Tuesday, June 11, 2013

आनेवाली पीढ़ी के नाम – बर्तोल्त ब्रेख्त

 
brekht

                                                                                                                                                                                                                                                                                    ब्रेख्त की इस कविता का अनुवाद मैंने 80 के दशक में किया  था और वह 'वर्तमान साहित्य 'में प्रकाशित हुआ था. अब उसे ढूँढना तो मुश्किल ही है. यह कविता मुझे पसंद है तो इसका मैं तीसरी बार अनुवाद किया हूँ. अभी भी मुझे लगता है कि पहलेवाला ज्यादा बढ़िया था. फिर भी, किया तो किया. अपनी बेबाक राय दीजियेगा.)
 
 

 

1.

सचमुच मैं अँधिआरे दौर में जी रहा हूँ!

सीधी-सच्ची बात करना बेवकूफी है.

बेशिकन माथा निशानी है

पत्थर दिल होने की. वह जो हँस रहा है

उसने अभी तक सुनी नहीं

खौफनाक ख़बरें.

 

उफ़, कैसा दौर है ये

जब पेड़ों के बारे में बतियाना अमूमन जुर्म है

क्योंकि यह नाइंसाफी के मुद्दे पर एक तरह से ख़ामोशी है!

और वह जो चुपके से सड़क पार कर रहा है,

क्या अपने उन दोस्तों की पहुँच से बाहर नहीं

जो मुसीबत से घिरे हैं?

 

ये सही है कि मैं चला ले रहा हूँ अपनी रोजी-रोटी

मगर, यकीन करें, यह महज एक इत्तफाक है.

जो कुछ भी मैं करता हूँ, वह नहीं बनाता मुझे

पेट भर खाने का हकदार.

इत्तफाकन बच गया मैं. (किस्मत ने साथ छोड़ा नहीं

कि मैं गया काम से.)

 

वे मुझ से कहते हैं कि खाओ-पियो.

खुश रहो कि ये सब मयस्सर है तुम्हें.

मगर मैं कैसे खा-पी सकता हूँ

जबकि मेरा निवाला छीना हुआ है किसी भूखे से

और मेरे गिलास का पानी है किसी प्यासे आदमी का हिस्सा?

और फिर भी मैं खा-पी रहा हूँ.

 

मैं समझदार हो सकता हूँ खुशी-खुशी.

पुरानी किताबें बताती हैं कि समझदारी क्या है-

नजरअंदाज करो दुनिया की खींचातानी

अपनी छोटी सी उम्र गुजार दो

बिना किसी से डरे

बिना झगड़ा-लड़ाई किए

बुराई के बदले भलाई करते हुए—

इच्छाओं की पूर्ति नहीं बल्कि उन्हें भुलाते हुए

इसी में समझदारी है.

मैं तो इनमें से कुछ भी नहीं कर पाता-

सचमुच मैं अँधिआरे दौर में जी रहा हूँ!

 

2.

उथल-पुथल के दौरान मैं शहरों में आया

जब हर जगह भूख का राज था.

बगावत के समय आया मैं लोगों के बीच

और उनके साथ मिलकर बगावत की.

इस तरह गुजरा मेरा वक्त

जो मिला था मुझे इस धरती पर.

 

कत्लेआमों के दरमियान मैंने खाना खाया.

मेरी नींद में उभरती रहीं क़त्ल की परछाइयाँ.

और जब प्यार किया, तो लापरवाही से प्यार किया मैंने.

कुदरत को निहारा किया बेसब्री से.

इस तरह गुजरा मेरा वक्त

जो मिला था मुझे इस धरती पर.

 

हमारे दौर के रास्ते हमें ले जाते थे बलुई दलदल की ओर.

हमारी जुबान ने धोखा दिया कातिल के आगे.

मैं कुछ नहीं कर सकता था. लेकिन मेरे बगैर

हुक्मरान कहीं ज्यादा महफूज रह सकते थे. यही मेरी उम्मीद थी.

इस तरह गुजरा मेरा वक्त

जो मिला था मुझे इस धरती पर.

 

3.

तुम, जो इस सैलाब से बच निकलोगे

जिसमें डूब रहे हैं हम ,

जब भी बोलना हमारी कमजोरियों के बारे में,

तो ख्याल रखना

इस अंधियारे दौर का भी

जिसने बढ़ावा दिया उन कमजोरियों को.

 

जूतों से भी ज्यादा मर्तबा बदले हमने देश.

वर्ग युद्ध में, निराश-हताश

जब सिर्फ नाइंसाफी थी और कोई मजम्मत नहीं.

 

और हमें अच्छी तरह पता है
कि नफरत, कमीनगी के खिलाफ भी
चेहरे को सख्त कर देती है.

गुस्सा, नाइंसाफी के खिलाफ भी

आवाज़ को तल्ख़ कर देता है.

उफ़, हम जो इस दुनिया में

हमदर्दी की बुनियाद रखना चाहते थे

खुद ही नहीं हो पाये हमदर्द.

 

लेकिन तुम, जब आखिरकार ऐसा दौर आये

कि आदमी अपने संगी-साथी का मददगार हो जाए,

तो हमारे बारे में फैसला करते वक्त

बेमरौवत मत होना.

(अनुवाद – दिगम्बर)

1 comment:

  1. सुन्दर कविताओं का सुन्दर अनुवाद

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