अमरपाल/ पारिजात
(योजना आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्र में 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र में 26 रुपये प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खर्च करने वाला परिवार गरीबी रेखा से ऊपर माना जायेगा।
इस 32 रुपये और 26 रुपये में भोजन, आवास, वस्त्र, शिक्षा, स्वास्थ्य और मनोरंजन जैसे सभी खर्चे शामिल हैं। हमने अपने आस-पास के
कुछ परिवारों से बातचीत कर उनकी जिन्दगी की हकीकत जानने की कोशिश की। स्थानाभाव के
कारण हम उनमें से एक ही परिवार की स्थिति यहाँ दे रहे हैं। बाकी लोगों की कहानी भी
लगभग ऐसी ही है।)
अब से 14 साल पहले चंद्रपाल (उम्र- 45
वर्ष) एक लोहा फैक्ट्री में काम करते थे, जहाँ
भारी वजन उठाने के चलते उनकी रीढ़ की हड्डी खिसक गयी। तभी से वे कोई भारी काम करने
लायक नहीं रहे। उन्हें घर बैठना पड़ा। इलाज के अभाव में वे अब लगभग अपंग हो गए हैं।
चंद्रपाल मूल रूप से खुर्जा (बुलंदशहर)
के रहने वाले हैं। जब वह छोटे थे तभी दवा के अभाव में डायरिया से उनके पिता की मौत
हो गयी थी। चंद्रपाल बताते हैं कि उनके माता-पिता की दस संताने हुईं, जिनमें से सिर्फ तीन ही बच पायीं। बाकी
सभी बच्चे बीमारी और कुपोषण से मर गये। जो बचे रहे उनमें भी बड़े भाई टीबी होने और
खुराक न मिलने से मर गए। उनकी माँ ने खेत में मजदूरी करके किसी तरह अपने बच्चों को
पाला-पोसा और चंद्रपाल को 12वीं तक पढ़ाया। इसके बाद वे खुर्जा शहर
में ही एक लोहे की फैक्ट्री में काम करने लगे। फैक्ट्री में काम दौरान रीढ़ की
हड्डी की परेशानी और बेहतर काम की तलाश में वे दिल्ली चले आये।
दिल्ली के पास लोनी में उनका 50 गज का अपना मकान है तीन कमरों का, जिस पर पलस्तर नहीं हुआ है। 1997 में उन्होंने यह जमीन 55 हजार रुपये में खरीदी थी जो अपने खून
पसीने की कमाई और खुर्जा का पुश्तैनी मकान बेचकर जुटाया था। उन्होंने अपना सारा
पैसा इसी घर में लगा दिया,
लेकिन फिर भी मकान अधूरा ही बन पाया।
चंद्रपाल और उनका बेटा अब खुद ही उसे थोड़ा-थोड़ा करके पूरा करते हैं। मकान में काम
करते हुए ही चंद्रपाल के एक हाथ की हड्डी भी टूट गयी, जो इलाज के बाद भी नहीं जुड़ी। परिवार
की आमदनी इतनी नहीं कि ऑपरेशन करवा सकें। ये दर्द अब उनकी जिन्दगी का हिस्सा बन
गया है। अब वे हाथ से भी भारी काम करने में अक्षम हैं।
परिवार का खर्च उनकी पत्नी अंगूरी देवी
चलाती हैं। वे दिल्ली में किसी सेठ की कोठी पर घरेलू नौकरानी का काम करती हैं।
पूरे दिन घर का सारा काम करने के बदले उन्हें हर महीने 5 हजार रुपये मिलते हैं। पिछले 14 साल में केवल एक हजार रुपये की
बढ़ोत्तरी हुई। वे सारा पैसा घर में देती हैं। अपने पास एक धेला भी नहीं रखती। इसका
कारण बताते हुए कहती हैं कि बाजार में चलते हुए कभी उनका मन ललचा गया तो गलती से
वह कुछ खरीद न लें। इसीलिए उनके पास सिर्फ 70
रुपये का रेल पास रहता है,
ताकि वे रोज लोनी से दिल्ली आ-जा सकें।
चंद्रपाल के घर में बिजली कनेक्शन नहीं
है। किराये पर जनरेटर का कनेक्शन है जो रात को तीन घण्टे बिजली देता है , जिससे 15 वाट का एक बल्ब जलता है। इसके लिए उन्हें 100 रुपये महीना देना होता है। बाकी समय
वे ढिबरी से काम चलाते हैं। पीने के पानी का कनेक्शन भी नहीं है। घर में एक
हैंडपम्प है। 120 फीट गहरा। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में इतनी
गहराई पर पीने लायक पानी नहीं मिलता। जगह-जगह बोर्ड लगे हैं कि हैंडपम्प के पानी
का प्रयोग पीने के लिए न करें। लेकिन यहाँ तो इसी पानी से काम चलाना पड़ता है।
गंदे पानी की निकासी का कोई इंतजाम
नहीं है और न ही गलियों की साफ सफाई का। घर के आगे नाली का पानी बहता है और घर के
पीछे सड़ता-बजबजाता पानी का गड्ढा। परिवार
में हरदम कोई न कोई बीमार रहता है। हर महीने इलाज पर औसतन 200 रुपये का खर्चा आता है। जो कुल आमदनी
का 4 प्रतिशत बैठता है। चंद्रपाल के टूटे
हाथ का इलाज कराना परिवार के बस का नहीं है। वे इस पर सोचते भी नहीं। वे जानते हैं
कि सरकारी अस्पताल में ऑपरेशन करवाने पर भी उसमें कम से कम दो महीने की कमाई लग
जाएगी।
बीमारी के बारे में चन्द्रपाल ने कहा
कि लोनी में किसी को डेंगू नहीं होता। लोगों को सबसे ज्यादा मलेरिया होता है।
डेंगू के मच्छर तो साफ पानी में पलते हैं। यहाँ तो पीने के लिए भी साफ पानी नहीं
है। घर के आगे-पीछे हमेशा गन्दा पानी भरा रहता है। उसमें तो मलेरिया के मच्छर ही
पलते हैं। मच्छर इतने कि घर में बैठ नहीं सकते। बीमारी की जड़ यही सब है।
इस परिवार का मुख्य भोजन आलू की सब्जी
या चटनी और रोटी है। अंगूरी देवी अपने मालिक के यहाँ से कभी कोई सब्जी ले आयें, तभी उन्हें सब्जी नसीब होती है। हफ्ते
में एक या दो दिन ही घर में सब्जी बनती है।
हमारा देश मसालों के लिए मशहूर है, लेकिन
इस घर में हल्दी ,जीरा, धनिया और लाल मिर्च के अलावा और कोई मसाला इस्तेमाल नहीं होता।
चंद्रपाल के लिए फल खरीद पाना मुमकिन
नहीं। सालों से परिवार में कोई फल नहीं आया। परिवार में माँस-मछली नहीं बनती। पनीर
खाने के बारे में वे सोच भी नहीं सकते।
अंगूरी देवी बताती है की जब से कोठी में काम करने लगीं तब से उन्हें चाय
पीने की लत लग गयी। सुबह 6 बजे चाय पीकर ही वह काम पर जाती हैं।
इसी बहाने घर में रोज 10 रुपये का 300 ग्राम दूध आता है। अपनी पत्नी की इस
बुरी लत से चंद्रपाल खुश हैं क्योंकि इसी बहाने उन्हें भी दूध की चाय मिल जाती है।
ईंधन में 3 लीटर मिट्टी का तेल राशन की दुकान से
और 4 किलो रसोई गैस ब्लैक खरीद कर इस्तेमाल
होता है। खाने के मद में औसतन 3000
रुपये महीने का खर्च आता है जो की कुल आय का 60
प्रतिशत है।
जब हमने उनसे महँगाई के बारे में पूछा
कि क्या इससे घर के खर्च पर कोई फर्क पड़ा है, तो
वह बेबस होकर बोले ‘‘सरकार गरीबों की दुश्मन हो गयी है।
हमसे न जाने किस जनम का बदला ले रही है। महँगाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। पहले
एक आदमी काम करता था और पूरा परिवार खाता था। ठीक से गुजारा होता था। लेकिन अब तो
महँगाई के मारे सबको काम करना पड़ता है, फिर
भी किसी का गुजारा नहीं होता। हमारे सामने वाले परिवार में माँ-बाप और एक लड़की है, तीनों काम करते हैं। माँ-बाप बाहर और
लड़की घर पर ही किसी के दो बच्चों की देखभाल का काम करती है। अपने घर का सारा काम
भी वही करती है, फिर भी गुजारा नहीं। वे भी हमारे ही
तरह हैं।’’
भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 9 गज कपड़े की खपत होती है। चंद्रपाल के
परिवार ने पिछले 14 सालों से शायद ही कभी कोई नया कपड़ा
खरीदा हो। अंगूरी देवी जिस कोठी पर काम करती हैं वहीं से मिले उतरन को इस्तेमाल
करने लायक बना लिया जाता है। यानी कपड़े के मद में वे कुछ भी खर्च नहीं करते।
परिवार की खराब स्थिति के बारे में बात
चली तो अंगूरी देवी गुस्से में बोलीं-‘‘अरे
भइया क्या करें, कौन अपने बच्चों को अच्छा
खिलाना-पिलाना नहीं चाहता। महँगाई ने मार डाला। हमारी जिन्दगी तो नरक बन गयी है।
गरीबों का कोई नहीं है। पर क्या करें, भइया
जीना तो पड़ता ही है।’’
चंद्रपाल के दो बच्चे हैं बड़ा लड़का
सरकारी स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ता है। उसकी फीस 550 रुपये छमाही है। लड़की प्राइवेट स्कूल
में 9वीं में पढ़ती है। पहले वे दोनों ही
प्राइवेट स्कूल में पढ़ते थे, लेकिन
फीस न भर पाने के कारण लड़के को सरकारी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा। सरकार कुल
जीडीपी का शिक्षा के मद में जितना खर्च करती है उससे ज्यादा यह परिवार करता है-
कुल आय का लगभग 6.2 प्रतिशत और वह भी सबसे घटिया दर्जे की
शिक्षा के बदले।
अंगूरी देवी ने बताया कि बच्चे कभी
नहीं खेलते। चन्द्रपाल ने बीच में टोका कि पूरी लोनी में खेलने की कहीं कोई जगह भी है क्या, जो खेलें। और खेल का सामान भी तो हो। उनका कहना था कि हमारा लड़का पढ़ाई में बहुत
होशियार था। लेकिन अब पता नहीं उसे क्या हो गया है, पढ़ने में जी नहीं लगाता। 11वीं
में फेल भी हो गया था पिछले साल। (हफ्ते भर बाद पता चला कि उनके लड़के ने पढ़ाई छोड़
दी है और अब कहीं काम ढूँढ रहा है।)
चंद्रपाल बताते हैं कि उन्होंने अपनी
पत्नी के साथ 1992 में सिनेमा हॉल में कोई फिल्म देखी थी, वही पहला और आखरी मौका था। चंद्रपाल
बहुत साल पहले पोस्टमैन की भर्ती परीक्षा में खुर्जा से लखनऊ गये थे। उसमें भी रेल
में किराया नहीं दिया था और रात स्टेशन पर ही बितायी थी, पैसे के अभाव के कारण। यही उनकी
जिन्दगी की सबसे लम्बी यात्रा रही।
पति-पत्नी दोनों का मानना है कि आज वह
जिस हालत में हैं वह सब बाबा गोरखनाथ की कृपा है, इसलिए महीने में दो बार वे हरियाणा के किसी आश्रम में जाते हैं। इस
यात्रा में लगभग 500 रुपये मासिक खर्च आता है। यदि इसे
पर्यटन माने (जो है भी) तो इसमें उनकी आय का कुल 10 प्रतिशत खर्च होता है।
मनोरंजन का कोई साधन घर में नहीं है।
चन्द्रपाल ने बताया कि ‘‘बहुत समय से एक रेडियो खरीदना चाहता
हूँ, लेकिन तंगी की वजह से नहीं खरीद पाया।
टीवी तो बहुत बड़ी बात है हमारे लिए, सपने
जैसा।’’
उनके घर में 2 टूटी खाट, वर्षों से खराब पड़ा एक 14 इंच का ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी, एक मेज और एक डबल बेड है। टीवी और डबल
बेड अंगूरी देवी के मालिक ने बहुत ही सस्ते में दिया था, इसके अलावा मालिक का दिया हुआ एक
मोबाइल फोन भी है। इसमें वे हर महीने औसतन 15
रुपये का रिचार्ज करवाते हैं। इस तरह संचार पर उनकी आमदनी का 0.3 प्रतिशत खर्च है। अखबार कभी कहीं दिख
गया तो चन्द्रपाल उसे पढ़ लेते हैं। खरीद पाना उनके बस का नहीं।
इस परिवार की प्रति व्यक्ति मासिक
आमदनी 1250 रुपये यानी प्रतिदिन 41 रुपये 70 पैसे है जो सरकार द्वारा तय किये गये गरीबी रेखा के पैमाने (960 रुपये) की तुलना में 290 रुपये ज्यादा है। जबकि परिवार के लोग
ठीक से खाना भी नहीं खा पाते, भोजन
में प्रोटीन, वसा और विटामीन का कोई नामों निशान
नहीं, कपड़ा नहीं खरीदते, रहन-सहन का स्तर बहुत ही खराब है, पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं, बीमार पड़ने पर उचित इलाज नहीं करा सकते, बच्चों को पढ़ा नहीं सकते, मनोरंजन के बारे में सोच भी नहीं सकते, त्योहार नहीं मनाते, सर के ऊपर किसी तरह छत तो है लेकिन, दड़बेनुमा, गन्दगी भरे माहौल में वे दिन काट रहे
हैं। जाड़े में सीलन और ठण्ड, बरसात
में कीचड़, गर्मी में तपिस। चारों ओर बदबू और
मच्छर। इस नरक से भी बदतर जिन्दगी की गाड़ी उसी दिन पटरी से उतर जायेगी जिस दिन
किसी कारण से परिवार की आय का एक मात्र जरिया, अंगूरी
देवी की घरेलू नौकरानी की नौकरी छूट जायेगी।
लेकिन योजना आयोग की नजर में यह परिवार
गरीबी रेखा से ऊपर है। चूँकि यह परिवार गरीब नहीं है, इसलिए यह कोई भी सरकारी सहायता पाने का
हकदार नहीं है।
अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के
मुताबिक 77 फीसदी लोगों की आय प्रतिव्यक्ति 20 रुपये रोज, यानी 600 रुपये प्रतिमाह है। उसकी तुलना में तो इस परिवार की आय दुगुने से भी
ज्यादा है। यह सब अकल चकरा देनी वाली बातें हैं। देश में गरीबी का अन्दाजा लगाइये।
(देश-विदेश पत्रिका के अंक 12 में
प्रकाशित)
योजना आयोग ने कहा- गाँव में 26 और शहर में 32 रुपए से ज्यादा खर्च करने वाले गरीब नहीं हैं।
अर्जुन सेनगुप्ता कमिटी ने कहा- 80 करोड़ देशवासी 20 रुपये रोज पर गुजर-बसर करते हैं।
दोनों सही हैं तो देश में गरीबों की कुल संख्या का अंदाजा लगाइए। 80 करोड़? 90 करोड़? 100 करोड़?
आँकड़े निर्मम होते हैं।
आँकड़ों से खिलवाड़ करने वाले जालिम होते हैं।
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