Saturday, December 22, 2012

वही करो जो मैं कहता हूँ, वैसा नहीं जैसा मैं करूँ!


-माइक फर्नर


(कनेक्टिकट, अमरीका के स्कूल में हुई अंधाधुंध गोलीबारी की घटना पर एक बेबाक टिप्पणी जो हमारे लिए भी विचारणीय है.)

अपनी भोली-भाली जवानी के दिनों में आपने अपने माता-पिता या बड़े भाई-बहनों की तरफ से इन शब्दों को उछाले जाते सुना होगा, खास कर तब जब आपने उनकी किसी ऐसी गलती पर ऊँगली उठाई हो, जिसके बारे में वे आपसे ऊँचे मापदंड अपनाने को कहा करते हों.

“व्यवहार, शब्दों से अधिक मुखर होता है” और “हम उदाहरण से सीखते हैं,” ये दो ऐसी सच्चाइयाँ हैं जिसे इतिहास ने सही ठहराया है. लेकिन इनको व्यवहार में उतरना आसान नहीं है.

एक राष्ट्र के रूप में हम पिछले हफ्ते कनेक्टिकट में भयावह रूप से हताहत लोगों के परिवारों और प्रियजनों के साथ मिल कर शोक मानते हैं. लेकिन उस शोक के साथ चूँकि यह मत भी जुड़ा हुआ है कि आखिर ऐसी नृशंसता दुबारा कैसे घटित हुई, तो मेरी राय में हम इस घटना के शिकार हुए लोगों के परिजनों और खुद अपने साथ भी अपकार करेंगे, यदि  हम सामूहिक कत्लेआम को लेकर अमरीकियों की अभिरुच की छानबीन करते हुए “हमारे आगे जितने भी विकल्प सामने हैं” उन सब पर विचार नहीं करते.

अगर व्यवहार सचमुच शब्दों से अधिक मुखर होता है, तो हमारी युवा पीढ़ी को भला और क्या संस्कार और सीख मिल सकती है, जब हम हरसाल शिक्षा और स्वास्थ्य की तुलना में कहीं ज्यादा मौत और पीड़ा खरीदते हैं; जब हम एक ऐसी संस्कृति को जन्म देते हैं जिसमें हिंसा और सैन्यवाद का उत्सव मनाया जाता है जबकि शान्ति और अहिंसा चाहनेवालों को अनाड़ी, अनुभवहीन स्वप्नदर्शी और यहाँ तक कि एकदम गद्दार करार दिया जाता है; जब हम सेना को महिमामंडित करते हैं और बढ़ावा देते हैं, सेना के कुकृत्यों पर पर्दा डालते हैं; जब हमारा देश इतने हथियार बेचता है जितना पूरी दुनिया मिलकर नहीं बेचती; जब हमारे एक दूतावास पर हमले के बाद देश का नेता कहता है कि “हिंसा के इस्तेमाल के लिए कोई माफ़ी नहीं,” और दूसरे दिन वह अपनी फेहरिस्त के अगले देश और उसके समर्थकों पर बमबारी करने के लिए ड्रोन बम्बबर्षक रवाना करता है?

क्या हम सचमुच यह सोचते हैं कि हम कहें कुछ और करें कुछ, बिना साफ तौर पर यह सीखे कि हिंसा चाहे जितनी भी उत्तेजक और भयावह हो, उससे हमें कैसे निपटना है?
  
इसमें कोई शक नहीं कि जो ताकतें इंसान के दिमाग को इस हद तक मोड़ देती हैं कि वह दर्जनों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दे, वह निश्चय ही जटिल और भयावह होगा. उनमें से कुछ तो इंसान के मन में इतनी गहराई से बैठी हो सकती हैं, जहाँ तक हमारी पहुँच ही न हो. जो भी हो, हमें जानना चाहिए कि आखिर "क्यों"?


अगर हम ऐसा करते हुए इससे मिलने वाले जवाब से इस हद तक भयभीत न हों कि अगली त्रासदी के घटित होने तक हम भाग कर खोल में ही सिमट जाएँ, तो हमें डॉ. मार्टिन लूथर किंग के शब्दों को अपने दिमाग में रखना होगा, जिन्होंने दुर्भाग्यवश अपने देश को “आज की दुनिया में हिंसा का सबसे बड़ा पोषक” कहा था और चेतावनी दी थी कि “जो राष्ट्र साल दर साल सामाजिक उन्नति के कार्यक्रमों की तुलना में सैन्य सुरक्षा पर अधिक खर्च कर रहा है वह आत्मिक मृत्यु के निकट पहुँच रहा है.”

“वही करो जो मैं कहता हूँ, वैसा नहीं जैसा मैं करूँ,” बचपन में ही काम नहीं आया था. यह अब भी काम नहीं आएगा.

(माइक फर्नर ओहियो निवासी लेखक हैं और वेटरन फॉर पीस संस्था के पूर्व अद्ध्यक्ष हैं. मंथली रिव्यू से आभार सहित. अनुवाद- दिगम्बर) 

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