Sunday, August 28, 2011

दस दिन का अनशन - हरीशंकर परसाई


- हरीशंकर परसाई

10जनवरी

आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है की संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल."

बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है.

सोचकर बोला, " मगर इसके लिए अनशन हो भी सकता है? "

मैंने कहा, " इस वक़्त हर बात के लिए हो सकता है. अभी बाबा सनकीदास ने अनशन करके क़ानून बनवा दिया है कि हर आदमी जटा रखेगा और उसे कभी धोएगा नहीं. तमाम सिरों से दुर्गन्ध निकल रही है. तेरी मांग तो बहुत छोटी है- सिर्फ एक औरत के लिए."

सुरेन्द्र वहां बैठा था. बोला, " यार कैसी बात करते हो! किसी की बीवी को हड़पने के लिए अनशन होगा? हमें कुछ शर्म तो आनी चाहिए. लोग हँसेंगे."

मैंने कहा, " अरे यार, शर्म तो बड़े-बड़े अनशनिया साधु-संतों को नहीं आई. हम तो मामूली आदमी हैं. जहाँ तक हंसने का सवाल है, गोरक्षा आन्दोलन पर सारी दुनिया के लोग इतना हंस चुके हैं क उनका पेट दुखने लगा है. अब कम-से-कम दस सालों तक कोई आदमी हंस नहीं सकता. जो हंसेगा वो पेट के दर्द से मर जाएगा."

बन्नू ने कहा," सफलता मिल जायेगी?"

मैंने कहा," यह तो 'इशू' बनाने पर है. अच्छा बन गया तो औरत मिल जाएगी. चल, हम 'एक्सपर्ट' के पास चलकर सलाह लेते हैं. बाबा सनकीदास विशेषज्ञ हैं. उनकी अच्छी 'प्रैक्टिस' चल रही है. उनके निर्देशन में इस वक़्त चार आदमी अनशन कर रहे हैं."

हम बाबा सनकीदास के पास गए. पूरा मामला सुनकर उन्होंने कहा," ठीक है. मैं इस मामले को हाथ में ले सकता हूँ. जैसा कहूँ वैसा करते जाना. तू आत्मदाह की धमकी दे सकता है?"

बन्नू कांप गया. बोला," मुझे डर लगता है."

"जलना नहीं है रे. सिर्फ धमकी देना है."

"मुझे तो उसके नाम से भी डर लगता है."

बाबा ने कहा," अच्छा तो फिर अनशन कर डाल. 'इशू' हम बनायेंगे."

बन्नू फिर डरा. बोला," मर तो नहीं जाऊँगा."

बाबा ने कहा," चतुर खिलाड़ी नहीं मरते. वे एक आँख मेडिकल रिपोर्ट पर और दूसरी मध्यस्थ पर रखते हैं. तुम चिंता मत करो. तुम्हें बचा लेंगे और वह औरत भी दिला देंगे."

11 जनवरी

आज बन्नू आमरण अनशन पर बैठ गया. तम्बू में धुप-दीप जल रहे हैं. एक पार्टी भजन गा रही है - 'सबको

सन्मति दे भगवान्!'. पहले ही दिन पवित्र वातावरण बन गया है. बाबा सनकीदास इस कला के बड़े उस्ताद हैं. उन्होंने बन्नू के नाम से जो वक्तव्य छपा कर बंटवाया है, वो बड़ा ज़ोरदार है. उसमें बन्नू ने कहा है कि 'मेरी आत्मा से पुकार उठ रही है कि मैं अधूरी हूँ. मेरा दूसरा खंड सावित्री में है. दोनों आत्म-खण्डों को मिलाकर एक करो या मुझे भी शरीर से मुक्त करो. मैं आत्म-खण्डों को मिलाने के लिए आमरण अनशन पर बैठा हूँ. मेरी मांग है कि सावित्री मुझे मिले. यदि नहीं मिलती तो मैं अनशन से इस आत्म-खंड को अपनी नश्वर देह से मुक्त कर दूंगा. मैं सत्य पर हूँ, इसलिए निडर हूँ. सत्य की जय हो!'

सावित्री गुस्से से भरी हुई आई थी. बाबा सनकीदास से कहा," यह हरामजादा मेरे लिए अनशन पर बैठा है ना?"

बाबा बोले," देवी, उसे अपशब्द मत कहो. वह पवित्र अनशन पर बैठा है. पहले हरामजादा रहा होगा. अब नहीं रहा. वह अनशन कर रहा है."

सावित्री ने कहा," मगर मुझे तो पूछा होता. मैं तो इस पर थूकती हूँ."

बाबा ने शान्ति से कहा," देवी, तू तो 'इशू' है. 'इशू' से थोड़े ही पूछा जाता है. गोरक्षा आन्दोलन वालों ने गाय से कहाँ पूछा था कि तेरी रक्षा के लिए आन्दोलन करें या नहीं. देवी, तू जा. मेरी सलाह है कि अब तुम या तुम्हारा पति यहाँ न आएं. एक-दो दिन में जनमत बन जाएगा और तब तुम्हारे अपशब्द जनता बर्दाश्त नहीं करेगी."

वह बड़बड़ाती हुई चली गई.

बन्नू उदास हो गया. बाबा ने समझाया," चिंता मत करो. जीत तुम्हारी होगी. अंत में सत्य की ही जीत होती है."

13 जनवरी

बन्नू भूख का बड़ा कच्चा है. आज तीसरे ही दिन कराहने लगा. बन्नू पूछता है, " जयप्रकाश नारायण आये?"

मैंने कहा," वे पांचवें या छठे दिन आते हैं. उनका नियम है. उन्हें सूचना दे दी है."

वह पूछता है," विनोबा ने क्या कहा है इस विषय में?"

बाबा बोले," उन्होंने साधन और साध्य की मीमांसा की है, पर थोड़ा तोड़कर उनकी बात को अपने पक्ष में उपयोग किया जा सकता है."

बन्नू ने आँखें बंद कर लीं. बोला,"भैया, जयप्रकाश बाबू को जल्दी बुलाओ."

आज पत्रकार भी आये थे. बड़ी दिमाग-पच्ची करते रहे.

पूछने लगे," उपवास का हेतु कैसा है? क्या वह सार्वजनिक हित में है? "

बाबा ने कहा," हेतु अब नहीं देखा जाता. अब तो इसके प्राण बचाने की समस्या है. अनशन पर बैठना इतना बड़ा आत्म-बलिदान है कि हेतु भी पवित्र हो जाता है."

मैंने कहा," और सार्वजनिक हित इससे होगा. कितने ही लोग दूसरे की बीवी छीनना चाहते हैं, मगर तरकीब उन्हें नहीं मालूम. अनशन अगर सफल हो गया, तो जनता का मार्गदर्शन करेगा."

14 जनवरी

बन्नू और कमज़ोर हो गया है. वह अनशन तोड़ने की धमकी हम लोगों को देने लगा है. इससे हम लोगों का मुंह काला हो जायेगा. बाबा सनकीदास ने उसे बहुत समझाया.

आज बाबा ने एक और कमाल कर दिया. किसी स्वामी रसानंद का वक्तव्य अख़बारों में छपवाया है. स्वामीजी ने कहा है कि मुझे तपस्या के कारण भूत और भविष्य दिखता है. मैंने पता लगाया है क बन्नू पूर्वजन्म में ऋषि था और सावित्री ऋषि की धर्मपत्नी. बन्नू का नाम उस जन्म में ऋषि वनमानुस था. उसने तीन हज़ार वर्षों के बाद अब फिर नरदेह धारण की है. सावित्री का इससे जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है. यह घोर अधर्म है कि एक ऋषि की पत्नी को राधिका प्रसाद-जैसा साधारण आदमी अपने घर में रखे. समस्त धर्मप्राण जनता से मेरा आग्रह है कि इस अधर्म को न होने दें.

इस वक्तव्य का अच्छा असर हुआ. कुछ लोग 'धर्म की जय हो!' नारे लगाते पाए गए. एक भीड़ राधिका बाबू के घर के सामने नारे लगा रही थी----

"राधिका प्रसाद-- पापी है! पापी का नाश हो! धर्म की जय हो."

स्वामीजी ने मंदिरों में बन्नू की प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना का आयोजन करा दिया है.

15 जनवरी

रात को राधिका बाबू के घर पर पत्थर फेंके गए.

जनमत बन गया है.

स्त्री-पुरुषों के मुख से यह वाक्य हमारे एजेंटों ने सुने---

"बेचारे को पांच दिन हो गए. भूखा पड़ा है."

"धन्य है इस निष्ठां को."

"मगर उस कठकरेजी का कलेजा नहीं पिघला."

"उसका मरद भी कैसा बेशरम है."

"सुना है पिछले जन्म में कोई ऋषि था."

"स्वामी रसानंद का वक्तव्य नहीं पढ़ा!"

"बड़ा पाप है ऋषि की धर्मपत्नी को घर में डाले रखना."

आज ग्यारह सौभाग्यवतियों ने बन्नू को तिलक किया और आरती उतारी.

बन्नू बहुत खुश हुआ. सौभाग्यवतियों को देख कर उसका जी उछलने लगता है.

अखबार अनशन के समाचारों से भरे हैं.

आज एक भीड़ हमने प्रधानमन्त्री के बंगले पर हस्तक्षेप की मांग करने और बन्नू के प्राण बचाने की अपील करने भेजी थी. प्रधानमन्त्री ने मिलने से इनकार कर दिया.

देखते हैं कब तक नहीं मिलते.

शाम को जयप्रकाश नारायण आ गए. नाराज़ थे. कहने लगे," किस-किस के प्राण बचाऊं मैं? मेरा क्या यही धंधा है? रोज़ कोई अनशन पर बैठ जाता है और चिल्लाता है प्राण बचाओ. प्राण बचाना है तो खाना क्यों नहीं लेता? प्राण बचाने के लिए मध्यस्थ की कहाँ ज़रुरत है? यह भी कोई बात है! दूसरे की बीवी छीनने के लिए अनशन के पवित्र अस्त्र का उपयोग किया जाने लगा है."

हमने समझाया," यह 'इशू' ज़रा दूसरे किस्म है. आत्मा से पुकार उठी थी."

वे शांत हुए. बोले," अगर आत्मा की बात है तो मैं इसमें हाथ डालूँगा."

मैंने कहा," फिर कोटि-कोटि धर्मप्राण जनता की भावना इसके साथ जुड़ गई है."

जयप्रकाश बाबू मध्यस्थता करने को राज़ी हो गए. वे सावित्री और उसके पति से मिलकर फिर प्रधानमन्त्री से मिलेंगे.

बन्नू बड़े दीनभाव जयप्रकाश बाबू की तरफ देख रहा था.

बाद में हमने उससे कहा," अबे साले, इस तरह दीनता से मत देखा कर. तेरी कमज़ोरी ताड़ लेगा तो कोई भी नेता तुझे मुसम्मी का रस पिला देगा. देखता नहीं है, कितने ही नेता झोलों में मुसम्मी रखे तम्बू के आस-पास घूम रहे हैं."

16 जनवरी

जयप्रकाश बाबू की 'मिशन' फेल हो गई. कोई मानने को तैयार नहीं है. प्रधानमन्त्री ने कहा," हमारी बन्नू के साथ सहानुभूति है, पर हम कुछ नहीं कर सकते. उससे उपवास तुडवाओ, तब शान्ति से वार्ता द्वारा समस्या का हल ढूँढा जाएगा."

हम निराश हुए. बाबा सनकीदास निराश नहीं हुए. उन्होंने कहा," पहले सब मांग को नामंज़ूर करते हैं. यही प्रथा है. अब आन्दोलन तीव्र करो. अखबारों में छपवाओ क बन्नू की पेशाब में काफी 'एसीटोन' आने लगा है. उसकी हालत चिंताजनक है. वक्तव्य छपवाओ कि हर कीमत पर बन्नू के प्राण बचाए जाएँ. सरकार बैठी-बैठी क्या देख रही है? उसे तुरंत कोई कदम उठाना चाहिए जिससे बन्नू के बहुमूल्य प्राण बचाए जा सकें."

बाबा अद्भुत आदमी हैं. कितनी तरकीबें उनके दिमाग में हैं. कहते हैं, "अब आन्दोलन में जातिवाद का पुट देने का मौका आ गया है. बन्नू ब्राम्हण है और राधिकाप्रसाद कायस्थ. ब्राम्हणों को भड़काओ और इधर कायस्थों को. ब्राम्हण-सभा का मंत्री आगामी चुनाव में खड़ा होगा. उससे कहो कि यही मौका है ब्राम्हणों के वोट इकट्ठे ले लेने का."

आज राधिका बाबू की तरफ से प्रस्ताव आया था कि बन्नू सावित्री से राखी बंधवा ले.

हमने नामंजूर कर दिया.

17 जनवरी

आज के अखबारों में ये शीर्षक हैं---

"बन्नू के प्राण बचाओ!

बन्नू की हालत चिंताजनक!'

मंदिरों में प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना!"

एक अख़बार में हमने विज्ञापन रेट पर यह भी छपवा लिया---

"कोटि-कोटि धर्म-प्राण जनता की मांग---!

बन्नू की प्राण-रक्षा की जाए!

बन्नू की मृत्यु के भयंकर परिणाम होंगे !"

ब्राम्हण-सभा के मंत्री का वक्तव्य छप गया. उन्होंने ब्राम्हण जाति की इज्ज़त का मामला इसे बना लिया था. सीधी कार्यवाही की धमकी दी थी.

हमने चार गुंडों को कायस्थों के घरों पर पत्थर फेंकने के लिए तय कर किया है.

इससे निपटकर वही लोग ब्राम्हणों के घर पर पत्थर फेंकेंगे.

पैसे बन्नू ने पेशगी दे दिए हैं.

बाबा का कहना है क कल या परसों तक कर्फ्य लगवा दिया जाना चाहिए. दफा 144 तो लग ही जाये. इससे 'केस' मज़बूत होगा.

18 जनवरी

रात को ब्राम्हणों और कायस्थों के घरों पर पत्थर फिंक गए.

सुबह ब्राम्हणों और कायस्थों के दो दलों में जमकर पथराव हुआ.

शहर में दफा 144 लग गयी.

सनसनी फैली हुई है.

हमारा प्रतिनिधि मंडल प्रधानमन्त्री से मिला था. उन्होंने कहा," इसमें कानूनी अडचनें हैं. विवाह-क़ानून में संशोधन करना पड़ेगा."

हमने कहा," तो संशोधन कर दीजिये. अध्यादेश जारी करवा दीजिये. अगर बन्नू मर गया तो सारे देश में आग लग जायेगी."

वे कहने लगे," पहले अनशन तुडवाओ ? "

हमने कहा," सरकार सैद्धांतिक रूप से मांग को स्वीकार कर ले और एक कमिटी बिठा दे, जो रास्ता बताये कि वह औरत इसे कैसे मिल सकती है."

सरकार अभी स्थिति को देख रही है. बन्नू को और कष्ट भोगना होगा.

मामला जहाँ का तहाँ रहा. वार्ता में 'डेडलॉक' आ गया है.

छुटपुट झगड़े हो रहे हैं.

रात को हमने पुलिस चौकी पर पत्थर फिंकवा दिए. इसका अच्छा असर हुआ.

'प्राण बचाओ'---की मांग आज और बढ़ गयी.

19 जनवरी

बन्नू बहुत कमज़ोर हो गया है. घबड़ाता है. कहीं मर न जाए.

बकने लगा है कि हम लोगों ने उसे फंसा दिया है. कहीं वक्तव्य दे दिया तो हम लोग 'एक्सपोज़' हो जायेंगे.

कुछ जल्दी ही करना पड़ेगा. हमने उससे कहा कि अब अगर वह यों ही अनशन तोड़ देगा तो जनता उसे मार डालेगी.

प्रतिनिधि मंडल फिर मिलने जाएगा.

20 जनवरी

'डेडलॉक '

सिर्फ एक बस जलाई जा सकी.

बन्नू अब संभल नहीं रहा है.

उसकी तरफ से हम ही कह रहे हैं कि "वह मर जाएगा, पर झुकेगा नहीं!"

सरकार भी घबराई मालूम होती है.

साधुसंघ ने आज मांग का समर्थन कर दिया.

ब्राम्हण समाज ने अल्टीमेटम दे दिया. १० ब्राम्हण आत्मदाह करेंगे.

सावित्री ने आत्महत्या की कोशिश की थी, पर बचा ली गयी.

बन्नू के दर्शन के लिए लाइन लगी रही है.

राष्ट्रसंघ के महामंत्री को आज तार कर दिया गया.

जगह-जगह- प्रार्थना-सभाएं होती रहीं.

डॉ. लोहिया ने कहा है कि जब तक यह सरकार है, तब तक न्यायोचित मांगें पूरी नहीं होंगी. बन्नू को चाहिए कि वह सावित्री के बदले इस सरकार को ही भगा ले जाए.

21 जनवरी

बन्नू की मांग सिद्धांततः स्वीकार कर ली गयी.

व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए एक कमेटी बना दी गई है.

भजन र प्रार्थना के बीच बाबा सनकीदास ने बन्नू को रस पिलाया. नेताओं की मुसम्मियाँ झोलों में ही सूख गईं. बाबा ने कहा कि जनतंत्र में जनभावना का आदर होना चाहिए. इस प्रश्न के साथ कोटि-कोटि जनों की भावनाएं जुड़ी हुई थीं. अच्छा ही हुआ जो शान्ति से समस्या सुलझ गई, वर्ना हिंसक क्रान्ति हो जाती.

ब्राम्हणसभा के विधानसभाई उमीदवार ने बन्नू से अपना प्रचार कराने के लिए सौदा कर लिया है. काफी बड़ी रकम दी है. बन्नू की कीमत बढ़ गयी.

चरण छूते हुए नर-नारियों से बन्नू कहता है," सब ईश्वर की इच्छा से हुआ. मैं तो उसका माध्यम हूँ."

नारे लग रहे हैं -- सत्य की जय! धर्म की जय!

Wednesday, August 24, 2011

स्वयं सेवी संगठन : एक परिचय


व्यवस्था के क्रूर और अमानुषिक चेहरे पर

भलमनसाहत और मानवीयता का लेप चड़ाते हैं ये.

सर से पांव तक शस्त्र सज्जित

दुश्मन के आगे

विनय-कातर याचना में

निहत्था खड़ा होने का

उपदेश देते हैं.

असंतोष और आक्रोश से सुलगते

लोगों के मान पर

ये सहनशीलता और धैर्य की शीतल फुहार छोड़ते हैं.

भीख की झोली इनका झण्डा है

जिसे जुलूस में शामिल लोगों के हाथों में

थमा देना चाहते हैं

ये इन्टरनेशनल फकीर हैं

इन्टरनेशनल लुटेरों के सहोदर.

(देश-विदेश अंक चार से साभार )

Tuesday, August 23, 2011

मुझे अन्ना नहीं होना


मुझे अन्ना नहीं होना

अरुंधती रॉय

ज-कल हम टेलीविजन पर जो कुछ देख रहे हैं वह यदि वास्तव में क्रांति है तो यह वर्तमान समय की बेहद व्याकुल करने वाली और समझ से परे है, क्योंकि आज जन लोकपाल बिल के बारे में आप चाहे कोई भी सवाल पूछें, आपको जो जवाब मिलेंगे वे सम्भवतः यही होंगे, इनमें से किसी एक पर निशान लगाएँ - (अ) वंदे मातरम् (ब) भारत माता की जय (स) इंडिया इज अन्ना, अन्ना इज इंडिया (द) जय हिंद.

एकदम अलग कारणों से और पूरी तरह भिन्न तरीके से आप कह सकते हैं कि माओवादियों और जन लोकपाल बिल में एक बात समान है – वे दोनों ही भारतीय राज्य को पलटना चाहते हैं. एक जमीनी स्तर पर, सशस्त्र संघर्ष के जरिये काम करता है और आमतौर पर एक आदिवासी सेना के द्वारा लड़ा जा रहा है जो गरीब से भी गरीब लोगों को लेकर तैयार हुई है. दूसरा ऊपर से नीचे कि ओर, रक्तहीन गाँधीवादी सत्तापलट का माध्यम अपनाता है जिसका नेतृत्व एक ताजा ढले संत और आम तौर पर शहरी लोगों और निश्चय ही खाये-पिये लोगों की फौज कर रही है. (दूसरे वाले मामले में सरकार खुद को ही पलटने के लिए हर सम्भव तरीके से उनके साथ सहयोग कर रही है.)

अप्रैल 2010 में अन्ना हजारे के पहले ‘आमरण अनशन’ के कुछ दिनों के भीतर, सरकार ने टीम अन्ना को, (इस ‘भद्रलोक’ समूह ने खुद ही अपने लिए यह ब्रांड नेम चुना है.) उसे आमंत्रित किया और एक नया भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाने के लिए संयुक्त ड्राफ्टिंग कमिटी में शामिल कर लिया. सरकार उस समय कई बड़े भ्रष्टाचार घोटालों के चलते अपनी विश्वनीयता गँवा रही थी और लोगों का ध्यान हटाने का रास्ता ढूंढ रही थी. कुछ महीने बीतने के बाद उसने उस प्रयास का परित्याग कर दिया और संसद के पटल पर अपना बिल रखा जो इतना दोषपूर्ण है कि उसे गंभीरता से लेना असंभव है.

इसके बाद 16 अगस्त को अन्ना हजारे के दुसरे ‘आमरण अनशन’ की सुबह, बिना अनशन शुरू किये और बिना किसी कानून का उलंघन किये ही उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. जन लोकपाल बिल को लागू करने का संघर्ष अब विरोध करने के अधिकार के लिए संघर्ष, खुद लोकतंत्र के लिए संघर्ष के साथ एकमएक हो गया. इस ‘दूसरी आजादी कि लड़ाई’ के कुछ ही घंटों के भीतर अन्ना को रिहा कर दिया गया. चतुराई से, उन्होंने जेल छोड़ने से इन्कार कर दिया. वे सम्मानित अतिथि के रूप में तिहाड़ जेल में रहे और वहीँ उन्होंने सार्वजनिक स्थल पर अनशन के अधिकार की माँग करते हुए अनशन शुरू कर दिया. तीन दिन भीड़ और टीवी चैनल की गाड़ियाँ बाहर घेरा डाले रहीं. टीम अन्ना के सदस्य उस अत्यंत सुरक्षित जेल के अंदर-बहार होते रहे और सरकारी दूरदर्शन और सभी चैनलों पर प्रसारित करने के लिए उनके वीडीयो सन्देश लाते रहे.(क्या इससे पहले किसी अन्य व्यक्ति को कभी ऐसा राजसी ठाट नसीब हुआ?) इसी बीच दिल्ली नगर निगम के 250 कर्मचारी, 5 ट्रक और मिट्टी हटाने वाली 6 मशीनें रात-दिन काम करके रामलीला मैदान को सप्ताहांत समारोह के लिए तैयार करते रहे. इसके बाद बेकरारी से इन्तजार करती, जैजैकार करती भीड़ और टीवी कैमरों के बीच, भारत के सबसे महँगे डाक्टरों की देख-रेख में अन्ना का तीसरे चरण का आमरण अनशन शुरू हुआ. टीवी एंकर बताने लगे कि “कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है.”

अन्ना के साधन भले ही गाँधीवादी हों, लेकिन उनकी माँगें कतई नहीं. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बारे में गाँधी के विचारों के विपरीत जन लोकपाल एक कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून है जिसके तहत सावधानी से चुने गए लोगों का एक पैनल, हजारों कर्मचारियों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, सांसद और सभी नौकरशाहों से लेकर निचले स्तर के कर्मचारियों तक के उपर शासन करेगा. लोकपाल को तहकिकात करने, निगरानी रखने और सजा देने का अधिकार होगा. केवल एक बात को छोड़ कर कि उसकी अपनी जेलें नहीं होंगी, वह एक स्वतंत्र प्रशासक के रूप में काम करेगा. इसका मकसद पहले से ही हमारे ऊपर शासन कर रहे दागदार, गैरजिम्मेदार और भ्रष्ट प्रशासकों के विरुद्ध कार्रवाई करना होगा. यानी एक कुलीन-तंत्र के बजाय अब दो-दो कुलीन-तंत्र.

इसका प्रभावी होना या न होना इस बात पर निर्भर है कि हम भ्रष्टाचार को किस रूप में देखते हैं. क्या भ्रष्टाचार महज कानूनी मामला, वित्तीय अनियमितता और घूसखोरी है या एक घोर विषमतापूर्ण समाज में चलने वाला सामाजिक लेन-देन का खोटा सिक्का है जिसमें आज भी सत्ता बहुत ही थोड़े से लोगों के हाथों में केंद्रित है. उदाहरण के लिए कल्पना कीजिये कि किसी शहर में एक शौपिंग मॉल है जिसके आसपास की सड़कों पर ठेला-खोमचा लगाने पर रोक लगी हुई है. एक फेरी लगानेवाली औरत उस इलाके में तैनात पुलिस के सिपाही और नगरपालिका के कर्मचारी को उस कानून का उलंघन करने के लिए एक छोटी रकम घूस में देती है और अपना सामान उन लोगों में बेचती है जो मॉल की महँगी चीजें खरीदने में असमर्थ हैं. क्या यह कोई भयानाक बात है? क्या उसे भविष्य में लोकपाल के कर्मचारी को भी घूस देनी पड़ेगी? जन साधारण जिन समस्याओं का सामना करता है, उसका समाधान ढाँचागत असमानता का सामना करने में है सत्ता का एक और ढाँचा खड़ा करने में नहीं है जिसके आगे जनता को दबना पड़े?

अन्ना क्रान्ति के साजोसामान और नृत्य-विधान, आक्रामक राष्ट्रवाद और झण्डा लहराना, सबकुछ आरक्षण विरोधी आंदोलन, क्रिकेट विश्व-कप विजय जुलुस और नाभिकीय परीक्षण समारोह से उधार लिये गए हैं. वे हमें संकेत देते हैं कि यदि हम ‘अनशन’ का समर्थन नहीं करते तो हम ‘सच्चे भारतीय’ नहीं हैं. चौबीसों घन्टे चालू चैनलों ने तय कर लिया कि देश में अब कोई और समाचार प्रसारित करने लायक नहीं है.

निश्चय ही ‘अनशन’ का अर्थ इरोम शर्मिला का अनशन नहीं जो अफ्सपा (सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून) के खिलाफ 10 वर्षों से से भी अधिक समय से जारी है (अब उन्हें जबरन नाक से खाना दिया जाता है). यह कानून मणिपुर में तैनात सैनिकों को केवल संदेह के आधार पर नागरिकों की हत्या करने का अधिकार देता है. इसका अर्थ वह सामूहिक भूख हड़ताल नहीं जो कुडानकुलम के दसियों हजार ग्रामीण, नाभिकीय बिजली सयंत्र के खिलाफ इसी वक्त चला रहे हैं . ‘जनता’ का अर्थ वे मणिपुरी नहीं हैं जो इरोम शर्मिला के अनशन का समर्थन करते हैं. इसका अर्थ जगतसिंहपुर या कलिंगनगर या नियामगिरी या बस्तर या जैतापुर में सशस्त्र पुलिस और खनन माफिया का सामना कर रही जनता नहीं. हमारा अभिप्राय भोपाल गैस काण्ड के शिकार लोगों या नर्मदा घाटी में बाँध के चलते विस्थापित लोगों से नहीं. हमारा अभिप्राय नोयडा या पुणे या हरियाणा या देश के दूसरे इलाकों के किसानों से भी नहीं जो जमीन अधिग्रहण के खिलाफ प्रतिरोध कर रहे हैं.

जनता का अर्थ केवल वे दर्शक हैं जो एक 74 साल के एक व्यक्ति के चमत्कारिक प्रदर्शन समारोह में शामिल हैं जो धमकी दे रहे हैं कि यदि जन लोकपाल बिल संसद में पेश और पास नहीं नहीं हुआ तो वे खुद को भूखा मार लेगें. ‘जनता’ ये दसियों हजार लोग हैं जिन्हें टीवी चैनलों द्वारा करामाती तरीके से बढ़ा-चढ़ा कर लाखों बताया जा रहा है, वैसे ही जैसे ईशा मसीह ने भूखे लोगों का पेट भरने के लिए मछली और मांस को कई गुना बढ़ा लिया था. चैनल हमें बता रहे हैं कि “एक अरब लोगों की पुकार - अन्ना ही भारत है’’.

ये नये संत, ये जनता की आवाज वास्तव में हैं कौन? बड़ी अनोखी बात है कि हमने किसी भी बेहद जरुरी मुद्दे के बारे में उन्हें कुछ भी कहते नहीं सुना. अपने पड़ोस के इलाके में ही किसानों की आत्महत्याओं के बारे में या उससे थोड़ी ही दूर ऑपरेशन ग्रीन हंट के बारे में कोई बात नहीं. सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ के बारे में कुछ भी नहीं, पॉस्को के बारे में कुछ भी नहीं, किसान आंदोलनों या विनाशकारी सेज (एसईज़ेड) के बारे में कुछ भी नहीं. लगता नहीं कि मध्य भारत के जंगलों में भारतीय सेना तैनात करने की सरकारी योजना के बारे में भी उनका कोई मत है.

हालाँकि वे राज ठाकरे के मराठी मानुष क्षेत्रवादी विद्वेष का समर्थन करते हैं और गुजरात के मुख्यमंत्री के ‘विकास मॉडल’ कि प्रशंसा कर चुके हैं जिसने 2002 में मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार की अनदेखी की (अन्ना ने जनता के गुस्से को देखते हुए अपना वह बयान वापस ले लिया लेकिन अपनी श्रद्धा वापस नहीं ली).

इस शोरगुल के बावजूद मर्यादित पत्रकारों ने वह काम किया है जो पत्रकार होने के नाते उन्हें करना चाहिए. आरएसएस के साथ अन्ना के पुराने सम्बन्धों के बारे में पिछली कहानी अब हमारे सामने है. हमने मुकुल शर्मा से जाना, जिन्होंने रालेगण सिद्धी में अन्ना के ग्राम समुदाय का अध्ययन किया, जहाँ पिचले २५ वर्षों से ग्राम पंचायत या सहकारी समिति का चुनाव नहीं हुआ. ‘हरिजनों’ के बारे में अन्ना के रुख को जानते हैं , उन्हीं के शब्दों में “महात्मा गाँधी का यह सपना था कि हर गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक कुम्हार इत्यादि होना चाहिये. उन सब को अपनी भूमिका के अनुसार और पेशे के अनुसार अपना काम करना चाहिए और इस तरह से एक गाँव आत्मनिर्भर होगा. इसी को हम रालेगाण सिद्धी में व्यवहार में ला रहे हैं.” यह आश्चर्यजनक है कि टीम अन्ना के सदस्य यूथ फॉर इक्वलिटी नामक आरक्षण विरोधी (प्रतिभा समर्थक) आन्दोलन से भी जुड़े हुए हैं. यह आन्दोलन उन लोगों द्वारा चलाया जा रहा है जिनके हाथों में उदारतापूर्वक वित्त पोषित एनजीओ के शिकंजे हैं जिनके दानदाताओं में कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स शामिल हैं. अन्ना टीम के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा संचालित कबीर संस्था नें पिछले तीन वर्षों में फोर्ड फाउंडेशन से 4,00,000 डॉलर (1,82,24,000 रुपये) प्राप्त किये हैं. इंडिया अगेंस्ट करप्सन को चंदा देने वालों में ऐसी भारतीय कम्पनियाँ और फाउंडेशन हैं जो एलुमिनियम प्लांट के मालिक हैं, बंदरगाह और सेज बनाते हैं, रियल स्टेट का कारोबार करते हैं और जिसका ऐसे नेताओं से करीबी सम्बन्ध है जो हजारों करोड़ रुपये के कारोबार वाले वित्तीय साम्राज्य के मालिक हैं. इनमें से कुछ के ऊपर आज-कल भ्रष्टाचार और अपराध के मुकदमों की जाँच चल रही है. आखिर वे लोगे इतने उत्साहित क्यों हैं?

याद करें, जन लोकपाल बिल की मुहीम ठीक उसी समय जोर पकड़ रही थी जब बेचैनी पैदा करने वाले विकीलीक्स के खुलासों और घोटालों की एक पूरी श्रंखला का भंडाफोड़ हुआ, जिसमें लगा की बड़े पूँजीपति, चोटी के पत्रकार, राजनेता, सरकार के मंत्री तथा कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने आपस में नाना प्रकार से साँठगाँठ करके जनता के हजारों करोड़ रुपये का वारा-न्यारा किया. वर्षों बाद पहली बार पत्रकार-लौबिस्ट कलंकित हुए और ऐसा लगा जैसे की भारतीय पूँजीपति घरानों के कुछ बड़े लोग अब जेल के अंदर होंगे. जनता के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का एकदम सही समय. क्या ऐसा नहीं था?

ऐसे समय जब राज्य अपने परम्परागत कर्तव्यों से मुँह मोड़ रही है तथा पूँजीपति और एनजीओ सरकारी कामों (जलापूर्ति, बिजली, यातायात, संचार, खनन, स्वस्थ्य, शिक्षा) को हथिया रहे हों, ऐसे समय जब पूँजीपतियों के मालिकाने वाली मीडिया की भयावह शक्ति और पहुँच जनता की कल्पना शक्ति को नियन्त्रित करने का प्रयास कर रहा हो, तब कोई भी यह सोचेगा की इन संस्थाओं - पूँजी प्रतिष्ठानों, मीडिया और एनजीओ को भी लोकपाल बिल के क़ानूनी दायरे में लाया जायेगा. इसके बजाय प्रस्तावित बिल उन्हें पूरी तरह बाहर छोड़ता है.

अब, हर किसी से ऊँची आवाज में चीखते हुए, दुष्ट नेताओं और सरकारी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मुहिम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बढ़ी चतुराई से अपने को बचा लिया. सबसे घटिया यह कि केवल सरकार को राक्षस के रूप में पेश करते हुए उन्होंने अपने आपको उपदेशक के मंच पर आसीन कर लिया जहाँ से वे सार्वजानिक मामलों से सरकार को और पीछे हटने और दूसरे चक्र के सुधारों का आह्वान कर रहे हैं- और ज्यादा निजीकरण, सार्वजानिक आधारभूत ढाँचे और भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर और अधिक कब्ज़ा. ज्यादा समय नहीं लगेगा जब पूँजीपतियों के भ्रष्टाचार को क़ानूनी बना दिया जायेगा और लॉबिंग करने वालों को आजाद कर दिया जायेगा.

क्या 20 रुपये रोज पर गुजारा करने वाले 83 करोड़ लोगों को उन्हीं नीतियों को और आगे बढाये जानेस से लाभ होगा जिनके कारण ही वे कंगाल हुए और जिनके कारण यह देश गृहयुद्ध की ओर धकेला जा रही है?

यह भयावह संकट भारत के प्रातिनिधिक लोकतंत्र की चरम असफलता से पैदा हुआ है, जिसमें विधायिका अपराधियों से गठित होती है और करोड़पति नेता अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करना छोड़ चुके हैं. जिसमें एक भी लोकतांत्रिक संस्था साधारण आदमी की पहुँच में नहीं है. झण्डा लहराते देख कर गफलत में मत आइये. हम देख रहे हैं कि आज भारत को एक अधीनस्थ राज्य बनाने की ऐसी लड़ाई की तैयारी हो रही है जो अफगानिस्तान के युद्ध सरदारों द्वारा लड़ी जा रही किसी भी लड़ाई से अधिक भयंकर होगी, उससे कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा कुछ दाँव पर लगा है.

(22 अगस्त के ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अरुंधती रॉय के लेख का अविकल हिंदी अनुवाद.साभार)