-राम कृष्णास्वामी
आधार/एकल पहचान पत्र (यूआईडी)का विरोध कर रहे आंदोलनकारी पिछले तीन
सालों से यह दलील दे रहे हैं कि यह सांप्रदायिक हमले की और ले जा सकता है,
गैरकानूनी प्रवासियों की मदद कर सकता है, निजता में दखलंदाजी कर सकता है, असंसदीय
है, इसे संसद से स्वीकृति नहीं मिली है, गैरकानूनी है, इत्यादि. फिर भी एकल पहचान
प्राधिकरण (यूआईडीएआई) और संप्रग नेतृत्व द्वारा इन सभी आपत्तियों की अनसुनी की
गयी.
साथ ही, आधार अनिवार्य नहीं है और इसीलिए कहा गया कि ये आपत्तियाँ अमान्य
हैं. मध्यम और उच्च वर्ग के भारतीय यूआईडी की बहस पर चुप्पी साधे रहे, क्योंकि
इससे उनके ऊपर जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता. यूआईडी नामांकन केन्द्रों पर लोगों की
लंबी कतारों को देखने से इस धारणा की पुष्टि होती है.
नंदन नीलकानी और यूआईडी महानिदेशक आर एस शर्मा ने बार-बार राष्ट्र को
कहा कि यूआईडी, जिसे अब आधार कहा जाता है, बाध्यकारी नहीं है. फिर भी, वे कहते हैं
कि एक समय बाद यह सर्वव्यापी भी हो सकता है, जब सेवा देने वाली संस्थाएं सेवा लेने
के लिए इसे अनिवार्य बनाने पर जोर डालें. नंदन नीलकानी के ही शब्दों में- “हाँ, यह
स्वैच्छिक है. लेकिन सेवा देनेवाले इसे बाध्यकारी बना सकते हैं. आने वाले समय में,
मैं इसे अनिवार्य नहीं कहूँगा. इसकी जगह मैं कहूँगा कि यह सर्वव्यापी हो जायेगा.”
जबसे भारत सरकार ने गरीब और हाशिए पर धकेल दिये गये लोगों के लिए एकल
पहचान संख्या के विचार से खेलना शुरू किया, तभी से राष्ट्र को यही बताया जाता रहा
कि यह बाध्यकारी नहीं है.
कभी इस पर आश्चर्य हुआ कि क्यों?
एक सवाल आन्दोलनकारियों ने कभी नहीं पूछा कि “आधार अनिवार्य क्यों
नहीं है?”
इसका कारण बहुत साफ़ है और लगातार हम सब की आँखों में घूरता रहा है,
फिर भी शायद किसी ने यह सवाल नहीं उठाया. आज
क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, उस पर यह सवाल कुछ और रोशनी डालता है.
सरसरी तौर पर देखने से ही इन दोनों मंसूबों में भारतीय इतिहास के सबसे
विद्वान मुर्ख तुगलक की प्रतिध्वनि सुनाई देती है. इस तरह के मंसूबों का मकसद महान
राष्ट्र का निर्माण करना नहीं होता, वास्तव में ये कंगालों की पीढ़ी तैयार करने का
अचूक तरीका हो सकते हैं. गरीबी तब तक “अच्छी” थी जब तक ग़रीबों में उससे संघर्ष
करने और ऊपर उठने की गरिमा कायम थी. जबकि कंगालीकरण उस चेतना और आत्म-गौरव को ही
मार देगा जो एक अरब से भी अधिक आबादी वाले एक राष्ट्र के कायम रहने और आगे बढ़ने के
लिए बहुत ही जरूरी है.
मानव जाति का इतिहास गवाह है कि जो लोग मालिक की स्थिति में थे, वे
हमेशा अपने गुलामों के लिए किसी न किसी तरह का पहचान-चिन्ह चाहते थे. सिर्फ गुलाम
और उसके परिवार का नाम लिखना ही पर्याप्त नहीं था. गुलामों को नाव में लादते समय
मालिक उनकी बाँहों को दाग कर कोई चिन्ह बना देते थे. रूसी साम्राज्य के ज़माने में
कतोर्श्निकी (सार्वजनिक गुलामों) को भयानक तरीके से चिन्हित किया जाता था- उनके
ललाट और गाल पर गुलाम शब्द गोद कर उस पर
बारूद रगड़ दिया जाता था. कई देशों में गुलामों का सिर मूड कर सिर्फ एक चुटिया छोड़
दी जाती थी. सिर मूडना पुंसत्व-हरण, यानी मर्दानगी, सत्ता और आजादी छीन जाने का
प्रतीक था. वर्चश्व के संबंधों के सबसे चरम रूपों में से एक है गुलामी, जिसमें
मालिक के लिए सम्पूर्ण सत्ता और गुलाम के लिए पूरी तरह सत्ताहीनता की सारी हदें
पार कर ली जाती हैं.
भारत में, वर्तमान सन्दर्भ में राजसत्ता “मालिक” है जो कहती है कि
ग़रीबों को जिन्दा रहने के लिए सिर्फ 32 रुपया ही काफी है, जबकि पूँजीवादी मालिक
500 की थाली का खर्च उठा सकते हैं. भारतीय जनता “गुलाम” है जो गरीबी रेखा के नीचे
जीवन-यापन करती है, जिनको कहा गया है कि जब तक तुम्हारे पास ऊँगली की छाप सहित एक नंबर नहीं है, तब तक तुमको सरकारी सस्ते
गल्ले की दुकान से तीन रुपये किलो चावल पाने का हक नहीं है. भारत में एक गुलाम
सामाजिक रूप से मृत प्राणी है, जिसकी पहचान मालिक द्वारा जारी की गयी एक संख्या से
की जा सकती है, न कि उसके पिता, माता या दुनिया के साथ जोड़ने वाली कोई दूसरी
सामाजिक कड़ी से.
यह सवाल अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं से पूछा जाता रहा है कि “आपको
निजता के बारे में परेशान होने की क्या जरूरत है, अगर आपके पास छुपाने के लिए कुछ
है ही नहीं?” इसी सिद्धांत से यह बात भी तो निकलती है कि “जिन लोगों के पास छुपाने
के लिए कुछ हो, वे निश्चय ही कोई ऐसी विशिष्ट पहचान संख्या नहीं चाहते जो उनके
जैविक मापकों, जैसे ऊँगली की छाप या पुतलियों के फोटो से जुड़ा हो.”
हाल ही में किये गये स्टिंग ऑपरेशन से पता चला कि कई बैंक भ्रष्ट
लोगों को बिना उनकी पहचान खोले, उनकी हराम की काली कमाई सफ़ेद करने की सहूलियत
मुहैय्या करते हैं. कमाल है कि बैंकर काला धन सफ़ेद बनाने में भ्रष्ट लोगों की इतनी
आसानी से मदद करते है. अब कल्पना कीजिए कि भारत के भ्रष्ट लोग आधार को अनिवार्य
बनाये जाने पर क्या प्रतिक्रिया देंगे. कानून का पालन करवाने वाली संस्थाएं छुपाये
गये धन को बेनकाब करने में आधार संख्या और उससे सम्बंधित जैविक माप का इस्तेमाल करेंगी
और वह भी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि स्विस बैंकों और सिंगापुर के बैंकों में
भी, क्योंकि आजकल सिंगापुर गैरकानूनी धन छुपाने वालों का नया स्वर्ग बन गया है.
अगर समय के साथ आधार को बाध्यकारी बना दिया गया, तो इससे सम्बंधित
जैविक माप का इस्तेमाल सारे भ्रष्ट नौकरशाहों, राजनेताओं और पूँजीपतियों का
भंडाफोड करने में हो सकता है. तब उनकी हालत खस्ता हो जायेगी. तय है की सरकार ऐसे
दानव को सुलभ बनाना नहीं चाहती. इसीलिए आधार बाध्यकारी नहीं है. इसलिए
कार्यकर्ताओं को विशिष्ट पहचान संख्या
प्राधिकरण के अध्यक्ष और संप्रग सरकार को खुली चुनौती देनी चाहिए कि अगर हिम्मत है
तो वे आधार को सबके लिए बाध्यकारी बनाएँ और देश को भीतर से खोंखला कर रहे इन कीड़ों
को नेस्तनाबूद करने में मदद करें.
नीलकानी महोदय, एक बार आपने पूछा था कि “मैं क्या हूँ? कोई विषाणु?”
आधार को सभी भारतीयों के लिए बाध्यकारी बना कर, चाहे अमीर हो या गरीब,
आप साबित करो कि विषाणु नहीं हो, और दिखाओ कि तुम्हारे “कल्पना का भारत” राष्ट्र
की सच्ची सेवा का प्रयास है.
जाहिर है कि आप एक ऐसी व्यवस्था मुहय्या नहीं करना चाहते जहाँ सभी लोग
बराबर हों, बल्कि कुछ लोगों को ज्यादा
बराबर बनाना चाहते हैं, जिन्हें आधार को नकारने का अधिकार हो. लेकिन पक्के तौर पर
जान लीजिए कि जिस दिन आप का प्राधिकरण और भारत सरकार आधार को बाध्यकारी बनती है,
उसी दिन यह राष्ट्र, यानी धनाढ्य और शक्तिशाली वर्ग आप लोगों को विशिष्ट पहचान
संख्या का असली रंग दिखा देगा.
एक राष्ट्र के रूप में हम सब एकजुट हो कर इस सरकार से सवाल कर सकते
हैं—
“आधार बाध्यकारी क्यों नहीं है?”
धनवानों और वंचितों में भेदभाव करके आधार एक नयी तरह की जाति व्यवस्था
क्यों बना रही है, जो पहले से ही खंडित देश को और अधिक तोड़ने का काम करेगी?
आधार इसलिए बाध्यकारी नहीं है, ताकि इसका फायदा उठाते हुए नीच कोटि के
अपराधी, जैसे हत्यारे, बलात्कारी, गबन करने वाले, टैक्स चोर, आयकर जालसाज़, भ्रष्ट
अफसर और नेता, और यहाँ तक कि कोई आतंकवादी भी बेधड़क कानून को ठेंगा दिखाते रहें.
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आधार का विरोध करने वाले लोगो के कुछ मशहूर कथन—
“विशिष्ट पहचान योजना भारतीय नागरिकों की निजता छीन लेगी” – मैथ्यू थॉमस
“निजता ऐसी चीज नहीं जिसे लोग बिना इससे वंचित हुए महसूस कर सकें. इसे
खत्म कर दो और आप मनुष्य होने के लिए सबसे जरूरी चीज को नष्ट कर देंगे.” – फिल बूथ,
नो टू आई डी
“आधार परियोजना भारतीय संविधान को मुर्दा दस्तावेज में तब्दील कर देगी”
– एस जी वोम्बातकेरे
“यूआईडी सांप्रदायिक हमले में सहायक होगा.” – अरुणा राय और निखिल डे, राष्ट्रिय
सलाहकार समिति के सदस्य
“आधार बाध्यकारी नहीं है – यह तो बस स्वैच्छिक “सहूलियत” है. इसके
प्राधिकरण की टिप्पणी में यह जोर देकर कहा गया है कि “पंजीयन करवाना बाध्यकारी
नहीं होगा.” लेकिन एक चाल चली गयी है- “...जिन सहूलियतों और सेवाओं को यूआईडी से
जोड़ा जाएगा वे इस संख्या की माँग को सुनिश्चित कर सकते हैं.” यह किसी गाँव के कुँए
में जहर घोल कर उस गाँव वालों पानी की बोतल बेचने और यह दावा करने के सामान है कि
लोग स्वेच्छा से पानी खरीद रहे हैं. अगला वाक्य भी अमंगलकारी है – “हालाँकि यह सरकार
और रजिस्ट्रार को इस बात से रोकेगा नहीं कि वे पंजीयन को अनिवार्य बनायें.” – जिन द्रेज,
अर्थशास्त्र के मानद प्रोफ़ेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, राष्ट्रिय सलाहकार समिति
के पूर्व सदस्य.
“नीलकानी का रिपोर्ट करने का तौर-तरीका इतिहास में अभूतपूर्व है, वे
सीधे प्रधान मंत्री को रिपोर्ट करते हैं, और इस तरह सरकार के भीतर के सभी
नियंत्रणों और संतुलनों को दरकिनार करते हैं.” – गृह मंत्री चिदंबरम
“यूआईडी एक कारपोरेट घोटाला है, जो सुचना प्रद्योगिकी क्षेत्र में
अरबों डॉलर झोंक रहा है.” – अरुंधती राय
“अगर सरकार इस देश को बेच रही है तो हम सबको कम से कम यह जानना चाहिए
कि वह किसको बेच रही है.” – वीरेश मलिक
उँगलियों की छाप का सबसे प्रबल विरोध करने वाला कोई और नहीं, बल्कि
खुद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे, जिन्होंने कहा था कि “जेनेरल स्मट के नए क़ानून
के बारे में ...हम पहले ही साफ़ हो लें. अब सभी भारतीयों की उँगलियों के छाप लिए
जायेंगे...अपराधियों की तरह. चाहे मर्द हों या औरतें. ईसाई विधि से की गयी शादी के
अलावा कोई भी शादी वैध नहीं होगी. इस क़ानून के तहत हमारी पत्नियाँ और माताएँ
वेश्या हैं. और यहाँ हर मर्द हरामी है.”
लेकिन आज के शासकों में से आज कौन है जो महात्मा गांधी को याद करता है, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने क्या कह था, यह तो बहुत दूर की बात है.
(काफिला डॉट ऑर्ग से आभार सहित. अनुवाद - दिगम्बर)
Hats off to you sir
ReplyDeleteएक छोटी सी चीज़ के पीछे इतनी गहरी साजिश हो सकती है मै कभी सोच भी नहीं सकता था