Tuesday, August 14, 2012

मातमे आज़ादी - जोश मलीहाबादी


देश-विभाजन की एक त्रासद तस्वीर (फोटो- मार्गरेट बर्क-ह्वाइट)

(14 अगस्त 1947 की आधी रात, एक समझौते के जरिये भारतीय पूँजीपति वर्ग की पार्टी काँग्रेस को सत्ता हस्तांतरित करके अंग्रेज यहाँ से चले गये, लेकिन जाते-जाते इस देश के दो टुकड़े कर गये. विभाजन की इस त्रासदी को आज भी भारतीय उपमहाद्वीप की जनता तरह-तरह से भुगत रही है. आज़ादी का क्या हश्र होना था, इसका अंदाज़ा उस दौर के कई कवियों, शायरों और रचनाकारों ने लगाया था. इंकलाबी शायर जोश मलीहाबादी की यह नज्म बँटवारे की उसी त्रासद स्थिति का बयान करती है और समझौते से मिली अधूरी आज़ादी की असलियत को उजागर करती है.)

मातमे आज़ादी - जोश मलीहाबादी

शाखें हुईं दो-नीम जो ठंडी हवा चली
गुम हो गयी शमीम जो बादे-शबा चली

अंग्रेज ने वो चाल बा-जोरो-जफ़ा चली
बरपा हुई बरात के घर में चला-चली

अपना गला खरोशे-तरन्नुम से फट गया
तलवार से बचा तो रगे-गुल से कट गया

सिख ने गुरु के नाम को बट्टा लगा दिया
मंदिर को बिरहमन के चलन ने गिरा दिया

मस्जिद को सेख जी की करामत ने ढा दिया
मजनू ने बढ़ के पर्दा-ए-महमिल गिरा दिया

इस सू-ए-जाँ को गलगला-ए-आम कर दिया
मरियम को खुद मसीह ने बदनाम कर दिया

सिक्कों की अंजुमन के खरीदार आ गये
सेठों के खादिमान-ए-वफादार आ गये

खद्दर पहन-पहन के बद-अवतार आ गये
दर पर सफेदपोश सियाह्कार आ गये

दुश्मन गये तो दोस्त बने दुश्मने-वतन
खिल-अत की तह खुली, तो बरामद हुआ कफ़न

बर्तानिया के खास गुलामान-ए-खानज़ाद
देते थे लाठियों से जो हुब्बे-वतन की दाद

एक-एक जबर जिनकी है अब तक सरों को याद
वो आई.सी.एस. अब भी हैं खुश्बख्तो-बामुराद

शैतान एक रात में इन्सान बन गये
जितने नमक हराम थे कप्तान बन गये

वहशत रवा, अनाद रवा, दुश्मनी रवा
हलचल रवा, खरोश रवा, सनसनी रवा

रिश्वत रवा, फसाद रवा,रहजनी रवा
अल-किस्सा हर वो शै की नाक़र्दनी रवा

इन्सान के लहू को पियो इज़ने-आम है
अंगूर की शराब का पीना हराम है

छाई हुई है ज़ेरे-फलक बदहवाशियाँ
आँखे उदास-उदास, तो मन हैं धुँआ धुँआ


मनके ढले हुए हैं तो ऐंठी हुई जबान
वो ज़ौफ़ है की मुँह से निकलती नहीं फुगाँ

एक-दूसरे की शक्ल तो पहचानते नहीं
मैं खुद हूँ कौन, ये भी कोई जानता नहीं

फुटपाथ, कारखाने, मिलें, खेत, भट्टियाँ
गिरते हुए दरख़्त, सुलगते हुए मकाँ

बुझते हुए यकीन. भड़कते हुए गुमाँ
इन सबसे उठ रहा है बगावत का फिर धुआँ

शोलों के पैकरों से लिपटने की देर है
आतिशफिशाँ पहाड़ के फटने की देर है

वो ताज़ा इंकिलाब हुआ आग पर सवार
वो सनसनाई आँच, वो उड़ने लगा शरार

वो गुम हुए पहाड़ वो गल्तन हुआ गुबार
ऐ बेखबर! वो आग लगी, आग, होशियार

बढ़ता हुआ फिजाँ ये कदम काढ़ता हुआ
भूचाल आ रहा है जो फुंकारता हुआ

2 comments:

  1. जहाँ १५ अगस्त पर टी.वी चेनलों पर हमारे ही देश के टुकड़े पाकिस्तान विरोधी फिल्मों की भरमार होती है वहीँ इस कविता के माध्यम से यह महसूस होता है कि हमारा असली दुश्मन पकिस्तान कतई नहीं है. हमारे असली दुश्मन आज अंग्रजों के जाने के बाद नीतियां तय करने वाले हुक्मरान है.

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