Monday, November 10, 2008

हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

रामधारी सिंह 'दिनकर' की शतवार्षिकी पर उनकी यह कविता
हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ, ओ मखमल-भोगियो।
श्रवण खोलो,
रुक सुनो, विकल यह नाद
कहाँ से आता है।
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गाँवों में चिल्लाता है?

जनता की छाती भिंदे
और तुम नींद करो,
अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।
तुम बुरा कहो या भला,
मुझे परवाह नहीं,
पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।।

हो कहाँ अग्निधर्मा
नवीन ऋषियों? जागो,
कुछ नई आग,
नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।
शीतल प्रमाद से ऊँघ रहे हैं जो, उनकी
मखमली सेज पर
चिनगारी की वृष्टि करो।

गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूँ साथी,
झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।
है जहाँ-जहाँ तमतोम
सिमट कर छिपा हुआ,
चुनचुन कर उन कुंजों में
आग लगाता हूँ।
समर शेष है
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।

वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,

कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।

समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।

तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

Saturday, October 18, 2008

देश-विदेश के नए अंक -८ में छपी बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता आज के दौर में काफी प्रासंगिक है -
जब किताबों की होली जली
जब सरकार ने आदेश दिया
कि हानिकारक ज्ञान वाली किताबें
जलाई जाएँगी सार्वजानिक रूप से
और हर तरफ़ हाँका गया बैलों को
खींच लाने को किताबों से लदी गाड़ियाँ
अग्नि कुंड तक,
एक निर्वासित लेखक
सर्वोतम लेखकों में से एक,
जांचते हुए जली हुई किताबों कि फेहरिस्त
भौंचक्का रह गया यह जान कर कि
उसमें शामिल नहीं थीं उसकी किताबें
वह दौड़ा अपनी मेज की ओर
आग बबूला क्रोध से,
और लिखा एक पत्र सत्ताधारिओं के नाम
जला दो मुझे !
क्या मेरी किताबों ने
हमेशा सच्चाई का इजहार नहीं किया?
और तुम मेरे साथ व्यवहार करते हो
किसी झूठे कि तरह!
मैं तुम्हे आदेश देता हूँ -
जला दो मुझे!
_बर्तोल्त ब्रेख्त

Tuesday, April 1, 2008

फरमाने-खुदा

उठ्ठो, मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो !
कारब-ए-उमरा (अमीरों के महल) के दरों-दिवार हिला दो !
-----इक़बाल

Saturday, March 29, 2008

इंकलाब चाहिए

नफ़स-नफ़स कदम-कदम बस एक फिक्र दम ब दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब दर सवाल है के इंकलाब चाहिए
इंकलाब जिन्दाबाद, जिन्दाबाद इंकलाब -२

जहाँ आवाम के खिलाफ साजिशें हो शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहाँ पे लब्जे अमन एक खौफनाक राज़ हो
जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज़ हो
वहाँ न चुप रहेंगे हम कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक हमारा हक हमें जनाब चाहिए
जवाब दर सवाल है के इंकलाब चाहिए
इंकलाब जिन्दाबाद, इंकलाब इंकलाब -२

यकीन आँख मूँद कर किया था जिनको जानकर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर
उन्ही की सरहदों में कैद हैं हमारी बोलियाँ
वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ
जो इनका भेद खोल दे हर एक बात बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली किताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब दर सवाल है के इंकलाब चाहिए
इंकलाब जिन्दाबाद, जिन्दाबाद इंकलाब

वतन के नाम पर खुशी से जो हुए हैं बेवतन
उन्ही की आह बेअसर उन्ही की लाश बेकफान
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करे तो क्या करें भला जो जी सके न मर सके
स्याह ज़िंदगी के नाम जिनकी हर सुबह और शाम
उनके आसमान को सुर्ख आफ़ताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब दर सवाल है के इंकलाब चाहिए
इंकलाब जिन्दाबाद, जिन्दाबाद इंकलाब -2

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल सोच और सोचकर सवाल कर
किधर गए वो वायदे सुखों के ख्वाब क्या हुए
तुझे था जिनका इंतज़ार वो जवाब क्या हुए
तू इनकी झूठी बात पर ना और ऐतबार कर
की तुझको साँस साँस का सही हिसाब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
नफ़स-नफ़स कदम-कदम बस एक फिक्र दम ब दम
जवाब दर सवाल है के इंकलाब चाहिए
इंकलाब जिन्दाबाद, जिन्दाबाद इंकलाब -२

--शलभ श्रीराम सिंह

Monday, March 10, 2008

भेडिया-2

भेडिया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ ।
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फर्क है
भेडिया मशाल नहीं जला सकता ।

अब तुम मशाल उठा
भेडिये के करीब जाओ
भेडिया भागेगा ।

करोड़ों हाथों में मशाल लेकर
एक-एक झाडी की ओर बढो
सब भेडिये भागेंगे ।

फ़िर उन्हें जंगल के बाहर निकल
बर्फ में छोड़ दो
भूखे भेडिये आपस में गुर्रायेंगे
एक-दूसरे को चीथ खायेंगे ।

भेडिये मर चुके होंगे
और तुम ?
_सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Tuesday, March 4, 2008

सबसे खतरनाक

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
-पाश

सपने

सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग को सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली के पसीने को सपने नहीं आते
शेल्फों में पड़े
इतिहास ग्रंथों को सपने नहीं आते

सपनों के लिए लाजिमी है
झेलनेवाले दिलों का होना
सपनों के लिए
नींद की नजर होनी लाजिमी है

सपने इसलिए
हर किसी को नहीं आते

- पाश

Sunday, March 2, 2008

भेडिये-1

भेडिये की आँखें सुर्ख हैं ।

उसे तब तक घूरो
जब तक तुम्हारी आँखें
सुर्ख न हो जाएं ।

और तुम कर ही क्या सकते हो
जब वह तुम्हारे सामने हों ?

यदि तुम मुहँ छुपा भागोगे
तो तुम उसे
अपने भीतर इसी तरह खडा पाओगे
यदि बच रहे ।

भेडिये की आँखें सुर्ख हैं ।
और तुम्हारी आँखें ?
_सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Friday, February 29, 2008

वतन का गीत

हमारे वतन की नई जिन्दगी हो
नई जिन्दगी एक मुकम्मल खुशी हो,
नया हो गुलिस्तां नई बुलबुलें हों
मुहब्बत की कोई नयी रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
न ही हथकड़ी कोई फसलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
ज़ुबानों में पाबंदियाँ हों न कोई
निगाहों में अपनी नयी रोशनी हो
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
न ही कोई भी कायदा हिटलरी हो
सभी होंठ आजाद हों मयकदे में
कि गंगो-जमन जैसी दरयादिली हो
नए फैसले हों नई कोशिशें हों
नई मंजिलों की कशिश भी नयी हो।
-गोरख पाण्डे

अकाल और उसके बाद


कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त



दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की ऑंखें कई दिनों के बाद
कौवे ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
-नागार्जुन

त्रिलोचन की याद में

हमारी भाषा के जनपक्षधर कवि त्रिलोचन का देहांत हो गया। नब्बे से ऊपर का यह काल यात्री आधी सदी से भी अधिक समय तक हिन्दी कविता की कठिन राह को अनवरत हमवार करता रहा। नए-नए जतन से हमारी बात कहने वाला यह काव्य-पुरूष अब हमारे बीच नहीं रहा लेकिन उसकी कवितायें हमारे साथ हैं और हमेशा रहेंगी। हमारे जन और जनपद के इस सच्चे कवि की याद में प्रस्तुत है एक कविता :
पथ पर
चलते रहो निरंतर.
सूनापन हो
या निर्जन हो
पथ पुकारता है गत-स्वन हो
पथिक,
चरण ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरंतर ....!
-त्रिलोचन