-माइकल ए. लेबोवित्ज़
ऐसा क्या है जो मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी बनाता
है? वह हीगल का रहस्यवाद नहीं है - कि यह एक सर्वव्यापी
वर्ग या निरपेक्ष आत्मा की भौंडी नकल है. ऐसा भी नहीं कि मजदूर वर्ग अपनी भौतिक
स्थिति की वजह से ही क्रांतिकारी है, यानी उद्योग के पहियों को जाम कर देने के
लिये कूटनीति तौर पर उसे वहां बहाल किया गया है.
इसमें ज्यादा हैरत की बात नहीं है कि ये अच्छी-बुरी
सारी व्याख्यायें बहुत थोड़े लोगों को ही कायल बना पाती हैं. निश्चय ही, कुछ ऐसे
लोग भी हैं जो पहले इस बात की बहुत अच्छी तरह व्याख्या करते थे कि मजदूर वर्ग
क्रांतिकारी क्यों है, लेकिन अब वे कहते हैं कि मजदूर वर्ग का समय आया और चला गया.
उदाहरण के लिये, कुछ लोग यह मानते हैं कि, एक ज़माने में, पूंजी मजदूरों को
सकेंद्रित करती थी, उन्हें एक साथ आने, संगठित होने और संघर्ष करने का अवसर प्रदान
करती थी; मगर, अब पूंजी ने मजदूरों को विकेन्द्रीकृत कर दिया है और उन्हें एक-दूसरे
के खिलाफ इस तरह खड़ा कर दिया है कि अब वे साथ मिलकर संघर्ष नहीं कर पाते. एक ज़माना
था, जब मजदूरों के पास खोने के लिये अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ भी नहीं था. लेकिन अब पूंजीवाद ने उसे अपने अंदर समाहित कर लिया है,
वह अब उपभोक्तावाद की जकड़बंदी में है और उसके उपभोग के सामान ही अब उसके मालिक हैं
और वे ही उसका इस्तेमाल करते हैं.
जो लोग यह नतीजा निकालते हैं कि मजदूर वर्ग अब
इसलिए क्रांतिकारी नहीं रह गया क्योंकि पूंजीवाद ने उसे रूपांतरित कर दिया है, वे
यह दर्शाते हैं कि उन्हें मार्क्सवाद की रत्ती भर भी समझ नहीं है. अपने संघर्षों
के जरिये ही मजदूर वर्ग खुद को क्रांतिकारी बनाता है – खुद को रूपांतरित करता है.
हमेशा से यही मार्क्स का दृष्टीकोण था – उनका “क्रांतिकारी व्यवहार” कि अवधारणा, जिसके
दौरान हालात भी बदलते हैं और साथ ही साथ खुद मजदूर वर्ग में भी बदलाव आते हैं.
अपने संघर्षों के जरिये ही मजदूर वर्ग खुद को बदलता है. वह खुद को नयी दुनिया का
निर्माण करने के लायक बनाता है.
लेकिन मजदूर संघर्ष क्यों करते हैं? मजदूरों के सभी
संघर्षों में एक ही बुनियादी बात है जिसे मार्क्स “विकास के लिए मजदूरों की अपनी
जरुरत” कहते हैं. हम जानते हैं कि मार्क्स का यह मानना था कि वेतन-भत्ते के संघर्ष
अपने आप में अपर्याप्त हैं. लेकिन वह यह भी मानते थे कि इन संघर्षों में शामिल न होना,
मजदूरों को “उदासीन, विचारहीन और कमोबेश उत्पादन के खाते-पीते उपकरण” बना देगा.
मार्क्स का तर्क था कि संघर्षों के अभाव में मजदूर “उदास, मानसिक रूप से कमज़ोर,
क्लांत और विरोध न करने वाली भीड़” बनकर रह जायेंगे. संघर्ष उत्पादन की एक
प्रक्रिया हैं- जो एक अलग तरह के मजदूर का निर्माण करती है, एक ऐसा मजदूर जो अपने
आप को उत्पादित करता/करती है, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसका सामर्थ्य बढ़ता है,
आत्मविश्वास विकसित होता है और जिसकी संगठित होने और आपस में जुड़ने की क्षमता
विस्तृत होती है. लेकिन हम ऐसा क्यों सोचते हैं कि यह संघर्ष सिर्फ वेतन-भत्ते की
लड़ाई तक ही सीमित है? हर एक संघर्ष जिसमें लोग खुद हि मजबूती से डटे रहते हैं, हर
एक संघर्ष जिसमें लोग सामाजिक न्याय पर जोर देते हैं, हर एक संघर्ष जिसमें वे खुद
अपनी संभावनाओं और अपने विकास की जरुरत समझते हैं, उसमें शामिल लोगों के सामर्थ्य
को बढ़ाते हैं.
इतना ही नहीं, ये संघर्ष
हमें पूंजी के खिलाफ खड़ा करते हैं. क्यों? क्योंकि पूंजी एक ऐसा अवरोध है जो हम सब के बीच और हमारे खुद के विकास
के बीच बाधा बन कर खड़ी होती है. और ऐसा इसलिये है कि पूंजी ने सारी सभ्यताओं से
हासिल उपलब्धियों को अपने कब्जे में कर लिया है, क्योंकि यह सामाजिक मष्तिस्क और
सामाजिक श्रम का मालिक बन बैठी है, और यह हमारे उत्पादों को और मजदूरों के
उत्पादों को हमारे ही खिलाफ खड़ा कर देती है; जिसके पीछे सिर्फ एक ही मकसद होता है, खुद का फायदा – यानी मुनाफा.
अगर हमें अपनी जरूरतों को पूरा करना है और अपनी क्षमता का विकास करना है, तो हमें
पूंजी के खिलाफ संघर्ष करना जरूरी है और इसी
के दौरान हम मजदूर खुद को क्रांतिकारी बनाते हैं.
लेकिन हम लोग कौन हैं? वह मजदूर वर्ग कौन है जो
क्रांतिकारी है? आपको पूँजी के अंतर्गत इसका जवाब नहीं मिलेगा. मार्क्स की पूंजी
मजदूर वर्ग के बारे में नहीं है – सिवाय इसके कि मजदूर वर्ग उसका एक लक्ष्य है.
पूंजी में जिस चीज की ब्याख्या की गयी है वह है पूंजी की प्रकृति, इसका लक्ष्य और
इसकी गतिकी. मगर मजदूर वर्ग के बारे में यह सिर्फ इतना ही बताती है कि पूंजी मजदूर
वर्ग के खिलाफ काम करती है. और चूँकि वह मजदूर वर्ग को एक विषय के तौर पर पेश नहीं
करती, इसलिये वह इस बात पर केंद्रित नहीं है कि पूंजी अपने इस मातहत के खिलाफ कैसे
लड़ती है. इसके लिये हमें मार्क्स की दूसरी रचनाओं और उनकी टिप्पणियों को देखना
होगा कि कैसे पूंजीपति वर्ग मजदूरों को बाँटकर और उन्हें अलग-थलग करके अपनी सत्ता
बनाये रखता है (विशेष तौर पर अंग्रेज और आयरिश मजदूरों को). और, हालाँकि मार्क्स
ने स्पष्ट तौर पर टिप्पणी की है कि “पूंजी की समकालीन सत्ता” मजदूरों में नयी
जरूरतें पैदा करने पर ही “पूंजी की समकालीन सत्ता निर्भर” है, लेकिन उन्होंने किसी
भी जगह इस प्रश्न की जांच-पड़ताल नहीं की
है.
इसलिये, समकालीन मजदूर वर्ग की प्रकृति एक ऐसा
महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका जवाब किसी किताब में नहीं ढूंढा जा सकता. हमें खुद ही
इस सवाल का जवाब तलाशना होगा. आज कौन है जिसके पास पूंजी नहीं है? कौन है जो
उत्पादन के साधनों से अलग है और जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिये पूंजी के आगे
एक याचक की तरह खड़ा होता है? निश्चय ही, इसमें सिर्फ वही शामिल नहीं है जो पूंजी
को अपनी श्रम शक्ति बेचता है, बल्कि वे भी शामिल हैं जिनकी हैसियत पूंजी को अपनी श्रम शक्ति
बेचने लायक भी नहीं हैं – सिर्फ शोषित मजदूर ही नहीं, बल्कि वे भी जिन्हें हासिये पर फेंक
दिया गया है. और निश्चय ही, इसमें वे भी शामिल हैं, जो बेरोजगारों की विशाल
आरक्षित सेना मौजूद होने के चलते, पूंजी के विस्तार के अधीन काम करते हैं और सारा
जोखिम खुद ही उठाने को मजबूर हैं – अर्थात जो लोग अनौपचारिक (असंगठित) क्षेत्र में
अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत हैं. भले ही वे फैक्ट्री में काम करने वाले पुरुष मजदूर
के घिसेपिटे मानदण्ड पर खरे नहीं उतारते हों, क्योंकि यह मानदण्ड तो हमेशा
से ही गलत था.
निश्चय ही, हमें मजदूर वर्ग की विविधतापूर्ण
प्रकृति की पहचान करने से शुरु करना होगा. क्योंकि मार्क्स जानते थे कि मजदूर वर्ग
के बीच के मतभेद पूंजी के शासन का जारी रहना संभव बनाते हैं. लेकिन मार्क्स यह भी
जानते थे कि संघर्षों के दौरान ही हमारी एकता का निर्माण होता है. और हम अपने खुद
के विकास की जरुरत के सामूहिक लक्ष्य को पहचान कर और यह पहचान कर कि “प्रत्येक
व्यक्ति का स्वतंत्र विकास सभी के स्वतंत्र विकास की जरूरी शर्त है”, उस एकता का
निर्माण कर सकते है. हमें यह विश्वास दिलाकर कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है,
पूंजी विचारों की इस लड़ाई को जीतती आ रही है और जो लोग मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी
मानने से इंकार करते हैं, वे इस काम में पूँजी के मददगार हैं. हालाँकि, अपने विकास के अधिकार पर जोर देकर हम विचारों की इस
लड़ाई को लड़ सकते हैं. मार्क्स और एंगल्स यह जानते थे कि मजदूरों से “अपने अधिकारों
के लिये लड़ने का आह्वान करना ‘उन्हें’, क्रांतिकारी, संगठित समूह में ढालने का एक
साधन मात्र है.” हमारे पास जीतने के लिये एक पूरी दुनिया है – वह दुनिया जिसका हम
हर रोज निर्माण करते हैं.
(माइकल ए. लेबोवित्ज़ वेंकूवर (कनाडा) के साईमन फ्रेसर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर और बियोंड कैपिटल, बिल्ड ईट नाउ, और द सोसिअलिस्ट अल्टरनेटिव सहित कई पुस्तकों के लेखक हैं. यह लेख उनकी किताब बियोंड कैपिटल के आने वाले ईरानी संस्करण का प्राक्कथन है. मंथली रिव्यू के प्रति आभार सहित. अनुवाद- दिनेश पोसवाल)
जरूरी आलेख।
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