Sunday, July 15, 2012

सहमति, उम्र और संस्थाएं : नाबालिग विवाह पर एक चिंतन - फ्लाविया एग्नेस



(हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायलय ने अपने एक फैसले में एक नाबालिग (लगभग १६ साल की) लड़की को वापस उसके माँ-बाप की देख-रेख में सौंपने के बजाय उसे अपनी पसंद के लड़के से शादी करने की इज़ाज़त दे दी, इसने महिला संगठनों और समाज के अन्य जागरूक लोगों के बीच तीखे मतभेद और वादविवाद को जन्म दिया. प्रस्तुत है, इस विषय में मशहूर वकील और महिला आन्दोलन की सक्रिय कार्यकर्ता फ्लाविया एग्नेस का यह आलेख. फ्लेविया की आपबीती- परवाज हिंदी में प्रकाशित हुई और काफी पसंद की गयी. इस मूल अंग्रेजी लेख को काफिला डॉट ऑर्ग से आभार सहित लेकर अनूदित किया गया है.)    

मैं कुछ महिला संगठनों और विशेष रूप से भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) के द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले की भर्त्सना के लिये बुलाये गये प्रेस सम्मेलन में उनके द्वारा जतायी गयी निराशा की भावना पर प्रतिक्रिया दे रही हूँ, जिसमें एक नाबालिग (लगभग १६-साल की) लड़की को वापस उसके माँ-बाप की देख-रेख में सौंपने के बजाय उसे अपनी पसंद के लड़के से शादी करने की इज़ाज़त दे दी गयी. मुस्लिम कानून को संहिताबद्ध करने के अपने अभियान के तहत, बीएमएमए ने लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु १८ साल (और लड़कों के लिये २१ साल) तय करने के लिये कहा है, इसमें यह धारणा  अंतर्निहित है कि कम उम्र की सभी शादियों को रद्द कर देना चाहिये.

इससे पहले की हम मिडिया द्वारा फैलाये गये इस अनर्गल प्रचार पर बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया दें और इसके बहकावे में आ जायें, हमें इस बात पर स्पष्ट राय कायम करनी चाहिये कि माँ-बाप के अधिकार और एक नाबालिग लड़की द्वारा अपनाये गए सक्रिय साधन के बीच संघर्ष में हम (नारीवादी) किसके पक्ष में खड़े हों. साथ ही मैं इससे जुड़ा एक और प्रश्न पूछना चाहती हूँ कि- यदि मुस्लिम कानून को संहिताबद्ध कर लिया जाय और शादी की न्यूनतम उम्र को नियमबद्ध कर लिया जाय, जैसा की हिंदू विवाह कानून के तहत किया जा चुका है, तब क्या उच्च न्यायालय इस पर अलग तरह से प्रतिक्रिया देता? क्या जज लड़की को उसके माँ-बाप के संरक्षण में वापस भेज देते? और एक अंतिम प्रश्न– तब क्या हमलोग, जो “नारीवादी” होने का दावा करते हैं, इसे एक “प्रगतिशील फैसला” मानते?  
   
अटकलें लगाने के बजाय, बुद्धिमानी इसी में है कि मैं अपनी बात के पक्ष में अलग-अलग उच्च न्यायलयों ने पिछले दशकों में जो फैसले दिये हैं, उनका हवाला पेश करूँ. इन मुकदमों के तथ्य इसी मुक़दमे से मिलते-जुलते हैं जिसे निंदनीय कहा जा रहा है. इस मामले में भी एक कमसिन लड़की अपने मनपसंद के लड़के के साथ चली गयी थी. लड़की के माता-पिता ने लड़के के खिलाफ बलात्कार/अपहरण या बंदी प्रत्यक्षीकरण का केस दर्ज करा दिया और उसे सिर्फ इस आधार पर गिरफ्तार करवा दिया कि लड़की की उम्र “सहमति की उम्र” या “शादी की उम्र,” दोनों में से जो भी सही बैठता हो, उससे कम है. जब लड़की को अदालत में पेश किया गया, तो उसने माँ-बाप के अधिकार को नकार दिया और इस बात का साक्ष्य दिया कि वह अपनी मर्जी से लड़के के साथ गयी और उसके साथ शादी की. उसकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए, अदालत ने बजाय उसे उसके माँ-बाप के हवाले करने के, उसे अपने पति/प्रेमी के साथ जाने की इजाजत दी. एकमात्र अंतर यही है कि उस केस में दोनों पक्ष के लोग हिंदू थे, मुस्लिम नहीं, जैसा की वर्तमान मामले में है. प्रस्तुत है ऐसे फैसलों में से कुछ की झलक-

जीतेन बोउरी बनाम पश्चिमी बंगाल सरकार में, [ii (२००३) डीएमसी ७७४] कलकत्ता, जब अल्पवयस्क लड़की को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपने पति के साथ रहने की इज़ाज़त दी, तब न्यायालय ने यह घोषणा की- “हालाँकि लड़की अभी व्यस्क नहीं हुयी है फिर भी वह अपना भला-बुरा समझने की विवेकशील उम्र तक पहुँच गयी है जो उसे संरक्षण देने  के लिये एक प्रमुख आधार है. भले ही हिंदू विवाह कानून के एस. ५(३) के नियम के तहत वह अभी शादी की उम्र तक नहीं पहुँची है परन्तु उम्र के इस उल्लंघन के चलते न तो शादी को अमान्य घोषित किया जा सकता है और न ही वह अमान्य किये जाने योग्य है .... लड़की ने इस बात पर जोर दिया है कि वह अपने पति के साथ रहना चाहती है और वह अपने पिता के घर वापस नहीं जाना चाहती.”

  माकेमाला सैलू बनाम पुलिस अधीक्षक नालगोंडा जिला केस में, [ii (२००६) डीएमसी ४ एपी], आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि वैसे तो बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून के तहत बाल विवाह एक अपराध है, फिर भी इस तरह की शादियाँ दोनों ही नियमों, बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून और साथ ही हिंदू विवाह कानून, के अंतर्गत अमान्य नहीं हैं. 

मनीष सिंह बनाम राज्य केस में, एनसीटी दिल्ली [i (२००६) डीएमसी १], दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि उम्र के उल्लंघन की वजह से विधिपूर्वक सम्पन्न की गयी शादियों को अमान्य घोषित नहीं किया जा सकता. न्यायालय ने टिप्पणी की- “यदि लगभग १७ साल की एक लड़की खुद को अपने माँ-बाप के हमले से बचाने के लिये उनके घर से भाग जाती है और अपने प्रेमी के पास आकर रहने लगती है या उसके साथ भाग जाती है, तब यह लड़की या लड़के की तरफ से किसी भी तरह का अपराध नहीं है.” लड़की ने यह साक्ष्य दिया कि उसने अपनी इच्छा से शादी की है और वह अपने पति के साथ रहना चाहती है. न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जब एक लड़का या लड़की विवेकशील उम्र तक पहुँच जाते हैं और अपने लिये एक जीवन साथी चुनते हैं तब नाबालिग होने के आधार पर शादी को अमान्य घोषित नहीं किया जा सकता और यदि एक नाबालिग लड़की भाग जाती है और वह अपने माँ-बाप की इच्छाओं के खिलाफ शादी कर लेती है, तो यह कोई अपराध नहीं है.

सुनील कुमार बनाम राज्य के मामले में, एनसीटी दिल्ली [i (२००७) डीएमसी ७८६], जहाँ पिता ने लड़की को गैरकानूनी तरीके से बंधक बनाया हुआ था, इसमें यह माना गया की- ““यदि लगभग १७ साल की एक लड़की खुद को अपने माँ-बाप के आक्रमण से बचाने के लिये उनके घर से भाग जाती है और अपने प्रेमी के पास आकर रहने लगती है या उसके साथ भाग जाती है, तब यह लड़की या लड़के की तरफ से किसी भी तरह का अपराध नहीं है.” लड़की अपने माँ-बाप के पास वापस जाने के लिये तैयार नहीं थी, क्योंकि वे किसी भी तरह के समझौते के लिये तैयार नहीं थे और उसके साथ सभी तरह के संबंध तोड़ देना चाहते थे. अल्पवयस्क लड़की को अपने पति के साथ रहने की इज़ाज़त दे दी गयी.

कोकुला सुरेश बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में, [i (२००९) डीएमसी ६४६], उच्च न्यायालय ने फिर से पुष्टि की कि १८ साल से कम उम्र की नाबालिग लड़की की शादी हिंदू विवाह कानून के तहत अमान्य घोषित नहीं की जा सकती और उसका पिता उसके संरक्षण का दावा नहीं कर सकता.

अशोक कुमार बनाम राज्य केस में, एनसीटी दिल्ली [i (२००९) डीएमसी १२०], पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि प्रेम विवाह करने वाले जोड़ों का पुलिस और रिश्तेदार पीछा करते हैं, जो अक्सर गुंडों को साथ लिये होते हैं और लड़के के खिलाफ बलात्कार और अपहरण के मुक़दमे दर्ज करवा दिये जाते हैं. कभी-२ जोड़ों को क़त्ल कर दिये जाने की धमकी का सामना करना पड़ता है और इस तरह की हत्याओं को “आनर किलिंग” कहा जाता है.
       
इन सभी शादियों को “भागकर की गयी शादी” का नाम दिया गया और इसलिये हमें इस शब्द की जांच करनी होगी जो उन शादियों के लिये इस्तेमाल होता है, जहाँ लड़की की शादी माँ-बाप की सहमति के बिना होती है. कभी-कभी लड़कियाँ शादी की स्वीकृत उम्र से छोटी होती हैं, और दूसरे मामलों में, बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून (सीएमआरए) के तहत राज्य की शक्ति का फायदा उठाने के लिये उनके माँ-बाप उन्हें नाबालिग की तरह पेश करते हैं. भाग कर की गयी शादियों पर बहस उन तरीकों को सामने लाती है जिनके जरिये पितृसत्ता के साथ जाति, समुदाय, क्षेत्र, धर्म जैसी विभिन्न सामाजिक अधीनताओं का मेलमिलाप होता है, ताकि विद्रोही युवा महिलाओं की यौन इच्छाओं को स्थापित सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार ढाला जा सके. महिलायें जो ऐसी प्रथाओं का विरोध करने के लिये सक्रिय उपायों का सहारा लेती हैं, वे स्थापित सामाजिक व्यवस्था के आगे चुनौती पेश करती हैं और इसलिये सहमति को तोड़मरोड़ कर उसे नए सिरे से परिभाषित करके उनको रोका जाता है. इस संवाद के दौरान, “सहमति” एक अलग ही आयाम ग्रहण कर लेती है और बजाय इसके कि महिलाएँ अपनी पसंद से जीवन साथी चुने, इसे सोंच-समझ कर फैसला लेने और माँ-बाप का भी कुछ हक है, जैसी मान्यताओं में जकड़ दिया जाता है.

इस तरह वे सभी फैसले जिनका ऊपर जिक्र किया गया है और साथ ही वह ताजा  फैसला जिसकी भर्त्सना करने की कोशिश की गयी, ये पुलिस को ऐसी मनमानी कार्रवाई करने से रोकते हैं जो महिलाओं को जबरन सरकारी संरक्षण में या वापस माँ-बाप के अधिकार में कैद कर देते है. ये फैसले निजी फैसलों के मामले में आज़ादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बारे में संवैधानिक सुरक्षा की उदारतापूर्वक विवेचना के लिये मानदंडों की तरह काम करते हैं.

प्रगतिशील प्रतीत होने वाले सीएमआरए के प्रावधान “विद्रोही” महिलाओं पर अंकुश लगाने में माँ-बाप की मदद करते हैं, स्वैछिक शादियों को बाधित करते हैं और पितृसत्तात्मक शक्तियों को चुनौती देने के बजाय उन्हें बढ़ावा देते हैं. जब परिवार और समुदाय बाल विवाह करवाते हैं, तब शायद ही इन प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है. बहुत बार वह लड़की जिसे माँ-बाप के संरक्षण में वापस भेजा जाता है, उसके नाबालिग  रहते हुए ही, माँ-बाप जिसे पसंद करते हैं, उस आदमी के साथ उसकी मर्जी के बिना ही  उसकी शादी कर दी जाती है. पितृसत्तात्मक दुर्ग इतना मजबूत और सुरक्षित है कि आधुनिक नारीवादी संवाद का उसमें प्रवेश पाना और क़ानूनी आदेशों के द्वारा सामाजिक प्रथाओं को बदलना बेहद मुश्किल है. सिर्फ “भाग कर” की गयी शादियों के सन्दर्भ में ही इन प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है. वे “सहमति” शब्द के प्रकोप की ओर बड़ी मुस्तैदी से ध्यान खींचते है. परिवार और राज्य के अधिकारियों की निगाह में मानो उम्र का कम होना तथा यौन आकर्षण और शारारिक आनंद का इजहार न करना, दोनों पर्यायवाची हैं.

वैसे तो यह अपने आप में ही एक गंभीर समस्या है, लेकिन यह और भी गंभीर तब हो जाती है, जब एक खास तरह का नारीवादी विमर्श उम्र, संस्था और सहमति जैसे विचारों को आधार बना कर इस बहस में उलझने लगे, जबकि इनसे पीछा छुड़ाने की जरुरत है. यह नारीवादी आंदोलनों के आगे कुछ बेचैन कर देने वाली चुनौतियां पेश करता है. इसलिये इन प्रश्नों पर चर्चा करना जरूरी है-
सबसे पहले, क्या सहमति को इतना अधिक महत्त्व देना संभव है, खास कर तब जबकि “उम्र” और “सहमति” के बीच कोई मेल न होने का तर्क भागकर की गयी शादियों के दौरान अपनाये गए “साधन” के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा हो? दूसरे, जब ये शादियाँ सहमति और साधनों के मामले में सही होने के बावजूद उम्र की शर्त का उल्लंघन करती हैं, तब क्या न्यायपालिका जैसी रुढिवादी संस्थाओं का रवैया उन नारीवादियों से भी ज्यादा सूक्ष्म और ज्यादा ही नारी-समर्थक नहीं होता, जो इस तरह की सभी शादियों को अमान्य घोषित करने की माँग कर रही हैं? और तीसरा, सिर्फ “बालिग होने की उम्र” या “शादी की उम्र” को लागु करने के बजाय “अकलमंद होने की उम्र” के इस्लामी विचार को लागू करना क्या उन विद्रोही युवा महिलाओं के लिये अधिक सहायक नहीं है जो अपरंपरागत यौन विकल्पों को अपनाते हुए, पितृसत्तात्मक प्राधिकारों को चुनौती देती हैं?
  
हम उन उपायों की जांच करते हैं, जिनके सहारे कोई कमसिन लड़की भाग कर शादी करती है, जबकि क़ानूनी संस्थाएं यौनिकता को नियंत्रित करने और अपनी मर्जी से शादी पर रोक लगाने का हथियार बन जाती हैं. क़ानूनी प्रावधान अपहरण और वैधानिक बलात्कार के सन्दर्भ में भले ही नाबालिगों की रक्षा करनेवाले लगते हों, लेकिन दरअसल इन प्रावधानों का लक्ष्य नाबालिग लड़कियों के ऊपर माँ-बाप की पितृसत्तात्मक वर्चश्व को बढ़ावा देना है. बहलाकर ले जाने और अपहरण से सम्बंधित कानूनों में कोई अपवाद नहीं है जो किसी नाबालिग को घरेलू हिंसा, बाल यौन शोषण या माँ-बाप के द्वारा अधिकारों के दुरूपयोग की दलील पर विचार करे और उसे संरक्षण दे, या अपने माँ-बाप का घर छोड़ने का विकल्प प्रस्तुत करे. अपनी मर्जी से शादी के मामले में माँ-बाप के इशारे पर किया जाने वाला पुलिस बल का उपयोग (या दुरुपयोग), महिलाओं की स्वायत्ता और स्वतंत्र इच्छा के पूरी तरह खिलाफ होता है.

सामाजिक न्याय के प्रति लगाव के चलते कभी-कभी न्यायाधीशों ने नाबालिग लड़कियों को उनके माँ-बाप के गुस्से और राज्य द्वारा संचालित संरक्षण गृह की जकडन से बचाने के लिये मानवाधिकारों के मूलभूत सिद्धांतों के सहारे भी इन मुद्दों को हल किया. इन नाबालिग लड़कियों को एक क्षमता प्रदान करके (अकलमंदी की उम्र के आधार-वाक्य का सहारा लेकर), और “उम्र” की धारणा को “सहमति” या “कारक” से अलग रखते हुए इन शादियों को न्यायसंगत ठहरा कर ही वे ऐसा कर पाए.

अगर इन फैसलों की जांच-पड़ताल महिला अधिकारों के नजरिये से करें, तो नाबालिग लड़कियों के पक्ष में लिए गए इन अदालती फैसलों को क्या “प्रतिगामी” कहा जा सकता है और कतिपय महिला संगठनों द्वारा इन शादियों को अमान्य घोषित करने की माँग को क्या “प्रगतिशील” माना जा सकता है? क्या एक लैंगिक आधार पर दमनकारी इस समाज में इन लडकियों के जन्मदाता परिजनों द्वारा राज्य की विराट शक्ति की मदद से इन नाबालिग लड़कियों की यौन विकल्पों के चुनाव की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की कोशिश को, प्रगतिशील हस्तक्षेप और पितृसत्ता को दी गयी चुनौती माना जा सकता है? संसद द्वारा हाल ही में पास किया गया बाल यौन उत्पीड़न कानून, जिसमें सहमति से सहवास की आयु १६ साल से बढ़ाकर १८ साल कर दिया गया है, वह हालात को और ज्यादा खराब करेगा और वह कमसिन लड़कियों (और लड़कों) को माँ-बाप और राज्य की शक्ति के आगे ओर ज्यादा कमज़ोर बना देगा, जब वे अपनी यौन इच्छा का इजहार करेंगे और अपरंपरागत यौन विकल्प चुनेंगे और इसका परिणाम राज्य द्वारा पहले से भी ज्यादा “नैतिक पुलिस नियंत्रण” के रूप में सामने आएगा.
    
“अकलमंदी की उम्र” की धारणा का सहारा लेते हुए, जैसा की न्यायालयों ने किया, जब उन भाग कर शादी करनेवाली नाबालिग हिंदू लड़कियों के विवाह को मान्यता दी गयी, तब भी इसी तरह के विवाद उत्पन्न हुए थे, जैसा इस मामले में हुआ. विडम्बना यह कि ऐसा अब इसलिये किया जा रहा है क्योंकि इस मामले से सम्बंधित लोग मुस्लिम हैं. ऐसा लगता है जैसे मुसलमानों पर एक इस्लामिक कानून के सिद्धांत को लागू करने में न्यायाधीश ने गलती की है, लेकिन वे उस वक्त गलत नहीं होते जब वे किसी गैर-मुस्लिम पर  उस सिद्धांत का इस्तेमाल करते हैं. इस फैसले को जितने भडकाऊ तरीके से मिडिया ने पेश किया, वह इस बात की माँग करता है कि हम बिना सोचे-समझे इस पर अपनी प्रतिक्रिया न दें और समान नागरिक संहिता की घिसी-पिटी दक्षिणपंथी माँग को भड़काने का काम न करें. ऐसे मौकों पर हमें स्पष्ट होना चाहिये कि हम किसके पक्ष में काम कर रहे हैं.

इस बहस में मथुरा के मामले को शामिल करने से शायद इस धुंधलके को काटने में कुछ मदद मिले. एक १६ साल की युवा, अनपढ़, आदिवासी लड़की मथुरा, जो अपने प्रेमी के साथ भाग गयी थी, उसे उसके भाई की शिकायत पर पुलिस स्टेशन लाया गया. पूछताछ के बाद डयूटी पर तैनात पुलिसवालों ने उसके साथ बलात्कार किया. उच्चतम न्यायालय का विवादास्पद निर्णय, जिसमें पुलिसकर्मियों को इस आधार पर बरी कर दिया गया कि वह एक कमज़ोर नैतिक चरित्र वाली महिला थी, सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में भारत के महिला आंदोलनों का उत्प्रेरक बन गया. हम में से बहुतों के लिये मथुरा आज भी नारीवादी संवेदनशीलता का पैमाना बनी हुयी है. यह मुझे सही ढंग से अपना पक्ष रखने में सहायक है कि जब भी कोई किशोर लड़की अपने पुरुष मित्र के साथ भागती है या दूसरे अपरंपरागत यौन विकल्प चुनती है तो चूँकि वह पहले ही कई-कई तरह की प्रवंचनाओं का शिकार होती है, उसके कारण उसे जिस असहायता की स्थिति का सामना करना पड़ता है, उसके तमाम पहलुओं के प्रति संवेदनशील होने की जरुरत है.

नारीवादी आंदोलनों कि आवाज को चाहिए कि वह यथास्थिति बनाये रखने वाले संस्थागत प्राधिकारों के प्रभुत्व खिलाफ उठने वाले कमजोरों की माँगों का पुरजोर तरीके से  समर्थन करे. एक किशोर लड़की के द्वारा अपनाये गए तौर-तरीके में उसका साथ देने और पितृसत्ता की तानाशाही के खिलाफ उठनेवाली उसकी आवाज में आवाज मिलने की आवश्यकता है. नारीवादी न्यायशास्त्र के दावों को इस जटिल पृष्ठभूमि में अवस्थित कर के देखना बेहद जरूरी है.

निष्कर्ष से पहले, कहीं मुझे गलत न समझा जाये इसलिए मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं इस बात का समर्थन नहीं कर रही हूँ कि १५ साल की उम्र की हर लड़की को पढाई छोड़ देनी चाहिये, अपने पुरुष मित्र के साथ भाग जाना चाहिये और उससे शादी कर लेनी चाहिये और फिर वह लोकप्रिय हिंदी फिल्मों के फोर्मुले के मुताबिक “हमेशा सुखी” जीवन जीती रहेगी. मैं सिर्फ इतना कह रही हूँ कि १९२९ में लागू किया गया बाल विवाह प्रतिबन्ध कानून आज तक अपना काम नहीं कर पाया, क्योंकि परिवार, जाति और समुदाय के दुर्ग को बेधना और बाल विवाहों को रोकना लगभग असंभव है, जैसा कि कुछ नारीवादी समूहों द्वारा  माना जाता है. इसके विपरीत आज के समाज में, बाल विवाह एक वर्गीय मुद्दा बन गया है जो  उस तरीके के बिलकुल ही विपरीत है जिसे उन्नीसवीं सदी की सुधारवादी बहसों में ब्राहमणवादी पितृसत्ता के सन्दर्भ में इस्तेमाल किया गया था. हम शादी की उम्र को धीरे-धीरे बढ़ते देखते हैं जहाँ जीवन स्तर ऊपर उठता है और परिवारों के पास अपनी बेटियों को  शिक्षित-प्रशिक्षित करने के बेहतर विकल्प होते हैं.

घर में जवान लड़की होने पर यह भय कि कहीं वह बलात्कार का शिकार न हो जाय, ज्यादातर गरीब परिवारों को अपनी बेटियों की कम उम्र में शादी करने और उनकी यौनिकता की हिफाजत करने को प्रेरित करता है, ताकि उन्हें ऐसी लड़की की शादी का कलंक न सहना पड़े जो बलात्कार की शिकार हुई हो और जिसका कौमार्य भंग कर दिया गया हो. हमें अधिक सुरक्षित और महिलाओं के लिए अनुकूल एक ऐसे समाज के निर्माण की दिशा में काम करना चाहिये जहाँ बेटियों का लालन-पालन प्यार, हिफ़ाजत और स्नेह के साथ किया जाय ताकि बाल विवाह उनके लिये एकमात्र विकल्प न रहे. दूसरे स्तर पर, परिवारों में सेक्स और यौन विकल्पों पर ज्यादा खुली चर्चा करने की जरुरत है, और साथ ही, शादियों में पवित्रता और कौमार्य को ज्यादा महत्व दिए जाने को चुनौती देने की आवश्यकता है. यौनसंबंधी जिस दमनकारी वातावरण में हम अपने बच्चों को बड़ा करते हैं, जब वह बदलेगा, तभी लड़कियाँ और लड़के अपनी सहज यौन प्रवृतियों को अभिव्यक्त करने के लिये भागने और शादी करने की जरुरत महसूस नहीं करेंगे तथा यौन और जीवन संबंधी विकल्पों को अधिक जिम्मेदारी से चुनने की स्थिति में होंगे.


(अनुवाद- दिनेश पोसवाल)            
           

5 comments:

  1. thank you for sharing this on blog

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  2. व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि “अकलमंदी की उम्र” के नाम पर नाबालिग लड़की के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास के मुद्दे को दरकिनार किया गया है.यहाँ शादी को मान्य-अमान्य करने,लड़की की इच्छा,प्रेम,पितृसत्ता के विरोध,उदार न्यायिक प्रक्रिया के साथ उसकी दैहिक परिपक्वता भी बड़ा मुद्दा है...जिसे भूलना अनुचित होगा.केवल मासिक-धर्म होने को पूर्ण विकास नहीं माना जा सकता हैं.मासिक-धर्म होने की उम्र भी घटी है.छोटी उम्र में माँ बनना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए घातक हैं.

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  3. यहाँ शादी की सामान्य उम्र का मामला नहीं है, अपने पसंद से शादी करने वाली लड़कियों को माँ बाप के हाथों सौंपने का एक ही नतीजा होता है, उनकी तुरंत किसी के साथ बेमेल शादी.और अगर संरक्षण गृह में भेजा जाय तो क्या हश्र होगा यह पिछले दिनों अख़बारों में खूब आया है उनके कारनामे. तब तो शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तर पर शोषण उत्पीडन का शिकार होगी वह. इसी को ध्यान में रख कर कोर्ट ने फैसला दिया है, विजय जी.

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  4. बेहतरीन लेख है. विचित्र अंतर्विरोध है कि कानून में 'नाबालिग' कि अवधारणा का इस्तेमाल विवाह के प्रसंग में बच्चों को माँ-बाप कि जबरदस्ती से बचाने के लिए किया गया, जबकि स्थिति यह है कि इसका इस्तेमाल 'अवयस्क' लड़के-लड़की अपनी सुरक्षा के लिए तो नहीं कर पाते, उलटे अगर वे कभी परिवार के दमन से बचने के लिए भागते हैं तो परिवार इस कानून को ही उनके खिलाफ हथियार बनाता है. व्यक्ति के अपने शरीर और यौनिकता पर केवल उसी का अधिकार स्वीकार किया जाना चाहिए, परिवार और समाज के ठेकेदारों का नहीं, चाहे वह कितने भी 'अक्लमंद' क्यों न हों! अब जरुरी हो गया है कि इन अवधारणाओं पर पुनर्विचार किया जाए.

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  5. दिगम्बर जी, मैं कोर्ट के आदेश के खिलाफ नहीं हूँ, लेकिन इस बात के जरूर खिलाफ हूँ कि लड़की की के बारे में फैसला देते समय उसके शरीर को नज़रअंदाज किया जाए. पति के साथ भेजने का मतलब कम उम्र में सहवास और प्रजनन की परोक्ष रूप से सहमति भी देना हैं..
    इसके लिए, मेरे तई, सचेत प्रशासनिक पहल की आनश्यकता है.

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