Tuesday, February 26, 2013

दुनिया के मजदूर

जहाजी मजदूर- फोटो "द वाटरफ्रंट वर्कर हिट्री प्रोजेक्ट" से आभार सहित 
-जय मूर
श्रम इतिहासकार मर्कुइज रिडाइकर और पीटर लाइनबो ने बहुत ही जीवन्त चित्रण किया है कि अंतरराष्ट्रिय मजदूर वर्ग के निर्माण में नाविकों और जहाज पर काम करने वाले मजदूरों ने किस तरह हिरावल की भूमिका निभाई थी. आधुनिक काल के शुरूआती दिनों के अधिकांश मजदूर आम तौर पर अपनी जन्म भूमि की मिट्टी से ही जुड़े रहे या अपने दस्तकारी के उद्यमों से ही मजबूती से बंधे रहे. लेकिन वे जैक टार (जहाजी मजदूर) जो दुनिया भर में बहुत अधिक आवाजाही करते थे, इस मामले में उनसे एकदम अलग थे. उन्होंने दुनिया देखी तथा यात्रा के आनन्द और खतरों को मजबूती से अंगीकार किया. वे सुग्गों और बंदरों के साथ-साथ दुनिया भर की अनोखी जगहों के किससे-कहानी अपने साथ लेकर आये. जहाजी कार्य-बल अत्यधिक बहुराष्ट्रिय और बहु-सांस्कृतिक भी था. उन कठिन परिश्रमी मजदूरों के लिए मार्क्सवादी नारा- “दुनिया के मजदूरों एक हो,” कोई अमूर्त मनभावन चीज नहीं थी, बल्कि वह उनके रोज-बरोज के वर्गीय अनुभव से पूरी तरह मेल खाता था.

यही नहीं, जिन देशों के बारे में मार्क्स और एंगेल्स ने सोचा था कि वहाँ कपड़ा मिलों और दूसरे औद्योगिक फैक्टरियों का विकास होने पर नयी वर्गीय चेतना का उदय होगा, उससे बहुत पहले ही वे जहाजी मजदूर ऐसी जगह काम करते थे जो वास्तव में समुद्र पर तैरने वाली पूँजीवादी फैक्टरी ही थे, जहाँ काम करने के तौर-तरीके में बहुत ही उन्नत स्तर का तालमेल शामिल था. नाविकों ने दमनकारी परिस्थितियों के खिलाफ विद्रोह के दौरान इस तथ्य का भरपूर इस्तेमाल किया कि जहाज को चलाने के लिए उन सभी लोगों को एक साथ मिल कर काम करना जरूरी होता है. “हड़ताल” जिसका मजदूर आन्दोलन के पूरे इतिहास में इतना अधिक महत्त्व रहा है, उस शब्द का उद्भव ही नाविकों के उस व्यवहार से हुआ था जिसके दौरान वे जहाज को रोकने के लिए उसे तब तक के लिए खेना बंद कर देते थे, जबतक अधिक वेतन और काम की बेहतर परिस्थितियों से सम्बंधित उनकी माँग पूरी नहीं हो जाती थी.

उनकी नौकरी स्थाई और लगातार चलने वाली नभीं होती थी, फिर भी समुद्री यात्रा पर जाने वाले वाणिज्यिक जहाजों के नाविक और समुद्र तट पर काम करने वाले मजदूरों ने आधुनिक मजदूर आन्दोलन के सबसे जुझारू और प्रगतिशील यूनियनों का संगठन किया था. कुछ समुद्री मजदूरों की यूनियनों की कतारों में और कुछ नेतृत्वकारी पदों पर भी अंतरराष्ट्रिय औद्योगिक मजदूर (आईडब्लूडब्लू) और आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी का काफी प्रभाव बन गया क्योंकि जनता के मंच के रूप में वे अपनी राय पर हमेशा अडिग रहते थे और अपने उद्देश्यों को कभी छुपाते नहीं थे. हालाँकि बिके हुए दक्षिण पंथी यूनियनों और पूर्वी तट के माफिया सरगनाओं से उन लोगों को लगातार लड़ाई लड़नी पड़ती थी.

एक खास तरकीब, जिसके चलते इन तमाम वर्षों के दौरान एक फीसदी लोग शीर्ष पर कब्ज़ा जमाए रहे, वह था कार्य-बल का विभाजन तथा नस्ली और नृजातीय आधारों पर 99 फीसदी के एक हिस्से को दूसरे हिस्से के खिलाफ खड़ा करना. यही हाल पानी के जहाजों पर काम करने वाले मजदूरों के मामले में भी था. लेकिन ऐसे सकारात्मक उदहारण भी हैं जब समुद्री मजदूरों ने अपने साझा हितों के लिए इन बँटवारों से ऊपर उठ कर काम किया. पीटर कोल ने अपनी पुस्तक वोब्बलीज ऑफ द वाटरफ्रंट में बीसवीं सदी के प्रारंभ में फिलाडेल्फिया के अंतरराष्ट्रीय औद्योगिक मजदूर संघ द्वारा नस्ली भेदभाव से ऊपर उठ कर गोरे और कालों के बीच तथा मूलनिवासी और आप्रवासी मजदूरों के बीच यूनियन बनाने से सम्बंधित भूले-बिसरे इतिहास के उद्धार का उल्लेखनीय काम किया है. कम्युनिष्ट-नेतृत्व वाली रसोइयों और खानसामों की यूनियन ने भी नस्लवाद के खिलाफ मजबूत रुख अपनाया, जब जहाजी मजदूर यूनियनें काले और एशियाई लोगों को यूनियन से अलग कर रही थीं.

पश्चिम तटीय अंतरराष्ट्रिय तटवर्ती एवं गोदाम मजदूर यूनियन (आई एल डब्ल्यू यू) के लिए 1930 और 1940 के दशक सबसे सुनहरे दिन थे. उस दौरान यह अमरीका की सबसे बेहतरीन यूनियन थी (और आज भी इसकी भव्यता बरक़रार है). जैसा कि हमारे पुराने कॉलेज के प्राध्यापक चार्ल्स “लैश” लैरो ने अपनी सुन्दर आत्मकथा (जिसका छपना बेहद जरूरी है) के एक उपशीर्षक “अमरीका में रेडिकल यूनियन का उत्थान और पतन” में बताया है, “इसके प्रखर और अडिग नेतृत्व की जिम्मेदारी आस्ट्रेलिया में जन्मे, एक सुदृढ़ कम्युनिष्ट हैरी ब्रिजेज के कन्धों पर थी.” इस यूनियन ने वोब्बलीज यूनियन का औपचारिक नारा अपनाया था- “एक को लगी चोट, सबके ऊपर चोट है.” बाद के कई वर्षों में इस यूनियन ने नस्लभेदी दक्षिण अफ्रीका के जहाजों तथा चीली और अल साल्वाडोर में दमन करने जा रहे अमरीकी जहाजों का बहिष्कार करने जैसी अन्तरराष्ट्रिय भाईचारे की असंख्य कार्रवाइयों को अंजाम दिया. 1997 में उन्होंने लिवरपूल, इंग्लैण्ड में यूनियन पर रोक लगाने के खिलाफ लड़ रहे अपने साथी गोदी मजदूरों के समर्थन में अमरीकी पश्चिमी तट की गोदी का काम एक दिन के लिए ठप्प कर दिया था.

हार्वे स्वोर्त्ज़ ने आईएलडब्ल्यूयू के वर्तमान और भूतपूर्व सदस्यों के साथ बातचीत कर के मौखिक इतिहास की अद्भुत सामग्री एकत्रित की है और उसे बिलकुल सटीक शीर्षक वाली अपनी पुस्तक सोलिडारिटी स्टोरी  में शामिल किया है. “सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद” के बारे में एक परियोजना के सन्दर्भ में मैंने बीसवीं सदी के विभिन्न किस्मों के रेडिकल मजदूरों द्वारा लिखी गयी ऐसी ही कहानियों और संस्मरणों को पढ़ा. उस ऐतिहासिक ज्ञान को पुनर्जीवित करना आज मैं बहुत ही जरूरी मानता हूँ, क्योंकि वैश्विक सामाजिक और आर्थिक न्याय आन्दोलन से जुड़े हम सभी लोग एकबार फिर इस मुद्दे पर गंभीरता से सोच रहे हैं कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था से आगे एक नयी दुनिया का निर्माण करना सम्भव है. मैं उन संस्मरणों में से एक का जिक्र यहाँ करना चाहूँगा, जो एक कम्युनिस्ट नाविक बिल बैली की अनोखी कहानी है.

बैली का जन्म होबोके, न्यू जर्सी में 1911 में हुआ था. वह एक प्रतिभाशाली बच्चा था जिसका लालन-पालन आयरिश आप्रवासी मजदूरों के मोहल्ले की कठिन परिस्थितियों में भूख और गरीबी की हालत में हुआ था. उसके पैरों में जूते भी नहीं होते और अक्सर उसे कानून से दो-दो हाथ करने पड़ते. 14 साल की उम्र में उसने समुद्र में जानेवाले जहाज में काम शुरू किया. मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी विचारधारा से पहली बार उसका साबका तब पड़ा जब उसने आईडब्ल्यूडब्ल्यू की पत्रिका इंडस्ट्रियल वर्कर की प्रति अचानक उठा कर पढ़ना शुरू किया, जिसे किसी ने जहाज पर छोड़ दिया था. महा मंदी के दौरान जब जहाजी का काम मिलना काफी मुश्किल हो गया था, तब उसने नौकरी की तलाश में दूसरे आवारा लोगों के साथ देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रेल से सफर किया. 1934 में उसने कम्युनिष्ट नेतृत्व वाली मेरीन इंडस्ट्रियल वर्कर्स यूनियन (एमडब्ल्यूआईयू) में शामिल हुआ तथा न्यूयार्क और बाल्टीमोर में यूनियन का संगठनकर्ता बन गया. जर्मनी में फासीवाद का विरोध कर रहे एक अमरीकी जहाजी मजदूर की गिरफ़्तारी का विरोध करने के लिए बैली ने अपने दूसरे नाविक साथियों के साथ मिलकर न्यू यार्क के बंदरगाह पर खड़े एक जर्मन यात्री जहाज के अग्रभाग पर लगे स्वास्तिक निशान को नोच कर फेंक दिया. यह घटना अंतरराष्ट्रिय खबर बन गयी. कुछ दिनों तक दूसरे कई समुद्री यूनियनों का संगठन करने के बाद वह अब्राहम लिंकन ब्रिगेड से जुड़ा और विभिन्न देशों के मजदूरों के साथ मिल कर स्पेन में फासीवाद से लड़ने के लिए लिए चल पड़ा. स्पेन से लौटने के बाद उसने फिर से तटवर्ती मजदूर संगठनकर्ता के रूप में काम शुरू कर दिया और फिर विश्व युद्ध के दौरान उसने वाणिज्यिक आपूर्तिकर्ता जहाज पर नाविक के खतरनाक काम के लिए स्वेच्छा से अपनी सेवा समर्पित की. इन सभी कामों के दौरान वर्ग भाईचारा की ओजपूर्ण भावना ही बैली को प्रेरित करती रही.

क्या “सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद” इस रूप में एक मृत और गुजरे ऐतिहासिक युग की चीज है, जैसाकि हार्ट और नीग्रा ने इसकी जगह “अनेकता” की अपनी अवधारणा स्थापित करते हुए दलील दी है? हो सकता है, क्योंकि आज वहाँ काम की प्रकृति काफी बादल गयी है. जहाँ तक समुद्र तट के कामों की बात है, वहाँ पर बहुत पहले ही गोदी मजदूरों से काम लेने की जगह स्वचालित मशीनों से बड़े-बड़े कंटेनरों में माल का लदान होने लगा है. आज माल ढुलाई वाले विराट जहाज़ों और तेल के टैंकरों पर बहुत ही कम, बमुश्किल दर्ज़न भर जहाज कर्मचारी होते हैं. लेकिन फिर भी उन मजदूरों (और उनके समर्थकों) के इस इतिहास में ऐसे ढेर सारे बहुमूल्य अनुभव भरे पड़े हैं, जीनसे सबक ली जा सकती है. उन लोगों ने सिर्फ अपनी नौकरी से जुड़े निजी हितों के लिए ही लड़ाई नहीं लड़ी थी, बल्कि वे खुद को एक महान अंतरराष्ट्रिय मुक्ति आन्दोलन का अंग भी मानते थे.

वैश्विक स्तर पर सोचना और काम करना, अतीत के मजदूर आन्दोलन लिए उसी तरह मजबूती प्रदान करने वाला साबित हुआ था, जैसे मौजूदा ओक्युपाई आन्दोलन ने अरब स्प्रिंग और स्पेनी इन्दिग्नादोस (क्रुद्ध) आन्दोलन से शक्ति ग्रहण की. ओक्युपाई आन्दोलन की तुलना में मजदूर आन्दोलन की ताकत यह थी कि वह सड़कों और चौराहों पर तो दिखता ही था, साथ ही उसकी जड़ें उत्पादन में भी थीं और इस तरह वे अपनी माँग मनवाने के लिए काम ठप्प कर सकते थे या पूरी तरह काम बंद कर सकते थे और यह भी मुमकिन था कि बड़े पैमाने पर आम हड़ताल के जरिये वे व्यवस्था में ही  रूकावट पैदा कर दें. अगर मजदूर आन्दोलन को बने रहना है और पूँजी की चरम आवाजाही के इस युग में वास्तव में कोई फर्क लाना है, तो उसे फिर से इस बात को सीखना होगा कि दुबारा पहले से भी बेहतर तरीके से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे काम किया जाय. इस दिशा में देर से ही सही, लेकिन उम्मीद जगानेवाले कुछ प्रयास हुए हैं. ओक्युपाई जैसे सामाजिक आन्दोलन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो संपर्क और भाईचारा कायम किया, उसके चलते मौजूदा पूँजीवादी राजनीतिक अर्थतंत्र में आज वे जिस स्थिति में हैं, निश्चय ही उन्हें इस तरीके से काम करने का लाभ मिलेगा. 
  
(जय मूर एक रेडिकल इतिहासकार हैं जो वेरमोंट के देहात में रहते हैं और अगर काम मिल जाय तो पढ़ाने का काम करते हैं. उनका यह लेख मंथली रिव्यू से आभार सहित लिया गया है. अनुवाद- दिगम्बर) 

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Thursday, February 7, 2013

व्यंग्य









-ओत्तो रेने कास्तिलो 

हिटलर ने कहा था 1935 में कि
“नाजी जर्मनी
हजार सालों तक कायम रहेगा

ठीक दस साल बाद 
क्या कहा था हिटलर ने
बर्लिन के खंडहरों तले?

कुछ ही साल बाद
डलेस महोदय ने
एक विराट ट्रेक्टर की तरह घड़घड़ाते हुए
कहा “यह दशक देखेगा
साम्यवादी गुलामी का अंत.”

कुछ ही वर्षों बाद
यूरी गगारिन ने क्या किया  
जब अमरीका के विस्तीर्ण सागर और 
विस्तृत भूभाग के ऊपर असीम आकाश से
उसने मानवता को बधाई सन्देश दिया?


टॉमस मान सही थे
जब उन्होंने कहा कि
“साम्यवाद-विरोध
बीसवीं सदी की
सबसे मजाकिया तरकीब है.”

फिर भी
उनके स्वार्थ
उनका मुनाफा 
जारी है धूमधाम से
जारी है कत्लोगारत
आज भी.

Tuesday, February 5, 2013

एक अन्याय की रपट


(पिछले दिनों इलाहाबाद शहर को सुन्दर बनाने के लिए जब वहाँ ठेला-खोमचा और पटरी पर सामान बेचनेवाले मेहनतकश लोगों के उजाड़े जाने की खबर साथी उत्पला शुक्ला ने दी थी, तभी ग्वाटेमाला के क्रन्तिकारी कवि ओत्तो रेने कास्तिलो की यह कविता याद आयी थी और इसे अंग्रेजी में साथियों को पढ़वाया भी था. बेदखली और विस्थापन हमारे यहाँ रोजमर्रे की घटना हो गयी है. हृदयहीन शासक-प्रशासक देश भर में ग़रीबों की रोजी-रोटी छीन रहे हैं  और उन्हें दर-दर की ठोकर खाने पर मजबूर कर रहे हैं. इस कविता में दामियाना मुर्सिया को इसलिए सड़क पर फेंक दिया गया, क्योंकि उसने घर का किराया नहीं चुकाया. लेकिन हमारे महान लोकतंत्र में तो बिना किसी वजह के, केवल शासकों की सनक और शौक के चलते किसी को, कहीं से भी,कभी भी उजाड़ दिया जाता है और उसे विकास का नाम दे दिया जाता है.) 

एक अन्याय की रपट - ओत्तो रेने कास्तिलो 

“गार्सिया की बिधवा, 77 वर्षीय श्रीमती दामिआना मुर्सिया के घरेलू सामान पिछ्ले कुछ दिनों से खुले में पड़े-पड़े बारिश में भींग रहे हैं, जिन्हें तीसरे और चौथे अंचल के बीच, गाली नं. 15 “सी” स्थित उनके छोटे-से घर के बाहर फेंक दिया गया था.” (रेडियो अखबार “डायरियो मिनुतो” पहला संस्करण, बुधवार, 10 जून, 1964.)

शायद आप यकीन न करें,
लेकिन यहाँ,
मेरी आँखों के आगे,
एक बूढी औरत,
गार्सिया की बिधवा, दामियाना मुर्सिया,
77 साल की जर्जर काया,
बारिश में भींगती,
अपने टूटे-फूटे, पुराने, दागदार,
फर्नीचरों के बगल में खड़ी,
अपनी झुकी पीठ पर
सह रही है
आपकी और मेरी इस व्यवस्था के
सभी दानवी अन्याय.

गरीब होने के चलते,
धनिकों के न्यायाधीशों ने
आदेश दिया बेदखली का.
अब तक शायद आपने
इस शब्द को समझा नहीं.
कितनी महान दुनिया में
जी रहे हैं आप!
जहाँ धीरे-धीरे करके
अत्यंत पीड़ादायक शब्द
अपनी क्रूरता खोते जा रहे हैं.
और उनकी जगह हर रोज,
भोर की तरह,
उग आते हैं नए-नए शब्द
आदमी के प्रति
प्रेम और नरमी से भरपूर.

बेदखली,
कैसे किया जाय इसका बयान?
आप जानते हैं,
जब आप किराया नहीं चुका सकते
तो आ धमकते हैं धनिकों के अधिकारी
और फेंक देते हैं आपके सामान
बाहर गली में.
और ख्वाबों में खोये-खोये अचानक
आपके सर से छत छिन जाती है.
यही मतलब है इस शब्द का
बेदखली- अकेलापन
खुले आकाश के नीचे,
आँखे आँकती हैं, मुसीबत.

ये आजाद दुनिया है, वे कहते हैं.
कैसी किस्मत कि तुम
अब तक नहीं जान पाए
इन स्वाधीनताओं को!

गार्सिया की बिधवा दमियाना मुर्सिया
आप को मालूम है,
बहुत छोटी है,
और ठण्ड से बुरी तरह काँपती हुई.

उसका अकेलापन कितना महान है!

आप यकीन नहीं करेंगे,
कितना सताते हैं ये अन्याय.

हमारे लिए तो रोजमर्रे की बात हैं  
अजूबा तो तब हो कि कोई करुणा
और गरीबी से घृणा की बात करे.
और फिर भी हमेशा से ज्यादा
प्यार करता हूँ मैं आपकी दुनिया को,
इसे जानता-समझता हूँ,
महिमा मण्डित करता हूँ
इसके विश्वव्यापी गौरव को.

और खुद से पूछता हूँ मैं-
क्यों हमारे बूढ़े लोग
इस हद तक कष्ट सहते है,
जबकि बुढ़ापा सबके लिए
आता है एक दिन?
लेकिन सबसे बुरी चीज है
आदत.
आदमी खो देता है अपनी मानवता,
परवाह नहीं उसे
दूसरों की असह्य वेदना की.
और वह खाता है
वह हँसता है
और वह हर बात भुला देता है.

मैं नहीं चाहता इन चीजों को
अपने देश की खातिर.
मैं नहीं चाहता इन चीजों को
किसी के लिए भी.
मैं नहीं चाहता इन चीजों को
दुनिया में किसी के लिए भी.
और मैं कहता हूँ
दर्द का मारा
कि सम्हालना चाहिए
एक अमिट आभा.  

यह आज़ाद दुनिया है, वे कहते हैं.

मेरी तरफ देखो.
और कहो अपने साथियों से
कि मेरी हँसी
मेरे चेहरे के बीचोंबीच
विकृत रूप ले चुकी है.

कहो उनसे मैं उनकी इस दुनिया को प्यार करता हूँ.
उन्हें खूबसूरत बनाना चाहिए इसको.
और मैं बेहद खुश हूँ
कि वे जान ही नहीं पाए अबतक
कि अन्याय
कितना गहरा और तकलीफदेह है.

(अनुवाद- दिगम्बर) 

Monday, February 4, 2013

अराजनीतिक बुद्धिजीवी


-ओत्तो रेने कास्तिलो 
(ग्वाटेमाला के क्रन्तिकारी कवि, जन्म 1934 – मृत्यु 1967 )

















एक दिन
हमारे देश के
अराजनीतिक बुद्धिजीवियों से
पूछताछ करेंगे
हमारे सबसे सीधे-सादे लोग.

उनसे पूछा जायेगा
कि उन्होंने क्या किया
जब उनका राष्ट्र
मरता रहा धीरे-धीरे,
सुलगता धीमी आँच में,
निर्बल और अकेला.

कोई भी उनसे नहीं पूछेगा
उनकी पोशाक के बारे में,
दोपहर में खाकर
सुस्ताने के बारे में,
कोई नहीं जानना चाहेगा
“शून्य के विचार” के साथ
उनके बंजर मुकाबलों के बारे में.

परवाह नहीं करेगा कोई भी
उनकी महँगी ऊँची पढ़ाई की.
नहीं पूछा जायेगा उनसे
यूनानी मिथकों के बारे में.
या उस आत्म-घृणा के बारे में
जो उत्पन्न होती है उस समय
जब उन्हीं में से कोई
शुरू करता है
कायरों की मौत मरना.

कुछ भी नहीं पूछा जायेगा 
उनके बेहूदे तर्कों के बारे में,
जो सफ़ेद झूठ के साये में
पनपते हैं.

उस दिन
सीधे-सादे लोग आयेंगे.
जिनके लिए कोई जगह नहीं थी
अराजनीतिक बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में,
लेकिन रोज पहुँचाते रहे जो
उनके लिए ब्रेड और दूध,
तोर्तिला और अण्डे,
वे जिन्होंने उनके कपडे सिले,
वे जिन्होंने उनकी गाड़ी चलाई,
जिन लोगों ने देख-भाल की
उनके कुत्तों और बागवानी की
और खटते रहे उनकी खातिर,
और वे लोग पूछेंगे-
“क्या किया तुमने जब गरीब लोग
दुःख भोग रहे थे, 
जब उनकी कोमलता
और जीवन जल रहा था
भीतर-भीतर?”   

मेरे मधुर देश के
अराजनीतिक बुद्धिजीवीयो,
तुम कोई जवाब नहीं दे पाओगे.
चुप्पी का गिद्ध
तुम्हारी आँतों को चबायेगा,
तुम्हारी अपनी दुर्गति
कचोटेगी तुम्हारी आत्मा.
और लाज के मारे
मौन रह जाओगे तुम. 

(अनुवाद- दिगम्बर)