Monday, January 2, 2012

आधुनिक मानव का अलगाव


गोया का अम्ल-उत्कीर्णन -- दाँतों के लिए शिकार

  (फित्ज़ पपेन्हाइम की किताब “द एलिएनेशन ऑफ मॉडर्न मैन” का हिन्दी अनुवाद “आधुनिक मानव का अलगाव शीर्षक से जल्दी ही प्रकाशित होने वाला है. प्रस्तुत है उस मूल पुस्तक की भूमिका का हिन्दी अनुवाद.)
गोया ने ‘‘कैप्रीकोस’’ शृंखला की अपनी एक कलाकृति का शीषर्क रखा है- ‘‘दाँतों के लिए शिकार’’। इस अम्ल-उत्कीर्णन में एक औरत को दिखाया गया है जो इस अंधविश्वास के चलते कि फाँसी पर लटकाये गये आदमी के दाँत जादुई शक्ति पैदा कर सकते हैं, फाँसी के फन्दे से झूलती लाश के पास चोरी-छुपे चली जाती है। अपने घृणास्पद चेहरे को उस लाश से अलग करने के लिए कपड़े से परदा किये वह अनमोल दाँतों को हासिल करने के संकल्प और अन्तद्र्वन्द्व में फँसी हुई है। वह अपने पंजों के बल खड़ी है, उसकी बाँह में खिंचाव है और जुगुप्सा से थरथराती हुई वह अपना हाथ उस अकड़ी हुई लाश के मुँह की ओर ले जाने की कोशिश करती है।
    क्या यह उस जमाने की रुग्णता का चित्रण है जो काफी पहले बीत चुका? इस तरह की व्याख्या हमें बहुत आश्वस्त नहीं कर सकती। ढेर सारे प्रमाण हैं जो बताते हैं कि आज के जमाने में भी गोया के इस अम्ल-उत्कीर्णन की प्रासंगिकता समाप्त नहीं हुई है। कुछ साल पहले एक लोकप्रिय पत्रिका ने किसी फोटोग्राफी प्रतियोगिता का परिणाम प्रकाशित किया था। उसमें एक पुरस्कार ताजा समाचारों को तीव्रता से पहुँचाने वाले चित्रों के लिए निर्धारित था। एक पुरस्कृत चित्र में एक सड़क दुर्घटना को दर्शाया गया था जिसमें दो मोटर गाडि़यों के टकराने से उनके परखच्चे उड़ गये थे। उस चित्र में मौत से ठीक पहले उस दुर्घटना के शिकार एक व्यक्ति का दर्द से पीडि़त चेहरा दिखाया गया था।
    गोया के अम्ल-उत्कीर्णन में दर्शायी गयी औरत और प्रतियोगिता में शामिल उस सफल फोटोग्राफर के उद्देश्यों में हो सकता है कि पूरी तरह भिन्नता हो। एक अंधविश्वास से संचालित हो रही थी, दूसरा पैसे के लालच और शोहरत की कामना से। फिर भी इन दोनों व्यक्तियों के बीच एक समानता-सी दिखती है। दोनों ही अपने स्वार्थों की अनवरत भागम-भाग में इतने लीन हैं कि यर्थाथ से उनके टकराव का हर पहलू उनकी इसी दौड़-भाग से तय होता है। उन्होंने जो कुछ भी अनुभव किया, उसके अपने आप में कोई मायने नहीं; उनके लिए ऐसी किसी भी चीज की कोई कीमत नहीं जो उनके उद्देश्य की पूर्ति का साधन न बन सके। यहाँ तक कि वे मौत को भी नहीं छोड़ते। उससे सामना होने पर वे केवल उसके उसी एक पहलू से खुद को जोड़ पाते हैं जो उनके हिसाब से फायदेमन्द हो, जबकि अन्य पहलुओं के प्रति जो उनके लिए बेकार हैं, वे तटस्थ दर्शक बने रहते हैं। चाहे मौत से मुकाबला ही क्यों न हो।
    क्या हम कह सकते हैं कि यह विलगाव और हिस्सेदारी का अभाव केवल कुछ एक लाख लोगों का खास चरित्र है, जैसे गोया के अम्ल-चित्र वाली औरत या वह फोटोग्राफर जो एक अन्य मनुष्य की पीड़ा को देखकर भी सिर्फ अपने कैमरे का इस्तेमाल करने के बारे में ही सोचता है? दिल को बहलाने वाली ऐसी कोई सोच यर्थाथवादी नहीं हो सकती। ऐसा लगता है कि हम सभी लोगों के अन्दर असम्पृक्त मूक दर्शक बनने की प्रवृत्ति मौजूद है। जब हम दूसरे लोगों से मिलते हैं या महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर प्रतिक्रिया कर रहे होते हैं तो हमारा झुकाव किसी आंशिक टकराव की ओर होता है। हम किसी अन्य व्यक्ति के साथ उसकी सम्पूर्णता में या किसी घटना के साथ उसकी समग्रता में नहीं जुड़ते, बल्कि हम उस एक हिस्से को अलग कर लेते हैं जो हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है और बाकी हिस्से के प्रति कमोबेश दूर खड़े दर्शक बने रहते हैं।
    जो व्यक्ति असल चीज को इस तरह दो हिस्सों में तोड़ता है, उसका व्यक्तित्व भी अपने आप में बँट जाता है। गोया के अम्ल-उत्कीर्णन में महिला के भीतर जो विभेद उभरता है वह इतना गहरा है कि लगता है, जैसे कलाकार ने उसे दो मानव अस्तित्व के रूप में दर्शाया है जो एक दूसरे से अलग-थलग हैं-- एक उस लालच भरे बेशकीमती माल की ओर बढ़ता हुआ और दूसरा घृणास्पद रूप से अपने इस कुकृत्य से मुँह फेरने की कोशिश करता हुआ। ऐसे मनुष्य की दशा कितनी भयावह होती है, लेकिन यही वह नियति है जो हम में से कई लोगों के जीवन को गढ़ती है। ऐसा लगता है जैसे हम एक त्रासद अन्तरविरोध की गिरफ्त में आ गये हों। व्यक्तियों के रूप में अपने आप की हिमायत करते हुए हम यथार्थ के केवल उन्हीं पहलुओं से खुद को जोड़ते हैं जो हमारे उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक प्रतीत होते हैं और हम इसके बाकी हिस्से से दूर ही रहते हैं। लेकिन इस अलगाव को हम जितना ही आगे बढ़ाते हैं, हमारे खुद के भीतर की दरार उतनी ही गहरी होती जाती है।
     ‘‘कम्पनी वाइफ’’ जो अपने पति की तरक्की की चिन्ता में उन लोगों से दोस्ती नहीं करती जिनके प्रति वह लगाव महसूस करती है, बल्कि ज्यादातर ‘‘उचित लोगों’’ को दोस्त बनाती हैं; वे व्यक्ति जो सामाजिक प्रतिष्ठा या अपने पेशे या व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए ऐसे चर्च में जाते हैं जो उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि और विश्वास का प्रतीक होने के बजाय उन्हें अपेक्षतया अधिक प्रतिष्ठा प्रदान करता है, राजनेता जो यह सोचकर कि किसी अलोकप्रिय मुद्दे पर संघर्ष छेड़ने से उसके दुबारा चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं रहेगी, अपने राजनीतिक भविष्य की चिन्ता में अपने दृढ़ विश्वास को तिलांजलि दे देता है; वह चित्रकार जो घिसे-पिटे विचारों के प्रति नहीं बल्कि रचनाशीलता के प्रति वचनबद्ध होते हुए भी, एकाकी कलाकार के संघर्ष को त्यागकर आकर्षक कमाई और सुनिश्चित नौकरी के लिए किसी विज्ञापन एजेन्सी में चला जाता है-ये सभी व्यक्ति दिखाते हैं कि जो लोग सच्चाई से विमुख हो जाते हैं, वे खुद के भी नहीं हो सकते।
    हर वह चीज जो स्वार्थ की पूर्ति में सहायक नहीं उससे किसी व्यक्ति का अलगाव, जरूरी नहीं कि उसकी चेतना में प्रवेश कर जाये और न ही वह अपने खुद के व्यक्तित्व से विमुख होने को लेकर हमेशा सचेत रहता है या इसे बेचैन करने वाले अनुभव के रूप में ही महसूस करता है। अपनी निर्लिप्तता के चलते ही, अलगावग्रस्त मनुष्य अक्सर बड़ी सफलताएँ हासिल करने में समर्थ होता है। ये सफलताएँ जब तक जारी रहती हैं, लाजिमी तौर पर जड़ता पैदा करती हैं, जिसके कारण उस व्यक्ति के लिए खुद के विमुख हो जाने का अहसास कर पाना कठिन हो जाता है। केवल संकट की घड़ी में ही वह इसे महसूस करना शुरू करता है।
    अलगाव की बढ़ती प्रवृत्ति को लेकर समाज में भी आम तौर पर कोई बेचैनी नहीं है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे ‘‘अलगाव’’ शब्द के इतिहास से समझा जा सकता है। अपने दार्शनिक अर्थ में यह पद उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में फिश्ते और हीगल द्वारा प्रयोग किया गया था, हालाँकि उस दौरान इसका प्रभाव उनके अनुयायियों के छोटे से समूह तक ही सीमित था। समाजशास्त्र के सिद्धान्तों में यह उसी शताब्दी के चालीस के दशक में शामिल किया गया जब माक्र्स ने पूँजीवादी युग की अपनी व्याख्या को आत्म-अलगाव की अवधारणा पर केन्द्रित किया। लेकिन इस अवधारणा ने इस प्रभाव का प्रयोग लम्बे समय तक नहीं किया और आने वाली अवधि में लगभग इसे भुला दिया गया। आज, लगभग सौ साल बाद यह एक बार फिर केन्द्र में आ गया और उन लोगों के बीच भी यह लगभग एक मोहक शब्द बन गया है, जिन्हें मार्क्सवादी विचारों से कोई सहानुभूति नहीं। इसकी वजह सम्भवतः वर्षों से जारी संकट है जिसने हमें मानवीय विरक्ति की समस्या के प्रति जागरूक होने पर बाध्य किया है।
मूल अंग्रेजी पुस्तक का कवर 
    आज मनुष्य के अलगाव के बारे में कई तरह के लोगों द्वारा चिन्ता व्यक्त की जाती है- धर्मज्ञानियों और दार्शनिकों द्वारा जो चेतावनी देते हैं कि वैज्ञानिक ज्ञान में प्रगति के बावजूद हम अस्तित्व के रहस्य को बेधने में समर्थ नहीं हुए हैं तथा जानने वाले (सब्जेक्ट) और जिस सच्चाई को वह जानने की कोशिश करता है (आब्जेक्ट) , उन दोनों के बीच की खाई को पाटने के बजाय विज्ञान ने उसे और चैड़ा किया है; मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो अपने रोगी को विभ्रम से यर्थाथ की ओर लौटने में मदद करता है; जीवन में बढ़ती यान्त्रिकता के आलोचकों द्वारा जो इस आशावादी अपेक्षा को चुनौती देते हैं कि तकनोलाॅजी में प्रगति खुद-ब-खुद मानव जीवन को खुशहाली की ओर ले जायेगी; राजनीति वैज्ञानिकों द्वारा जिन्होंने उल्लेख किया कि जनतांत्रिक संस्थाएँ भी हमारे दौर के महत्त्वपूर्ण मामलों में व्यापक जनता की असली भागीदारी सुनिश्चित करने में असफल रही हैं।
    इनमें से कुछ दृष्टिकोणों का इस पुस्तक के पहले अध्याय में अधिक पूर्णता के साथ वर्णन किया गया है- उन विचारों तक पीछे जाकर जिन्हें पचास साल पहले समाजशास्त्री और दार्शनिक गियोर्ग सिमेल ने विकसित किया था और जिसे बाद में अस्तित्ववादी दर्शन के प्रवक्ताओं, रोमन कैथोलिक विद्वान दोमानो गुआर्दिनी और अन्य लोगों ने सुस्पष्ट किया था। उन लेखकों ने मानवीय अलगाव के खास नमूनों को समझने में काफी योगदान किया। हालाँकि उनमें अलगाव के विशेष रूपों पर  ध्यान केन्द्रित करने के प्रति मोह था, बिना यह देखे कि वे आपस में एक-दूसरे से किस तरह जुड़े हुए हैं, बिना यह सोचे कि ये अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ कहीं एक ही समकालीन प्रबल प्रवृत्ति के अलग-अलग अंग तो नहीं। जब तक हम यह सवाल उठाने में असफल रहेंगे, तब तक हम समस्या की एक वास्तविक समझ तक नहीं पहुँच पायेंगे। अलगावग्रस्त आदमी जिस पीड़ा और ठहराव को झेलता है, उससे सामना होने पर हम भी अपनी व्यथा को दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटनओं के नतीजे के रूप में देखेंगे। अलगाव की अन्तर्निहित शक्तियों पर पकड़ हासिल करने के बजाय हम केवल अतीतग्रस्तता  और उदासी का अहसास करके प्रतिक्रिया करेंगे या फिर शिकवा-शिकायत और खोखला विरोध करेंगे।
    यह पुस्तक ऐसी किसी भी गलती से बचने की कोशिश करती है। विल्हेल्म डिल्थी ने कहा है कि जो ऊर्जा किसी युग को आकार देती हैं उनकी अभिव्यक्तियाँ एक-दूसरे से मिलती-जुलती होती हैं। यह अन्तर्दृष्टि अलगाव की समझदारी पर भी लागू होती है। अलगाव के अकेले रूपों को लेकर ध्यानमग्न होना, उनके बीच की कडि़यों की जानकारी को धुँधला नहीं करता। हमें पहले ही इस सवाल को खारिज नहीं कर देना चाहिए कि अलग-अलग लगने वाली ये अभिव्यक्तियाँ एक ही स्रोत से; हमारे युग की मूल दिशा और इसकी सामाजिक संरचना से उत्पन्न होती हैं।
    लेकिन क्या यह समस्या का अति सरलीकरण नहीं कि हम अलगाव की जड़ मानवीय परिस्थितियों में देखने के बजाय इसे किसी विशेष ऐतिहासिक युग से जोड़ते हैं? कई पाठक यहाँ यह सवाल उठायेंगे और जब वे पुस्तक के दूसरे भागों की ओर बढ़ेंगे तो उसे दुहरायेंगे। यह लेखक के लिए एक गम्भीर चुनौती लगती है और वह इसका जवाब अन्तिम अध्यायों में देने का प्रयास करता है। यहाँ केवल एक गलतफहमी के बारे में सावधान करना ही सम्भव है जो पैदा हो सकती है। इस सिद्धान्त से कि अलगाव की शक्तियाँ हमारे युग में प्रबल हैं, यह अर्थ नहीं निकलता कि पहले के युगों में इनका अस्तित्व ही नहीं था। यह केवल इस बात पर जोर देता है कि आधुनिक दुनिया में इनकी तीव्रता और महत्त्व में वृद्धि हुई है। इस घटनाक्रम का अपने युग की सामाजिक संरचना के साथ सम्बन्ध स्थापित करना इस पुस्तक का उद्देश्य है।
    इस कार्यभार को आगे बढ़ाने के लिए हम मार्क्स की कुछ शुरुआती रचनाओं और खास तौर पर 1844 की अर्थशास्त्र और दर्शन सम्बन्धी पाण्डुलिपियाँ तक पीछे मुड़कर देखेंगे, जिन पर हालाँकि फ्राँस, जर्मनी और इंग्लैण्ड में हाल-फिलहाल काफी चर्चा हुई है, लेकिन इस देश में यह लगभग अज्ञात है। हमारा एक उद्देश्य यह भी है कि अमरीकी पाठकों का ध्यान इन पाण्डुलिपियों की ओर आकर्षित किया जाय, जिनके कुछ अंशों का ही अब तक अंग्रेजी में अनुवाद हो पाया है। इसीलिए हमने उनमें से ढेर सारे उद्धरण इस पुस्तक में दिये हैं, खासकर अध्याय चार में।
    आज भी, मार्क्स की रचनाओं से सम्बन्धित विवादों में एक तरफ जड़सूत्रवादी समर्थन और दूसरी तरफ सनकी अस्वीकार का बोलबाला है। इसलिए यह उम्मीद करना महज साहस ही होगा कि कोई व्यक्ति इन पाण्डुलिपियों से चुने गये वक्तव्यों की परीक्षा ठण्डे दिमाग से और पूर्वाग्रह रहित होकर करे। फिर भी मार्क्स का बेहद सच्चा हिमायती केवल इसलिए उनके विचारों की उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकि वे उन दृष्टिकोणों से मेल नहीं खाते जो सामान्यतः माक्र्स की विशेषता मानी जाती है। उनका अत्यन्त दृढ़ विरोधी भी अवश्य अनुभव करेगा कि दुश्मन की सही अवस्थिति और शक्ति को कम करके आँकने की प्रवृत्ति अक्सर ऐसी गलतियों की ओर ले जाती है जिसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
    हमने फर्दिनान्द टोनीज (1855-1936) की रचनाओं का भी विस्तार से निरूपण किया है, क्योंकि हमारी राय में उन्होंने मानवीय अलगाव और समाज के बीच के सम्बन्ध की जानकारी में काफी योगदान दिया है। हालाँकि इस जर्मन विद्वान का नाम 1906 में ही अमरीकन जरनल ऑफ सोशियोलोजी के सलाहकार सम्पादकों के सामने आ चुका था, उनकी रचना समुदाय और समाज को, जिसे कई समाजशास्त्रीय पुस्तकों और शोध पत्रों में उद्धृत किया गया, उसे वास्तव में स्वीकार नहीं किया गया और अपेक्षतया अज्ञात ही रहा। व्यापक रूप में स्वीकृति इस व्याख्या ने कि इसकी रचना भूतकाल की ओर लौटने की अतीतग्रस्त इच्छा से प्रेरित है, कई समाजशास्त्रियों को इसका स्थायी महत्त्व स्वीकारने से रोका। फिर भी हमें विश्वास है कि टोनीज की रचना आज अत्यन्त प्रासांगिक है। इसकी मूल अवधारणा जो किसी सामाजिक संरचना को उस ऐतिहासिक यर्थाथ से अलग किये बिना, जिसमें वह सन्निहित है, विश्लेषित करना सम्भव बनाती है- जिस दिशा में हमारा आधुनिक समाज जा रहा है उसकी एक महत्त्वपूर्ण अन्तदृष्टि देती है।
    लेखक यह स्वीकार करता है कि यह निबन्ध निर्लिप्त तटस्थता की भावना से नहीं लिखा गया है, बल्कि इस आधार-वाक्य से इसका उद्भव हुआ है कि अलगाव की शक्तियों के प्रभुत्व वाला समाज मानवीय सम्भावनाओं की पूर्ण-प्राप्ति का गला घोंट देता है, कि ऐसे समाज में व्यक्ति का सम्मान और व्यक्ति की गरिमा केवल विचारों और दार्शनिक घोषणाओं के दायरे तक ही सीमित रहेंगी, इन्हें अमल में नहीं लाया जा सकता। जिस नैतिक विवेक ने इस पुस्तक की प्रेरणा दी है, उसने इसे वस्तुपरकता से वंचित तो नहीं किया है? यह फैसला पाठकों को करना है।

Sunday, December 4, 2011

डरबन जलवायु सम्मेलन : अडंगेबाज देशों की धींगामुश्ती

                                                             - माइकल जैकोब्स

(क्वेटो सम्मेलन से लेकर कोपेनहेगन और अब डरबन में भी जलवायु वार्ताओं के दौरान साम्राज्यवादी देशों का रवैया टालमटोल रहा है. जिन देशों ने का बेपनाह दोहन करके उसे कबही की गर्त में धकेल दिया, वे अरब उसे बचने के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं. और पूरी मानवता का विनाश करने पर आमादा हैं. जहाँ एक-एक दिन भरी पद रहा हो वहाँ ये साल डर साल की मोहलत लेना कहते हैं. इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत है यह लेख.)
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध
मनोवैज्ञानिकों ने जब ज्ञान-वैषम्य (cognitiv dissonance) की परिघटना, यानी एक ही समय दो परस्पर बातों पर यकीन करने की क्षमता को पहचाना तो शायद वे अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन समझौतों की व्याख्या कर रहे थे.
केवल इसी महीने, दो आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने ध्यान दिलाया है कि दुनिया के पास अब कुछ ही वर्ष बचे हैं जिसके भीतर खतरनाक ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए पर्याप्त कार्रवाई शुरू कर देनी होगी.
संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम ने कार्बन उत्सर्जन की खाई पाटने सम्बंधी जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है उसके अनुसार अगर सभी देश 2020 तक अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को अधिकतम सीमा तक लागू कर दें, तब भी कुल उत्सर्जन उस लक्ष्य से अधिक होगा, जो संयुक्त राष्ट्र संघ ने ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने देने के लिए निर्धारित किया है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि उत्सर्जन की इस खाई को पाटना है तो और भी आगे बढ़कर कार्रवाई करने की जरूरत है.
इसी समय अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने चेतावनी दी है कि अब दुनिया के पास पेट्रोलियम पदार्थों की जगह कम कार्बन उत्सर्जन वाली ऊर्जा का इस्तेमाल और ऊर्जा कुशलता की दिशा में गंभीर शुरुआत करने के लिए केवल पांच वर्ष का समय है. 2017 तक जरुरी निवेश करने में असफलता, भविष्य में अत्यधिक उत्सर्जन की जकड़बंधी को इस हद तक पहुंचा देगी कि 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करना असंभव हो जायेगा.
इसके बावजूद डरबन में संयुक्तराष्ट्र जलवायु वार्ता में शामिल प्रतिनिधि इस बात पर तर्क-वितर्क कर रहे हैं कि नए दौर की समझौता-वार्ताएँ 2015 से पहले शुरू हो भी पाएंगी या नहीं. कुछ देश तो लगता है कि 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को ही कूड़ेदान में फेंक देना चाहते हैं, भले ही वे इस पर सहमति जताने का शब्दजाल फैलाते हों.
अलग-अलग देश अपने निकम्मेपन को छुपाने के लिये गड़े गए इस झूठे आरोप के आधार पर अपना दृष्टिकोण तय कर रहे हैं की जलवायू वार्ताएँ हमेशा ही विकसित बनाम विकासशील देशों के मुद्दे पर जाकर अटकती रही है. इस तर्क-वितर्क के एक छोर पर वे देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के आगे सबसे अधिक लाचार हैं- छोटे द्वीप और अल्प विकसित राष्ट्र और यूरोपीय संघ. ये देश चाहते हैं कि नए वैधानिक सहमति  को लेकर समझौते की शुरुआत अगले साल हो जाये, 2015 तक निष्कर्ष निकल आये और उसके बाद जितनी जल्दी संभव हो, उन्हें लागू कर दिया जाये (यूरोपीय संघ ने कहा है कि हद से हद 2020 तक). दूसरा छोर जो इस बात की वकालत कर रहा है कि नयी वार्ताएँ 2015 के बाद ही शुरू होनी चाहिए, वह परंपरागत विकसित देशों में फिसड्डी रहे- अमरीका, कनाडा, रूस और जापान तथा दो बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाएं चीन और भारत का एक असंभव सा गठजोड़ है.
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध
देर करने वाले दलील देते हैं कि एक नए चरण की वार्ताएँ करने का अभी समय नहीं आया है. एक साल पहले कानकुन में अंतिम दौर की वार्ता समाप्त होने के बाद, आज की प्राथमिकता उन निर्णयों को लागू करना है जिन पर सहमति बनी है. उनका कहना है कि देशों ने अभी-अभी तो अपने घरेलू उत्सर्जनों में कटौती की योजनाएँ लागू करना शुरू किया है. इनमें से अधिकांध देश निम्न कार्बन और हरित विकास की नीतियों को अपनाने के लिए जूझ रहे हैं, इसलिए वे नए समझौतों के बारे में सोचने के लिए तैयार नहीं हैं.
मौजूदा आर्थिक वातावरण में 2020 के लिए नयी वचनबद्धता पर सहमति की सम्भावनाएं लगभग नहीं के बराबर हैं. तर्क यह दिया गया है कि संयुक्तराष्ट्र 2013-15 में होने वाले 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य की समीक्षा के लिए पहले ही वचनबद्ध है जो उसके बाद के नए समझौतों के लिए उपयुक्त आधार प्रदान करेगा (एक भारतीय प्रतिनिधि ने डरबन में कहा कि इस बात का फैसला करने के लिये कि क्या तथ्यत: कोई उत्सर्जन की खाई है भी या नहीं, 2014 में इंटर गवर्मेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की 2014 में अपनी अगली रिपोर्ट आने तक दुनिया को इंतजार करना चाहिये.) देर करने वाले समूह में शामिल कई देशों के लिए ये तर्क-वितर्क केवल इस बात को ढकने का बहाना भर है कि वे किसी नयी वैधानिक सहमति के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं हैं.
क्वेटो को नकारने वाले (अमरीका, जिसके साथ अब कनाडा भी जुड़ गया) किसी भी तरह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी के बंधन को नापसंद करते हैं, जबकी चीन और भारत उस तारीख को टालकर आगे बढ़ाने की माँग कर रहे हैं, जिस दिन से ये समझौते लागू होने हैं. हालाँकि इस बात का जवाब किसी के पास नहीं कई कि जिस 2 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को सबने गले लगाया, उसे देर करते जाने पर कैसे हासिल किया किया जा सकता है.
सच तो यह है कि इस बात को लेकर ‘तत्काल वार्ता शुरू करो’ खेमे के भीतर भी असहमति है. छोटे द्वीप और अल्पविकसित देश चाहते हैं की कोई भी अवधि केवल अगले पांच वर्ष (2013-17) तक बढ़ायी जानी चाहिये और नए चरण के लक्ष्य 2018 में शुरू हो जाने चाहिये. लेकिन यूरोपीय संघ को अपने घरेलू जलवायु नीतियों के विशाल और नाजुक ढांचे को दुबारा शुरू करने से नफ़रत है जो सभी 2020 से जुड़े हुए हैं. उन्हें भय है कि इन्हें कड़ा करने के बनिस्बत सुलझा लेने की सम्भावना अधिक है.
यह तय है कि समाधान इस बात में निहित है कि 2013-15 के लिए निर्धारित संयुक्त राष्ट्र समीक्षा, कितनी वृहतर तात्कालिक महत्वाकांक्षा उत्पन्न कर पाती है.
डरबन सम्मेलन में शामिल विभिन्न पक्षों के भीतर इस बात पर अभी तक मतभेद हैं की समीक्षा आखिर क्या बाला है. कुछ इसे महज एक रिपोर्टिंग प्रक्रिया के रूप में देखते हैं कि अलग-अलग देश अपनी वचनबद्धता को लागू करने के लिए क्या कर रहे हैं. लेकिन दूसरे इसे इस आकलन की सम्भावना के रूप में देखते हैं कि 2 डिग्री सेल्सियस वास्तव में सही वैश्विक लक्ष्य है भी या नहीं (छोटे द्वीप की सरकारें चाहती हैं कि यह 1.5 डिग्री सेल्सियस होना चाहिये) और उत्सर्जन में कमी लाने के लिए मिल-जुल कर प्रयास कैसे किया जा सकता है. यह न केवल 2025 और 2030 के लिए नयी वचनबद्धताएं निर्धारित करने की अनुमति देगा- जो निश्चय ही किसी नये लक्ष्य- क्वेटो प्रोटोकॉल के नए संसकरण के लिए आधारशिला का काम करेगी, बल्कि 2020 के लिए की गयी वचनबद्धता के लिए मजबूती प्रदान करेगी. इस बात की सम्भावना बहुत ही कम है कि फ़िलहाल कुछ हो पायेगा.
लेकिन 2015 तक, जब हो सकता है कि बदतरीन आर्थिक संकट (शायद) खत्म हो जाये और नयी आईपीसीसी रिपोर्ट एक बार फिर दुनिया को उस खतरे के प्रति आगाह करे जो जलवायु परिवर्तन के चलते उत्पन्न हो रहा है, उम्मीद है की शायद कुछ हो पाए.
(लेखक : माइकल जैकोब्स, लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में जलवायु परिवर्तन के अतिथि प्राध्यापक हैं.द हिन्दू 3 दिसम्बर 2011 में प्रकाशित. क्लाइमेट टाक्स : ‘डिलेयर कंट्रीज’ फ्लेक्स मसल्स का हिन्दी अनुवाद)