँ,

गंध, रोशनी, धातु,

छोटी नावें हैं

जो तैरती हुई

जा रही हैं मेरे लिए प्रतीक्षारत

तुम्हारे द्वीपों की ओर.

 
खैर, अब,

अगर तुम धीरे-धीरे छोड़ दो मुझे चाहना

मैं छोड़ दूँगा तुम्हें चाहना धीरे-धीरे.


अगर अचानक

तुम मुझे भूल जाओ

तो मेरी राह मत देखना,

कि मैं तो पहले ही भुला दिया रहूँगा तुम्हें.

 
अगर तुम मानती हो इसे उत्कट अभिलाषा और पागलपन

लहराते झंडों की हवा

जो गुजरती है मेरी जिन्दगी से होकर,

और फैसला करती हो तुम

मुझे छोड़ने का सागर किनारे

दिल के पास जहाँ मेरी जड़ें हैं,

याद रहे

की उस दिन,

उस पहर,

उठाउँगा मैं अपनी बाहें

और हमारी जड़ें प्रयाण करेंगी
किसी दूसरे देश की तलाश में.

 
लेकिन

अगर हर दिन

हर घंटे,

तुम्हे लगता है कि तुम मेरी तक़दीर हो

बेरहम मिठास के साथ,

अगर हर दिन एक फूल

आरोहित हो तुम्हारे होठों पर मेरी चाहत में,

आह मेरी प्यारी, आह मेरी अपनी,

मुझमें भी तो धधकते हैं ये सभी आग,

कुछ भी भूला या बुझा नहीं है मेरे भीतर,
मेरा प्यार पलता है तुम्हारे प्यार पर, प्रिया,

और जब तक इसे जियोगी तुम रहेगा तुम्हारी बाँहों में

मेरी बाँहों को त्यागे बिना.  

(अनुवाद- दिगम्बर)

Sunday, October 27, 2013

सीधा-साधा समाजवादी सच- पॉल लफार्ग

workers



(अक्सर किसी कारखाने या दफ्तर में काम करने वाले वेतनभोगी मजदूर से बात करो तो वे यह कहते हैं कि उन्हें काम देकर उनका मालिक उन पर कृपा करता है ,क्योंकि अगर उन्हें काम न मिले तो उनका जीना मुश्किल हो जायेगा. समाज में सदियों से फैलायी गयी सोच और आजकल मीडिया के ज़रिये लगातार मालिकों कि भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने का ही नतीजा है कि मेहनतकश लोग अपने शोषकों को ही अपना कृपानिधान मान लेते हैं. सवाल यह है कि मालिक मजदूरों की परवरिश करता है या मजदूर मालिकों को करोड़पति-अरबपति बनाते हैं ? इस सच्चाई को समझने में पौल लफार्ग द्वारा 1903 में लिखा यह वार्तालाप काफी मददगार है. इस वार्तालाप में शारीरिक श्रम और सीधे उत्पादन में लगे मजदूरों का उदाहरण दिया गया है, लेकिन यह बात मानसिक श्रम करने वाले सेवाक्षेत्र के कर्मचारियों के मामले में भी लागू होती है.)

मज़दूर- यदि कोई मालिक नहीं होता, तो मुझे काम कौन देता?

प्रचारक- यह एक सवाल है जो अक्सर लोग हमसे पूछते हैं. इसे हमें अच्छी तरह समझना चाहिए. काम करने के लिये तीन चीजों की ज़रुरत होती है- कारखाना, मशीन और कच्चा माल.

मजदूर- सही है.

प्रचारक - कारखाना कौन बनाता है?

मजदूर- राजमिस्त्री.

प्रचारक- मशीने कौन बनाता है?

मजदूर- इंजीनियर.

प्रचारक- तुम जो कपड़ा बुनते हो, उसके लिये कपास कौन उगाता है? तुम्हारी पत्नी जिस ऊन को कातती है, उसे कौन पैदा करता है? तुम्हारा बेटा जो खनिज गलाता है उसे ज़मीन से खोद कर कौन निकालता है?

मजदूर- किसान, गडरिया, खदान मजदूर. वैसे ही मजदूर जैसा मैं हूँ.

प्रचारक- हाँ, तभी तो तुम, तुम्हारी पत्नी और तुम्हारा बेटा काम कर पाते हैं? क्योंकि अलग-अलग तरह के मजदूर तुम्हे पहले से ही इमारतें, मशीनें और कच्चा माल तैयार कर के दे रहे हैं.

मजदूर- बिलकुल, मैं सूती कपड़ा बिना कपास और करघे के नहीं बुन सकता हूँ.

प्रचारक- हाँ, और इससे पता चलता है कि तुम्हें कोई पूँजीपति या मालिक काम नहीं देता है, बल्कि यह किसी राजमिस्त्री, इंजीनियर और किसान की देन है.क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा मालिक कैसे उन चीजों का इन्तजाम करता है जो तुम्हारे काम के लिये ज़रूरी हैं?

मजदूर- वह इन्हें खरीदता है.

प्रचारक- उसे पैसे कौन देता है?

मजदूर- मुझे क्या पता. शायद उसके पिता ने उसके लिये थोड़ा बहुत धन छोड़ा होगा और आज वह करोड़पति बन गया है.

प्रचारक- क्या उसने यह पैसा मशीनों में काम करके और कपड़ा बुन के कमाया है?

मजदूर- ऐसा तो नहीं है, ज़ब हमने काम किया, तभी उसने करोड़ों कमाया.

प्रचारक- तब तो वह ऐसे ही बिना कुछ किये अमीर बन गया है. यही उसकी किस्मत चमकाने का एकमात्र रास्ता है- जो लोग काम करते हैं उन्हें तो केवल जिन्दा रहने भर के लिये मजदूरी मिलती है. लेकिन मुझे बताओ कि यदि तुम और तुम्हारे मजदूर साथी काम नहीं करें, तो क्या तुम्हारे मालिक की मशीनों में जंग नहीं लग ज़ायेगा और उनके कपास को कीड़े नहीं खा जायेंगे?

मजदूर- इसका मतलब यदि हम काम न करें, तो कारखाने का हर सामान बर्बाद और तबाह हो जायेगा.

प्रचारक- इसीलिये तुम काम करके मशीनों और कच्चे माल को बचा रहे हो जो कि तुम्हारे काम करने के लिये ज़रूरी है.

मजदूर- यह बिल्कुल सही है, मैंने पहले कभी इस तरह नहीं सोचा.

प्रचारक- क्या तुम्हारा मालिक यह देखभाल करने आता है कि उसका कारोबार कैसा चल रहा है?

मजदूर- बहुत ज्यादा नहीं, वह हर दिन एक चक्कर लगता है, हमारे काम को देखने के लिये. लेकिन अपने हाथों को गंदा होने के डर से वह उन्हें अपनी जेब में ही डाले रहता है. एक सूत कातने वाली मिल में, ज़हाँ मेरी पत्नी और बेटी काम करती हैं, उन्होंने अपने मालिक को कभी नहीं देखा है, ज़बकि वहाँ चार मालिक हैं. ढलाई कारखाने में भी कोई मालिक नहीं दिखता है ज़हाँ मेरा बेटा काम करता है. वहाँ के मालिक को तो न किसी ने देखा है और न ही कोई जानता है. यहाँ तक कि उसकी परछाई को भी किसी ने नहीं देखा है. वह एक लिमिटेड कम्पनी है जिसका अपना काम है. मान लो कि मेरे और तुम्हारे पास 500 फ्रांक कि बचत होती है, तो हम एक शेयर खरीद सकते हैं और हम भी उनमें से एक मालिक बन सकते हैं बिना उस कारखाने में पैर रखे.

प्रचारक- तो फिर उस ज़गह पर काम कौन देखता है और कामकाज का संचालन कौन करता है, ज़हाँ से ये शेयर धारक मालिकाने का सम्बंध रखते हैं? तुम्हारी खुद कि कंपनी का मालिक भी ज़हाँ तुम काम करते हो वहाँ कभी दिखायी नहीं देता और कभी-कभार आ भी जाए तो वह गिनती में नहीं आता है.

मजदूर- प्रबंधक और फोरमैन.

प्रचारक- लेकिन जिन्होंने कारखाना बनाया, मशीनें बनायीं व कच्चे माल को तैयार किया, वे भी मजदूर ही हैं. जो मशीनों को चलाते हैं वे भी मजदूर हैं. प्रबंधक और फोरमैन इस काम कि देख रेख करते हैं, तब मालिक क्या करते हैं?

मजदूर- कुछ नहीं करते व्यर्थ समय गँवाते हैं.

रचारक- अगर यहाँ से चाँद के लिये कोई रेलगाड़ी होती, तो हम वहाँ सारे मालिकों को बिना वापसी की टिकट दिये भेज देते और फिर भी तुम्हारी बुनाई तुम्हारी पत्नी कि कताई और तुम्हारे बेटे कि ढलाई का काम पहले जैसा ही चलता रहता. क्या तुम जानते हो कि पिछले साल तुम्हारे मालिक ने कितना मुनाफा कमाया था?

मजदूर- हमने हिसाब लगाया था कि उसने कम से कम एक लाख फ्रांक कमाये थे.

प्रचारक- कितने मजदूर उसके यहाँ काम करते हैं- औरत, मर्द और बच्चों को मिलाकर?

मजदूर- एक सौ.

प्रचारक- वे कितनी मजदूरी पाते हैं?

मजदूर– प्रबंधक और फोरमैन के वेतन मिलाकर औसतन लगभग एक लाख फ्रांक सालाना.

प्रचारक- यानी की सौ मजदूर सारे मिलकर एक लाख फ्रांक वेतन पाते हैं, जो सिर्फ उन्हें भूख से न मरने के लिये ही काफी होता है. ज़बकि तुम्हारे मालिक की जेब में एक लाख फ्रांक चले जाते हैं और वह भी बिना कुछ काम किये. वे एक लाख फ्रांक कहाँ से आते हैं?

मजदूर- आसमान से तो नहीं आते हैं. मैंने कभी फ्रांक की बारिश होते तो देखी नहीं है.

प्रचारक- यह मजदूर ही हैं जो उसकी कंपनी में एक लाख फ्रांक का उत्पादन करते हैं जिसे वे अपने वेतन के रूप में लेते हैं और मालिक जो एक लाख फ्रांक का मुनाफा पाते हैं जिसमें से कुछ फ्रांक वे नयी मशीने खरीदने में लगाता है वह भी मजदूरों की ही कमाई है.

मजदूर- इसे नाकारा नहीं ज़ा सकता.

प्रचारक- तब तो यह तय है कि मजदूर ही उस पैसे का उत्पादन करता है, जिसे मालिक नयी मशीनें खरीदने में लगाता है. तुमसे काम करवाने वाले प्रबंधक और फोरमेंन भी तुम्हारी ही तरह वेतनभोगी गुलाम हैं जो इस उत्पादन कि देख-रेख करते हैं. तब मालिक कि क्या ज़रूरत है? वह किस काम का है?

मजदूर- मजदूरों का शोषण करने के लिये.

प्रचारक- ऐसा कहो कि मजदूरों को लूटने के लिये, यह कहीं ज्यादा साफ़ और ज्यादा सटीक है.

( अनुवाद- स्वाति / शशि )

Thursday, October 24, 2013

आलोचनात्मक नजरिया के बारे में --बर्तोल्त ब्रेख्त


bartolt brekht


आलोचनात्मक नजरिया

बहुतेरे लोगों को निष्फल जान पड़ता है

क्योंकि लगता है उन्हें

कि सरकार पर कोई असर नहीं होता

उनकी आलोचना का.

मगर इस मामले में जो निष्फल नजरिया है

वह तो महज नज़रिए का कमज़ोर होना है.

आलोचना को धारदार बनाओ

तो इसके ज़रिये

धूल में मिलायी जा सकती हैं राजसत्ताएं.


नदियों की धारा मोड़ना

फलदार पेड़ों की कलम बाँधना

किसी व्यक्ति को पढ़ाना

राजसत्ता का रूपांतरण

ये सब उदहारण हैं आलोचनात्मक नजरिये के

और साथ ही साथ कला के भी.

(अनुवाद- दिगम्बर)

Monday, October 7, 2013

लू शुन की दो गद्य कविताएँ

(विश्व साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर लू शुन ने सृजानात्मक लेखन की तुलना में ज़नोन्मुख लेखकों की नयी पीढ़ी तैयार करने और सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को अधिक महत्त्व दिया. पिछड़े हुए चीनी समाज के लिए यह ऐतिहासिक दायित्व स्वतंत्र लेखन से कहीं अधिक महत्व रखता था. इस कलम के सिपाही ने साहित्यिक लेख, व्यंग्य, लघु कथाएँ, कहानियाँ, समीक्षात्मक लेख और ऐतिहासिक उपन्यास के साथ-साथ गद्य कवितायेँ भी लिखीं. उनकी गद्य कविताओं का संकलन ‘वाइल्ड ग्रास’ नाम से प्रकाशित हुआ है. 1924 से 1926 के बीच लिखी गयी इन गद्य कविताओं साम्राज्यवाद और उत्तरी युद्ध सरदारों के खिलाफ प्रतिरोध और दमन की अभिव्यन्ज़ना सांकेतिक और अमूर्त शैली में की गयी है. इसका कारण शायद यह रहा हो कि उस समय साहित्य को कठोर सेंसर से गुज़ारना होता था.

इन गद्य कविताओं में ऊपर-ऊपर देखने पर निराशा और भयावहता की झलक मिल सकती है, लेकिन इन प्रतीकात्मक कविताओं के विविध रंग हैं. इनमें स्वप्न का सृज़न है जिनमें दु:स्वप्न भी शामिल हैं. यहाँ कुत्ते से वार्तालाप है, कीड़ों कि भिनभिनाहट है और इंसानों की नज़र से खुद को छिपाने की कोशिश करता आकाश है. समाज के ढोंग-पाखंड, निष्क्रियता, हताशा और ठहराव पर विक्षुब्ध टिप्पणी है जो मुखर नहीं है.

‘वाइल्ड ग्रास’ की भूमिका में लू शुन ने लिखा है- “धरती के भीतर तीव्र वेग से जो अग्नि-मंथन हो रहा है, उस का लावा जब सतह पर आएगा, तो वह सभी जंगली घासों और गहराई से धंसे विष-वृक्षों को जला कर खाक कर देगा, ताकि सडान्ध पैदा करनेवाली कोई चीज़ न रह जाय.”)

lu shun

भिखमँगे

मैं एक पुरानी-धुरानी, ऊँची दिवार के बगल से गुजर रहा हूँ, बारीक धूल में पैर घिसटते हुए. कई दूसरे लोग भी अकेले टहल रहे हैं. हवा का एक झोंका आया और दीवार के ऊपर से झांकते ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की डालियाँ, जिनके पत्ते अभी झड़े नहीं हैं, मेरे सिर के ऊपर हिल रही हैं.
हवा का एक झोंका आया और हर जगह धूल ही धूल.
एक बच्चा मुझ से भीख माँग रहा हैं. वह दूसरे लोगों की तरह ही धारीदार कपड़े पहने हुए है और देखने से दुखी भी नहीं लगता , फिर भी वह रास्ता रोक कर मेरे आगे सिर झुकाता हैं और मेरे पीछे-पीछे चलता हुआ रिरियाता है.
मैं उसकी आवाज, उसके तौर-तरीके को नापसंद करता हूँ. उसमें उदासी का ना होना मेरे अन्दर घृणा पैदा करता है, जैसे यह कोई चाल हो. जिस तरह वह मेरा पीछा करते हुए रिरिया रहा है, उससे मेरे मन में जुगुप्सा पैदा हो रही है.
मैं चलता रहा. कई दूसरे लोग भी अकेले टहल रहे हैं. हवा का एक झोंका आया और हर जगह धूल ही धूल.
एक बच्चा मुझसे भीख माँग रहा है. वह दूसरे लोगों की तरह ही धारीदार कपडे पहने हुए है और देखने से दुखी नही लगता, लेकिन वह गूँगा है. वह गूँगे की तरह मेरी ओर हाथ फैलाता है.
मैं उसके गूँगेपन के इस दिखावे को नापसंद करता हूँ. हो सकता है कि वह गूँगा न हो, यह केवल भीख माँगने का उसका जरिया हो सकता है.
मैं उसे भीख नहीं देता. मुझे भीख देने की इचछा नहीं है. मैं भीख देने वालों से परे हूँ. उसके लिए मेरे मन में जुगुप्सा, संदेह और घृणा है.
मैं एक ढही हुई मिटटी की दीवार के बगल से गुजर रहा हूँ. बीच की जगह में टूटी हुई ईंटों की ढेर लगी है और दीवार के आगे कुछ नहीं है. हवा का एक झौंका आया आता है, मेरे धारीदार चोंगे के भीतर पतझड़ की सिहरन भर जाती है, और हर जगह धूल ही धूल है.
मुझे उत्सुकता होती है कि भीख माँगने के लिए मुझे क्या तरीका अपनाना चाहिए. मुझे कैसी आवाज में बोलना चाहिए? अगर मैं गूँगा होने का दिखावा करूँ तो मुझे गूँगापन कैसे प्रदर्शित करना चाहिए? ___
कई दूसरे लोग अकेले टहल रहे है .
मुझे भीख नहीं मिलेगी, भीख देने की इच्छा तक हासिल नहीं होगी. जो लोग खुद को भीख देने वालों से परे मानते हैं उनकी जुगुप्सा, संदेह और घृणा ही मिलेगी मुझे.
मैं निष्क्रियता और चुप्पी धारण किये भीख मागूँगा ...
अंततः मुझे शून्यता हासिल होगी.
हवा का एक झोंका आता है और हर जगह धूल ही धूल. कई दूसरे लोग अकेले टहल रहे हैं.
धूल, धूल ...
..................
धूल ...

लेखन-काल 24 सितम्बर, 1924

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परछाईं का अवकाश ग्रहण

जब आप एक ऐसे समय तक सोते हैं जब आप को समय का अता-पता ही न चले, तब आपकी परछाईं इन शब्दों में अवकाश लेने आयेगी –
“कोई चीज है जिसके मैं स्वर्ग से नफरत करती हूँ, मैं वहाँ जाना नहीं चाहती. कोई चीज है जिसके चलते मैं नरक से नफरत करती हूँ, मैं वहाँ जाना नहीं चाहती. कोई चीज है आपके भविष्य की सुनहरी दुनिया में जिससे मैं नफरत करती हूँ, मैं वहाँ नहीं जाना चाहती.
“हालाँकि यह आप ही हो, जिससे मैं नफरत करती हूँ.”
“दोस्त, अब और तुम्हारा अनुसरण नहीं करूँगी, मैं रुकना नहीं चाहती.
“मैं नहीं चाहती!
“ओह, नहीं! मैं नहीं चाहती. इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं शून्य में भटकूँ.
मैं तो केवल एक परछाईं हूँ. मैं तुम्हें त्याग दूँगी और अन्धेरे में डूब जाऊँगी. फिर वह अन्धेरा हमें निगल लेगा, और रोशनी भी मुझे गायब कर देगी.
“लेकिन मैं रोशनी और छाया के बीच भटकना नहीं चाहती, इससे तो कहीं अच्छा कि मैं अन्धेरे में डूब जाऊं.
“फिर भी अब तक मैं रोशनी और छाया के बीच ही मँडरा रही हूँ, अनिश्चय में कि अभी साँझ हुई या भोर. मैं तो बस अपने धूसर-भूरे हाथ उठा सकती हूँ जैसे शराब की एक प्याली खत्म करनी हो. जिस समय मुझे समय का अता-पता नहीं रह जाएगा, तब मैं दूर तक अकेली ही चली जाऊँगी.
“हाय! अगर अभी साँझ हुई है, तो काली रात मुझे पक्के तौर पर घेर लेगी या मैं दिन के उजाले में लुप्त कर दी जाऊँगी अगर अभी भोर हुई है.
“दोस्त, समय अभी हाथ में है.
“मैं शून्यता में भटकने के लिए अन्धेरे में प्रवेश करने जा रही हूँ .
“अभी भी आप हमसे कोई उपहार की उम्मीद रखते हैं. मेरे पास देने के लिए है ही क्या? अगर आप जिद करेंगे तो आपको वही अन्धेरा और शून्यता हासिल होगी. लेकिन मैं चाहूँगी कि केवल अन्धेरा ही मिले जो आपके दिन के उजाले में गायब हो सके. मैं चाहूँगी कि यह केवल शून्यता हो, जो आपके हृदय को कभी भी काबू में नहीं रखेगी.
“मैं यही चाहती हूँ, दोस्त –
“दूर, बहुत दूर, एक ऐसे अन्धेरे में जाना जिससे न केवल तुम्हें, बल्कि दूसरी परछाइयों को भी निकाल बाहर किया जाय. वहाँ सिर्फ मैं रहूँगी अन्धेरे में डूबी हुई. वह दुनिया पूरी तरह मेरी होगी.”

लेखन-काल 24 सित. 1924

(अनुवाद – दिगम्बर)

Friday, September 27, 2013

मनहूस आज़ादी — नाजिम हिकमत

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तुम बेच देते हो –

अपनी आँखों की सतर्कता, अपने हाथों की चमक.

तुम गूंथते हो लोइयाँ जिंदगी की रोटी के लिये,

पर कभी एक टुकड़े का स्वाद भी नहीं चखते

तुम एक गुलाम हो अपनी महान आजादी में खटनेवाले.

अमीरों को और अमीर बनाने के लिये नरक भोगने की आज़ादी के साथ

तुम आजाद हो!

 

जैसे ही तुम जन्म लेते हो, करने लगते हो काम और चिंता,

झूठ की पवनचक्कियाँ गाड़ दी जाती हैं तुम्हारे दिमाग में.

अपनी महान आज़ादी में अपने हाथों से थाम लेते हो तुम अपना माथा.

अपने अन्तःकरण की आजादी के साथ

तुम आजाद हो!

 

तुम्हारा सिर अलग कर दिया गया है धड़ से.

तुम्हारे हाथ झूलते है तुम्हारे दोनों बगल.

सड़कों पर भटकते हो तुम अपनी महान आज़ादी के साथ.

अपने बेरोजगार होने की महान आज़ादी के साथ

तुम आजाद हो!

 

तुम बेहद प्यार करते हो अपने देश को,

पर एक दिन, उदाहरण के लिए, एक ही दस्तखत में

 

उसे अमेरिका के हवाले कर दिया ज़ाता है

और साथ में तुम्हारी महान आज़ादी भी.

उसका हवाईअड्डा बनने की अपनी आजादी के साथ

तुम आजाद हो!

 

वालस्ट्रीट तुम्हारी गर्दन ज़कड़ती है

ले लेती है तुम्हें अपने कब्ज़े में.

एक दिन वे भेज सकते हैं तुम्हें कोरिया,

ज़हाँ अपनी महान आजादी के साथ तुम भर सकते हो एक कब्र.

एक गुमनाम सिपाही बनने की आज़ादी के सा

 

तुम आजाद हो!

 

तुम कहते हो तुम्हें एक इंसान की तरह जीना चाहिए,

एक औजार, एक संख्या, एक साधन की तरह नहीं.

तुम्हारी महान आज़ादी में वे हथकडियाँ पहना देते हैं तुम्हें.  

गिरफ्तार होने, जेल जाने, यहाँ तक कि

फाँसी पर झूलने की अपनी आज़ादी के साथ

तुम आजाद हो.

 

तुम्हारे जीवन में कोई लोहे का फाटक नहीं,

बाँस का टट्टर या टाट का पर्दा तक नहीं.

आज़ादी को चुनने की जरुरत ही क्या है भला -

तुम आजाद हो!

 

सितारों भारी रात के तले बड़ी मनहूस है यह आज़ादी.  

(अनुवाद- दिनेश पोसवाल)

Wednesday, September 25, 2013

राष्ट्रपति ओबामा के नाम ब्रैडली मैनिंग का पत्र

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(ब्रैडली मैनिंग एक अमरीकी सैनिक रहे हैं जिन्होंने विकीलिक्स को इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी कारगुजारियों के बारे में  ख़ुफ़िया जानकारी मुहैया की थी. इस जुर्म में उन्हें 35 साल की सजा हुई है.)

मैंने 2010 में जो निर्णय लिया था, वह अपने देश के प्रति और जिस दुनिया में हम जी रहे हैं उसके प्रति गहरे लगाव का परिणाम था. 11 सितम्बर की त्रासद घटना के समय से ही हमारा देश युद्धरत है. हम ऐसे दुश्मन से युद्ध करते आ रहे हैं जो हमें किसी परम्परागत युद्धक्षेत्र में हमारा मुकाबला नहीं करना चाहता और इसी के चलते हमें अपने ऊपर और अपनी जीवन शैली के ऊपर थोपे गये जोखिम का सामना करने का अपना तौर-तरीका बदलना पड़ा.

शुरू-शुरू में मैं इस तौर-तरीके से सहमत था और मैंने अपने देश की हिफाजत में मदद करने के लिए अपनी सेवा अर्पित करने का रास्ता चुना. लेकिन यह उससे पहले की बात है जब में ईराक में था और रोज-ब-रोज गोपनीय सैनिक रिपोर्टों को पढता था. तब हम जो कर रहे थे उसकी नैतिकता पर मैंने सवाल उठाना शुरू किया. यही वह समय था जब मुझे यह अहसास हुआ कि दुश्मन द्वारा थोपे गये जोखिम का मुकाबला करने के अपने प्रयासों में हम अपनी मानवता को भूल चुके हैं. हमने सचेतन रूप से ईराक और अफगानिस्तान, दोनों ही जगह मानव जीवन की गरिमा को कम करने का रास्ता चुना. हम उन लोगों का सामना करते हुए  जिन्हें हमने दुश्मन मान लिया था, कभी-कभी हमने निर्दोष लोगों को मार डाला. जब भी हमने निर्दोष नागरिकों की हत्या की, हमने अपने बर्ताव की जिम्मेदारी लेने की जगह किसी भी सार्वजनिक जिम्मेदारी से बचने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और वर्गीकृत सूचना के नकाब में खुद को छुपाने का रास्ता अपनाया.

दुश्मन को कत्ल करने के जोश में हमने यातना और उत्पीडन की परिभाषा पर अंदरखाने बहस की. हमने लोगों को ग्वाटेमाला में कई वर्षों तक बिना उचित प्रक्रिया अपनाए बंदी बनाकर रखा. इराकी सरकार द्वारा किये जाने वाले उत्पीडन और मृत्युदंड से हमने आँख मूँद ली, जो समझ से परे है. और आतंक के खिलाफ अपने युद्ध के नाम पर हम ऐसी बेशुमार कार्रवाइयों को चुपचाप पचा लिया.

अक्सर जब सत्ताधारियों दवारा अपनी नैतिक रूप से गलत कारगुजारियों को सही ठहराना होता है, तब देशभक्ति की चीख पुकार मचाई जाती है. जब तार्किकता पर आधारित किसी विरोध को देशभक्ति की इन चीखों में डुबो देना होता है, तो अमूमन अमरीकी सैनिक ही हैं जिन्हें किसी दुर्भावनापूर्ण मुहीम को पूरा करने का आदेश दिया जाता है.

हमारे राष्ट्र के सामने भी लोकतंत्र के सद्गुण के लिए ऐसे ही अंधकारपूर्ण समय आये हैं, जिनमें से कुछ एक हैं- अश्रुधारा त्रासदी (जिसमें अमरीकी सरकार ने दक्षिणपूर्व राज्यों के लाखों अमरीकी मूल निवासियों को अपनी ज़मीन से ज़बरन उजाड कर उनकी जमीनें कपास उगानेवाले वाले फार्मरों को दे दिया था और उन्हें मिसिसिपी नदी के किनारे एक बाड़े में बसा दिया था), ड्रेड स्कॉट निर्णय (अमरीकी गृहयुद्ध- 1861-65 के दौरान अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमरीकी गुलाम ड्रेड स्कॉट के मामले में दिया गया कुख्यात फैसला जिसमें कहा गया था कि किसी भी अफ्रीकी-अमरीकी को यह अधिकार नहीं है कि वह न्यायालय में आकर न्याय के लिये गुहार लगाये), मैकार्थिज्म (मैकार्थी की नीतियों के अनुसार ऐसे हजारों लोगों को, जिन पर कम्युनिस्ट या उनके समर्थक होने का संदेह था, बिना किसी प्रमाण के गैरकानूनी रूप से शारीरिक-मानसिक उत्पीडन का शिकार बनाया गया), जापानी-अमरीकी नज़रबंदी शिविर (दूसरे महायुद्ध के अंतिम दिनों में पर्ल हार्बर पर हमले के बाद एक लाख से भी अधिक जापानी मूल के अमरीकी नागरिकों को नज़रबंदी शिविर में रखा गया था). मुझे पूरा विशवास है कि ९ सितम्बर के बाद से कई कार्रवाइयों को किसी न किसी दिन इसी रोशनी में देखा जाएगा.

जैसा कि स्वर्गीय हॉवर्ड जीन ने एक बार कहा था- “कोई भी झंडा इतना बड़ा नहीं होता, जो निर्दोष जनता की हत्या के शर्म को ढकने के लिए पर्याप्त हो.”

मैं समझता हूँ कि मेरी कार्रवाई से कानून का उल्लंघन हुआ है और अगर मेरी कार्रवाई से किसी को ठेस पहुंची या अमरीका का नुकसान हुआ, तो इसके लिए मुझे खेद है. मै केवल जनता की सहायता करना चाहता था. जब मैंने वर्गीकृत सूचना को प्रकट करने का निर्णय लिया तो मैंने अपने देश के प्रति प्यार और दूसरों के प्रति कर्तव्य की भावना से ही किया.

अगर आप ने हमारी क्षमा याचना को स्वीकार नहीं किया, तो मै यह मान कर अपनी सजा भुगत लूँगा कि एक मुक्त समाज में जीने के लिए कभी-कभी आपको उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है. मै खुशी-खुशी वह कीमत चुकाऊंगा, अगर इसका मतलब यही है कि हमें एक ऐसा देश चाहिए जिसने आजादी को सही मायने में आत्मसात किया हो और इस प्रस्तावना के प्रति समर्पित है कि हर औरत और मर्द एक सामान हैं.  

Saturday, August 31, 2013

आयरिश कवि सीमस हीनी की कविता -- खुदाई

seamus-heaney

आयरिश कवि सीमस हीनी का कल (30-08-2013 को) देहांत हो गया. 1995 में इन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था. इनको ज़मीन से जुड़े एक संघर्षशील कवि के रूप में जाना जाता है. प्रस्तुत है इनकी स्मृति में इनकी एक कविता का हिंदी अनुवाद-

खुदाई

मेरी ऊँगली और अंगूठे के बीच
टिकी है पुरानी सी कलम, बंदूक की तरह चुस्त-दुरुस्त

मेरी खिड़की के बाहर खनखनाती-किरकिराती
कंकरीली ज़मीन के भीतर धंसती कुदाल की आवाज़
खुदाई कर रहे हैं मेरे पिता, मैं देखता हूँ नीचे

फूलों की क्यारी के बीच उनका तना हुआ पुट्ठा
कभी निहुरता नीचे, कभी ऊपर उठता
वे खेत खोदते ताल मिलाते झुकते-तनते
चला गया बीस बरस पहले मेरा मन
ज़हाँ वे आलू की खुदाई कर रहे थे.

कुदाल की बेंट थामे मजबूत हाथों से
आलू के थाले पर मारते जोरदार गहरा दाब
धंसाते ज़मीन में और उकसाते बेंत को आगे धकिया कर
तो ताज़ा मिट्टी में सने आलू छितरा जाते
जिनको चुनकर हम महसूस करते
उनका कठिन परिश्रम अपनी नन्ही हथेली पर.

हे भगवान, यह बूढा आदमी तो अपने पिता की तरह ही
भांजता है कुदाल.

मेरे दादा कोंड़ सकते थे दिन भर में टोनर के दलदल में
दूसरे किसी भी आदमी से अधिक खेत.
एक बार मैं उनके लिये ले गयाएक बोतल दूध
कागज़ की ढीली डाट लगा कर. खोल कर पी गये गटागट
फिर सीधे जुट गये और करीने से खींची डोल
और क्यारी बनाई, हाँफते हुए हौले हौले
खोद-खोद कर बना दिया सुन्दर खेत.

आलू के खेत की ठंडी खुशबू, पौधों के नीचे हलकी थपकी
निराई में निकले गीले कुश, मेड की छिलाई से उभर आई
मिट्टी से झांकती ताज़ा कटी जड़ों की याद आ गयी मुझे
लेकिन मेरे पास कुदाल नहीं कि अनुसरण करूँ
उन जैसे लोगों का.

मेरी ऊँगली और अंगूठे के बीच
टिकी है पुरानी सी कलम,
इसी से खुदाई करूँगा मैं.

(अंग्रेजी से अनुवाद - दिगम्बर)

Friday, August 23, 2013

मार्ज पियर्सी की कविता -- बलात्कार

Marge+Piercy

मार्ज पियर्सी अमरीकी उपन्यासकार, कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. यह कविता “बलात्कार के खिलाफ नारीवादी संश्रय” नामक संगठन के समाचार पत्र – “रेड वार स्टिक्स” (अंक अप्रील/मई 1975) में प्रकाशित हुई थी. इस कविता में बलात्कार की नृशंसता और उसके विविध आयामों को तीखेपन से अभिव्यंजित किया गया है.

बलात्कार किये जाने और
सीमेंट के खड़े जीने से धकेल दिये जाने में
कोई फर्क नहीं, सिवाय इसके कि
उस हालत में भीतर-भीतर रिसते हैं ज़ख्म.
बलात्कार किये जाने और
ट्रक से कुचल दिये जाने में
कोई फर्क नहीं, सिवाय इसके कि
उसके बाद मर्द पूछता है --मज़ा आया ?

बलात्कार किये जाने और
किसी ज़हरीले नाग के काटने में
कोई फर्क नहीं, सिवाय इसके कि
लोग पूछते हैं क्या तुमने छोटा स्कर्ट पहना था
और भला क्यों निकली थी घर से अकेली.

बलात्कार किये जाने और
शीशा तोड़कर सर के बल निकलने में
और कोई फर्क नहीं, सिवाय इसके कि
तुम डरने लगती हो
मोटर गाड़ी से नहीं, बल्कि मर्द ज़ात से.

बलात्कारी तुम्हारे प्रेमी का भाई है.
वह सिनेमाघर में बैठता है तुमसे सटकर पॉपकॉर्न खाता हुआ.
बलात्कार पनपता है सामान्य पुरुष के कल्पनालोक में
जैसे कूड़े की ढेर पर गोबरैला.

बलात्कार का भय एक शीतलहर की तरह बहता है
हर समय चुभता किसी औरत के कूबड़ पर.

सनोबर के जंगल से गुजरती रेतीली सड़क पर
कभी अकेले नहीं टहलना,
नहीं चढ़ना किसी निर्ज़न पहाड़ी पगडण्डी पर
बिना मुँह में चाक़ू दबाए
जब देख रही हो किसी मर्द को अपनी ओर आते.

कभी मत खोलना दरवाज़ा किसी दस्तक पर
बिना हाथ में उस्तरा लिये.
हाते के अँधेरे हिस्से का भय,
कार की पिछली सीट का,
भय खाली मकान का
छनछनाती चाभियों का गुच्छा जैसे साँप की चेतावनी
उसकी जेब में पड़ा चाकू इस इंतज़ार में है
कि धीरे से उतार दिया जाय मेरी पसलियों के बीच.
उसकी मुट्ठी में बंद है नफरत.

बलात्कारी की भूमिका में उतरने के लिये काफी है
कि क्या वह देख पाता है तुम्हारी देह को,
छेदने वाली मशीन की नज़र से,
दाहक गैस लैम्प निगाह से,
अश्लील साहित्य और गन्दी फिल्मों की तर्ज़ पर.
जरुरी है बस तुम्हारे शरीर से, तुम्हारी अस्मिता,
तुम्हारे स्व, तुम्हारी कोमल मांसलता से
नफरत करने भर की.

यही काफी है कि तुम्हें नफरत है जिस चीज से,
डरती हो तुम उस शिथिल पराये मांस के साथ जो-जो करने से
उसी के लिये मजबूर किया जाना.
संवेदनशून्य पहियों से सुसज्जित
किसी अपराजेय टैंक की तरह रौंदना,
अधिकार जमाना और सजा देना साथ-साथ,
चीरना-फाड़ना मज़ा लेना, जो विरोध करे उसे क़त्ल करना
भोगना मांसल देह काम-क्रीडा के लिये अनावृत.

Tuesday, August 20, 2013

एदुआर्दो गालेआनो की कविता -- दुनिया भर में डर

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जो लोग काम पर लगे हैं वे भयभीत हैं
कि उनकी नौकरी छूट जायेगी
जो काम पर नहीं लगे वे भयभीत हैं
कि उनको कभी काम नहीं मिलेगा
जिन्हें चिंता नहीं है भूख की
वे भयभीत हैं खाने को लेकर
लोकतंत्र भयभीत है याद दिलाये जाने से और
भाषा भयभीत है बोले जाने को लेकर
आम नागरिक डरते हैं सेना से,
सेना डरती है हथियारों की कमी से
हथियार डरते हैं कि युद्धों की कमी है
यह भय का समय है
स्त्रियाँ डरती हैं हिंसक पुरुषों से और पुरुष
डरते हैं निर्भय स्त्रियों से
चोरों का डर, पुलिस का डर
डर बिना ताले के दरवाज़ों का,
घड़ियों के बिना समय का
बिना टेलीविज़न बच्चों का, डर
नींद की गोली के बिना रात का और दिन
जगने वाली गोली के बिना
भीड़ का भय, एकांत का भय
भय कि क्या था पहले और क्या हो सकता है
मरने का भय, जीने का भय.

Friday, August 9, 2013

रॉक डाल्टन की कविता -- बेहतर प्यार के लिए

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रॉक डाल्टन (1935-1975) अल साल्वाडोर के क्रांतिकारी कवि रॉक डाल्टन ने अपनी छोटी सी जिंदगी कला और क्रांति के सिद्धांत को आत्मसात करने और उसे ज़मीन पर उतारने मे बिताई. उनका पूरा जीवन जलावतनी, गिरफ्तारी, यातना, छापामार लड़ाई और इन सब के साथ-साथ लेखन में बीता. उनकी त्रासद मौत अल साल्वाडोर के ही एक प्रतिद्वंद्वी छापामार समूह के हाथों हुई. उनकी पंक्ति- "कविता, रोटी की तरह सबके लिए है" लातिन अमरीका मे काफ़ी लोकप्रिय है. यह कविता मन्थली रिव्यू, दिसंबर 1985 में प्रकाशित हुई थी.)

हर कोई मानता है कि लिंग
एक श्रेणी विभाजन है प्रेमियों की दुनिया में-
इसी से फूटती हैं शाखाएँ कोमलता और क्रूरता की.

हर कोई मानता है कि लिंग
एक आर्थिक श्रेणी विभाजन है-
उदाहरण के लिए आप वेश्यावृत्ति को ही लें,
या फैशन को,
या अख़बार के परिशिष्ट को
जो पुरुष के लिए अलग है, औरत के लिए अलग.

मुसीबत तो तब शुरू होती है
जब कोई औरत कहती है
कि लिंग एक राजानीती श्रेणी विभाजन है.

क्योंकि ज्यों ही कोई औरत कहती है
की लिंग एक राजनीतिक श्रेणी विभाजन है
तो वह जैसी है, वैसी औरत होने पर लगा सकती है विराम
और अपने आप की खातिर एक औरत होने की कर सकती है शुरुआत,
औरत को एक ऐसी औरत मे ढालने की
जिसका आधार उसके भीतर की मानवता हो
उसका लिंग नहीं.

वह जान सकती है कि नीबू की महक वाला जादुई इत्र
और उसकी त्वचा को कामनीयता से सहलाने वाला साबुन
वही कंपनी बनाती है, जहाँ बनता है नापाम बम,
कि घर के सभी ज़रूरी काम
परिवार के एक ही सामाजिक समुदाय की ज़िम्मेदारी हैं,
की लिंग की भिन्नता
प्रणय के अंतरंग क्षणों मे तभी परवान चढ़ती है
जब परदा उठ जाता है उन सारे रहस्यों से
जो मजबूर करते हैं मुखौटा पहनने पर और पैदा करते हैं आपसी मनमुटाव.

(अनुवाद- दिगम्बर)

Tuesday, August 6, 2013

एदुआर्दो गालेआनो की कविता- सपना देखने का अधिकार

eduardo 1
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1948 में और दुबारा 1976 में मानवाधिकारों की लम्बी सूची जारी की, लेकिन मानवता की भारी बहुसंख्या आज भी सिर्फ देखने, सुनने और चुप रहने के अधिकार का ही उपभोग कर पाती है। मान लीजिये की हम सपना देखने के अधिकार का प्रयोग करने लगें, जिसकीआज तक किसी ने घोषणा नहीं की ? मान लीजिये की हम थोडा बक-बक करने लगें? आइये, हम अपनी निगाहें इस मौजूदा घिनौनी दुनिया की जगह एक बेहतरीन दूसरी दुनिया की ओर टिकाएँ जो मुमकिन है-

हवा तमाम जहरीली चीजों से साफ हो, सिवाय उन जहरों के जो पैदा हुए हों इंसानी डर और इंसानी जज्बात से;

सडकों पर, कारें रौंदी जाएँ कुत्तो के द्वारा;

लोग कारों से न हाँके जाएँ या संचालित न हों कंप्यूटर प्रोग्राम से या खरीदे न जाएँ सुपर बाज़ार के द्वारा या उन पर निगाह न रखी जाय टेलीविजन से;

आगे से टीवी सेट परिवार का सबसे ख़ास सदस्य न रह जाएँ और उनके साथ वैसा ही सलूक किया जाय, जैसा इस्तरी या वाशिंग मशीन के साथ;

लेग श्रम करने के लिए जीने के बजाय जीने के लिए श्रम करें;

कनून की नजर में माना जाय मूर्खता का अपराध कि लोग धन बटोरने या जीतने के लिए जिन्दा रहें, बजाय इसके कि सहजता से जीयें, उन पंछियों की तरह जो अनजाने ही चहचहाते हैं और उन बच्चों की तरह जो खेलते हैं बिना यह जाने कि वे खेल रहे हैं;

किसी देश में युद्व के मोर्चे पर जाने से इन्कार करने वाले नौजवान जेल नहीं जायें बल्कि जेल जायें वे लोग जो युद्व छेड़ना चाहते हैं;

अर्थशास्त्री उपभोग के स्तर से जीवन स्तर को या उपभोक्ता सामानों की मात्रा से जीवन की गुणवत्ता को न नापें;

रसोईये इस बात में यकीन न करें कि लोबस्टर को अच्छा लगता है जिन्दा उबाला जाना;

इतिहासकार इस बात में यकीन न करें कि देशों को अच्छा लगता है उन पर हमला किया जाना;

राजनेता इस बात में यकीन न करें कि सिर्फ वादों से भर जाता है गरीब लोगों का पेट;

गम्भीरता को सद्गुण नहीं समझा जाय और जो खुद पर हँसना नहीं जानता हो, उसे गम्भीरता से न लिया जाय;

मौत और पैसेकी जादुई शक्ति गायब हो जाय और कोई चूहा महज वसीयत या दौलत के दम पर अचानक गुणी जन न बन जाय;

अपने विवेक के मुताबिक जो ठीक लगे वह काम करने के लिए किसी को मूर्ख न समझा जाय और नाह ही अपने फायदे के हिसाब से काम करने वाले को बुद्विमान;

पूरी दुनिया में गरीबों के खिलाफ नहीं, बल्कि गरीबी के खिलाफ जंग छिड़े और हथियार उद्योग के सामने खुद को दिवालिया घोषित करने के सिवा कोई चारा न रह जाये;

भोजन खरीद-फरोख्त का सामान न हो और संचार साधनों का व्यापार न हो क्योंकि भोजन और संचार मानवाधिकार हैं;

कोई व्यक्ति भूख से न मरे और कोई व्यक्ति खाते-खाते भी न मरे;

बेघर बच्चों को कूड़े का ढेर न समझा जाय क्योंकि कोई भी बच्चा बेघर न रह जाय;

धनी बच्चों को सोने जैसा न माना जाय क्योंकि कोई भी बच्चा धनी न रहे;

शिक्षा उन लोगों का विशेषाधिकार न हो जिनकी हैसियत हो उसे खरीदने की;

पुलिस उन लोगों पर कहर न ढाये जिनकी जेब में उसे देने के लिए पैसा न हो;

न्याय और मुक्ति, जिन्हें जन्म से ही आपस में जुड़े बच्चों की तरह काट कर अलग कर दिया गया, आपस में फिर मिलें और एक साथ जुड़ जायें;

एक महिला, एक अश्वेत महिला ब्राजील में राष्ट्रपति चुनी जाय, एक रेड इण्डियन महिला ग्वाटेमाला में और दूसरी पेरू में सत्ता संभाले;

अर्जेंनटीना की प्लाजा द मेयो (1) की सनकी औरतों को मानसिक स्वास्थ्य की सब से अच्छी मिसाल समझा जाय क्योंकि उन्होंने जान पर खतरा जानकर भी चुप स्वीकार नहीं किया चुप बैठना;

चर्च और पचित्र माता, मूसा के शिलालेख की गलत लिखावट को दुरूस्त करें और उनका छठा आदेश शरीर के उत्सव मनाने का आदेश दे;

एक और आदेश की घोषणा करे चर्च, जिसे भूल गया था ईश्वर- तुम प्रकृति से प्यार करो क्योंकि तुम उसी के अंग हो;

जंगलों से आच्छादित हों दुनिया के रेगिस्तान और धरती की आत्मा;

नाउम्मीद लोगों में उम्मीद की किरण फूटे और खोये हुए लोगों का पता लगा लिया जाय क्योंकि वे लोग अकेले-अकेले राह तलाशने के चलते निराश हुए और रास्ते से भटक गये;

हम उन लोगों के हमवतन और हमसफर बनें जिनमें न्याय और खूबसूरती की चाहत हो, चाहे वे कहीं भी रहते हों, क्योंकि आने वाले समय में कहातम हो जाएँ देशों के बीच सरहदें और दिलों के बीच की दूरी;

शुद्धता केवल देवताओं का उबाऊ विशेषाधिकार भर रह जाये, और हम अपनी गड़बड़ और गन्दी दुनिया में इस तरह गुजारें हर रात जैसे वह आखिरी रात हो और हर दिन जैसे पहला दिन...
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1. प्लाजा द मेयो- अर्जेंनटीना में 1976 से 1983 के बीच सैनिक तानाशाही के अधीन सरकार का विरोध करने वाले क्रांतिकारी नौजवानो को गिरफ्तार करके यातना देने, हत्या करने और गायब कर देने की घटनाएं आम हो गयी थीं। उन नौजवानों की माताओं ने प्लाजा द मेयो नाम से संगठन बनाकर तानाशाही की इन क्रूरताओं का खुलकर विरोध किया था।)

(अनुवाद- दिगम्बर)

Monday, July 8, 2013

मैं तुम्हें प्यार करता हूँ - नाजिम हिकमत

nazim

घुटनों के बल बैठा-
मैं निहार रहा हूँ धरती,
घास,
कीट-पतंग,
नीले फूलों से लदी छोटी टहनियाँ.
तुम बसंत की धरती हो, मेरी प्रिया,
मैं तुम्हें निहार रहा हूँ.

पीठ के बल लेटा-
मैं देख रहा हूँ आकाश,
पेड़ की डालियाँ,
उड़ान भरते सारस,
एक जागृत सपना.
तुम बसंत के आकाश की तरह हो, मेरी प्रिया,
मैं तुम्हें देख रहा हूँ.

रात में जलाता हूँ अलाव-
छूता हूँ आग,
पानी,
पोशाक,
चाँदी.
तुम सितारों के नीचे जलती आग जैसी हो,
मैं तुम्हें छू रहा हूँ.

मैं काम करता हूँ जनता के बीच-
प्यार करता हूँ जनता से,
कार्रवाई से,
विचार से,
संघर्ष से.
तुम एक शख्शियत हो मेरे संघर्ष में,
मैं तुम से प्यार करता हूँ.

(अनुवाद- दिगम्बर)

Friday, July 5, 2013

जिसे वे भगवान की लीला कहते हैं - मार्ज पियर्सी

जिसे वे भगवान की लीला कहते हैं - मार्ज पियर्सी

कितना खूबसूरत और जानलेवा है बर्फ.
सड़कें समा गयी हैं इसकी सुरंग में.
बिना बिजली-पानी हजारों हजार लोग
जमी हुई दुनिया में जहाँ भेड़ियों के झुण्ड
की तरह हुंआ-हुंआ करती है हवा.

पहले ही बेइन्तेहाँ हैं ठण्ड से हो रही मौतें
जिसका मतलब है फटे-पुराने कम्बल में
किकुडते, ठिठुरते लोगो की जमघट,
कंपकंपाते बच्चे बंद कर देते हैं कांपना
ठण्ड से अकड़कर समा जाते हैं मौत के मुँह में.

ऊपर से गुजरते बिजली के तारों को
जमीन में दाबना बहुत खर्चीला है,
कहते हैं बिजली कम्पनी के अधिकारी,
जो नहीं झेलते बिजली-पानी का आभाव,
जिन्हें दुबकना नहीं पड़ता ठन्डे अँधेरे में.

आभाव का कोई असर नहीं जिन पर, आभाव
से मरते नहीं जो लोग, वही लेते हैं फैसले.
हम यकीन नहीं करते जलवायु परिवर्तन में
और यही नहीं, लागत और मुनाफे का
अनुपात हमें मुनाफा भी तो देता है.

कृषि व्यापारियों के पानी चुराने और
रिहायशी इलाकों में लॉन की हरियाली के कारण
पड़नेवाला सूखा. घटिया दर्जे के बांधों के चलते
बहते-ढहते मकान. न्यू ओर्लियांस में होता है
पुनर्निर्माण धनाढ्यों और पर्यटकों के लिये

सड़ने और मातम मानने दो गरीब बस्तियों को.
बीमा कम्पनी को आशा है कि उनके भुगतान
की तारीख आते-आते आप बूढ़े हो जायेंगे.
राजनेता दाबे बैठे हैं पुनर्निर्माण का पैसा.
और हम कहते हैं इसे प्राकृतिक आपदा.

(अमरीकी कवियत्री मार्ग पियार्सी के अठारह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. यह कविता मंथली रिव्यू से आभार सहित लिया गया है. अनुवाद- दिगम्बर)

Tuesday, July 2, 2013

नाजिम हिकमत की कविता- डॉन क्विग्जोट

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अमर नौजवानों के शूरवीर
पचास की उम्र में पाया कि उसका दिमाग है
उसके दिल में
और जुलाई की एक सुबह निकल पड़ा
सही, सुन्दर और जायज चीजों पर कब्ज़ा करने.

उसके सामने थी पागल और मगरूर दानवों की एक दुनिया,
वह अपने मरियल, लेकिन बहादुर रोसिनान्ते पर सवार.
मैं जानता हूँ किसी चीज की ख्वाहिश का मतलब,
लेकिन अगर तुम्हारे दिल का वजन सिर्फ एक पौंड सोलह औंस है,
तो मेरे डॉन, इन बेहूदी पवनचक्कियों से लड़ना,
कोई समझदारी की बात नहीं.

मगर तुम ठीक कह रहे हो, यकीनन दुल्सीनिया तुम्हारी औरत है,
इस दुनिया में सबसे खूबसूरत,
मुझे यकीन है कि तुम यह बात
गली के दुकानदारों के मुँह पर कहोगे चीखते हुए,
लेकिन वे तुम्हें गिराएँगे घोड़े से खींच कर
और बुरी तरह पीटेंगे.
मगर तुम, हमारे अभागे अजेय शूरवीर,
दमकते रहोगे अपने भारी-भरकम लोहे की टोप में
और दुल्सीनिया और भी खूबसूरत हो जायेगी.

(अंग्रेजी से अनुवाद- दिगम्बर)

Thursday, June 27, 2013

व्लादिमीर मायकोवस्की की कविता- तुम

maykovasky
तुम, जो व्याभिचार के कीचड़ में लगातार लोट रहे हो,
गरम गुसलखाने और आरामदायक शौचालय के मालिक!
तुम्हारी मजाल कि अपनी चुन्धियायी आँखों से पढ़ो
अखबार में छपी सेंट जोर्ज पदक दिये जाने जैसी खबर!

तुमको परवाह भी है, उन बेशुमार मामूली लोगों की
जिन्हें चिंता है कि वे कैसे पूरी करते रहे तुम्हारी हवश,
कि शायद अभी-अभी लेफ्टिनेंट पेत्रोव की दोनों टांगें
उड़ गयीं हैं बम के धमाके से?

कल्पना करो कि अगर वह, जिसे बलि देने के लिये लाया गया,
अपने खून से लतपथ टांगे लिये आये और अचानक देख ले,
कि वोदका और सोडा-वाटर गटकते अपने पियक्कड थोबड़े से
गुनगुना रहे हो तुम सेवेरियाती का कामुक गीत!

औरतों की देह, मुर्ग-मुसल्लम और मोटर गाड़ियों के पीछे पागल
तुम्हारे जैसे अय्याश लोगों के लिये, मैं अपनी जान दे दूँ?
इससे लाख दर्जे अच्छा है कि मास्को के भटियारखाने में जाकर
वहाँ रंडियों को शरबत पिलाने के काम में लग जाऊं.

(अनुवाद- दिगम्बर)

Friday, June 21, 2013

उत्तराखण्ड में भयावह तबाही : प्राकृतिक आपदा नहीं, अंधाधुंध पूँजीवादी विकास का नतीजा

प्रकृति के साथ आपराधिक छेड़-छाड और विकास के नाम पर हो रहे पर्यावरण विनाश के कारण उत्तराखंड में जो भयावह तबाही मची है वह प्राकृतिक आपदा नहीं है. बल्कि यह अंधाधुंध और बदहवास पूँजीवादी विकास का नतीजा है.
अब से 137 साल पहले महान विचारक फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ नामक अपने लेख में प्रकृति और मानव जाति के बीच सामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों को बाधित किये जाने के दुष्परिणामों के बारे में जो राय व्यक्त की थी वह आज हू-ब-हू हमारे सामने आ रहे हैं. प्रस्तुत है उस लेख का एक अंuttrakhandश--

...प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि वह हर ऐसी विजय का हमसे प्रतिशोध लेती है. यह सही है कि प्रत्येक विजय से पहले-पहल वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं, जिनका हमने भरोसा किया था, पर दूसरी और तीसरी बार उसके बिलकुल ही भिन्न और अप्रत्याशित परिणाम होते हैं, जिनसे अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है. मेसोपोटामिया, यूनान, एशिया माइनर तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषियोग्य भूमि प्राप्त करने के लिये वनों को बिलकुल ही नष्ट कर डाला, उन्होंने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन करके वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं. आल्प्स के इटलीवासियों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के वनों को (ये उत्तरी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गये थे) पूरी तरह से तबाह काट डाला तब उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करके वे अपने प्रदेश के पहाड़ी पशु-पालन पर कुठाराघात कर रहे हैं. इससे भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिये जलहीन बना रहे हैं और साथ ही इन स्रोतों के लिये यह सम्भव बना रहे हैं कि वे वर्षाऋतु में मैदान में और भी भयावह बाढ़ें लाया करें... हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उसके ही मध्य है और उसके ऊपर हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस मानी में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक लागू कर सकते हैं.
...जैसा समाज के संबंध में वैसे ही प्रकृति के संबंध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है. और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस उद्देश्य की पूर्ति के किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव बिलकुल दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उल्टे ही प्रकार के होते हैं; कि पूर्ति और माँग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है...

Tuesday, June 11, 2013

आनेवाली पीढ़ी के नाम – बर्तोल्त ब्रेख्त

 
brekht

                                                                                                                                                                                                                                                                                    ब्रेख्त की इस कविता का अनुवाद मैंने 80 के दशक में किया  था और वह 'वर्तमान साहित्य 'में प्रकाशित हुआ था. अब उसे ढूँढना तो मुश्किल ही है. यह कविता मुझे पसंद है तो इसका मैं तीसरी बार अनुवाद किया हूँ. अभी भी मुझे लगता है कि पहलेवाला ज्यादा बढ़िया था. फिर भी, किया तो किया. अपनी बेबाक राय दीजियेगा.)
 
 

 

1.

सचमुच मैं अँधिआरे दौर में जी रहा हूँ!

सीधी-सच्ची बात करना बेवकूफी है.

बेशिकन माथा निशानी है

पत्थर दिल होने की. वह जो हँस रहा है

उसने अभी तक सुनी नहीं

खौफनाक ख़बरें.

 

उफ़, कैसा दौर है ये

जब पेड़ों के बारे में बतियाना अमूमन जुर्म है

क्योंकि यह नाइंसाफी के मुद्दे पर एक तरह से ख़ामोशी है!

और वह जो चुपके से सड़क पार कर रहा है,

क्या अपने उन दोस्तों की पहुँच से बाहर नहीं

जो मुसीबत से घिरे हैं?

 

ये सही है कि मैं चला ले रहा हूँ अपनी रोजी-रोटी

मगर, यकीन करें, यह महज एक इत्तफाक है.

जो कुछ भी मैं करता हूँ, वह नहीं बनाता मुझे

पेट भर खाने का हकदार.

इत्तफाकन बच गया मैं. (किस्मत ने साथ छोड़ा नहीं

कि मैं गया काम से.)

 

वे मुझ से कहते हैं कि खाओ-पियो.

खुश रहो कि ये सब मयस्सर है तुम्हें.

मगर मैं कैसे खा-पी सकता हूँ

जबकि मेरा निवाला छीना हुआ है किसी भूखे से

और मेरे गिलास का पानी है किसी प्यासे आदमी का हिस्सा?

और फिर भी मैं खा-पी रहा हूँ.

 

मैं समझदार हो सकता हूँ खुशी-खुशी.

पुरानी किताबें बताती हैं कि समझदारी क्या है-

नजरअंदाज करो दुनिया की खींचातानी

अपनी छोटी सी उम्र गुजार दो

बिना किसी से डरे

बिना झगड़ा-लड़ाई किए

बुराई के बदले भलाई करते हुए—

इच्छाओं की पूर्ति नहीं बल्कि उन्हें भुलाते हुए

इसी में समझदारी है.

मैं तो इनमें से कुछ भी नहीं कर पाता-

सचमुच मैं अँधिआरे दौर में जी रहा हूँ!

 

2.

उथल-पुथल के दौरान मैं शहरों में आया

जब हर जगह भूख का राज था.

बगावत के समय आया मैं लोगों के बीच

और उनके साथ मिलकर बगावत की.

इस तरह गुजरा मेरा वक्त

जो मिला था मुझे इस धरती पर.

 

कत्लेआमों के दरमियान मैंने खाना खाया.

मेरी नींद में उभरती रहीं क़त्ल की परछाइयाँ.

और जब प्यार किया, तो लापरवाही से प्यार किया मैंने.

कुदरत को निहारा किया बेसब्री से.

इस तरह गुजरा मेरा वक्त

जो मिला था मुझे इस धरती पर.

 

हमारे दौर के रास्ते हमें ले जाते थे बलुई दलदल की ओर.

हमारी जुबान ने धोखा दिया कातिल के आगे.

मैं कुछ नहीं कर सकता था. लेकिन मेरे बगैर

हुक्मरान कहीं ज्यादा महफूज रह सकते थे. यही मेरी उम्मीद थी.

इस तरह गुजरा मेरा वक्त

जो मिला था मुझे इस धरती पर.

 

3.

तुम, जो इस सैलाब से बच निकलोगे

जिसमें डूब रहे हैं हम ,

जब भी बोलना हमारी कमजोरियों के बारे में,

तो ख्याल रखना

इस अंधियारे दौर का भी

जिसने बढ़ावा दिया उन कमजोरियों को.

 

जूतों से भी ज्यादा मर्तबा बदले हमने देश.

वर्ग युद्ध में, निराश-हताश

जब सिर्फ नाइंसाफी थी और कोई मजम्मत नहीं.

 

और हमें अच्छी तरह पता है
कि नफरत, कमीनगी के खिलाफ भी
चेहरे को सख्त कर देती है.

गुस्सा, नाइंसाफी के खिलाफ भी

आवाज़ को तल्ख़ कर देता है.

उफ़, हम जो इस दुनिया में

हमदर्दी की बुनियाद रखना चाहते थे

खुद ही नहीं हो पाये हमदर्द.

 

लेकिन तुम, जब आखिरकार ऐसा दौर आये

कि आदमी अपने संगी-साथी का मददगार हो जाए,

तो हमारे बारे में फैसला करते वक्त

बेमरौवत मत होना.

(अनुवाद – दिगम्बर)

Tuesday, May 14, 2013

रसूल हमजातोव की कविता

rasul hamjatov

मेरी मातृभाषा

हमारी नींदों में आते हैं

अजीबोगरीब ख़यालात-

कल रात मैंने ख्वाब में देखा

कि मरा पड़ा हूँ

एक गहरे खड्ड के किनारे

सीने में धंसी है एक गोली.

 

हहराती-शोर मचाती

बह रही है कोई नदी पास में.

मदद के लिये कर रहा हूँ

वेवजह इंतजार.

पड़ा हुआ हूँ धुल भरी धरती पर

धूल में मिलनेवाला हूँ शायद.

 

किसी को क्या पता

कि मैं मर रहा हूँ यहाँ पड़े-पड़े

कोई हमदर्द नहीं आसपास.

आकाश में मंडरा रहे हैं चील

और शर्मीली हिरने भर रही हैं कुलांचे.

 

कोई नहीं जो मातम मनाये

मेरी बेवक्त मौत पर कोई नहीं रोवनहार

न माँ, न बीवी, न साथी-संगाती

न गाँव-जवार के लोग-बाग.

 

पर ज्योंही मरने को तैयार हुआ

बेखबर और गुमनाम

कि कानों में पड़ी जानी-पहचानी आवाज

मेरी मातृभाषा, अवार भाषा में बतियाते

गुजर रहे थे दो लोग.

 

एक गहरे खड्ड में पड़ा

खत्म हो रहा हूँ मैं नाचीज

और वे मस्ती में बतियाए जा रहे हैं

किसी हसन की मक्कारी या

किसी अली की साजिश के किस्से.

 

जैसे ही मेरे कानों घुली

अवार भाषा की खुशनुमा बातचीत,

मेरी जान आ गयी वापस.

और महसूस हुआ जैसे

किसी हकीम, किसी वैद्य के पास

नहीं है कोई इलाज,

संजीवनी है तो बस अवार भाषा.

 

दूसरी कोई भाषा अपने खास अंदाज में

कर सकती है किसी दूसरे का उपचार,

लेकिन मैं ठहरा अवार.

अगर कल को मिट जाना

नियति है मेरी भाषा की,

तो मैं आज ही मर जाना चाहूँगा.

 

क्या फर्क पड़ता है अगर

नहीं गूँजती बड़ी महफ़िलों में,

पर मेरे लिये अपनी अवार भाषा

माँ के दूध के साथ हासिल अवार ही

सबसे महान है इस धरती पर!

 

आनेवाली नस्लें

सिर्फ तर्जुमा में पढ़ेंगी महमूद की शायरी?

क्या मैं आखिरी आदमी हूँ

अवार भाषा में लिखने

और समझे जाने लायक?

 

मैं प्यार करता हूँ जिन्दगी से

और पूरी दुनिया से

निहारता हूँ टकटकी लगाये

उसका सुन्दर सुहाना रूप.

लेकिन सबसे प्यारी, सबसे न्यारी

हमारी सोवियत भुमि

जिसका गुणगान किया मैंने

अपनी अवार भाषा में.

 

पूरब से पश्चिम तक विस्तृत

मेहनतकशों के इस आजाद देश पर

जान लुटाता हूँ मैं.

पर ख्वाहिश यही है मन में

कि मेरी कब्र बने उस जगह

जहाँ के लोग बोलते हों अवार.

 

और जमा हों वहाँ अवार लोग

बतियाएं आपस में मिलजुल

अवार भाषा में चर्चा करें

कि यहाँ लेटा है हमारा अपना कवि

रसूल, हमारे अपने कवि का बेटा और वारिस.

(अनुवाद- दिगम्बर)

Sunday, May 12, 2013

राय जाहिर करने के बारे में

 

–लू शुन


lu shun


मैनें सपना देखा


कि मैं प्राथमिक विद्यालय की एक कक्षा में था । एक लेख लिखने की तैयारी कर रहा था और मैंने शिक्षक से पूछा कि कोई राय जाहिर करनी हो तो कैसे करें ।

“यह तो कठिन काम है ।” अपने चश्में के बाहर से मेरी ओर निहारते हुए उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ–
“एक परिवार में जब बेटा पैदा हुआ, तो पूरे घराने में खुशी की लहर दौड़ गयी । जब वह बच्चा एक महीने का हो गया, तो वे लोग उसे मेहमानों को दिखाने के लिए बाहर ले आये । जाहिर है कि उन्हें उन लोगों से शुभकामनाओं की उम्मीद थी ।
“एक ने कहा– ‘यह बच्चा धनवान होगा ।’ उसे लोगों ने हृदय से धन्यवाद दिया ।
“एक ने कहा– ‘यह बच्चा बड़ा होकर अफसर बनेगा ।’ उसे भी जवाब में लोगों की प्रशंसा मिली ।
“एक ने कहा– ‘यह बच्चा मर जायेगा ।’ उसके बाद पूरे परिवार ने मिल कर उसकी कस के धुनाई की ।
“बच्चा मरेगा, यह तो अवश्यंभावी है, जबकि वह धनवान होगा या अफसर बनेगा, ऐसा कहना झूठ भी हो सकता है । फिर भी झूठ की प्रशंसा की जाती है, जबकि अपरिहार्य सम्भावना के बारे में दिये गये वक्तव्य पर मार पिटाई होती है । तुम–––”
“मैं झूठी बात नहीं कहना चाहता श्रीमान, और पिटना भी नहीं चाहता । तो मुझे क्या कहना चाहिए ?”
“ऐसी स्थिति में कहो– ‘आ हाहा! जरा इस बच्चे को तो देखो! मेरी तरफ से इसे––– आ हाहा! मेरा मतलब आहाहा! हे, हे! हे, हे, हे, हे।

Tuesday, April 16, 2013

पता है, आधार क्यों अनिवार्य नहीं है?


-राम कृष्णास्वामी 

आधार/एकल पहचान पत्र (यूआईडी)का विरोध कर रहे आंदोलनकारी पिछले तीन सालों से यह दलील दे रहे हैं कि यह सांप्रदायिक हमले की और ले जा सकता है, गैरकानूनी प्रवासियों की मदद कर सकता है, निजता में दखलंदाजी कर सकता है, असंसदीय है, इसे संसद से स्वीकृति नहीं मिली है, गैरकानूनी है, इत्यादि. फिर भी एकल पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) और संप्रग नेतृत्व द्वारा इन सभी आपत्तियों की अनसुनी की गयी.

साथ ही, आधार अनिवार्य नहीं है और इसीलिए कहा गया कि ये आपत्तियाँ अमान्य हैं. मध्यम और उच्च वर्ग के भारतीय यूआईडी की बहस पर चुप्पी साधे रहे, क्योंकि इससे उनके ऊपर जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता. यूआईडी नामांकन केन्द्रों पर लोगों की लंबी कतारों को देखने से इस धारणा की पुष्टि होती है.

नंदन नीलकानी और यूआईडी महानिदेशक आर एस शर्मा ने बार-बार राष्ट्र को कहा कि यूआईडी, जिसे अब आधार कहा जाता है, बाध्यकारी नहीं है. फिर भी, वे कहते हैं कि एक समय बाद यह सर्वव्यापी भी हो सकता है, जब सेवा देने वाली संस्थाएं सेवा लेने के लिए इसे अनिवार्य बनाने पर जोर डालें. नंदन नीलकानी के ही शब्दों में- “हाँ, यह स्वैच्छिक है. लेकिन सेवा देनेवाले इसे बाध्यकारी बना सकते हैं. आने वाले समय में, मैं इसे अनिवार्य नहीं कहूँगा. इसकी जगह मैं कहूँगा कि यह सर्वव्यापी हो जायेगा.”

जबसे भारत सरकार ने गरीब और हाशिए पर धकेल दिये गये लोगों के लिए एकल पहचान संख्या के विचार से खेलना शुरू किया, तभी से राष्ट्र को यही बताया जाता रहा कि यह बाध्यकारी नहीं है.
कभी इस पर आश्चर्य हुआ कि क्यों?

एक सवाल आन्दोलनकारियों ने कभी नहीं पूछा कि “आधार अनिवार्य क्यों नहीं है?”

इसका कारण बहुत साफ़ है और लगातार हम सब की आँखों में घूरता रहा है, फिर भी शायद किसी ने यह सवाल  नहीं उठाया. आज क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, उस पर यह सवाल कुछ और रोशनी डालता है.

सरसरी तौर पर देखने से ही इन दोनों मंसूबों में भारतीय इतिहास के सबसे विद्वान मुर्ख तुगलक की प्रतिध्वनि सुनाई देती है. इस तरह के मंसूबों का मकसद महान राष्ट्र का निर्माण करना नहीं होता, वास्तव में ये कंगालों की पीढ़ी तैयार करने का अचूक तरीका हो सकते हैं. गरीबी तब तक “अच्छी” थी जब तक ग़रीबों में उससे संघर्ष करने और ऊपर उठने की गरिमा कायम थी. जबकि कंगालीकरण उस चेतना और आत्म-गौरव को ही मार देगा जो एक अरब से भी अधिक आबादी वाले एक राष्ट्र के कायम रहने और आगे बढ़ने के लिए बहुत ही जरूरी है.

मानव जाति का इतिहास गवाह है कि जो लोग मालिक की स्थिति में थे, वे हमेशा अपने गुलामों के लिए किसी न किसी तरह का पहचान-चिन्ह चाहते थे. सिर्फ गुलाम और उसके परिवार का नाम लिखना ही पर्याप्त नहीं था. गुलामों को नाव में लादते समय मालिक उनकी बाँहों को दाग कर कोई चिन्ह बना देते थे. रूसी साम्राज्य के ज़माने में कतोर्श्निकी (सार्वजनिक गुलामों) को भयानक तरीके से चिन्हित किया जाता था- उनके ललाट और गाल पर  गुलाम शब्द गोद कर उस पर बारूद रगड़ दिया जाता था. कई देशों में गुलामों का सिर मूड कर सिर्फ एक चुटिया छोड़ दी जाती थी. सिर मूडना पुंसत्व-हरण, यानी मर्दानगी, सत्ता और आजादी छीन जाने का प्रतीक था. वर्चश्व के संबंधों के सबसे चरम रूपों में से एक है गुलामी, जिसमें मालिक के लिए सम्पूर्ण सत्ता और गुलाम के लिए पूरी तरह सत्ताहीनता की सारी हदें पार कर ली जाती हैं.

भारत में, वर्तमान सन्दर्भ में राजसत्ता “मालिक” है जो कहती है कि ग़रीबों को जिन्दा रहने के लिए सिर्फ 32 रुपया ही काफी है, जबकि पूँजीवादी मालिक 500 की थाली का खर्च उठा सकते हैं. भारतीय जनता “गुलाम” है जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करती है, जिनको कहा गया है कि जब तक तुम्हारे पास ऊँगली की छाप सहित  एक नंबर नहीं है, तब तक तुमको सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान से तीन रुपये किलो चावल पाने का हक नहीं है. भारत में एक गुलाम सामाजिक रूप से मृत प्राणी है, जिसकी पहचान मालिक द्वारा जारी की गयी एक संख्या से की जा सकती है, न कि उसके पिता, माता या दुनिया के साथ जोड़ने वाली कोई दूसरी सामाजिक कड़ी से.

यह सवाल अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं से पूछा जाता रहा है कि “आपको निजता के बारे में परेशान होने की क्या जरूरत है, अगर आपके पास छुपाने के लिए कुछ है ही नहीं?” इसी सिद्धांत से यह बात भी तो निकलती है कि “जिन लोगों के पास छुपाने के लिए कुछ हो, वे निश्चय ही कोई ऐसी विशिष्ट पहचान संख्या नहीं चाहते जो उनके जैविक मापकों, जैसे ऊँगली की छाप या पुतलियों के फोटो से जुड़ा हो.”

हाल ही में किये गये स्टिंग ऑपरेशन से पता चला कि कई बैंक भ्रष्ट लोगों को बिना उनकी पहचान खोले, उनकी हराम की काली कमाई सफ़ेद करने की सहूलियत मुहैय्या करते हैं. कमाल है कि बैंकर काला धन सफ़ेद बनाने में भ्रष्ट लोगों की इतनी आसानी से मदद करते है. अब कल्पना कीजिए कि भारत के भ्रष्ट लोग आधार को अनिवार्य बनाये जाने पर क्या प्रतिक्रिया देंगे. कानून का पालन करवाने वाली संस्थाएं छुपाये गये धन को बेनकाब करने में आधार संख्या और उससे सम्बंधित जैविक माप का इस्तेमाल करेंगी और वह भी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि स्विस बैंकों और सिंगापुर के बैंकों में भी, क्योंकि आजकल सिंगापुर गैरकानूनी धन छुपाने वालों का नया स्वर्ग बन गया है.

अगर समय के साथ आधार को बाध्यकारी बना दिया गया, तो इससे सम्बंधित जैविक माप का इस्तेमाल सारे भ्रष्ट नौकरशाहों, राजनेताओं और पूँजीपतियों का भंडाफोड करने में हो सकता है. तब उनकी हालत खस्ता हो जायेगी. तय है की सरकार ऐसे दानव को सुलभ बनाना नहीं चाहती. इसीलिए आधार बाध्यकारी नहीं है. इसलिए कार्यकर्ताओं को  विशिष्ट पहचान संख्या प्राधिकरण के अध्यक्ष और संप्रग सरकार को खुली चुनौती देनी चाहिए कि अगर हिम्मत है तो वे आधार को सबके लिए बाध्यकारी बनाएँ और देश को भीतर से खोंखला कर रहे इन कीड़ों को नेस्तनाबूद करने में मदद करें.

नीलकानी महोदय, एक बार आपने पूछा था कि “मैं क्या हूँ? कोई विषाणु?”

आधार को सभी भारतीयों के लिए बाध्यकारी बना कर, चाहे अमीर हो या गरीब, आप साबित करो कि विषाणु नहीं हो, और दिखाओ कि तुम्हारे “कल्पना का भारत” राष्ट्र की सच्ची सेवा का प्रयास है.

जाहिर है कि आप एक ऐसी व्यवस्था मुहय्या नहीं करना चाहते जहाँ सभी लोग बराबर हों, बल्कि कुछ लोगों को  ज्यादा बराबर बनाना चाहते हैं, जिन्हें आधार को नकारने का अधिकार हो. लेकिन पक्के तौर पर जान लीजिए कि जिस दिन आप का प्राधिकरण और भारत सरकार आधार को बाध्यकारी बनती है, उसी दिन यह राष्ट्र, यानी धनाढ्य और शक्तिशाली वर्ग आप लोगों को विशिष्ट पहचान संख्या का असली रंग दिखा देगा.

एक राष्ट्र के रूप में हम सब एकजुट हो कर इस सरकार से सवाल कर सकते हैं—

“आधार बाध्यकारी क्यों नहीं है?”

धनवानों और वंचितों में भेदभाव करके आधार एक नयी तरह की जाति व्यवस्था क्यों बना रही है, जो पहले से ही खंडित देश को और अधिक तोड़ने का काम करेगी?

आधार इसलिए बाध्यकारी नहीं है, ताकि इसका फायदा उठाते हुए नीच कोटि के अपराधी, जैसे हत्यारे, बलात्कारी, गबन करने वाले, टैक्स चोर, आयकर जालसाज़, भ्रष्ट अफसर और नेता, और यहाँ तक कि कोई आतंकवादी भी बेधड़क कानून को ठेंगा दिखाते रहें.
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आधार का विरोध करने वाले लोगो के कुछ मशहूर कथन—

“विशिष्ट पहचान योजना भारतीय नागरिकों की निजता छीन लेगी” – मैथ्यू थॉमस

“निजता ऐसी चीज नहीं जिसे लोग बिना इससे वंचित हुए महसूस कर सकें. इसे खत्म कर दो और आप मनुष्य होने के लिए सबसे जरूरी चीज को नष्ट कर देंगे.” – फिल बूथ, नो टू आई डी

“आधार परियोजना भारतीय संविधान को मुर्दा दस्तावेज में तब्दील कर देगी” – एस जी वोम्बातकेरे
“यूआईडी सांप्रदायिक हमले में सहायक होगा.” – अरुणा राय और निखिल डे, राष्ट्रिय सलाहकार समिति के सदस्य

“आधार बाध्यकारी नहीं है – यह तो बस स्वैच्छिक “सहूलियत” है. इसके प्राधिकरण की टिप्पणी में यह जोर देकर कहा गया है कि “पंजीयन करवाना बाध्यकारी नहीं होगा.” लेकिन एक चाल चली गयी है- “...जिन सहूलियतों और सेवाओं को यूआईडी से जोड़ा जाएगा वे इस संख्या की माँग को सुनिश्चित कर सकते हैं.” यह किसी गाँव के कुँए में जहर घोल कर उस गाँव वालों पानी की बोतल बेचने और यह दावा करने के सामान है कि लोग स्वेच्छा से पानी खरीद रहे हैं. अगला वाक्य भी अमंगलकारी है – “हालाँकि यह सरकार और रजिस्ट्रार को इस बात से रोकेगा नहीं कि वे पंजीयन को अनिवार्य बनायें.” – जिन द्रेज, अर्थशास्त्र के मानद प्रोफ़ेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, राष्ट्रिय सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य.

“नीलकानी का रिपोर्ट करने का तौर-तरीका इतिहास में अभूतपूर्व है, वे सीधे प्रधान मंत्री को रिपोर्ट करते हैं, और इस तरह सरकार के भीतर के सभी नियंत्रणों और संतुलनों को दरकिनार करते हैं.” – गृह मंत्री चिदंबरम

“यूआईडी एक कारपोरेट घोटाला है, जो सुचना प्रद्योगिकी क्षेत्र में अरबों डॉलर झोंक रहा है.” – अरुंधती राय

“अगर सरकार इस देश को बेच रही है तो हम सबको कम से कम यह जानना चाहिए कि वह किसको बेच रही है.” – वीरेश मलिक 
    
उँगलियों की छाप का सबसे प्रबल विरोध करने वाला कोई और नहीं, बल्कि खुद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे, जिन्होंने कहा था कि “जेनेरल स्मट के नए क़ानून के बारे में ...हम पहले ही साफ़ हो लें. अब सभी भारतीयों की उँगलियों के छाप लिए जायेंगे...अपराधियों की तरह. चाहे मर्द हों या औरतें. ईसाई विधि से की गयी शादी के अलावा कोई भी शादी वैध नहीं होगी. इस क़ानून के तहत हमारी पत्नियाँ और माताएँ वेश्या हैं. और यहाँ हर मर्द हरामी है.” 

लेकिन आज के शासकों में से आज कौन है जो महात्मा गांधी को याद करता है, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने क्या कह था, यह तो बहुत दूर की बात है.  

(काफिला डॉट ऑर्ग से आभार सहित. अनुवाद - दिगम्बर) 

  

Saturday, April 6, 2013

उत्तरी कोरिया में युद्ध टालने का कर्तव्य

फिदेल कास्त्रो - फोटो राइटर से साभार


-फिदेल कास्त्रो

आज के दौर में मानवता जिन बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही है, मैंने उनकी चर्चा कुछ दिन पहले ही की थी. हमारी धरती पर बौद्धिक जीवन लगभग 2,00,000 वर्ष पहले उत्पन्न हुआ था, हालाँकि नयी खोजों से कुछ और ही बात का पता चला है.

हमें बौद्धिक जीवन और उस सामान्य जीवन के अस्तित्व के बीच भ्रमित नहीं होना चाहिए, जो अपने शुरुआती रूप में हमारे सौर मंडल के अंदर करोड़ों साल पहले से मौजूद था.

दरअसल पृथ्वी पर जीवन के अनगिनत रूप मौजूद हैं. दुनिया के अत्यंत जानेमाने वैज्ञानिकों ने बहुत पहले ही अपनी श्रेष्ठ रचनाओं में इस विचार की कल्पना की थी कि 13.7 अरब वर्ष पहले ब्रह्माण्ड की सृष्टि के समय जो महा विस्फोट हुआ था, उस समय उत्पन्न हुई ध्वनि को पुनरुत्पादित किया जा सकता है.

यह भूमिका काफी विस्तृत होती, लिकिन यहाँ हमारा मकसद कोरयाई प्रायदीप में जिस तरह की परिस्थिति निर्मित हुई है, उसमें एक अविश्वसनीय और असंगत घटना की गंभीरता को व्याख्यायित  करना है, जिस भौगोलिक क्षेत्र में दुनिया की लगभग सात अरब आबादी में से पाँच अरब आबादी रहती है.

यह घटना अब से 50 वर्ष पहले, 1962 में क्यूबा के इर्द-गिर्द उत्पन्न अक्टूबर संकट के बाद नाभिकीय युद्ध की गंभीर चुनौती से मिलती-जुलती है.

1950 में वहाँ (कोरियाई प्रायदीप में) एक युद्ध छेड़ा गया था जिसकी कीमत लाखों लोगों ने अपनी जान देकर चुकायी थी. अमरीका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी शहरों के निहत्थे लोगों पर दो नाभिकीय बम गिराए जाने के कुछ ही सेकण्ड के अंदर लाखों लोगों की या तो मौत हुई थी या वे विकिरण के शिकार हुए थे जबकि इस घटना के महज पाँच साल बाद ही कोरिया में युद्ध थोपा गया था.

उस युद्ध के दौरान जेनरल डगलस मैकार्थर ने कोरिया जनवादी जन गणराज्य पर भी नाभिकीय हथियारों का इस्तेमाल करना चाहा था. लेकिन हैरी ट्रूमैन ने इसकी इजाजत नहीं दी थी.
इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि चीन ने अपने देश की सरहद से लगे एक देश में अपने दुश्मन की सेना को पैर ज़माने से रोकने के प्रयास में अपने दस लाख बहादुर सैनिकों को गवाँ दिया था. सोवियत सेना ने भी अपनी ओर से हथियार, वायु सैनिक सहयोग, तकनीक और आर्थिक मदद दी थी.

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐतिहासिक व्यक्ति, अत्यंत साहसी और क्रन्तिकारी नेता किम इल सुंग से मिला था. अगर वहाँ युद्ध छिड़ गया तो उस महाद्वीप के दोनों ओर की जनता को भीषण बलिदान देना पड़ेगा, जबकि उनमें से किसी को भी इससे कोई लाभ नहीं होगा. कोरिया जनवादी जन गणराज्य हमेशा से क्यूबा का मित्र रहा है तथा क्यूबा भी हमेशा उसके साथ रहा है और आगे भी रहेगा.

अब जबकि उस देश ने वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियाँ हासिल कर ली है, तब हम उसे उन तमाम देशों के प्रति उसके कर्तव्यों की याद दिलाना चाहेंगे, जो उसके महान दोस्त रहे हैं और उसका यह भूलना अनुचित होगा कि इस तरह का युद्ध खास तौर पर इस ग्रह की सत्तर फीसदी आबादी को प्रभावित करेगा.

अगर वहाँ इस पैमाने की लड़ाई फूट पड़ती है, तो दूसरी बार चुनी गयी बराक ओबामा की सरकार ऐसी छबियों के सैलाब में डूब जायेगी जो उनको अमरीका के इतिहास के सबसे मनहूस चरित्र के रूप में प्रस्तुत करेंगे. युद्ध को टालना उनका और अमरीकी जनता का भी कर्तव्य बनता है.

फिदेल कास्त्रो रुज
4 अप्रैल, 2013 

(मूल अंग्रेजी लेख dianuke.org से आभार सहित. अनुवाद- दिगम्बर)