Tuesday, November 27, 2012

दुनिया का ‘सबसे गरीब’ राष्ट्रपति : जोसे मुजिका



जोसे मुजिका का खेत में बना मकान, उनकी पत्नी और कुत्ता (फोटो- बीबीसी)
-व्लादिमीर हर्नान्डेज



यह एक आम शिकायत है कि राजनीतिज्ञों की जीवनशैली उन लोगों से बिलकुल अलहदा होती है जो उन्हें चुनते हैं. लेकिन उरूग्वे में ऐसा नहीं है. यहाँ के राष्ट्रपति से मिलें– जो खेत में बने एक जर्जर मकान में रहते हैं और अपनी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा दान कर देते हैं.

अपने कपड़े वे खुद ही धोकर घर के बाहर सूखाते हैं. पानी उनके अहाते में बने कुएँ से आता है, जहाँ घास-फूस फैली रहती है. सिर्फ दो पुलिस अधिकारी और एक तीन टांग वाला कुत्ता, मनुएला बाहर रखवाली करते हैं.

यह उरूग्वे के राष्ट्रपति, जोसे मुजिका का घर है जिनकी जीवनशैली दुनिया के दूसरे नेताओं से साफ तौर पर बिलकुल अलग है.

राष्ट्रपति मुजिका ने उस आरामदेह निवास को त्याग दिया जो उरूग्वे की सरकार अपने नेताओं को उपलब्ध कराती है और उन्होंने राजधानी के बाहर मोंटेवीडियो में, धूलभरी सड़क पर स्थित, अपनी पत्नी के खेत में बने घर में रहने का विकल्प चुना.

राष्ट्रपति और उनकी पत्नी जमीन पर खुद खेती करते हुए, फूल उगाते हैं.

इस सीधी-सरल जीवनशैली और इस तथ्य ने कि मुजिका अपनी मासिक तनख्वाह का 90 फीसदी, यानी लगभग 12,000 डॉलर, परोपकार के लिये दान कर देते हैं – मुजिका पर दुनिया के सबसे गरीब राष्ट्रपति होने का तमगा लगा दिया है.

बगीचे में एक पुरानी कुर्सी पर अपने प्यारे कुत्ते मनुएला को तकिये की तरह बगल में लिटाकर बैठे, वे कहते हैं, “मैंने अपना ज्यादातर जीवन इसी तरह जिया है.”

“मेरे पास जो कुछ है, उससे मैं अच्छी तरह जी सकता हूँ.”

उनकी तनख्वाह एक औसत उरूग्वेवासी की मासिक आय लगभग 775 डॉलर के बराबर है. 2010 में, उनकी घोषित वार्षिक आय– उरुग्वे में अधिकारियों के लिये इसकी घोषणा करना अनिवार्य है– 1800 डॉलर थी, जो उनकी 1887 मॉडल फ़ोल्क्सवेगन बीटल मोटर गाड़ी की कीमत है.

इस साल उन्होंने इस सम्पत्ति में अपनी पत्नी की आधी सम्पत्ति को भी शामिल कर लिया है, जिसमें जमीन, ट्रेक्टर्स और एक घर शामिल है. इसके कारण उनकी कुल सम्पत्ति बढ़कर 2,15,000 डॉलर हो गयी, जो अभी भी उप-राष्ट्रपति डनिलो एस्टोरी की घोषित सम्पति का सिर्फ दो-तिहाई, और मुजिका के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति, तबारे वास्कुएज़ की सम्पत्ति से एक-तिहाई कम है.

2009 में निर्वाचित, मुजिका ने 1960 और 1970 के दशक उरूग्वे के टुपामारोस गुरिल्ला के सदस्य के रूप में बिताये. यह क्यूबा की क्रांति से प्रेरित एक वामपंथी सशस्त्र संगठन था. उन्हें छह बार गोली लगी और उन्होंने १४ साल जेल में बिताये. उनके कारावास का ज्यादातर समय कठोर परिस्थितियों और एकांतवास में गुजरा, जब १९८५ में उरूग्वे में जनतंत्र की बहाली हुयी और उन्हें आजाद कर दिया गया, तबतक.

मुजिका कहते है, जेल में बिताये गये उन वर्षों के दौरान ही उन्हें जीवन के प्रति अपना नजरिया गढ़ने में मदद मिली.

“मुझे ‘सबसे गरीब राष्ट्रपति’ कहा जाता है, परन्तु मैं गरीब महसूस नहीं करता. गरीब लोग वे हैं जो सिर्फ एक महंगी जीवनशैली को बनाये रखने के लिये काम करते हैं, और हमेशा पहले से ज्यादा हासिल करना चाहते हैं,” वह कहते हैं.

उनका मानना है कि “यह आज़ादी का मामला है. अगर आपके पास बहुत ज्यादा सम्पति नहीं है, तब आपको उसे बनाये रखने के लिये एक गुलाम की तरह सारी उम्र काम करने की जरुरत नहीं है और इस तरह आपके पास अपने लिये ज्यादा वक्त होता है.”

“मैं एक पागल और सनकी बूढ़ा आदमी लग सकता हूँ. लेकिन यह एक अपनी मर्जी से चुना गया विकल्प है.”

उरूग्वे के इस नेता ने इस साल जून में सम्पन्न, रियो+२० सम्मेलन में दिये गये अपने व्याख्यान में भी इसी तरह की बात रखी- “हम पूरी दोपहरी टिकाऊ विकास के बारे में बातें करते रहे. आम आदमी को गरीबी से उबारने के बारे में बातें करते रहे.

“लेकिन हम क्या सोच रहे हैं? क्या हम अमीर देशों के विकास और उपभोग के माडल को अपनाना चाहते हैं? अब मैं आपसे पूछता हूँ- इस ग्रह का क्या होगा अगर अमेरिकी महाद्वीप के हर मूलनिवासियों के घर में उसी अनुपात में कारें होंगी जितनी जर्मनी वालों के पास हैं? तब हमारे पास कितनी आक्सीजन शेष बचेगी?

“क्या इस ग्रह के पास इतने पर्याप्त संसाधन है कि सात या आठ अरब लोग उसी स्तर पर उपभोग और फिजूलखर्ची कर सकें, जैसा कि आज हम अमीर समाजों में देखते हैं? यह अत्याधिक-उपभोग का स्तर है जो हमारे ग्रह को हानि पहुँचा रहा है.”

मुजिका दुनिया के ज्यादातर नेताओं में “उपभोग के सहारे विकास हासिल करने के प्रति अंधा जूनून होने,” का इल्जाम लगाते हैं, “मानो इसका उल्टा हो, तो दुनिया का अन्त हो जायेगा.”

मुजिका अपने पूर्ववर्तियों की तरह एक विशाल आधिकारिक निवास में रह सकते थे. लेकिन शाकाहारी मुजिका और दूसरे नेताओं के बीच का अंतर भले ही कितना ज्यादा हो, वह अपने राजनैतिक जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव के मामले में उनसे ज्यादा सुरक्षित नहीं हैं.

इस संबंध में उरूग्वे के एक मतदान सर्वेक्षक इग्नासियो जुआस्नाबर कहते हैं- “क्योंकि जिस तरह वह रहते हैं उसकी वजह से बहुत से लोग राष्ट्रपति मुजिका से सहानुभूति रखते हैं. लेकिन इससे उनकी इस बात के लिए आलोचना रुक नहीं जाती कि उनकी सरकार कैसा काम कर रही है.” उरूग्वे के विपक्षी दल कहते हैं कि देश की हालिया आर्थिक सम्रद्धि के बावजूद स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक सेवाओं में बेहतर बदलाव नहीं आया है. शायद यही कारण है कि 2009 में चुनाव के बाद से पहली बार मुजिका की लोकप्रियता 50 फीसदी से भी नीचे गिर गयी है.

इस साल दो विवादित कार्यवाहियों के चलते उन्हें काफी आलोचना का सामना करना पड़ा. उरूग्वे की कांग्रेस ने हाल ही में एक बिल पास किया, जिसमे १२ हफ़्तों तक के भ्रूण का गर्भपात कराना क़ानूनी रूप से वैध बना दिया गया है. अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत, मुजिको ने इसे वीटो नहीं किया.

ऐसा करने बजाय, उन्होंने अपनी पत्नी के मकान पर ही रुके रहने का विकल्प चुना.

वह भांग के उपभोग को क़ानूनी वैधता दिलाने की बहस का भी समर्थन कर रहे हैं, एक ऐसा बिल जो राष्ट्र को इसके व्यापार पर एकाधिकार भी दिला देगा.

“भांग का उपभोग सबसे ज्यादा चिंता की बात नहीं है, नशीली दवाओं का व्यापार वास्तविक समस्या है,” वह कहते हैं.

फिर भी, उन्हें अपनी लोकप्रियता की रेटिंग को लेकर ज्यादा चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है – उरूग्वे के कानून के मुताबिक वह 2014 में फिर से चुनाव नहीं लड़ सकते. और चूँकि वे 77 साल के हैं, इसलिए शायद वे उससे पहले ही रिटायर हो जायेंगे.

जब वह रिटायर होंगे, तब वह राष्ट्र से मिलने वाली पेंशन के अधिकारी होंगे– और दूसरे पूर्व राष्ट्रपतियों के विपरीत, उन्हें आय में होने वाली कमी का अभ्यस्त होने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी.


टुपामारोस गुरिल्ला

· प्रारम्भ में गरीब गन्ना कामगारों और विद्यार्थियों को मिलाकर इस वामपंथी गुरिल्ला दल का गठन किया गया.

· इंका राजा टुपाक अमारू के नाम पर इसका नामकरण किया गया.

· राजनैति़क अपहरण इनकी मुख्य रणनीति थी– 1971 में ब्रिटेन के राजदूत जिओफ्री जैक्सन को आठ महीने तक कैद में रखा.

· 1973 में राष्ट्रपति जुआन मारिया बोरडाबेरी के तख्तापलट के बाद इसे कुचल दिया गया.

· मुजिका जेल जाने वाले कई विद्रोहियों में से एक थे, उन्होंने ने 14 साल सलाखों के पीछे बिताये – जब तक 1985 में संवैधानिक सरकार की वापसी हुयी.

· उन्होंने टुपामारोस को एक क़ानूनी राजनैतिक पार्टी में रूपांतरित करने में मुख्य भूमिका निभायी, जो फ्रंटे अम्प्लियो (व्यापक मोर्चे) गठबंधन में शामिल हो गया.


(बीबीसी न्यूज से साभार. अनुवाद- दिनेश पोसवाल)

नायपॉल को क्यों सम्मानित किया जा रहा है?


(लैंडमार्क लिटरेचर लाइव के मुम्बई साहित्य उत्सव में गिरीश कर्नाड को नाटककार के रूप में अपने जीवन की उपलब्धियों पर विचार रखने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन उन्होंने वहाँ नायपॉल के व्यक्तित्व और कृतित्व का खुलासा करना जरूरी समझा, जिन्हें लाइफटाइम अचिवमेन्ट अवार्ड दिये जाने के अवसर पर वह कार्यक्रम आयोजित था. आयोजकों को भले ही यह नागवार गुजरा हो, लेकिन उनके इस भाषण ने नायपॉल के विचारों और उनको पुरस्कृत-प्रतिष्ठित किये जाने की पूरी परिघटना को समझने का एक सही परिप्रेक्ष दिया है. प्रस्तुत है उस भाषण का सम्पादित अंश.)

लैंडमार्क लिटरेचर लाइव ने मुम्बई साहित्य उत्सव में सर बिदिया नायपॉल को इस वर्ष का लाइफटाइम अचिवमेन्ट अवार्ड प्रदान किया. नेशनल सेन्टर फॉर परफोर्मिंग आर्ट्स में 31 अक्टूबर को आयोजित पुरष्कार समारोह में किसी ने शर्म के मारे इस बात की चर्चा नहीं की कि नायपॉल न तो भारतीय हैं और न ही उन्होंने कभी ऐसा दावा ही किया है. किसी ने इस पर कोई सवाल नहीं उठाया और उपन्यास लेखिका शशि देशपाण्डे ने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा आयोजित नीमराना उत्सव के बारे में जो कुछ कह था, वाह इस आयोजन पर भी सटीक बैठता है- “यह एक नोबेल पुरष्कार विजेता का जश्न था, जिसे भारत बड़ी उम्मीद और चापलूसी भरे अंदाज में भारतीय मानता है.”

उनके दो उपन्यासों में भारत से सम्बंधित घटनाएँ हैं और उनमें काफी गहराई है. इसके अलावा नायपॉल ने भारत के बारे में तीन किताबें लिखीं हैं, जो शानदार तरीके से लिखी गयी हैं- निश्चय ही वे हमारी पीढ़ी के महान अंग्रेजी लेखकों में से एक हैं. आधुनिकता की और भारत की यात्रा की निरन्तर खोज के रूप में इन कृतियों का स्वागत हुआ है, लेकिन उनकी पहली ही किताब द उंडेड सिविलाइजेशन से ही जो चीज किसी को भी खटकती है, वह है भारतीय मुसलमानों के प्रति उनका उन्मादपूर्ण विद्वेष. शीर्षक में जिस “जख्म” का उल्लेख है, वह बाबर के हमले द्वारा भारत को दिया गया जख्म है. तभी से, नायपॉल ने यह बताने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया कि उन्होंने भारत को पाँच सौ सालों तक क्षत-विक्षत किया, दूसरी तमाम बुराइयों के अलावा उन्होंने यहाँ गरीबी पैदा की और यहाँ की गौरवशाली संस्कृति को नष्ट किया.   
     
इन किताबों के बारे में एक बात जो एकदम खटकती है वह यह कि भारतीय संगीत के बारे में इन में से किसी भी किताब में एक भी शब्द नहीं है. और मेरा मानना है कि अगर संगीत पर ध्यान नहीं देते तो आप भारत को समझ ही नहीं सकते. संगीत भारतीय अस्मिता को परिभाषित करने वाला कला रूप है. आधुनिक भारतीय संस्कृति की समग्र खोज करते हुए इस विषय पर नायपॉल की चुप्पी मेरे लिए इस बात का सबूत है कि वे सुर बधिर हैं- जिसकी बजह से वे हिंदू-मुस्लिम सृजनशीलताओं के उस जटिल अन्तरगुम्फन के प्रति असंवेदनशील हो गये हैं जो भक्ति और सूफी आन्दोलनों का प्रतिफल है, जिसने हमें असाधारण विरासत सौंपी है जो हर भारतीय परिवार के दिल में जिन्दा है.

हालाँकि इस कमी के बावजूद, नायपॉल ने विलियम जोन्स जैसे 18वीं और 19वीं सदी के ब्रिटिश संगीतशास्त्रियों से भारी मात्रा में भारतीय संस्कृति के सिद्धांत उधार लिए हैं. ये विद्वान कई दूसरी प्राचीन सभ्यताओं से भी परिचित थे, जैसे- मिस्र, यूनान और रोम. लेकिन वे इस बात से चकित थे कि इन सभ्यताओं के साथ ही इनकी संगीत परंपरा पूरी तरह विलुप्त हो गयी, जबकि भारतीय संगीत परंपरा जीवित और फलती-फूलती रही. उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि एक समय का यह विशुद्ध और प्राचीन संगीत लंबे इतिहास के दौरान किसी खास मोड़ पर भ्रष्ट और विकृत कर दिया गया- और इस खलनायक को उन्होंने हमलावर मुसलमानों के रूप में ढूँढ निकाला. इस तरह उनकी राय में, किसी समय एक प्राचीन भारतीय संगीत की संस्कृति रही थी, जिसके साथ मुसलमानों ने छेड़खानी की.
   
भारतीय संस्कृति के अपने विश्लेषण में नायपॉल ने सीधे-सीधे इसी तर्क-रेखा को उधार लेकर उसे पुनर्बहाल किया है- अपनी मौलिक धरना के रूप में. और ऐसा उन्होंने कोई पहली बार नहीं किया है.

नायपॉल ने आर.के. नारायण पर आरोप लगाया कि वे विजयनगर के खण्डहरों से जिस तबाही और मौत का संकेत मिलता है, उसके प्रति उदासीन हैं, जो उनकी निगाह में हिंदू संस्कृति का एक गढ़ था और जिसे लूटेरे मुसलमानों ने तबाह कर दिया. लेकिन विजयनगर के इतिहास की यह व्याख्या, उन्हें सन 1900 में प्रकाशित रॉबर्ट सेवेल की किताब ऐ फॉरगोटन एम्पायर से पका-पकाया मिल गया. नायपॉल, हमेशा की तरह अपने औपनिवेशिक स्रोतों के प्रति नतमस्तक, किसी सिद्धांत को सीधे-सीधे उधार लेते हैं और उसे पूरी तरह अपना बताते हुए दुहराने लगते हैं. पिछली सदी से ही उस स्थल पर कार्यरत इतिहासकारों  और पुरातत्ववेत्ताओं ने यह साबित किया है कि परिस्थितियां कहीं ज्यादा जटिल थीं और दिखाया है कि इस टकराव में धर्म की नाममात्र की भी किसी भूमिका का उनके लिए कोई मायने नहीं.

ताज के बारे में, जो भारत में सबसे प्यारा स्मारक है, नायपॉल लिखते हैं- “ताज इतना फालतू, इतना पतनशील और अंततः इतना क्रूरतापूर्ण है कि वहाँ देर तक ठहरना पीड़ादायी है. यह एक फिजूलखर्ची है जो जनता के खून का बयान करता है.” इतिहासकार रोमिला थापर के इस तर्क को कि मुग़ल काल हिंदू और मुस्लिम शैली के मिश्रण की समृद्ध प्रफुल्लता को दर्शाता है, वे यह कहते हुए नकार देते हैं कि उनका यह निर्णय मार्क्सवादी पूर्वाग्रह की देन है और कहते हैं- “सही सच्चाई यह है कि हमलावर अपनी कार्रवाइयों को कैसे देखते थे. वे जीत रहे थे. वे गुलाम बना रहे थे.” नायपॉल के लिए भारतीय मुसलमान हमेशा हमलावर बने रहते हैं, हमेशा निंदनीय और निरादर के लायक हैं, क्योंकि उनमें से कुछ के पूर्वज हमलावर थे. यह एक ऐसी रीति है जिसे अमरीका पर आजमाया जय तो इसके कुछ विस्मयकारी नतीजे सामने आयेंगे. 
            
जहाँ तक नायपॉल के आधुनिक भारत की पत्रकारों जैसी खोज की बात है, यह मुख्यतः नाना प्रकार के भारतीय लोगों के साक्षात्कार की एक पूरी श्रृंखला की शैली में है. मानना पड़ेगा कि यह बहुत ही अच्छी तरह लिखी गयी है और वे जिन लोगों से मिलते हैं और जहाँ-जहाँ जाते हैं, उनका बहुत ही तीक्ष्ण और सटीक चित्र खींचते हैं. जो चीज कुछ ही देर बाद झुंझलाहट पैदा करती है, वह यह कि बिना किसी अपवाद के वे जिस भी व्यक्ति से बात करते हैं, वह ऐसा लगता है कि वे जो भी सवाल करते हैं, उसका वह उसी विवेकशीलता और रमणीयता से जवाब देता है, जो खुद उन्हीं की शैली है. यहाँ तक कि काम पढ़े-लिखे लोग भी उनके प्रश्नों का निस्संकोच उत्तर देने की व्याधि से ग्रस्त होते हैं.

वे जिन वार्तालापों को रिकार्ड करते हैं, वे कितने विश्वसनीय होते हैं? अपने एक मशहूर निबंध में नायपॉल ने नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ डिजाइन, अहमदाबाद की यात्रा का वर्णन किया है जहाँ वे उस संस्थान के निदेशक, अपने मित्र, अशोक चटर्जी के साथ ठहरे थे. हालही में एक इमेल में श्री चटर्जी ने कहा कि वह लेख “एक ऐसी कथानक है, जैसा हो सकता था, लेकिन वह नहीं है जो (नायपॉल ने) वहाँ वास्तव में देखा था. यथार्थ के टुकड़े, चुनिन्दा और विशुद्ध कल्पना के कोलाज में एक साथ सजाये गये.” चटर्जी की नायपॉल के साथ मित्रता का अचानक अंत हो गया, जब चटर्जी ने नायपॉल से कह कि उनकी किताब, ऐ उंडेड सिविलाइजेशन  को गल्प की श्रेणी में रखा जाना चाहिए.

एक ताजा किताब में नायपॉल ने जो 19वीं सदी के अंत में सूरीनाम जा कर बसनेवाले मुंसी रहमान खान की आत्मकथा का परीक्षण किया है और गांधी के साथ उनका विरोधाभास चिन्हित किया है. इतिहासकार संजय सुब्रमण्यम ने उस निबंध की समीक्षा की और उनको यह पता लगाने में ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ा कि नायपॉल ने महज उसके मूल पाठ का तीसरी भाषा में किया गया अनुवाद ही पढ़ पाये. “यह वैसे ही है, जैसे गोरखपुर का कोई पाठक नायपॉल को मैथिली भाषा में पढे और वह भी तब जबकि उसका अनुवाद जापानी भाषा से किया गया हो.” लेकिन यह चीज नायपॉल को रहमान खान की शैली और उनके भाषा सम्बंधी प्रयोग पर नरनायक टिप्पणी करने से नहीं रोकती.  
  
निश्चय ही यह सवाल है कि लाइफटाइम अचीवमेन्ट अवार्ड देकर पुरस्कार देनेवालों द्वारा क्या सन्देश दिया जा रहा है. एक पत्रकार के रूप में वे भारत के बारे में क्या लिखते हैं, यह उनका मामला है. कोई भी उनके लापरवाह होने और छलकपट करने के अधिकार पर सवाल नहीं उठा सकता.

लेकिन नोबेल पुरष्कार ने उन्हें एक अचानक प्राधिकार दे दिया है और उनके द्वारा इसके इस्तेमाल पर नजर रखना जरूरी है.

नोबेल पुरष्कार मिलने के बाद नायपॉल ने सबसे पहले जो काम किये, उनमें से एक यह था कि वे भाजपा के दिल्ली कार्यालय में गये. जिन्होंने पहले यह घोषित किया था कि वे राजनीतिक नहीं हैं, क्योंकि “राजनीतिक दृष्टिकोण रखना प्रोग्राम्ड होना है,” अब घोषित किया कि वे राजनीतिक रूप से “सही जगह आकर” खुश हैं. यह तभी की बात है जब उन्होंने अपनी बहुत ही प्रसिद्द टिप्पणी की थी- उन्होंने कहा था कि “अयोध्या एक तरह का जूनून है. कोई भी जूनून रचनात्मक होता है. भावोद्रेक रचनात्मकता की और ले जाता है.”
सलमान रुश्दी की प्रतिक्रिया थी कि नायपॉल का व्यवहार “फासीवाद के सहयात्री जैसा है और वे नोबेल पुरष्कार का अपमान कर रहे हैं.” 

एक विदेशी के लिए अयोध्या किसी अमूर्त सिद्धांत का मनोरंजक प्रमाण हो सकता है जिसे उसने खुद गढा हो (या उसे पका-पकाया मिल गया हो). लेकिन इसी अयोध्या के चलते अकेले मुम्बई की सडकों पर ही 1500 मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था. जिस समय दंगा भड़का, मैं दिल्ली के एक फिल्म फेस्टिवल में शामिल था और मुम्बाई से मेरे दोस्तों के आक्रोश भरे फोन आ रहे थे कि मुसलमानों को उनके घरों से खींचकर निकाल कर या सडकों पर रोक कर उनकी हत्या की जा रही है. मैंने अपने मुस्लिम संपादक को फोन करके बताया कि जब तक स्थिति सामान्य न हो जाय, वह अपने परिवार सहित हमारे फ़्लैट में जा सकता है, जो पारसी बहुल इलाके में है. महान मराठी अभिनेत्री फय्याज़, जिसके बारे में आख़िरकार एक हफ्ते बाद मुझे पता चला कि वह डर कर मुम्बई से पुणे भाग आयी थी. उसने बताया कि किस तरह शिव सैनिकों ने मुस्लिम झुग्गी-बस्तियों में बम फेंक कर आग लगाई और जब वहाँ के निवासी आतंकित हो कर घरों से बाहर निकले तो पुलिस ने उन्हें बलवाई कह कर गोली मार दी.


सात साल बाद नायपॉल इन घटनाओं का बड़े ही निर्मम ढंग से “जूनून” कह कर महिमामण्डित कर रहे थे, इसे “रचनात्मक कार्रवाई” बता रहे थे.

यह ध्यान देने योग्य है कि पुरष्कार के प्रसस्ति-पत्र में नायपॉल के समाजशास्त्रीकरण के इस पहलू का कोई उल्लेख नहीं किया गया है. फार्रुख ढोंडी ने भी अपने साक्षात्कार में इसका जिक्र नहीं किया, हालाँकि उन्होंने एमंग द विलिव्हर किताब  का नाम लिया और फिर तुरंत इस बात की लम्बी-चर्चा में मशगूल हो गये कि 13 साल पहले किस तरह उन्होंने विदिया को एक बिल्ली गोद लेने लेने में मदद की थी और कैसे एक दिन वह उनकी गोद में पड़ी-पड़ी सो रही थी- जिस बात ने नायपॉल एक और मौका दे दिया कि वे भावुकता में बह कर फूट-फूट कर रो पड़ें. शायद ढोंडी यह साबित करने की कोशिश कर रहे थे नायपॉल कितने “मानवीय” हैं.

लेकिन जिस लैंडमार्क लिटरेचर लाइव ने इस अवार्ड की घोषणा की है, उसकी यह जिम्मेदारी है कि वे हमलोगों को बताएं कि वे नायपॉल की टिप्पणियों से सहमत हैं या नहीं. क्या वे नायपॉल की इस समझ का भाव बढ़ाना चाहते हैं कि भारतीय मुसलमान आक्रांता और लूटेरे हैं? क्या वे उनके द्वारा लगातार दिये जानेवाले इस तर्क का समर्थन कर रहे हैं कि भारत की मुस्लिम इमारतें बलात्कार और लूट के स्मारक हैं? या वे अपनी चुप्पी के जरिये यह बता रहे हैं कि इन विचारों का कोई मायने ही नहीं है?

अगर यह अवार्ड देनेवाले लोग इस बाहरी व्यक्ति द्वारा भारतीय आबादी के एक समूचे तबके को बलात्कारी और हत्यारा बताते हुए उसे अपराधी करार देने की अपनी राय पर जानबूझ कर चुप हैं, तो हमें कहने दिया जाय कि यह चुप्पी लापरवाही से भी अधिक बुरी है. यह हतप्रभ कर देने वाला है.

जहाँ तक इस अवार्ड का सवाल है, इसे शर्मनाक ही कह जा सकता है.

(गिरीश कर्नाड के भाषण का सम्पादित अंश मिन्ट से साभार. अनुवाद- दिगम्बर)

Wednesday, November 21, 2012

कविता : आओ कसाब को फाँसी दें

-अंशु मालवीय


आओ कसाब को फाँसी दें !

उसे चौराहे पर 
फाँसी दें !

बल्कि उसे उस चौराहे पर 
फाँसी दें

जिस पर फ्लड लाईट लगाकर

विधर्मी औरतों से बलात्कार किया गया

गाजे-बाजे के साथ

कैमरे और करतबों के साथ

लोकतंत्र की जय बोलते हुए

उसे उस पेड़ की डाल पर 
फाँसी दें

जिस पर कुछ देर पहले खुदकुशी कर रहा था किसान

उसे पोखरन में 
फाँसी दें

और मरने से पहले उसके मुंह पर

एक मुट्ठी रेडियोएक्टिव धूल मल दें

उसे जादूगोड़ा में 
फाँसी दें

उसे अबूझमाड़ में 
फाँसी दें

उसे बाटला हाउस में 
फाँसी दें

उसे 
फाँसी दें.........कश्मीर में

गुमशुदा नौजवानों की कब्रों पर

उसे एफ.सी.आई. के गोदाम में 
फाँसी दें

उसे कोयले की खदान में 
फाँसी दें.

आओ कसाब को 
फाँसी दें !!

उसे खैरलांजी में 
फाँसी दें

उसे मानेसर में 
फाँसी दें

उसे बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर 
फाँसी दें

जिससे मजबूत हो हमारी धर्मनिरपेक्षता

कानून का राज कायम हो

उसे सरहद पर 
फाँसी दें

ताकि तर्पण मिल सके बंटवारे के भटकते प्रेत को

उसे खदेड़ते जाएँ माँ की कोख तक......और पूछें

जमीनों को चबाते, नस्लों को लीलते

अजीयत देने की कोठरी जैसे इन मुल्कों में

क्यों भटकता था बेटा तेरा

किस घाव का लहू चाटने ....

जाने किस ज़माने से बहतें हैं

बेकारी, बीमारी और बदनसीबी के घाव.....

सरहद की औलादों को ऐसे ही मरना होगा

चलो उसे रॉ और आई.एस.आई. के दफ्तरों पर 
फाँसी दें

आओ कसाब को 
फाँसी दें !!

यहाँ न्याय एक सामूहिक हिस्टीरिया है

आओ कसाब की 
फाँसी को राष्ट्रीय उत्सव बना दें

निकालें प्रभातफेरियां

शस्त्र-पूजा करें

युद्धोन्माद,

राष्ट्रोन्माद,

हर्षोन्माद

गर मिल जाए कोई पेप्सी-कोक जैसा प्रायोजक

तो राष्ट्रगान की प्रतियोगिताएं आयोजित करें

कंगलों को बाँटें भारतमाता की मूर्तियां

तैयारी करो कम्बख्तो ! 
फाँसी की तैयारी करो !

इस एक 
फाँसी से

कितने मसले होने हैं हल

निवेशकों में भरोसा जगना है

सेंसेक्स को उछलना है

ग्रोथ रेट को पहुँच जाना है दो अंको में

कितने काम बाकी हैं अभी

पंचवर्षीय योजना बनानी है

पढनी है विश्व बैंक की रपटें

करना है अमरीका के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास

हथियारों का बजट बढ़ाना है...

आओ कसाब को 
फाँसी दें !

उसे गांधी की समाधि पर 
फाँसी दें

इस एक काम से मिट जायेंगे हमारे कितने गुनाह

हे राम ! हे राम ! हे राम !

Saturday, November 10, 2012

पूँजीवाद और “मानव स्वभाव” : एक भंडाफोड

अमरीकी महाद्वीप के मूलनिवासियों का उपहार पर्व- पोटलैच

 -जय मूर 
द वेल्थ ऑफ नेशंस के सबसे मशहूर हिस्से में, जहाँ श्रम विभाजन के फायदों की चर्चा की गयी है, एडम स्मिथ इस सिद्धांत को आगे बढ़ाते हैं कि “यह चीज सभी मनुष्यों में समान है” कि उनमें “एक चीज के बदले दूसरी चीज की लेन-देन, अदला-बदली और विनिमय की स्वाभाविक प्रवृति” पायी जाती है. स्मिथ इस बात को खोल कर नहीं बताते कि क्या यह “प्रवृति” मूल मानवीय स्वभाव का मामला है या, प्रबोधनकालीन एडम स्मिथ के लिए ऐसा मानना सुविधाजनक है कि यह मनुष्य की वैसी ही अनोखी क्षमता है जिस तरह चेतना और बोलने की क्षमता. लेकिन इसी अप्रमाणित धारणा के ऊपर कि ऐसी किसी “प्रवृति” का अस्तित्व है, और इसी के साथ एक और ऐसी ही अप्रमाणित धारणा को मिला कर कि अभाव की परिस्थिति में बेपनाह जरूरतों की ख्वाहिश रखने वाला “स्वामित्वशाली व्यक्तिवाद” विश्वव्यापी जन्मजात मानवीय प्रवृति है, पूरा का पूरा आधुनिक नव-क्लासिकीय अर्थशास्त्र इसी पर टिका हुआ है. मुख्यधारा के अर्थशास्त्र की कोई भी किताब पलट के देखिये तो आपका सामना एडम स्मिथ के प्रसिद्द उद्धरण से होगा, जिसे पूँजीवाद और तथाकथित “मुक्त बाजार” की श्रेष्ठता के पक्ष में एक स्वयंसिद्ध प्रस्थान बिन्दु माना जाता है, क्योंकि उन फर्जी आर्थिक रूपों से इस फर्जी मानवीय प्रवृति का काफी मेल बैठता है.

जिस किसी को भी इतिहास और मानवशास्त्र के गहन अध्ययन का अवसर मिला हो, जैसा कि मुझे, जिसने स्थान और काल से परे मानव समाजों और संस्कृतियों की बड़े पैमाने पर परिवर्तनशीलता पर मुग्ध हुआ हो और कुछ बुनियादी समानताओं और विन्यासों पर विचार किया हो (जिनके अस्तित्व को ऐतिहासिक भौतिकवाद दर्शाता है) तो उसने उपरोक्त धारणा के इस चरम कुतर्क पर ध्यान दिया होगा कि आधुनिक बुर्जुआ का ठेठ चरित्र ही सर्वव्यापी मानव चरित्र है. इतिहास के पूरे दौर में अधिकांश मनुष्यों ने ऐसी “प्रवृति” को नहीं दर्शाया है.

कई समाजों में, और शायद सभी समाजों में व्यापारियों का अस्तित्व रहा है, लेकिन जिन लोगों ने भी खुद को धनी बनाने के उद्देश्य से पेशे के रूप में यह काम किया, उन्हें संदेह से देखा जाता रहा है. व्यापार मुख्यतः सामाजिक हासिये पर ही किया जाता था. और, जैसा कि डेविड ग्राएबर ने “कर्ज” के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में अपनी चिरस्मरणीय रचना में दर्शाया है, अब तक ज्ञात कोई भी समाज वस्तु विनिमय पर आधारित नहीं रहा है. आधुनिक युग के पहले तक उपहार की अर्थव्यवस्था सबसे अधिक प्रचलित थी, जिसमें समाज में चीजें एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक परिचालित होती थीं और कोई इस बात की गणना नहीं करता था कि उसने जो कुछ दिया उसके बदले उसी के बराबर या उससे बड़ी कोई चीज वापस मिले, यानी कोई भी व्यक्ति संभावित लाभ की उम्मीद नहीं करता था. “अग्रिम भुगतान” की अवधारणा इसी का आधुनिक प्रतिरूप है.

जब यूरोप के लोगों का पहले-पहल उत्तर-पश्चिमी तटवासी इन्डियन (अमरीका के मूलनिवासी) लोगों से सामना हुआ तो वे यह देख कर हैरान रह गये कि वहाँ के निवासियों में धन बटोरने की अंतहीन पूँजीवादी हवस नहीं थी, बल्कि समाजिक जरूरतें पूरी करने के उद्देश्य से संग्रह करने या उपहार देकर अपनी स्थिति सुधारने की प्रथा थी और उपहार पर्व मनाने और अपनी सम्पदा को बाँट कर खत्म करने का चलन था. इसीलिए उन्होंने वहाँ के लोगों का दमन किया तथा इंडियन लोगों के मन में कार्य नैतिकता, बचत और निवेश के बारे में बुर्जुआ विचारों को ठूँस-ठूँस कर भर दिया. कनाडा की सरकार ने 1884 में उपहार पर्व को गैरकानूनी घोषित कर दिया; फिर भी कुछ मूलनिवासी इंडियनों ने इस “असभ्य” प्रथा को जारी रखा तो उन्हें जेल में ठूँस दिया गया और उनके आनुष्ठानिक स्मरण-चिन्हों को उनसे छीन लिया गया. (उन स्मरण चिन्हों को अजायब घरों में रख दिया गया, जहाँ शीशे के खाने में पड़े-पड़े वे विस्मृति के गर्त में चले गये.) अफ्रीका में, सभी यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने एक ही तरह के निराशा का इजहार किया, जब बाजार के प्रलोभनों के जरिये वे वहाँ के मूलनिवासियों से अधिक उत्पादन के लिए कठिन श्रम नहीं करवा पाए. उल्टे हुआ यह कि अफ्रीकी ग्रामीण अगर कुछ अधिक अर्जित करने में समर्थ भी थे, जैसा कि आधुनिक युग से पहले की दुनिया के कई दूसरे हिस्से के किसान, तो वे अक्सर काम काम करना पसंद करते थे और छुट्टी का जम के मजा लेते थे. जब उन पर झोपड़ी टैक्स थोपा गया और हिंसा का तांडव किया गया, तब मजबूर होकर उन्होंने बाजार के लिए अधिक उत्पदान किया.
   
इसके अलावा, यह भी जरूरी नहीं कि बाज़ार में छोटे पैमाने की भागीदारी पक्के तौर पर पूँजीवादी मूल्यों को अपनाने का इजहार करती है, हालाँकि एक लंबे अरसे के दौरान विचारों और कार्रवाइयों पर इसका विनाशकारी प्रभाव जरुर हुआ होगा. लोगों ने “परंपरागत” सामाजिक उत्पादन के लिए “एक चीज के बदले दूसरी चीज की लेन-देन, अदला-बदली और विनिमय” करने का फैसला लिया होगा और जरूरी नहीं कि इसके पीछे मुनाफा कमाना ओर “तरक्की करना” उनका उद्देश्य रहा हो. उपहार की अर्थव्यवस्था भी उसी के साथ-साथ या बाजार आर्थव्यवस्था के साथ तालमेल करते हुए चलती रही होगी. उत्तरी-पश्चिमी तटवासी अमरीकी मूलनिवासी यूरोप के साथ ऊन और मछली का व्यापार करते थे, ताकि बदले में वे अपने उपहार पर्व (पोटलैच) के लिए अनोखी वस्तुएँ हासिल कर सकें.

हालही में मैंने एक दिलचस्प किताब पढ़ी- द डिस्कवरी ऑफ फ़्रांस: ऐ हिस्टोरिकल जोगरफी फ्रॉम द रेवोलूशन टू द फर्स्ट वर्ल्ड वार, जिसके लेखक ग्राहम रोब हैं. इसमें विस्तार से यह बताया गया है कि प्रांतीय फ़्रांस में रोजमर्रे का जनजीवन कैसा था और आधुनिकता के उभर के बाद उसमें किस तरह बदलाव आया. यह ठीक वही समय था जब व्यावहारिक रूप से अब तक अपनी कीमत पर पूरी जिन्दगी गुजारते आ रहे ग्रामीण लोग, अमूमन हैरत और नाउम्मीदी के साथ देख रहे थे कि अब वे “फ़्रांस” नामक एक कहीं बड़े सत्ता के अंग हैं. एक छोटी सी कहानी खास तौर पर मेरे दिमाग में बस गयी है- ऑरजेनिया इलाके में महिलाओं का एक समूह कपड़ों की सिलाई-बुने के लिए एकत्र होता था जहाँ दूसरों के लिए काम करने के बदले घुमंतू व्यापारी उनको बहुत ही थोड़े पैसे देते थे. लेकिन वहाँ मामला पैसा कमाने का था ही नहीं. असली बात शाम होने के बाद भी घर से बाहर निकलने और आपसी मेलजोल की थी. कपड़ों की सिलाई-कढाई से जितने पैसे मिलते थे वे तो चिराग जलाने के लिए तेल खरीदने में ही लग जाते थे. रोब कहते हैं कि इन महिलाओं जैसे लोगों के व्यवहार को प्रेरित करने वाला कारक किसी आर्थिक जरुरत से कहीं ज्यादा अपनी ऊब मिटाना होता था.

ऐसे ही कई और उदाहरण दिये जा सकते हैं जो दिखाते हैं कि एडम स्मिथ ने मानव जाति का जो काल्पनिक खाका बनाया है उसमें अधिकांश मनुष्य फिट नहीं बैठते, न तो स्वाभाविक रूप से और नही “तर्क” का अभ्यास करने से. जैसा कि कार्ल पोलान्यी ने द ग्रेट ट्रांसफोर्मेशन में दिखाया है, मानव समाज विभिन्न प्रकार की आर्थिक तार्किकताओं का वाहक रहा है; सब को उन्होंने इन समूहों में रखा है- परस्पर लेनदेन, पुनर्वितरण, परिवार के उपभोग के लिए उत्पादन और बाजार व्यवस्था. बाजार व्यावस्था की प्रधानता से पहले की अर्थव्यवस्थाएं अकेले व्यक्ति की सत्ता नहीं होती थीं. बावजूद इसके कि वहाँ विभिन्न सत्रों और अधिक समानता वाले समाजों में अंतर मौजूद था, सभी अर्थव्यवस्थाएँ सामाजिक संबंधों में “सन्निहित” या “अंतर्गुम्फित” थीं और सम्मान जैसी नीतियों पर आधारित थीं- सीधे निजी आर्थिक स्वार्थों से उनका कोई लेना-देना नहीं था. पोलान्यी दर्शाते हैं कि किस तरह “एक चीज के बदले दूसरी चीज की लेन-देन, अदला-बदली और विनिमय,” जो इस हद तक समाज की चारित्रिक विशेषता बन गये हैं, इंग्लैण्ड में, जो कि इनका मुख्य उद्भव स्थल है, स्वाभाविक रूप से नहीं आए थे. 18वीं सदी के उत्तरार्ध और 19वीं सदी की शुरुआत (जो इस किताब का शीर्षक है) में मुक्त व्यापार अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों की आड़ में कठोर कानूनों की एक पूरी श्रृंखला को जबरन लागू करके इसे संस्थाबद्ध किया गया था. पूँजीवादी सम्पत्ति संबंधों और पूँजीवादी मानदंडों को थोपने और बनाये रखने में राजसत्ता ने केन्द्रीय भूमिका निभाई थी और आज भी निभा रही है.

अच्छी हैसियत वाले पूँजीपतियों और मुख्यधारा के पूँजीवाद समर्थक अर्थशास्त्रियों की निगाह में निजी स्वार्थों को अधिकाधिक बढ़ाने वाले व्यवहारों के अलावा सभी तरह के आचरण “अतार्किक” होते हैं. स्कूलों में “व्यापार में कैसे सफल हों,” इस बारे में तो ढेर सारे पाठ्यक्रम होते हैं, लेकिन सहकारी समितियों का गठन और संचालन कैसे करें या शोषणकारी और अलगाव का शिकार बनाने वाली “मुक्त बाजार” प्रक्रिया के किसी दूसरे विकल्प के पाठ्यक्रम शायद ही होते हों.

आश्चर्य की बात नहीं कि इस माहौल में एक सामूहिक सुर उभरता है जो किसी भिन्न राय पर विचार करते हुए उसे विदेशी और ‘काल्पनिक” बताता है और कहता है कि इसे तो असफल होना ही है. लेकिन हम यह पूछ सकते हैं कि हमारा यह समाज कितना तार्किक है जहाँ धनी और गरीब के बीच, 1 % और 99 % के बीच विकराल और विस्मयकारी असमानता मौजूद है, जहाँ एक अरब लोग रोज भूखा सोते हैं, जबकि बेलगाम विकास और उसे टिकाये रखने के लिए बेशुमार उपभोग की आदत ने समूची पृथ्वी के पर्यावरण को तबाह कर दिया और इसके विनाश का खतरा पैदा कर दिया?

हालाँकि आधुनिक काल से पहले या उसके शुरूआती युग के लोगों का रोमानी चित्र खींचना उचित नहीं, फिर भी रोब कंगाली की गर्त में पड़े, अनिश्चितता में डूबे फ़्रांसिसी किसान का वर्णन करते हैं जो कुर्क अमीन या मूसलाधार बारिश का इंतजार करता थरथर काँपता रहता था. कितना अच्छा होता कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के चलते उत्पादन क्षमता में जो अद्भुत वृद्धि हुई है उसका संचालन एक समकालीन “सहकारी राष्ट्रमंडल” के जरिये होता, जो पूँजीवादी निजी मुनाफाखोरी से नहीं, बल्कि उपहार अर्थव्यवस्था और इतिहासकारों द्वारा वर्णित मानवीय किस्म की मूल्य-मान्यताओं से प्रेरित होता. 

(जय मूर एक रेडिकल इतिहासकार हैं. वेरमौंट के ग्रामीण इलाके में रहते हैं और जब कभी काम मिल जाता है तो पढाने का काम करते हैं. मंथली रिव्यू से आभार सहित. अनुवाद- दिगम्बर)         

Wednesday, November 7, 2012

वे कुछ भी नहीं देखते, कुछ भी याद नहीं करते

-मार्कंडेय काटजू


रौ में है रख्शे-ऐ-उम्र कहाँ देखिये थमे
नै हाथ बाग पर है, न पा है रकाब में
मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर सारतः आज के भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियों को प्रतिबिंबित करता है.
“रौ” का मतलब है रफ़्तार, “रख्श” का मतलब है घोड़ा (?), “उम्र” का मतलब है समय (इसका मतलब जिन्दगी भी है, लेकिन यहाँ इसका मतलब समय या युग है), “बाग” का मतलब घोड़े का “लगाम” और “रकाब” का मतलब पैर रखने का कुंडा.
इस तरह इस शेर का मतलब है- “समय का घोड़ा सरपट दौड़ रहा है, देखें यह कहाँ जा कर रुकता है/ घुड़सवार के हाथों में लगाम है, न उसके पैर ही कुंडे में हैं.”
ग़ालिब संभवतः 1857 के महान विप्लव के दौर में होने वाली घटनाओं के विषय में लिख रहे थे, जब घटनाएँ सरपट भाग रही थीं. लेकिन ग़ालिब की शायरी की खूबसूरती यही है (जो उर्दू की ज्यादातर शायरी में दिखती है) कि यह स्थान और काल के मामले में सर्वकालिक है.
आज के भारत में, इतिहास की रफ़्तार तेज हो गयी है. घटनाएँ पहले की तुलना में तेजी से घटित हो रही हैं और हर कोई अचम्भे में है कि आखिर इनका अंत कहाँ होगा.
मीडिया में एक के बाद एक घोटाले की रिपोर्ट आ रही है, जिनमें अमूमन उन राजनेताओं के लिप्त होने की बात होती है जो समाज के गरीब और वंचित तबकों के नाम पर कसमें खाते हैं.
टैलीरां (फ़्रांसिसी कूटनीतिग्य) ने बोर्बों वंश के राजाओं के बारे में कहा था कि उन्होंने- “कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी याद नहीं किया और कुछ भी नहीं भूला.” अधिकतर भारतीय राजनेता भी आज किसी बोर्बों की याद दिलाते हैं. वे अपने खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश को नहीं देख रहे हैं, जो सारी हदें पर करता जा रहा है. वे इस बात को याद नहीं करते कि बोर्बों शासकों, हैप्सबर्गों और रोमोनोवों का क्या हश्र हुआ (पता नहीं, उन्हें इनके बारे में कुछ मालूम भी है या नहीं). और वे अपनी सत्ता और धन-दौलत को नहीं भूलते, वे यही सोचते हैं कि यह सब हमेशा कायम रहेगा, जैसा कि दुर्भाग्य के शिकार उपरोक्त राजवंशों के लोग सोचा करते थे.
अर्थव्यवस्था निर्णायक कारक है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने हाल ही में कहा कि भारतीय सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर में गिरावट आते-आते अब वह 5.5 फीसदी पर ठहर गयी है. यह सुहावनी तस्वीर स्टैण्डर्ड एंड पुअर की इस चेतावनी के एकदम विपरीत है जिसमें कहा गया है कि 24 महीने में भारतीय अर्थव्यवस्था का संप्रभु कर्ज मूल्यांकन (क्रेडिट रेटिंग) घट कर “रद्दी हालत” में पहुँच जायेगा.
जिस चीज को डॉ. अहलुवालिया जैसे अर्थशास्त्री नहीं देखते, वह यह है कि भारत में समस्या  उत्पादन को कैसे बढ़ाया जाय, यह नहीं है (भारी संख्या में इन्जीनियरों और तकनीशियनों तथा विपुल प्राकृतिक संसाधनों को देखते हुए इसे बड़ी आसानी से बढ़ाया जा सकता है) बल्कि समस्या यह है कि भारतीय जनता की क्रय शक्ति कैसे बढ़ाई जाय. आख़िरकार, जो भी उत्पादन होता है, उसे बेचना भी तो होता है, लेकिन बिकेगा कैसे, जबकि हमारी 75-80 फीसदी जनता गरीब है, जो लगभग 25 रुपये रोज पर गुजार-बसर करती है?
यही नहीं, अगर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि केवल धनी लोगों को और अधिक धनी बनाने के काम आती हो, जबकि गरीब जनता महंगाई के चलते और भी कंगाल होती जा रही हो, तो जाहिर है कि तैयार होने वाला माल बिक ही नहीं सकता, क्योंकि लोगों में खरीदने की क्षमता नहीं है.
हाल के महीनों में, भारत के विनिर्माण क्षेत्र में गिरावट आयी है. निर्यातोन्मुख उद्योगों को खास तौर पर करारा झटका लगा है, क्योंकि पश्चिमी देशों में मंदी आई हुई है.
भारत की तुलनात्मक स्थिरता का आधार आबादी का महज 15-20 फीसदी मद्ध्यम वर्ग है, जिसकी कुल संख्या, 120 करोड़ की भारी आबादी में लगभग 20-25 करोड़ होगी. हमारे माल और सेवाओं को यही तबका बाजार माँग मुहय्या करता है. आसमान छूती महंगाई के चलते इस मद्ध्यम वर्ग की क्रय शक्ति में भी गिरावट आ रही है. इसी का नतीजा है कि भारतीय स्थिरता की जमीन तेजी से खिसक रही है, जिसे हालिया आन्दोलनों में देखा जा सकता है.
विकराल गरीबी, भारी पैमाने पर बेरोजगारी, आसमान छूती महंगाई, ग़रीबों के इलाज का आभाव, किसानों की आत्महत्याएँ, बाल कुपोषण, इत्यादि, इन सब से एक विस्फोटक मिश्रण तैयार हुआ है. अगर बोर्बों अब भी नहीं जागे (फ़िलहाल जिसकी कोई उम्मीद मुझे दिख नहीं रही है) तो आने वाले समय में, भारत एक लम्बे समय तक चलने वाले उथल-पुथल और अराजकता की गिरफ्त में होगा, और अब वह दिन बहुत दूर नहीं.
(मार्कंडेय काटजू सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउन्सिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष हैं. द हिंदू में प्रकाशित अंग्रेजी लेख की साभार प्रस्तुति. अनुवाद- दिगम्बर.)   

Tuesday, November 6, 2012

हिंदी के दुश्मन हिंदी अखबार



पारिजात


अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनकी माँ की भाषा से वंचित कर दे,” एक नारी ने दूसरी नारी को कोसा ।
अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जो उन्हें जबान सिखा सकता हो ।
नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी जबान सिखा सकते हों ।
तो ऐसे भयानक होते हैं शाप ।
रसूल हमजातोव, “मेरा दागिस्तानपुस्तक से ।
कल्पना करें कि अगर हम अचानक अपनी मातृभाषा भूल जायें तो क्या होगा ? हम पूरी दुनिया से और यहाँ तक कि खुद से भी अजनबी नहीं हो जायेंगे ?
पिछले बीस सालों से हिंदी के कई अखबार जनता के स्मृतिपटल से उसकी मातृभाषा पोंछ देने की कारगुजारियों में लिप्त हैं । किसी जमाने में इन्ही हिंदी अखबारों से जुड़े सम्पादकों और पत्रकारों ने हिंदी को समृद्ध किया था । आज उनके उत्तराधिकारी उनके कियेकराये पर पानी फेर रहे हैं । वे हिंदी की जगह अंग्रेजी को प्रतिष्ठित करने का अभियान छेड़े हुए हैं और हिंदी के दुश्मन की भूमिका निभा रहे हैं । वे बिलावजह अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में घुसाकर हिंदी को हिंगलिश बनाने में लिप्त रहे हैं ।
हिंदी के एक प्रतिष्ठित अखबार के एक कोने में ही ईवनिंग, शिफ्ट, केस, कांसटेबुल, कोर्ट, करप्सन, लाइट, इलैक्सन, लिस्ट, जैसे अनेकों शब्द देखने को मिले । इन शब्दों के लिये लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हिंदी के बहुप्रचलित शब्दों का अकाल नहीं है । इन अखबारों ने सचेत रूप से ऐसे सैकड़ों शब्दों को हमारी आम बोलचाल की भाषा में घुसा दिया है ।
अगर किसी शब्द के लिये हमारी भाषा में प्रचलित शब्द न हो तो कोशिश यही होनी चाहिये कि उसके लिये शब्द बनाकर उसे प्रचलित किया जाय, ताकि हमारे शब्द भंडार में इजाफा हो । अगर वैकल्पिक शब्द तलाशना सम्भव न हो तो मजबूरी में किसी दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं । लेकिन अपनी भाषा में प्रचलित समानार्थी शब्द होने पर भी दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग करना अपनी भाषा के प्रति घोर उपेक्षा है ।
भाषा के घालमेल का काम सबसे पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने शुरू किया था । इसने धीरेधीरे अंग्रेजी के शब्दों को हमारी बोलचाल की भाषा में घुसाया । यह एक हवाई हमले की तरह था । तब समाज में इसकी व्यापक पहुँच नहीं थी । लेकिन हिंदी को अंग्रेजी द्वारा प्रतिस्थापित करने की अखबारों की योजाना के लिये इसने आधार का काम किया । इसी जमीन पर खड़े होकर अखबार अंग्रेजी के शब्दों की संख्या बढ़ाते चले गये । शब्दों की तो बात ही छोड़िये, वे अंग्रेजी के वाक्यांशों को भी हमारी भाषा में घुसा रहे है । उनकी अगली योजाना हिंदी को देवनागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि में लिखने की है ।
अपने इन भाषा विनाशी कुकृत्यों के लिये वे तर्क देते हैं कि इससे हिंदी समृद्ध हो रही है और एक वैश्विक भाषा बनने की ओर बढ़ रही है । उनका कहना है की हिंदी में इन नये शब्दों के आ जाने से हिंदी की ताकत बढ़ेगी और इसका विस्तार भी होगा । अगर उनके तर्क को थोड़ा बढ़ाकर सोंचे तो जल्द ही वह दिन आयेगा जब हम वाक्य तो हिंदी का बोलेंगे पर उसमें शब्द अंग्रेजी के होंगे । इसका नमूना हम रेडियो और टीवी के संचालकों की खिचड़ी बोली के रूप में देख सकते हैं ।
भाषाशास्त्रियों का कहना है कि शब्द मात्र अक्षरों का समूह नहीं होते । हर शब्द का अपना इतिहास होता है । शब्दों का अपना जीवन क्रम होता है, वे पैदा होते हैं, पुराने पड़ते हैं, मरते हैं और फिर नयेनये शब्द पैदा होते हैं । किसी भी शब्द के सम्पर्क में आते ही हमारे दिमाग में उससे सम्बंधित एक तस्वीर बनती है । शब्द से हमारे दिमाग में बनने वाले इस चित्र पर समय, समाज, भौगोलिक परिस्थिति, संस्कृति जैसी बहुत सी चीजों का असर होता है । किसी भारतीय किसान के दिमाग में सुबहकहने से जो चित्र खिंचता है, वह किसी अमरीकी के जीवन में मार्निंगसुनकर उभरने वाली छवि से बिलकुल अलग होता है । माँबाप सुनकर हमारा दिमाग जैसी प्रतिक्रिया करता है पैरेंट्स सुनकर हमारे दिमाग में वही छवि नहीं बनती ।
यह भी महत्त्वपूर्ण है की हमारे दिमाग में जो भी विचार आते हैं या हम जो भी चिंतन करते हैं, वह हमारी अपनी मातृभाषा में होता है । हम परायी भाषा में सोच ही नहीं सकते । अगर हमारी भाषा के शब्द ही बदल दिये जायेंगे तो हम न तो मौलिक चिंतन कर पायेंगे और न ही अपने विचारों की प्रखर अभिव्यक्ति । अपनी भाषा से कटते ही हम अपनी परम्पराआंे अपनी संस्कृति और अपने इतिहास से भी कट जायेंगे । हम अपने पूर्वजों की विकास यात्रा और उनके संघर्षों से अजनबी हो जायेंगे । यही कारण है की दुनिया का हर जागरूक समाज जीजान से अपनी मातृभाषा को बचाने और उसका विकास करने का प्रयास करता है ।
सवाल यह है की मातृभाषा हिंदी में छपने वाले अखबार क्यों अपनी ही भाषा को नष्ट करने के लिये योजनाबद्ध तरीके से प्रयासरत हैं ? क्यों वे हिंदी को अंग्रेजी शब्दों की बैशाखी थमा रहे हैं, जबकि राष्ट्रीय आन्दोलन और 1947 के बाद के दशकों में भी उन्होंने हिंदी के विकास का काम किया था । कोई भी अखबार या पत्रिका समाज के किसी खास वर्ग का प्रतिनिधि होती है । देश की सत्ता की बागडोर जिस वर्ग के हाथ में होती है जनसंचार के माध्यमों पर भी उसी का कब्जा होता है । विरोधी विचारों को भी वह एक सीमा तक ही स्थान देता है । मुख्यधारा के हमारे अखबार पहले भी देश के शासक, पूँजीपति वर्ग की विचारधारा के वाहक थे और आज भी हैं । हालाँकि उनके मालिकों में अब विदेशी पूँजीपति भी शामिल हो गये हैं । आजादी की लड़ाई में जनता को अपने साथ लेने के लिये वे सुखदुःख में उसका साथ देते और शासकों तक उसकी आवाज पहुँचाते थे । आजादी के बाद हमारे शासकों ने राष्ट्र के आत्मनिर्भर विकास का रास्ता चुना । अपनी राष्ट्रीय भाषा और संस्कृति का विकास भी इसी का हिस्सा था । हालाँकि शासक वर्ग उस वक्त भी अंग्रेजी की श्रेष्ठता और निर्भरता से मुक्त नहीं थे, फिर भी इस पूरे दौर में अखबारों ने हिंदी के विकास में योगदान किया ।
80–90 के दशक में दुनिया मे हुए बदलावों को देखते हुए हमारे शासकों को आत्मनिर्भरता के बजाय परनिर्भरता और साम्राज्यवादियों की गुलामी में ज्यादा मुनाफा दिखायी देने लगा । उन्होंने अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिये वैश्वीकरण के रूप में आयी नये तरह की गुलामी को स्वीकार कर लिया । साम्राज्यवादियों के लिये देश के दरवाजे खोल दिये गये । देश की सभी नीतियाँ इनकी सहूलियत के अनुसार बदली जाने लगीं । जब देश के शासक वर्ग ने साम्राज्यवादियों की अधीनता स्वीकार कर ली तो अखबारों समेत उसके सभी जनसंचार माध्यम भी साम्राज्यवाद की सेवा में लग गये । उनका चरित्र रातोंरात बदलने लगा ।
साम्राज्यवादियों का सपना पूरी दुनिया पर अपना एकछत्र राज कायम करना है । वे चाहते हैं कि पूरी दुनिया की जनता मुनाफाखोरी और उपभोक्तावाद को ही जीवन का उद्देश्य मान ले । उनकी पतित पूँजीवादि संस्कृति को ही पूरी दुनिया में स्थापित कर दिया जाय । उन्हीं की भाषा पूरी दुनिया में बोली जाये और पूरी दुनिया की जनता अपने देश के स्वाभिमान और आजादी के सपने का परित्याग कर दे । उन्हीं आक्रांताओं की साम्राज्यवादी संस्कृति का प्रचारप्रसार अब हिंदी के अखबारों का उद्देश्य बन गया हैं । इसके लिये जरूरी था की सबसे पहले अखबार खुद को हर कीमत पर मुनाफा कमाने वाले उपक्रम में बदलें और देश की जनता के प्रति अपने दायित्यों को त्याग कर अधिक से अधिक विज्ञापन हासिल करने की रणनीति अपनायें । इसी के तहत हिंदी के अखबारों ने हिंदी का विकास करने के बजाय उसकी जड़ें खोदने का बीड़ा उठा लिया । चूँकि हिंदी और सभी देशी भाषाएँ भारत की पहचान का अनिवार्य अंग है, इसलिए वैश्वीकरण के नाम पर साम्राज्यवादी ऐसी किसी भी पहचान को रौंदना जरूरी समझते हैं ।
भाषा ही नहीं बल्कि खानपान, पहनावा, जीवनशैली और हर क्षेत्र में बहुलतावाद को रौंदते हुए अपने एकरस और जड़ीभूत मानकों को स्थापित करना उनके लिये जरूरी है । तभी उनके ब्रांडेड कपडे़, खानेपीने के सामान और हर तरह की उपभोक्ता वस्तुएँ पूरी दुनिया में धड़ल्ले से बिक पायेंगी ।
अंग्रेजी के प्रति इस वर्ग का मोह फैशन मात्र नहीं है, बल्कि उनके अस्तित्व से सीधे जुड़ी हुई है । बहुराष्ट्रीय निगमों का पूरा तामझाम, पूरा तानाबाना, अंग्रेजी पर निर्भर है । जाहिर है कि उनके विज्ञापनों पर पलने वाले अखबारों के लिए भी अंग्रेजी को बढ़ावा देना और हिंदी का मानमर्दन करना आज उनके फलनेफूलने की शर्त है ।
ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में अपने देश की आजादी को साम्राज्यवादियों के पास गिरवी रख चुके शासक वर्गों के समर्थक अखबार अपनी मातृभाषा के मित्र नहीं हो सकते । आज अपनी मातृभाषा के मित्र उन्हीं वर्गों के पत्रपत्रिकाएँ हो सकती हैं जो पूरी मानवता की मुक्ति का सपना देखते हैं । अतीत में भी अंग्रेजी से लड़ते हुए अंग्रेजी के खिलाफ हिंदी का पताका लहराया गया था । आज हम उससे भी कठिन परिस्थिति का सामना कर रहे हैं, क्योंकि देश की एक बहुत बड़ी आबादी अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये विदेशी पूँजी के साथ गलबहियाँ डाले खड़ी है । इसका मुकाबला जनपक्षधर पत्रपत्रिकाओं और अन्य वैकल्पिक माध्यमों के प्रचारप्रसार को एक आन्दोलन का रूप देकर ही सम्भव है ।

(देश-विदेश अंक 14 में प्रकाशित लेख) 

Monday, November 5, 2012

इरोम शर्मिला की कविता : अमन की खुशबू
















अमन की खुशबू

जब अपने अंतिम मुकाम पर पहुँच जाय
जिन्दगी  

तुम, मेहरबानी करके ले आना
मेरे बेजान शरीर को
फादर कोबरू की मिट्टी के करीब

आग की लपटों के बीच 
मेरी लाश का बादल जाना
अधजली लकड़ियों में
उसे टुकड़े-टुकड़े करना
फावड़े और कुल्हाड़े से 
नफ़रत से भर देता है
मेरे मन को 

बाहरी आवरण का सूख जाना लाजमी है
इसे जमीन के अंदर सड़ने दो
कुछ तो काम आये यह 
आने वाली नस्लों के 
इसे  बदल जाने दो
खदान की कच्ची धातु में 

मैं अमन की खुशबू
फैलाऊंगी अपने जन्मस्थल
कांगली से
जो आने वाले युगों में
फ़ैल जायेगी 
सारी दुनिया में

(देश-विदेश, अंक-10 में प्रकाशित. अंग्रेजी से अनुवाद पारिजात )