Sunday, October 27, 2013

सीधा-साधा समाजवादी सच- पॉल लफार्ग

workers



(अक्सर किसी कारखाने या दफ्तर में काम करने वाले वेतनभोगी मजदूर से बात करो तो वे यह कहते हैं कि उन्हें काम देकर उनका मालिक उन पर कृपा करता है ,क्योंकि अगर उन्हें काम न मिले तो उनका जीना मुश्किल हो जायेगा. समाज में सदियों से फैलायी गयी सोच और आजकल मीडिया के ज़रिये लगातार मालिकों कि भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने का ही नतीजा है कि मेहनतकश लोग अपने शोषकों को ही अपना कृपानिधान मान लेते हैं. सवाल यह है कि मालिक मजदूरों की परवरिश करता है या मजदूर मालिकों को करोड़पति-अरबपति बनाते हैं ? इस सच्चाई को समझने में पौल लफार्ग द्वारा 1903 में लिखा यह वार्तालाप काफी मददगार है. इस वार्तालाप में शारीरिक श्रम और सीधे उत्पादन में लगे मजदूरों का उदाहरण दिया गया है, लेकिन यह बात मानसिक श्रम करने वाले सेवाक्षेत्र के कर्मचारियों के मामले में भी लागू होती है.)

मज़दूर- यदि कोई मालिक नहीं होता, तो मुझे काम कौन देता?

प्रचारक- यह एक सवाल है जो अक्सर लोग हमसे पूछते हैं. इसे हमें अच्छी तरह समझना चाहिए. काम करने के लिये तीन चीजों की ज़रुरत होती है- कारखाना, मशीन और कच्चा माल.

मजदूर- सही है.

प्रचारक - कारखाना कौन बनाता है?

मजदूर- राजमिस्त्री.

प्रचारक- मशीने कौन बनाता है?

मजदूर- इंजीनियर.

प्रचारक- तुम जो कपड़ा बुनते हो, उसके लिये कपास कौन उगाता है? तुम्हारी पत्नी जिस ऊन को कातती है, उसे कौन पैदा करता है? तुम्हारा बेटा जो खनिज गलाता है उसे ज़मीन से खोद कर कौन निकालता है?

मजदूर- किसान, गडरिया, खदान मजदूर. वैसे ही मजदूर जैसा मैं हूँ.

प्रचारक- हाँ, तभी तो तुम, तुम्हारी पत्नी और तुम्हारा बेटा काम कर पाते हैं? क्योंकि अलग-अलग तरह के मजदूर तुम्हे पहले से ही इमारतें, मशीनें और कच्चा माल तैयार कर के दे रहे हैं.

मजदूर- बिलकुल, मैं सूती कपड़ा बिना कपास और करघे के नहीं बुन सकता हूँ.

प्रचारक- हाँ, और इससे पता चलता है कि तुम्हें कोई पूँजीपति या मालिक काम नहीं देता है, बल्कि यह किसी राजमिस्त्री, इंजीनियर और किसान की देन है.क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा मालिक कैसे उन चीजों का इन्तजाम करता है जो तुम्हारे काम के लिये ज़रूरी हैं?

मजदूर- वह इन्हें खरीदता है.

प्रचारक- उसे पैसे कौन देता है?

मजदूर- मुझे क्या पता. शायद उसके पिता ने उसके लिये थोड़ा बहुत धन छोड़ा होगा और आज वह करोड़पति बन गया है.

प्रचारक- क्या उसने यह पैसा मशीनों में काम करके और कपड़ा बुन के कमाया है?

मजदूर- ऐसा तो नहीं है, ज़ब हमने काम किया, तभी उसने करोड़ों कमाया.

प्रचारक- तब तो वह ऐसे ही बिना कुछ किये अमीर बन गया है. यही उसकी किस्मत चमकाने का एकमात्र रास्ता है- जो लोग काम करते हैं उन्हें तो केवल जिन्दा रहने भर के लिये मजदूरी मिलती है. लेकिन मुझे बताओ कि यदि तुम और तुम्हारे मजदूर साथी काम नहीं करें, तो क्या तुम्हारे मालिक की मशीनों में जंग नहीं लग ज़ायेगा और उनके कपास को कीड़े नहीं खा जायेंगे?

मजदूर- इसका मतलब यदि हम काम न करें, तो कारखाने का हर सामान बर्बाद और तबाह हो जायेगा.

प्रचारक- इसीलिये तुम काम करके मशीनों और कच्चे माल को बचा रहे हो जो कि तुम्हारे काम करने के लिये ज़रूरी है.

मजदूर- यह बिल्कुल सही है, मैंने पहले कभी इस तरह नहीं सोचा.

प्रचारक- क्या तुम्हारा मालिक यह देखभाल करने आता है कि उसका कारोबार कैसा चल रहा है?

मजदूर- बहुत ज्यादा नहीं, वह हर दिन एक चक्कर लगता है, हमारे काम को देखने के लिये. लेकिन अपने हाथों को गंदा होने के डर से वह उन्हें अपनी जेब में ही डाले रहता है. एक सूत कातने वाली मिल में, ज़हाँ मेरी पत्नी और बेटी काम करती हैं, उन्होंने अपने मालिक को कभी नहीं देखा है, ज़बकि वहाँ चार मालिक हैं. ढलाई कारखाने में भी कोई मालिक नहीं दिखता है ज़हाँ मेरा बेटा काम करता है. वहाँ के मालिक को तो न किसी ने देखा है और न ही कोई जानता है. यहाँ तक कि उसकी परछाई को भी किसी ने नहीं देखा है. वह एक लिमिटेड कम्पनी है जिसका अपना काम है. मान लो कि मेरे और तुम्हारे पास 500 फ्रांक कि बचत होती है, तो हम एक शेयर खरीद सकते हैं और हम भी उनमें से एक मालिक बन सकते हैं बिना उस कारखाने में पैर रखे.

प्रचारक- तो फिर उस ज़गह पर काम कौन देखता है और कामकाज का संचालन कौन करता है, ज़हाँ से ये शेयर धारक मालिकाने का सम्बंध रखते हैं? तुम्हारी खुद कि कंपनी का मालिक भी ज़हाँ तुम काम करते हो वहाँ कभी दिखायी नहीं देता और कभी-कभार आ भी जाए तो वह गिनती में नहीं आता है.

मजदूर- प्रबंधक और फोरमैन.

प्रचारक- लेकिन जिन्होंने कारखाना बनाया, मशीनें बनायीं व कच्चे माल को तैयार किया, वे भी मजदूर ही हैं. जो मशीनों को चलाते हैं वे भी मजदूर हैं. प्रबंधक और फोरमैन इस काम कि देख रेख करते हैं, तब मालिक क्या करते हैं?

मजदूर- कुछ नहीं करते व्यर्थ समय गँवाते हैं.

रचारक- अगर यहाँ से चाँद के लिये कोई रेलगाड़ी होती, तो हम वहाँ सारे मालिकों को बिना वापसी की टिकट दिये भेज देते और फिर भी तुम्हारी बुनाई तुम्हारी पत्नी कि कताई और तुम्हारे बेटे कि ढलाई का काम पहले जैसा ही चलता रहता. क्या तुम जानते हो कि पिछले साल तुम्हारे मालिक ने कितना मुनाफा कमाया था?

मजदूर- हमने हिसाब लगाया था कि उसने कम से कम एक लाख फ्रांक कमाये थे.

प्रचारक- कितने मजदूर उसके यहाँ काम करते हैं- औरत, मर्द और बच्चों को मिलाकर?

मजदूर- एक सौ.

प्रचारक- वे कितनी मजदूरी पाते हैं?

मजदूर– प्रबंधक और फोरमैन के वेतन मिलाकर औसतन लगभग एक लाख फ्रांक सालाना.

प्रचारक- यानी की सौ मजदूर सारे मिलकर एक लाख फ्रांक वेतन पाते हैं, जो सिर्फ उन्हें भूख से न मरने के लिये ही काफी होता है. ज़बकि तुम्हारे मालिक की जेब में एक लाख फ्रांक चले जाते हैं और वह भी बिना कुछ काम किये. वे एक लाख फ्रांक कहाँ से आते हैं?

मजदूर- आसमान से तो नहीं आते हैं. मैंने कभी फ्रांक की बारिश होते तो देखी नहीं है.

प्रचारक- यह मजदूर ही हैं जो उसकी कंपनी में एक लाख फ्रांक का उत्पादन करते हैं जिसे वे अपने वेतन के रूप में लेते हैं और मालिक जो एक लाख फ्रांक का मुनाफा पाते हैं जिसमें से कुछ फ्रांक वे नयी मशीने खरीदने में लगाता है वह भी मजदूरों की ही कमाई है.

मजदूर- इसे नाकारा नहीं ज़ा सकता.

प्रचारक- तब तो यह तय है कि मजदूर ही उस पैसे का उत्पादन करता है, जिसे मालिक नयी मशीनें खरीदने में लगाता है. तुमसे काम करवाने वाले प्रबंधक और फोरमेंन भी तुम्हारी ही तरह वेतनभोगी गुलाम हैं जो इस उत्पादन कि देख-रेख करते हैं. तब मालिक कि क्या ज़रूरत है? वह किस काम का है?

मजदूर- मजदूरों का शोषण करने के लिये.

प्रचारक- ऐसा कहो कि मजदूरों को लूटने के लिये, यह कहीं ज्यादा साफ़ और ज्यादा सटीक है.

( अनुवाद- स्वाति / शशि )

Thursday, October 24, 2013

आलोचनात्मक नजरिया के बारे में --बर्तोल्त ब्रेख्त


bartolt brekht


आलोचनात्मक नजरिया

बहुतेरे लोगों को निष्फल जान पड़ता है

क्योंकि लगता है उन्हें

कि सरकार पर कोई असर नहीं होता

उनकी आलोचना का.

मगर इस मामले में जो निष्फल नजरिया है

वह तो महज नज़रिए का कमज़ोर होना है.

आलोचना को धारदार बनाओ

तो इसके ज़रिये

धूल में मिलायी जा सकती हैं राजसत्ताएं.


नदियों की धारा मोड़ना

फलदार पेड़ों की कलम बाँधना

किसी व्यक्ति को पढ़ाना

राजसत्ता का रूपांतरण

ये सब उदहारण हैं आलोचनात्मक नजरिये के

और साथ ही साथ कला के भी.

(अनुवाद- दिगम्बर)

Monday, October 7, 2013

लू शुन की दो गद्य कविताएँ

(विश्व साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर लू शुन ने सृजानात्मक लेखन की तुलना में ज़नोन्मुख लेखकों की नयी पीढ़ी तैयार करने और सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को अधिक महत्त्व दिया. पिछड़े हुए चीनी समाज के लिए यह ऐतिहासिक दायित्व स्वतंत्र लेखन से कहीं अधिक महत्व रखता था. इस कलम के सिपाही ने साहित्यिक लेख, व्यंग्य, लघु कथाएँ, कहानियाँ, समीक्षात्मक लेख और ऐतिहासिक उपन्यास के साथ-साथ गद्य कवितायेँ भी लिखीं. उनकी गद्य कविताओं का संकलन ‘वाइल्ड ग्रास’ नाम से प्रकाशित हुआ है. 1924 से 1926 के बीच लिखी गयी इन गद्य कविताओं साम्राज्यवाद और उत्तरी युद्ध सरदारों के खिलाफ प्रतिरोध और दमन की अभिव्यन्ज़ना सांकेतिक और अमूर्त शैली में की गयी है. इसका कारण शायद यह रहा हो कि उस समय साहित्य को कठोर सेंसर से गुज़ारना होता था.

इन गद्य कविताओं में ऊपर-ऊपर देखने पर निराशा और भयावहता की झलक मिल सकती है, लेकिन इन प्रतीकात्मक कविताओं के विविध रंग हैं. इनमें स्वप्न का सृज़न है जिनमें दु:स्वप्न भी शामिल हैं. यहाँ कुत्ते से वार्तालाप है, कीड़ों कि भिनभिनाहट है और इंसानों की नज़र से खुद को छिपाने की कोशिश करता आकाश है. समाज के ढोंग-पाखंड, निष्क्रियता, हताशा और ठहराव पर विक्षुब्ध टिप्पणी है जो मुखर नहीं है.

‘वाइल्ड ग्रास’ की भूमिका में लू शुन ने लिखा है- “धरती के भीतर तीव्र वेग से जो अग्नि-मंथन हो रहा है, उस का लावा जब सतह पर आएगा, तो वह सभी जंगली घासों और गहराई से धंसे विष-वृक्षों को जला कर खाक कर देगा, ताकि सडान्ध पैदा करनेवाली कोई चीज़ न रह जाय.”)

lu shun

भिखमँगे

मैं एक पुरानी-धुरानी, ऊँची दिवार के बगल से गुजर रहा हूँ, बारीक धूल में पैर घिसटते हुए. कई दूसरे लोग भी अकेले टहल रहे हैं. हवा का एक झोंका आया और दीवार के ऊपर से झांकते ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की डालियाँ, जिनके पत्ते अभी झड़े नहीं हैं, मेरे सिर के ऊपर हिल रही हैं.
हवा का एक झोंका आया और हर जगह धूल ही धूल.
एक बच्चा मुझ से भीख माँग रहा हैं. वह दूसरे लोगों की तरह ही धारीदार कपड़े पहने हुए है और देखने से दुखी भी नहीं लगता , फिर भी वह रास्ता रोक कर मेरे आगे सिर झुकाता हैं और मेरे पीछे-पीछे चलता हुआ रिरियाता है.
मैं उसकी आवाज, उसके तौर-तरीके को नापसंद करता हूँ. उसमें उदासी का ना होना मेरे अन्दर घृणा पैदा करता है, जैसे यह कोई चाल हो. जिस तरह वह मेरा पीछा करते हुए रिरिया रहा है, उससे मेरे मन में जुगुप्सा पैदा हो रही है.
मैं चलता रहा. कई दूसरे लोग भी अकेले टहल रहे हैं. हवा का एक झोंका आया और हर जगह धूल ही धूल.
एक बच्चा मुझसे भीख माँग रहा है. वह दूसरे लोगों की तरह ही धारीदार कपडे पहने हुए है और देखने से दुखी नही लगता, लेकिन वह गूँगा है. वह गूँगे की तरह मेरी ओर हाथ फैलाता है.
मैं उसके गूँगेपन के इस दिखावे को नापसंद करता हूँ. हो सकता है कि वह गूँगा न हो, यह केवल भीख माँगने का उसका जरिया हो सकता है.
मैं उसे भीख नहीं देता. मुझे भीख देने की इचछा नहीं है. मैं भीख देने वालों से परे हूँ. उसके लिए मेरे मन में जुगुप्सा, संदेह और घृणा है.
मैं एक ढही हुई मिटटी की दीवार के बगल से गुजर रहा हूँ. बीच की जगह में टूटी हुई ईंटों की ढेर लगी है और दीवार के आगे कुछ नहीं है. हवा का एक झौंका आया आता है, मेरे धारीदार चोंगे के भीतर पतझड़ की सिहरन भर जाती है, और हर जगह धूल ही धूल है.
मुझे उत्सुकता होती है कि भीख माँगने के लिए मुझे क्या तरीका अपनाना चाहिए. मुझे कैसी आवाज में बोलना चाहिए? अगर मैं गूँगा होने का दिखावा करूँ तो मुझे गूँगापन कैसे प्रदर्शित करना चाहिए? ___
कई दूसरे लोग अकेले टहल रहे है .
मुझे भीख नहीं मिलेगी, भीख देने की इच्छा तक हासिल नहीं होगी. जो लोग खुद को भीख देने वालों से परे मानते हैं उनकी जुगुप्सा, संदेह और घृणा ही मिलेगी मुझे.
मैं निष्क्रियता और चुप्पी धारण किये भीख मागूँगा ...
अंततः मुझे शून्यता हासिल होगी.
हवा का एक झोंका आता है और हर जगह धूल ही धूल. कई दूसरे लोग अकेले टहल रहे हैं.
धूल, धूल ...
..................
धूल ...

लेखन-काल 24 सितम्बर, 1924

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

परछाईं का अवकाश ग्रहण

जब आप एक ऐसे समय तक सोते हैं जब आप को समय का अता-पता ही न चले, तब आपकी परछाईं इन शब्दों में अवकाश लेने आयेगी –
“कोई चीज है जिसके मैं स्वर्ग से नफरत करती हूँ, मैं वहाँ जाना नहीं चाहती. कोई चीज है जिसके चलते मैं नरक से नफरत करती हूँ, मैं वहाँ जाना नहीं चाहती. कोई चीज है आपके भविष्य की सुनहरी दुनिया में जिससे मैं नफरत करती हूँ, मैं वहाँ नहीं जाना चाहती.
“हालाँकि यह आप ही हो, जिससे मैं नफरत करती हूँ.”
“दोस्त, अब और तुम्हारा अनुसरण नहीं करूँगी, मैं रुकना नहीं चाहती.
“मैं नहीं चाहती!
“ओह, नहीं! मैं नहीं चाहती. इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं शून्य में भटकूँ.
मैं तो केवल एक परछाईं हूँ. मैं तुम्हें त्याग दूँगी और अन्धेरे में डूब जाऊँगी. फिर वह अन्धेरा हमें निगल लेगा, और रोशनी भी मुझे गायब कर देगी.
“लेकिन मैं रोशनी और छाया के बीच भटकना नहीं चाहती, इससे तो कहीं अच्छा कि मैं अन्धेरे में डूब जाऊं.
“फिर भी अब तक मैं रोशनी और छाया के बीच ही मँडरा रही हूँ, अनिश्चय में कि अभी साँझ हुई या भोर. मैं तो बस अपने धूसर-भूरे हाथ उठा सकती हूँ जैसे शराब की एक प्याली खत्म करनी हो. जिस समय मुझे समय का अता-पता नहीं रह जाएगा, तब मैं दूर तक अकेली ही चली जाऊँगी.
“हाय! अगर अभी साँझ हुई है, तो काली रात मुझे पक्के तौर पर घेर लेगी या मैं दिन के उजाले में लुप्त कर दी जाऊँगी अगर अभी भोर हुई है.
“दोस्त, समय अभी हाथ में है.
“मैं शून्यता में भटकने के लिए अन्धेरे में प्रवेश करने जा रही हूँ .
“अभी भी आप हमसे कोई उपहार की उम्मीद रखते हैं. मेरे पास देने के लिए है ही क्या? अगर आप जिद करेंगे तो आपको वही अन्धेरा और शून्यता हासिल होगी. लेकिन मैं चाहूँगी कि केवल अन्धेरा ही मिले जो आपके दिन के उजाले में गायब हो सके. मैं चाहूँगी कि यह केवल शून्यता हो, जो आपके हृदय को कभी भी काबू में नहीं रखेगी.
“मैं यही चाहती हूँ, दोस्त –
“दूर, बहुत दूर, एक ऐसे अन्धेरे में जाना जिससे न केवल तुम्हें, बल्कि दूसरी परछाइयों को भी निकाल बाहर किया जाय. वहाँ सिर्फ मैं रहूँगी अन्धेरे में डूबी हुई. वह दुनिया पूरी तरह मेरी होगी.”

लेखन-काल 24 सित. 1924

(अनुवाद – दिगम्बर)