Thursday, July 26, 2012

मरुति हिंसा के साये में, होंडा मजदूरों पर पुलिस हमले की यादें


(होंडा स्कूटर्स एंड मोटरसायकिल्स के मजदूर मानेसर स्थित  फैक्टरी में एकत्र हो कर सत् साल पहले अपने ऊपर हुई लाठीचार्ज की याद में सभा करते हुए. फोटो- पीटीआई )
 

-अमन सेठी 
(‘द हिंदू’ में 26 जुलाई को प्रकाशित अमन सेठी की यह संक्षिप्त रपट मानेसर औद्योगिक क्षेत्र की ताजा घटनाओं को समझने के लिए एक अंतर्दृष्टि देती है. ‘द हिंदू’ के प्रति आभार सहित अनूदित और प्रकाशित.)
सात साल पहले विक्रम सिंह मानेसर (हरियाणा) स्थित होंडाफैक्टरी के लगभग 800 मजदूरों की भीड़ में शामिल था, जब पुलिस द्वारा उन्हें चारों ओर से घेर कर उनकी पिटाई की गयी थी. “हमारी मांगें थीं कि मैनेजमेंट हमारी यूनियन को मान्यता दे और जिन मजदूरों को आन्दोलन के दौरान निलंबित या निष्कासित किया गया है, उनको बहाल किया जाय. प्रशासन द्वारा हमें मिनी-सेक्रेटेरियट बुलाया गया था और उसी वक्त हमें चारों ओर से घेर कर पीटा गया था.
आज, उस हमले की सातवीं वर्षगांठ मनाने के लिए 8000 मजदूर होंडा फैक्टरी में इकठ्ठा हुए. इसके पास में ही मारुती सुजुकी फैक्टरी है. यह आयोजन हाल ही में उस फैक्टरी में हुई हिंसक घटनाओं की पृष्ठभूमि में हुआ, जिसमें एक जेनरल मैनेजर की मौत हो गयी थी और कई अन्य मैनेजर घायल हुए थे.
स्थानीय और राष्ट्रीय यूनियनों के नेताओं ने अपने भाषण में मारुती में हुई हिंसा पर चिंता व्यक्त की, लेकिन उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि मजदूरों की जायज शिकायतें हैं जिनको अमूमन नजरंदाज किया जाता है. होंडा वर्कर यूनियन के अशोक यादव ने कहा कि “यह बात सभी को याद रखनी चाहिए कि हम अपने पेट की भूख की वजह से ही संघर्ष करते हैं.”
होंडा मजदूरों की यह सभा खास तौर पर इसलिए महत्वपूर्ण है कि आसपास के गावों की “महापंचायत” ने मारुती और होंडा जैसी कंपनियों का समर्थन करने का बीड़ा उठाया था और मजदूर यूनियनों से लड़ने की कसम खाई थी.
सोमवार को पंचायत के नेता जिनको मारुती और होंडा जैसी कंपनियों में ट्रांसपोर्ट और दूसरे सहायक कामों का ठेका मिला हुआ है, पिछले हफ्ते हुई हिंसक वारदात के चलते मानेसर से बड़ी मैनुफैक्चरिंग कंपनियों के भाग जाने को लेकर अपनी परेशानी का इजहार किया था और यह धमकी दी थी कि जरुरत पड़ने पर वे होंडा मजदूरों की सभा को जबरन रोकेंगे.
ऐसा लगता है कि आज की सुबह मजदूर यूनियन, पंचायत और स्थानीय पुलिस के बीच इस बात पर सुलह-समझौता हो गया कि यूनियन जुलूस नहीं निकालेगी, लेकिन फैक्टरी के भीतर मजदूरों की सभा करेगी.
सीटू के नेता सतबीर ने कहा कि “हम मजदूर अपनी जमीन से उजड़े हुए किसानों के बच्चे हैं और यह बहुत ही दुखद है कि निहित स्वार्थ के चलते कुछ लोग मजदूरों और किसानों में फूट डालने की कोशिश कर रहे हैं.”
सभा के बाद बात करते हुए मजदूरों ने पिछले सात साल के दौरान अपने यूनियन की सफलता-असफलता का लेखाजोखा लिया. उन्होंने बताया कि मजदूरी को लेकर जो भी समझौता वार्ता और समाधान हुआ, वह तो संतोषजनक रहा, लेकिन पुलिस के हमले के बाद जिन 63 मजदूरों के ऊपर हत्या का प्रयास और दंगा-फसाद जैसे झूठे मुक़दमें लाद दिए गए थे, वे आज भी उन इल्जामात से जूझ रहे हैं.
विक्रम सिंह ने कहा कि “सात साल हो गए, लेकिन आज तक एक भी मैनेजर या पुलिस वाले पर हम लोगों के ऊपर हमला करने का मुकदमा दर्ज नहीं किया गया. उल्टे हम लोग ही हत्या के इल्जाम का सामना कर रहे हैं और हर महीने अदालत में हाजिर हो रहे हैं.”

Wednesday, July 25, 2012

दिमागी बुखार: बच्चों को या इस व्यवस्था को



-डॉ. नवनीत किशोर 

हर साल की तरह इस साल भी देश के कई राज्यों में मासूम बच्चे एक-एक करके दिमागी बुखार की चपेट में आकर दम तोड़ रहे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और असम के कई जिलों के मासूम बच्चे दिमागी बुखार के कारण मौत को गले लगा चुके हैं, दुःखद यह है कि ये सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है


बिहार के अपर स्वास्थ्य सचिव के अनुसार अब तक लगभग 600 बच्चे दिमागी बुखार की चपेट में आ चुके हैं तथा इनमें से 233 मौत की नींद सो चुके है। सभी मामले बिहार के 10 जिलों के हैं। कुल मौतों में से 163 मौत अकेले जिला मुजफ्फरपुर में हुई हैं, बाकि ज्यादातर पटना और गया जिलों में हुई हैं।

असम में कुल 50 बच्चों की मौत हो चुकी है। अकेले सिबसागर जिले में 22 मौतें हो चुकी हैं।, असम के अन्य प्रभावित जिले शिव सागर, डुबरी, मोरीगाँव, दारंग व नालवाड़ी है।

एक साथ इतने सारे मासूम बच्चों की मौतें दिल को दहलाती तो हैं ही, साथ ही कई सारे सवाल भी खड़े करती हैं-

1. क्या इतनी सारी मौतों को रोका जा सकता था।
2. क्या नैनो टेक्नोलॉजी और गॉड पार्टीकल की खोज करने वाला विज्ञान इसके समाधान में असमर्थ है।
3. क्या दिमागी बुखार से मुक्ति पाना मानवीय सीमाओं से परे है।

जवाब है? नहीं, कतई नहीं।

आज का विज्ञान इस बिमारी के फैलने के कारणों और उसे रोकने के तरीकों से अच्छी तरह वाकिफ है। विज्ञान के पास इस बिमारी से लड़ने के पर्याप्त हथियार भी हैं। हमारे पास इस बिमारी की समझ तो पर्याप्त है, लेकिन कमी कुछ है तो  इसे व्यापक पैमाने पर लागू करने की इच्छाशक्ति की है, जिसका इस व्यवस्था के हृदयहीन संचालकों में नितान्त अभाव है।

आज वैज्ञानिकों ने इस बिमारी से बचने के लिए टीका तो विकसित कर लिया है, लेकिन आम जनता की आर्थिक-सामाजिक हैसियत और सरकारी पहलकदमी के अभाव में यह टीका आम जन तक समय पर नहीं पहुँच पाता। पिछले साल असम में यह टीका टीकाकरण के माध्यम से जनता के पास पहुँचाने का प्रयास तो किया गया, लेकिन यह प्रयास भी आधे-अधूरे ही रह गये। बिहार और उत्तर प्रदेश में तो इस तरह का नाममात्रा का दिखावा भी नहीं किया गया।

ध्यान देने लायक बात यह है कि चीन, जापान, कोरिया, ताईवान, वियतनाम और कम्बोडिया आदि देशों में इसी टीके के दम पर दिमागी बुखार को बहुत हद तक नियंत्रिते किया गया है। आपात स्थिति में बच्चों व सुअरों को टीकाकरण करना नितान्त आवश्यक होता है। गौरतलब है कि यह बिमारी मुख्यतः गरीब तबके के बच्चों को ही प्रभावित करती है, जो लोग इस टीके का खर्च वहन नहीं कर सकते हैं।

यह काम बिना सरकारी प्रयास के असम्भवप्राय है। हमारी सरकार के पास 100 पूँजीपतियों को बचाने के लिए 5 लाख करोड़ से ज्यादा रुपये तो हैं, लेकिन गरीब जनता को देने के नाम पर सरकार छाती पीट-पीट कर खुद को दिवालिया बताती है।

यह बिमारी क्यूलैक्स नामक मच्छर से फैलती है। जब वे मच्छर संक्रमित सुअर को काटते हैं तो स्वयं संक्रमित होकर किसी भी व्यक्ति को काटकर उसे संक्रमित कर देते है। एक बार बिमारी होने पर इसका इलाज बेहद मुश्किल होता है, लेकिन इससे बचाव करना तथा फैलने से रोकना कठिन नहीं है।

इस बिमारी को फैलने से दो तरीकों से रोका जा सकता है। पहला, मच्छर के काटने से बचाव करके और दूसरा, मच्छर व उसके अण्डों को नष्ट करके।

जल जमाव को रोक कर, मच्छरों के पनपने के स्थानों को नष्ट किया जा सकता है, लेकिन चप्पे-चप्पे पर जाकर जल भराव को सरकार स्वयं नष्ट नहीं करती है और जो व्यवस्था आम जन तक शिक्षा नहीं पहुँचा पायी, वह जटिल बिमारियों से लड़ने की जागृति और चेतना कहाँ से दे सकती है।

प्रभावित क्षेत्रों में समय रहते बड़े पैमाने पर फॉगिंग व अन्य दवाओं का छिड़काव किया जाना चाहिए। मगर आपदा आने के बाद ही सरकार की नींद टूटती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। चूँकि यह मच्छर घरों के बाहर खेतों और गड्ढों में पनपता हैं, तो महामारी की स्थिति से हैलीकॉप्टर आदि से भी छिड़काव किया जाना चाहिए, लेकिन हमारे देश में हैलीकॉप्टर से नेताओं की सेन्डिल लाने का खर्च तो वहन किया जा सकता है, गरीब बच्चों को बचाने के नाम पर यह बेहद खर्चीला कार्यक्रम हो जाता है।

सुअरों के बड़े की 2 किमी की परिधि में फॉगिंग नितान्त आवश्यक होती है। संक्रमित सुअरों के मालिकों को उचित मुआवजा देने के बाद सुअरों को नष्ट किया जाना चाहिये, लेकिन मुआवजा (बेल आउट पैकेज) तो हमारे देश में सिर्फ उद्योगपतियों को ही दिया जाता है।

मच्छरों से निजी सुरक्षा के लिए ऊँचे जूते, पूरे तन को ढकने वाले कपड़े, मच्छर रोधी उपकरण (और मच्छर भगाने वाले साधन) का प्रयोग करना चाहिए। माहमारी फैलने के समय तो सरकार कागजोन में दवायुक्त मच्छरदानी भी सर्वजन को वितरित करती है।

विज्ञान कहता है कि सूअर पालन में लगे लोगों को व उनके परिवार के लोगों को ऊँचे जूते, मास्क, चश्मा, पूरे बदन को ढकने वाले कपडे़ पहन कर रखना चाहिए। यह तो इस देश का बच्चा भी जानता है कि कम आर्थिक हैसियत वाले इन लोगों को इस तरह का सुझाव देना भी उनका मजाक उड़ाना है।

कुल मिलाकर इस बिमारी का महत्त्व वैज्ञानिक कमआर्थिक व सामाजिक अधिक है। यह बिमारी गरीब लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करती है, इसलिए व्यवस्था के नुमाइन्दे इससे प्रायः मुँह मोडे़ रहते हैं। दिल्ली में डेंगू और स्वाइन फ्लू पर जितना बवाल मचता है और जितनी मुस्तैदी दिखायी जाती है वह इन मासूमों की मौत पर कहीं नजर नहीं आती। हर साल हजारों की संख्या में दिमागी बुखार से गरीबों के बच्चे मर रहे हैं, फिर भी यह देश की कोई खास समस्या नहीं है। चूंकि यह समस्या सामाजिक, आर्थिक, विषमता की जमीन पर ही पनपती है, इसलिए इस गैरबराबरी को समाप्त किये बिना इस समस्या और ऐसी ही तमाम समस्याओं का भी समाधान असम्भव है।

यह समझना आवश्यक है कि सामाजिक गैरबराबरी की जड़ भी आर्थिक गैरबराबरी में होती है। गैरबराबरी वाले समाज में गरीब तबके के लोगों की उपेक्षा होना लाजमी है। दिमागी बुखार के अलावा निचले तत्व में फैलने वाली अन्य सभी बिमारियों के खिलाफ संघर्ष इस गैरबराबरी वाली व्यवस्था को नष्ट करने के लिए निर्णायक संघर्ष का ही एक जरूरी हिस्सा है।

Saturday, July 21, 2012

हिग्स बोसोन की खोज के बारे में कैसे समझाया जाय?

हिग्स मॉडल की व्याख्या करते प्रोफ़ेसर पिटर हिग्स - इस तरह नहीं समझाना है 

जिसे देखो वही ‘गौड पार्टिकिल’ के बारे में बतिया रहा है- लेकिन कोई आप से पूछ ले कि इसको खोल के समझाइये, तो? यह इस पर निर्भर है कि वह भौतिकी का शुरुआती छात्र है या कोई धार्मिक कट्टरपंथी. चाहें तो मेरे तजुर्बे को आजमा के देखें.
सर्न लैब में हिग्स बोसोन की संभावित खोज जाहिरा तौर पार इस ब्रह्माण्ड के बारे में हमारी समझदारी को बढ़ानेवाली है, लेकिन एक आम आदमी को, किसी बच्चे को या किसी बेवकूफ को हिग्स बोसोन के बारे में किस तरह समझाया जाय? काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप किससे बात कर रहे हैं और वे क्या सुनना पसंद करते हैं. तो आजमाइए इस आसान नुस्खे को, जिसमें कुछ चुनिन्दा ब्योरे भी दिए गए हैं-
जिस शख्स पर आप अपना रोब जमाना चाहते हैं-
“हिग्स बोसोन आँखों से नहीं दिखनेवाला एक मूलभूत कण है जिसे पहली बार 1962 में इस बात की स्वीकृति मिली कि यह एक ऐसी क्रियाविधि का संभावित उपउत्पाद है जिसके जरिये एक कल्पित, सर्वब्यापी क्वांटम क्षेत्र- तथाकथित हिग्स क्षेत्र, प्राथमिक कणों को भार प्रदान करता है. और ठोस तरीके से कहा जाय तो कण भौतिकी के आदर्श मॉडल में, हिग्स बोसोन का अस्तित्व इस बात की व्याख्या करता है कि प्रकृति में विद्युत-दुर्बल समरूपता का स्वतः विखंडन कैसे होता है.”

परेशानहाल माँ-बाप के लिए जिन्हें नींद न आती हो-
अगर मान लें कि पदार्थ के घटक अंश चिपचिपे चहरेवाले बच्चे हैं, तो हिग्स क्षेत्र किसी विशाल शौपिंग मॉल में बच्चों के खेलनेवाली जगह में बना गेंद का गड्ढा है. प्लास्टिक का हरएक रंगीन गेंद एक हिग्स बोसोन है- ये सारे मिलकर उस फिसलन के लिए रूकावट का काम करते हैं जो आप के बच्चे, यानी इलेक्ट्रोन को ब्रह्माण्ड की उस तलहटी में गिर जाने से रोकते हैं, जहाँ ढेर सारे सांप और चमड़ी में चुभनेवाली सुइयाँ हैं.

अंग्रेजी पढने वाले इंटर के छात्रों के लिए-
“हिग्स बोसोन (सही उच्चारण “बोट्सवेन”) एक प्रकार का उप-परमाणविक विराम चिन्ह है जिसका वजन अमूमन अर्ध-विराम और अल्प-विराम के बीच का होता है. इसके बिना ब्रह्माण्ड एक अर्थहीन बडबडाहट बन कर रह जायेगा- अगर आपने पढ़ी हो तो कुछ-कुछ दा विन्सी कोड जैसा.”
     
एक किशोर के लिए जो भौतिकी की शुरुआती कक्षा में पढता हो-
“नहीं, मुझे पता है कि यह परमाणु नहीं है. मैंने कब कहा था कि यह परमाणु है. बिलकुल, मेरा अभिप्राय कण से है. हाँ, मुझे पता है कि विद्युतचुम्बकत्व क्या होता है, बहुत बहुत धन्यवाद- एकीकृत बल, आइंस्टीन, बक बक बक, बेहिसाब भार, इत्यादि इत्यादि, क्वार्क, हिग्स बोसोन, अब बस. बहुत समय हो गया, और मैं थक भी गया. चैनल बदलो, कोई अच्छा सीरियल देखते हैं.”

टैक्स घटाओ आन्दोलन के सदस्यों के लिए-
“यह खोज एक विराट, अभूतपूर्व, लगभग असीम बर्बादी है पैसे की.”

मोटर गाड़ी की पिछली सीट पार बैठे एक बच्चे के लिए-
“यह एक कण है जिसे कुछ वैज्ञानिक ढूँढ रहे थे. क्योंकि उन्हें पता था कि इसके बिना ब्रह्माण्ड संभव नहीं होगा. क्योंकि इसके बिना, ब्रह्माण्ड के दूसरे कणों भर ही नहीं होगा. क्योंकि तब वे सभी कण फोटोन की तरह ही प्रकाश के वेग से चलते रहेंगे. क्योंकि मैंने कहा नहीं कि वे चलते रहेंगे, और अगर तुमने फिर पूछा कि ‘क्यों?’ तो हमलोग इन बातों के चक्कर में उस मिठाई की दुकान से फिर आगे निकल जायेंगे.”

धार्मिक कट्टरपंथियों के लिए-
“हिग्स बोसोन कुछ नहीं होता.”

(नोट- लेखक अगर भारत के हालात से वाकिफ होते तो इस में यहाँ के अखबारवालों, टीवी चैनलवालों, भारतीय संस्कृति के स्वघोषित रक्षकों, अतीत-व्याकुल – वेद-व्याकुल जनों के लिए भी कुछ  नुस्खे जरूर सुझाते.) 



(गार्जियन में प्रकाशित रचना का आभार सहित अनुवाद.)

Friday, July 20, 2012

देश में बच्चों के कुपोषण और मौत की भयावह तस्वीर

हाल ही में हंगर एंड मालन्युट्रिशननाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसमें बताया गया है कि हर साल लगभग १६ लाख बच्चे जन्म के कुछ ही समय बाद मर जाते हैं. दो साल से कम उम्र के पचास फीसदी बच्चे कुपोषित हैं.

छह राज्यों के बच्चों का सर्वे करके नन्दी फाउंडेशन द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में छह वर्ष से कम आयु के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है और 50 प्रतिशत बच्चे गंभीर बीमारियों का शिकार होते हैं. समस्या की गंभीरता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत के आठ राज्यों में जितने बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, उतने अफ्रीका और सहारा उपमहाद्वीप के ग़रीब से ग़रीब देशों में भी नहीं हैं.

देश के संपन्न राज्यों में से एक, महाराष्ट्र में जनवरी 2012 में दस लाख 67 हजार 659 बच्चे कुपोषित थे और मई 2012 तक इनमें से 24 हजार 365 बच्चों की मौत हो गयी थी.

रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के नंदूरबार जिले में पिछले साल 49 हजार, नासिक में एक लाख, मेलघाट में चालीस हजार, औरंगाबाद में 53 हजार, पुणे जैसे सम्पन्न शहर में 61 हजार और मराठवाड़ा में 24 हजार बच्चे कुपोषण के शिकार हुए.

मुंबई के अस्पतालों में हर रोज 100 से ज्यादा कुपोषण के शिकार बच्चे भर्ती हो रहे हैं, जिनमें से 40 फीसदी की मौत हो जाती है. सिर्फ मुंबई में ही साल भर में 48 हजार बच्चे कुपोषण का शिकार हुए हैं.

समूचे महाराष्ट्र की स्थिति यह है कि जनवरी 2012 में दस लाख 67 हजार 659 बच्चे कुपोषण का शिकार थे और मई 2012 तक इनमें से 24 हजार 365 बच्चों की मौत हो गयी थी.



भूख और कुपोषण संबंधी एक रिपोर्ट जारी करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले साल कुपोषण की समस्या को देश के लिए शर्मनाक बताया था. घडियाली आँसू बहाए जाने के एक साल बाद जारी इस रिपोर्ट के आँकड़े, दिनों दिन बदतर होते हालात की ओर इशारा करते हैं.



इन दिल दहला देने वाली सच्चाइयों का हमारे देश के निर्मम शासकों पर कोई असर नहीं होता. विकास के जिस अमानुषिक रास्ते पर वे देश को घसीट रहे हैं, उसमें यहाँ की हालात सोमालिया से भी बदतर होना तय है. इसी भयावह सम्भावना की एक झलक इस रिपोर्ट में दिखती है.

Wednesday, July 18, 2012

बीस दिन में अमरीका के तीन शहर दिवालिया



अमरीकी चौधराहट वाली इस नयी विश्व व्यवस्था का कमाल देखिये- भारत में “गाँव बिकाऊ है” का बोर्ड टंग रहा है और अमरीका में “शहर दिवालिया है” की गुहार लग रही है.
पिछले तीन हफ्तों में अमरीका के इस तीसरे शहर- सान बर्नाडीनो की परिषद ने शहर के दिवालिया होने की घोषणा की है. यह हाल है अमरीका के सबसे धनी प्रान्त कैलिफोर्निया का. इससे पहले पिछले तीन हफ्तों में स्टॉकटन और मैमथ लेक्स शहर दिवालिया होने की घोषणा कर चुके हैं.
अमरीका में वित्तीय मंदी की बुरी हालत का इजहार करते हुए साँ बर्नाडीनो की परिषद ने बहुमत से फैसला लेकर दिवालिया होने की घोषणा और सरकारी संरक्षण पाने के लिए अनुरोध किया है.
इस दिवालिया होनेवाले शहर में लगभग 210,000 निवासी है और शहरी परिषद का बजट घाटा लगभग 4.6 करोड़ डॉलर है.
अधिकारियों ने चेतावनी दी थी कि परिषद शायद इस साल गर्मियों में अपने कर्मचारियों को वेतन भी न दे सके.
लॉस एजिलिस से 60 किलोमीटर पूर्व में स्थित सान बर्नाडीनो पर अमरीकी गृह ऋण संकट का खासा असर हुआ है. वहाँ के 5000 घरों पर कब्जा करना पड़ा, क्योंकि उनके मालिक कर्ज नहीं चुका पाए थे. शहर में बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत आठ प्रतिशत के मुकाबले में 16 प्रतिशत है.
दिवालियेपन की इस लहर के पीछे अमरीका का लाइलाज आर्थिक संकट है. आनेवाला समय वहाँ से ऐसी ही बुरी-बुरी खबरें लाने वाला है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने हाल ही में कहा था कि वह अमरीकी अर्थव्यवस्था में विकास दर के पूर्वानुमान को 2.1 से घटाकर 2 प्रतिशत कर रहा है.
जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बैंकों ने पूरी दुनिया को लूट-लूट कर तबाह किया है उनकी ही करतूत है कि भारत में “गाँव बिकाऊ है” का बोर्ड टंग रहा है और अमरीका में “शहर दिवालिया हो गया” का. तबाही का यह सिलसिला इजारेदार पूँजी के नाश के साथ ही खत्म होगा.


Sunday, July 15, 2012

सहमति, उम्र और संस्थाएं : नाबालिग विवाह पर एक चिंतन - फ्लाविया एग्नेस



(हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायलय ने अपने एक फैसले में एक नाबालिग (लगभग १६ साल की) लड़की को वापस उसके माँ-बाप की देख-रेख में सौंपने के बजाय उसे अपनी पसंद के लड़के से शादी करने की इज़ाज़त दे दी, इसने महिला संगठनों और समाज के अन्य जागरूक लोगों के बीच तीखे मतभेद और वादविवाद को जन्म दिया. प्रस्तुत है, इस विषय में मशहूर वकील और महिला आन्दोलन की सक्रिय कार्यकर्ता फ्लाविया एग्नेस का यह आलेख. फ्लेविया की आपबीती- परवाज हिंदी में प्रकाशित हुई और काफी पसंद की गयी. इस मूल अंग्रेजी लेख को काफिला डॉट ऑर्ग से आभार सहित लेकर अनूदित किया गया है.)    

मैं कुछ महिला संगठनों और विशेष रूप से भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) के द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले की भर्त्सना के लिये बुलाये गये प्रेस सम्मेलन में उनके द्वारा जतायी गयी निराशा की भावना पर प्रतिक्रिया दे रही हूँ, जिसमें एक नाबालिग (लगभग १६-साल की) लड़की को वापस उसके माँ-बाप की देख-रेख में सौंपने के बजाय उसे अपनी पसंद के लड़के से शादी करने की इज़ाज़त दे दी गयी. मुस्लिम कानून को संहिताबद्ध करने के अपने अभियान के तहत, बीएमएमए ने लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु १८ साल (और लड़कों के लिये २१ साल) तय करने के लिये कहा है, इसमें यह धारणा  अंतर्निहित है कि कम उम्र की सभी शादियों को रद्द कर देना चाहिये.

इससे पहले की हम मिडिया द्वारा फैलाये गये इस अनर्गल प्रचार पर बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया दें और इसके बहकावे में आ जायें, हमें इस बात पर स्पष्ट राय कायम करनी चाहिये कि माँ-बाप के अधिकार और एक नाबालिग लड़की द्वारा अपनाये गए सक्रिय साधन के बीच संघर्ष में हम (नारीवादी) किसके पक्ष में खड़े हों. साथ ही मैं इससे जुड़ा एक और प्रश्न पूछना चाहती हूँ कि- यदि मुस्लिम कानून को संहिताबद्ध कर लिया जाय और शादी की न्यूनतम उम्र को नियमबद्ध कर लिया जाय, जैसा की हिंदू विवाह कानून के तहत किया जा चुका है, तब क्या उच्च न्यायालय इस पर अलग तरह से प्रतिक्रिया देता? क्या जज लड़की को उसके माँ-बाप के संरक्षण में वापस भेज देते? और एक अंतिम प्रश्न– तब क्या हमलोग, जो “नारीवादी” होने का दावा करते हैं, इसे एक “प्रगतिशील फैसला” मानते?  
   
अटकलें लगाने के बजाय, बुद्धिमानी इसी में है कि मैं अपनी बात के पक्ष में अलग-अलग उच्च न्यायलयों ने पिछले दशकों में जो फैसले दिये हैं, उनका हवाला पेश करूँ. इन मुकदमों के तथ्य इसी मुक़दमे से मिलते-जुलते हैं जिसे निंदनीय कहा जा रहा है. इस मामले में भी एक कमसिन लड़की अपने मनपसंद के लड़के के साथ चली गयी थी. लड़की के माता-पिता ने लड़के के खिलाफ बलात्कार/अपहरण या बंदी प्रत्यक्षीकरण का केस दर्ज करा दिया और उसे सिर्फ इस आधार पर गिरफ्तार करवा दिया कि लड़की की उम्र “सहमति की उम्र” या “शादी की उम्र,” दोनों में से जो भी सही बैठता हो, उससे कम है. जब लड़की को अदालत में पेश किया गया, तो उसने माँ-बाप के अधिकार को नकार दिया और इस बात का साक्ष्य दिया कि वह अपनी मर्जी से लड़के के साथ गयी और उसके साथ शादी की. उसकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए, अदालत ने बजाय उसे उसके माँ-बाप के हवाले करने के, उसे अपने पति/प्रेमी के साथ जाने की इजाजत दी. एकमात्र अंतर यही है कि उस केस में दोनों पक्ष के लोग हिंदू थे, मुस्लिम नहीं, जैसा की वर्तमान मामले में है. प्रस्तुत है ऐसे फैसलों में से कुछ की झलक-

जीतेन बोउरी बनाम पश्चिमी बंगाल सरकार में, [ii (२००३) डीएमसी ७७४] कलकत्ता, जब अल्पवयस्क लड़की को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपने पति के साथ रहने की इज़ाज़त दी, तब न्यायालय ने यह घोषणा की- “हालाँकि लड़की अभी व्यस्क नहीं हुयी है फिर भी वह अपना भला-बुरा समझने की विवेकशील उम्र तक पहुँच गयी है जो उसे संरक्षण देने  के लिये एक प्रमुख आधार है. भले ही हिंदू विवाह कानून के एस. ५(३) के नियम के तहत वह अभी शादी की उम्र तक नहीं पहुँची है परन्तु उम्र के इस उल्लंघन के चलते न तो शादी को अमान्य घोषित किया जा सकता है और न ही वह अमान्य किये जाने योग्य है .... लड़की ने इस बात पर जोर दिया है कि वह अपने पति के साथ रहना चाहती है और वह अपने पिता के घर वापस नहीं जाना चाहती.”

  माकेमाला सैलू बनाम पुलिस अधीक्षक नालगोंडा जिला केस में, [ii (२००६) डीएमसी ४ एपी], आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि वैसे तो बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून के तहत बाल विवाह एक अपराध है, फिर भी इस तरह की शादियाँ दोनों ही नियमों, बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून और साथ ही हिंदू विवाह कानून, के अंतर्गत अमान्य नहीं हैं. 

मनीष सिंह बनाम राज्य केस में, एनसीटी दिल्ली [i (२००६) डीएमसी १], दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि उम्र के उल्लंघन की वजह से विधिपूर्वक सम्पन्न की गयी शादियों को अमान्य घोषित नहीं किया जा सकता. न्यायालय ने टिप्पणी की- “यदि लगभग १७ साल की एक लड़की खुद को अपने माँ-बाप के हमले से बचाने के लिये उनके घर से भाग जाती है और अपने प्रेमी के पास आकर रहने लगती है या उसके साथ भाग जाती है, तब यह लड़की या लड़के की तरफ से किसी भी तरह का अपराध नहीं है.” लड़की ने यह साक्ष्य दिया कि उसने अपनी इच्छा से शादी की है और वह अपने पति के साथ रहना चाहती है. न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जब एक लड़का या लड़की विवेकशील उम्र तक पहुँच जाते हैं और अपने लिये एक जीवन साथी चुनते हैं तब नाबालिग होने के आधार पर शादी को अमान्य घोषित नहीं किया जा सकता और यदि एक नाबालिग लड़की भाग जाती है और वह अपने माँ-बाप की इच्छाओं के खिलाफ शादी कर लेती है, तो यह कोई अपराध नहीं है.

सुनील कुमार बनाम राज्य के मामले में, एनसीटी दिल्ली [i (२००७) डीएमसी ७८६], जहाँ पिता ने लड़की को गैरकानूनी तरीके से बंधक बनाया हुआ था, इसमें यह माना गया की- ““यदि लगभग १७ साल की एक लड़की खुद को अपने माँ-बाप के आक्रमण से बचाने के लिये उनके घर से भाग जाती है और अपने प्रेमी के पास आकर रहने लगती है या उसके साथ भाग जाती है, तब यह लड़की या लड़के की तरफ से किसी भी तरह का अपराध नहीं है.” लड़की अपने माँ-बाप के पास वापस जाने के लिये तैयार नहीं थी, क्योंकि वे किसी भी तरह के समझौते के लिये तैयार नहीं थे और उसके साथ सभी तरह के संबंध तोड़ देना चाहते थे. अल्पवयस्क लड़की को अपने पति के साथ रहने की इज़ाज़त दे दी गयी.

कोकुला सुरेश बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में, [i (२००९) डीएमसी ६४६], उच्च न्यायालय ने फिर से पुष्टि की कि १८ साल से कम उम्र की नाबालिग लड़की की शादी हिंदू विवाह कानून के तहत अमान्य घोषित नहीं की जा सकती और उसका पिता उसके संरक्षण का दावा नहीं कर सकता.

अशोक कुमार बनाम राज्य केस में, एनसीटी दिल्ली [i (२००९) डीएमसी १२०], पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि प्रेम विवाह करने वाले जोड़ों का पुलिस और रिश्तेदार पीछा करते हैं, जो अक्सर गुंडों को साथ लिये होते हैं और लड़के के खिलाफ बलात्कार और अपहरण के मुक़दमे दर्ज करवा दिये जाते हैं. कभी-२ जोड़ों को क़त्ल कर दिये जाने की धमकी का सामना करना पड़ता है और इस तरह की हत्याओं को “आनर किलिंग” कहा जाता है.
       
इन सभी शादियों को “भागकर की गयी शादी” का नाम दिया गया और इसलिये हमें इस शब्द की जांच करनी होगी जो उन शादियों के लिये इस्तेमाल होता है, जहाँ लड़की की शादी माँ-बाप की सहमति के बिना होती है. कभी-कभी लड़कियाँ शादी की स्वीकृत उम्र से छोटी होती हैं, और दूसरे मामलों में, बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून (सीएमआरए) के तहत राज्य की शक्ति का फायदा उठाने के लिये उनके माँ-बाप उन्हें नाबालिग की तरह पेश करते हैं. भाग कर की गयी शादियों पर बहस उन तरीकों को सामने लाती है जिनके जरिये पितृसत्ता के साथ जाति, समुदाय, क्षेत्र, धर्म जैसी विभिन्न सामाजिक अधीनताओं का मेलमिलाप होता है, ताकि विद्रोही युवा महिलाओं की यौन इच्छाओं को स्थापित सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार ढाला जा सके. महिलायें जो ऐसी प्रथाओं का विरोध करने के लिये सक्रिय उपायों का सहारा लेती हैं, वे स्थापित सामाजिक व्यवस्था के आगे चुनौती पेश करती हैं और इसलिये सहमति को तोड़मरोड़ कर उसे नए सिरे से परिभाषित करके उनको रोका जाता है. इस संवाद के दौरान, “सहमति” एक अलग ही आयाम ग्रहण कर लेती है और बजाय इसके कि महिलाएँ अपनी पसंद से जीवन साथी चुने, इसे सोंच-समझ कर फैसला लेने और माँ-बाप का भी कुछ हक है, जैसी मान्यताओं में जकड़ दिया जाता है.

इस तरह वे सभी फैसले जिनका ऊपर जिक्र किया गया है और साथ ही वह ताजा  फैसला जिसकी भर्त्सना करने की कोशिश की गयी, ये पुलिस को ऐसी मनमानी कार्रवाई करने से रोकते हैं जो महिलाओं को जबरन सरकारी संरक्षण में या वापस माँ-बाप के अधिकार में कैद कर देते है. ये फैसले निजी फैसलों के मामले में आज़ादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बारे में संवैधानिक सुरक्षा की उदारतापूर्वक विवेचना के लिये मानदंडों की तरह काम करते हैं.

प्रगतिशील प्रतीत होने वाले सीएमआरए के प्रावधान “विद्रोही” महिलाओं पर अंकुश लगाने में माँ-बाप की मदद करते हैं, स्वैछिक शादियों को बाधित करते हैं और पितृसत्तात्मक शक्तियों को चुनौती देने के बजाय उन्हें बढ़ावा देते हैं. जब परिवार और समुदाय बाल विवाह करवाते हैं, तब शायद ही इन प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है. बहुत बार वह लड़की जिसे माँ-बाप के संरक्षण में वापस भेजा जाता है, उसके नाबालिग  रहते हुए ही, माँ-बाप जिसे पसंद करते हैं, उस आदमी के साथ उसकी मर्जी के बिना ही  उसकी शादी कर दी जाती है. पितृसत्तात्मक दुर्ग इतना मजबूत और सुरक्षित है कि आधुनिक नारीवादी संवाद का उसमें प्रवेश पाना और क़ानूनी आदेशों के द्वारा सामाजिक प्रथाओं को बदलना बेहद मुश्किल है. सिर्फ “भाग कर” की गयी शादियों के सन्दर्भ में ही इन प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है. वे “सहमति” शब्द के प्रकोप की ओर बड़ी मुस्तैदी से ध्यान खींचते है. परिवार और राज्य के अधिकारियों की निगाह में मानो उम्र का कम होना तथा यौन आकर्षण और शारारिक आनंद का इजहार न करना, दोनों पर्यायवाची हैं.

वैसे तो यह अपने आप में ही एक गंभीर समस्या है, लेकिन यह और भी गंभीर तब हो जाती है, जब एक खास तरह का नारीवादी विमर्श उम्र, संस्था और सहमति जैसे विचारों को आधार बना कर इस बहस में उलझने लगे, जबकि इनसे पीछा छुड़ाने की जरुरत है. यह नारीवादी आंदोलनों के आगे कुछ बेचैन कर देने वाली चुनौतियां पेश करता है. इसलिये इन प्रश्नों पर चर्चा करना जरूरी है-
सबसे पहले, क्या सहमति को इतना अधिक महत्त्व देना संभव है, खास कर तब जबकि “उम्र” और “सहमति” के बीच कोई मेल न होने का तर्क भागकर की गयी शादियों के दौरान अपनाये गए “साधन” के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा हो? दूसरे, जब ये शादियाँ सहमति और साधनों के मामले में सही होने के बावजूद उम्र की शर्त का उल्लंघन करती हैं, तब क्या न्यायपालिका जैसी रुढिवादी संस्थाओं का रवैया उन नारीवादियों से भी ज्यादा सूक्ष्म और ज्यादा ही नारी-समर्थक नहीं होता, जो इस तरह की सभी शादियों को अमान्य घोषित करने की माँग कर रही हैं? और तीसरा, सिर्फ “बालिग होने की उम्र” या “शादी की उम्र” को लागु करने के बजाय “अकलमंद होने की उम्र” के इस्लामी विचार को लागू करना क्या उन विद्रोही युवा महिलाओं के लिये अधिक सहायक नहीं है जो अपरंपरागत यौन विकल्पों को अपनाते हुए, पितृसत्तात्मक प्राधिकारों को चुनौती देती हैं?
  
हम उन उपायों की जांच करते हैं, जिनके सहारे कोई कमसिन लड़की भाग कर शादी करती है, जबकि क़ानूनी संस्थाएं यौनिकता को नियंत्रित करने और अपनी मर्जी से शादी पर रोक लगाने का हथियार बन जाती हैं. क़ानूनी प्रावधान अपहरण और वैधानिक बलात्कार के सन्दर्भ में भले ही नाबालिगों की रक्षा करनेवाले लगते हों, लेकिन दरअसल इन प्रावधानों का लक्ष्य नाबालिग लड़कियों के ऊपर माँ-बाप की पितृसत्तात्मक वर्चश्व को बढ़ावा देना है. बहलाकर ले जाने और अपहरण से सम्बंधित कानूनों में कोई अपवाद नहीं है जो किसी नाबालिग को घरेलू हिंसा, बाल यौन शोषण या माँ-बाप के द्वारा अधिकारों के दुरूपयोग की दलील पर विचार करे और उसे संरक्षण दे, या अपने माँ-बाप का घर छोड़ने का विकल्प प्रस्तुत करे. अपनी मर्जी से शादी के मामले में माँ-बाप के इशारे पर किया जाने वाला पुलिस बल का उपयोग (या दुरुपयोग), महिलाओं की स्वायत्ता और स्वतंत्र इच्छा के पूरी तरह खिलाफ होता है.

सामाजिक न्याय के प्रति लगाव के चलते कभी-कभी न्यायाधीशों ने नाबालिग लड़कियों को उनके माँ-बाप के गुस्से और राज्य द्वारा संचालित संरक्षण गृह की जकडन से बचाने के लिये मानवाधिकारों के मूलभूत सिद्धांतों के सहारे भी इन मुद्दों को हल किया. इन नाबालिग लड़कियों को एक क्षमता प्रदान करके (अकलमंदी की उम्र के आधार-वाक्य का सहारा लेकर), और “उम्र” की धारणा को “सहमति” या “कारक” से अलग रखते हुए इन शादियों को न्यायसंगत ठहरा कर ही वे ऐसा कर पाए.

अगर इन फैसलों की जांच-पड़ताल महिला अधिकारों के नजरिये से करें, तो नाबालिग लड़कियों के पक्ष में लिए गए इन अदालती फैसलों को क्या “प्रतिगामी” कहा जा सकता है और कतिपय महिला संगठनों द्वारा इन शादियों को अमान्य घोषित करने की माँग को क्या “प्रगतिशील” माना जा सकता है? क्या एक लैंगिक आधार पर दमनकारी इस समाज में इन लडकियों के जन्मदाता परिजनों द्वारा राज्य की विराट शक्ति की मदद से इन नाबालिग लड़कियों की यौन विकल्पों के चुनाव की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की कोशिश को, प्रगतिशील हस्तक्षेप और पितृसत्ता को दी गयी चुनौती माना जा सकता है? संसद द्वारा हाल ही में पास किया गया बाल यौन उत्पीड़न कानून, जिसमें सहमति से सहवास की आयु १६ साल से बढ़ाकर १८ साल कर दिया गया है, वह हालात को और ज्यादा खराब करेगा और वह कमसिन लड़कियों (और लड़कों) को माँ-बाप और राज्य की शक्ति के आगे ओर ज्यादा कमज़ोर बना देगा, जब वे अपनी यौन इच्छा का इजहार करेंगे और अपरंपरागत यौन विकल्प चुनेंगे और इसका परिणाम राज्य द्वारा पहले से भी ज्यादा “नैतिक पुलिस नियंत्रण” के रूप में सामने आएगा.
    
“अकलमंदी की उम्र” की धारणा का सहारा लेते हुए, जैसा की न्यायालयों ने किया, जब उन भाग कर शादी करनेवाली नाबालिग हिंदू लड़कियों के विवाह को मान्यता दी गयी, तब भी इसी तरह के विवाद उत्पन्न हुए थे, जैसा इस मामले में हुआ. विडम्बना यह कि ऐसा अब इसलिये किया जा रहा है क्योंकि इस मामले से सम्बंधित लोग मुस्लिम हैं. ऐसा लगता है जैसे मुसलमानों पर एक इस्लामिक कानून के सिद्धांत को लागू करने में न्यायाधीश ने गलती की है, लेकिन वे उस वक्त गलत नहीं होते जब वे किसी गैर-मुस्लिम पर  उस सिद्धांत का इस्तेमाल करते हैं. इस फैसले को जितने भडकाऊ तरीके से मिडिया ने पेश किया, वह इस बात की माँग करता है कि हम बिना सोचे-समझे इस पर अपनी प्रतिक्रिया न दें और समान नागरिक संहिता की घिसी-पिटी दक्षिणपंथी माँग को भड़काने का काम न करें. ऐसे मौकों पर हमें स्पष्ट होना चाहिये कि हम किसके पक्ष में काम कर रहे हैं.

इस बहस में मथुरा के मामले को शामिल करने से शायद इस धुंधलके को काटने में कुछ मदद मिले. एक १६ साल की युवा, अनपढ़, आदिवासी लड़की मथुरा, जो अपने प्रेमी के साथ भाग गयी थी, उसे उसके भाई की शिकायत पर पुलिस स्टेशन लाया गया. पूछताछ के बाद डयूटी पर तैनात पुलिसवालों ने उसके साथ बलात्कार किया. उच्चतम न्यायालय का विवादास्पद निर्णय, जिसमें पुलिसकर्मियों को इस आधार पर बरी कर दिया गया कि वह एक कमज़ोर नैतिक चरित्र वाली महिला थी, सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में भारत के महिला आंदोलनों का उत्प्रेरक बन गया. हम में से बहुतों के लिये मथुरा आज भी नारीवादी संवेदनशीलता का पैमाना बनी हुयी है. यह मुझे सही ढंग से अपना पक्ष रखने में सहायक है कि जब भी कोई किशोर लड़की अपने पुरुष मित्र के साथ भागती है या दूसरे अपरंपरागत यौन विकल्प चुनती है तो चूँकि वह पहले ही कई-कई तरह की प्रवंचनाओं का शिकार होती है, उसके कारण उसे जिस असहायता की स्थिति का सामना करना पड़ता है, उसके तमाम पहलुओं के प्रति संवेदनशील होने की जरुरत है.

नारीवादी आंदोलनों कि आवाज को चाहिए कि वह यथास्थिति बनाये रखने वाले संस्थागत प्राधिकारों के प्रभुत्व खिलाफ उठने वाले कमजोरों की माँगों का पुरजोर तरीके से  समर्थन करे. एक किशोर लड़की के द्वारा अपनाये गए तौर-तरीके में उसका साथ देने और पितृसत्ता की तानाशाही के खिलाफ उठनेवाली उसकी आवाज में आवाज मिलने की आवश्यकता है. नारीवादी न्यायशास्त्र के दावों को इस जटिल पृष्ठभूमि में अवस्थित कर के देखना बेहद जरूरी है.

निष्कर्ष से पहले, कहीं मुझे गलत न समझा जाये इसलिए मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं इस बात का समर्थन नहीं कर रही हूँ कि १५ साल की उम्र की हर लड़की को पढाई छोड़ देनी चाहिये, अपने पुरुष मित्र के साथ भाग जाना चाहिये और उससे शादी कर लेनी चाहिये और फिर वह लोकप्रिय हिंदी फिल्मों के फोर्मुले के मुताबिक “हमेशा सुखी” जीवन जीती रहेगी. मैं सिर्फ इतना कह रही हूँ कि १९२९ में लागू किया गया बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून आज तक अपना काम नहीं कर पाया, क्योंकि परिवार, जाति और समुदाय के दुर्ग को बेधना और बाल विवाहों को रोकना लगभग असंभव है, जैसा कि कुछ नारीवादी समूहों द्वारा  माना जाता है. इसके विपरीत आज के समाज में, बाल विवाह एक वर्गीय मुद्दा बन गया है जो  उस तरीके के बिलकुल ही विपरीत है जिसे उन्नीसवीं सदी की सुधारवादी बहसों में ब्राहमणवादी पितृसत्ता के सन्दर्भ में इस्तेमाल किया गया था. हम शादी की उम्र को धीरे-धीरे बढ़ते देखते हैं जहाँ जीवन स्तर ऊपर उठता है और परिवारों के पास अपनी बेटियों को  शिक्षित-प्रशिक्षित करने के बेहतर विकल्प होते हैं.

घर में जवान लड़की होने पर यह भय कि कहीं वह बलात्कार का शिकार न हो जाय, ज्यादातर गरीब परिवारों को अपनी बेटियों की कम उम्र में शादी करने और उनकी यौनिकता की हिफाजत करने को प्रेरित करता है, ताकि उन्हें ऐसी लड़की की शादी का कलंक न सहना पड़े जो बलात्कार की शिकार हुई हो और जिसका कौमार्य भंग कर दिया गया हो. हमें अधिक सुरक्षित और महिलाओं के लिए अनुकूल एक ऐसे समाज के निर्माण की दिशा में काम करना चाहिये जहाँ बेटियों का लालन-पालन प्यार, हिफ़ाजत और स्नेह के साथ किया जाय ताकि बाल विवाह उनके लिये एकमात्र विकल्प न रहे. दूसरे स्तर पर, परिवारों में सेक्स और यौन विकल्पों पर ज्यादा खुली चर्चा करने की जरुरत है, और साथ ही, शादियों में पवित्रता और कौमार्य को ज्यादा महत्व दिए जाने को चुनौती देने की आवश्यकता है. यौनसंबंधी जिस दमनकारी वातावरण में हम अपने बच्चों को बड़ा करते हैं, जब वह बदलेगा, तभी लड़कियाँ और लड़के अपनी सहज यौन प्रवृतियों को अभिव्यक्त करने के लिये भागने और शादी करने की जरुरत महसूस नहीं करेंगे तथा यौन और जीवन संबंधी विकल्पों को अधिक जिम्मेदारी से चुनने की स्थिति में होंगे.


(अनुवाद- दिनेश पोसवाल)