Tuesday, November 6, 2012

हिंदी के दुश्मन हिंदी अखबार



पारिजात


अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनकी माँ की भाषा से वंचित कर दे,” एक नारी ने दूसरी नारी को कोसा ।
अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जो उन्हें जबान सिखा सकता हो ।
नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी जबान सिखा सकते हों ।
तो ऐसे भयानक होते हैं शाप ।
रसूल हमजातोव, “मेरा दागिस्तानपुस्तक से ।
कल्पना करें कि अगर हम अचानक अपनी मातृभाषा भूल जायें तो क्या होगा ? हम पूरी दुनिया से और यहाँ तक कि खुद से भी अजनबी नहीं हो जायेंगे ?
पिछले बीस सालों से हिंदी के कई अखबार जनता के स्मृतिपटल से उसकी मातृभाषा पोंछ देने की कारगुजारियों में लिप्त हैं । किसी जमाने में इन्ही हिंदी अखबारों से जुड़े सम्पादकों और पत्रकारों ने हिंदी को समृद्ध किया था । आज उनके उत्तराधिकारी उनके कियेकराये पर पानी फेर रहे हैं । वे हिंदी की जगह अंग्रेजी को प्रतिष्ठित करने का अभियान छेड़े हुए हैं और हिंदी के दुश्मन की भूमिका निभा रहे हैं । वे बिलावजह अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में घुसाकर हिंदी को हिंगलिश बनाने में लिप्त रहे हैं ।
हिंदी के एक प्रतिष्ठित अखबार के एक कोने में ही ईवनिंग, शिफ्ट, केस, कांसटेबुल, कोर्ट, करप्सन, लाइट, इलैक्सन, लिस्ट, जैसे अनेकों शब्द देखने को मिले । इन शब्दों के लिये लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हिंदी के बहुप्रचलित शब्दों का अकाल नहीं है । इन अखबारों ने सचेत रूप से ऐसे सैकड़ों शब्दों को हमारी आम बोलचाल की भाषा में घुसा दिया है ।
अगर किसी शब्द के लिये हमारी भाषा में प्रचलित शब्द न हो तो कोशिश यही होनी चाहिये कि उसके लिये शब्द बनाकर उसे प्रचलित किया जाय, ताकि हमारे शब्द भंडार में इजाफा हो । अगर वैकल्पिक शब्द तलाशना सम्भव न हो तो मजबूरी में किसी दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं । लेकिन अपनी भाषा में प्रचलित समानार्थी शब्द होने पर भी दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग करना अपनी भाषा के प्रति घोर उपेक्षा है ।
भाषा के घालमेल का काम सबसे पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने शुरू किया था । इसने धीरेधीरे अंग्रेजी के शब्दों को हमारी बोलचाल की भाषा में घुसाया । यह एक हवाई हमले की तरह था । तब समाज में इसकी व्यापक पहुँच नहीं थी । लेकिन हिंदी को अंग्रेजी द्वारा प्रतिस्थापित करने की अखबारों की योजाना के लिये इसने आधार का काम किया । इसी जमीन पर खड़े होकर अखबार अंग्रेजी के शब्दों की संख्या बढ़ाते चले गये । शब्दों की तो बात ही छोड़िये, वे अंग्रेजी के वाक्यांशों को भी हमारी भाषा में घुसा रहे है । उनकी अगली योजाना हिंदी को देवनागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि में लिखने की है ।
अपने इन भाषा विनाशी कुकृत्यों के लिये वे तर्क देते हैं कि इससे हिंदी समृद्ध हो रही है और एक वैश्विक भाषा बनने की ओर बढ़ रही है । उनका कहना है की हिंदी में इन नये शब्दों के आ जाने से हिंदी की ताकत बढ़ेगी और इसका विस्तार भी होगा । अगर उनके तर्क को थोड़ा बढ़ाकर सोंचे तो जल्द ही वह दिन आयेगा जब हम वाक्य तो हिंदी का बोलेंगे पर उसमें शब्द अंग्रेजी के होंगे । इसका नमूना हम रेडियो और टीवी के संचालकों की खिचड़ी बोली के रूप में देख सकते हैं ।
भाषाशास्त्रियों का कहना है कि शब्द मात्र अक्षरों का समूह नहीं होते । हर शब्द का अपना इतिहास होता है । शब्दों का अपना जीवन क्रम होता है, वे पैदा होते हैं, पुराने पड़ते हैं, मरते हैं और फिर नयेनये शब्द पैदा होते हैं । किसी भी शब्द के सम्पर्क में आते ही हमारे दिमाग में उससे सम्बंधित एक तस्वीर बनती है । शब्द से हमारे दिमाग में बनने वाले इस चित्र पर समय, समाज, भौगोलिक परिस्थिति, संस्कृति जैसी बहुत सी चीजों का असर होता है । किसी भारतीय किसान के दिमाग में सुबहकहने से जो चित्र खिंचता है, वह किसी अमरीकी के जीवन में मार्निंगसुनकर उभरने वाली छवि से बिलकुल अलग होता है । माँबाप सुनकर हमारा दिमाग जैसी प्रतिक्रिया करता है पैरेंट्स सुनकर हमारे दिमाग में वही छवि नहीं बनती ।
यह भी महत्त्वपूर्ण है की हमारे दिमाग में जो भी विचार आते हैं या हम जो भी चिंतन करते हैं, वह हमारी अपनी मातृभाषा में होता है । हम परायी भाषा में सोच ही नहीं सकते । अगर हमारी भाषा के शब्द ही बदल दिये जायेंगे तो हम न तो मौलिक चिंतन कर पायेंगे और न ही अपने विचारों की प्रखर अभिव्यक्ति । अपनी भाषा से कटते ही हम अपनी परम्पराआंे अपनी संस्कृति और अपने इतिहास से भी कट जायेंगे । हम अपने पूर्वजों की विकास यात्रा और उनके संघर्षों से अजनबी हो जायेंगे । यही कारण है की दुनिया का हर जागरूक समाज जीजान से अपनी मातृभाषा को बचाने और उसका विकास करने का प्रयास करता है ।
सवाल यह है की मातृभाषा हिंदी में छपने वाले अखबार क्यों अपनी ही भाषा को नष्ट करने के लिये योजनाबद्ध तरीके से प्रयासरत हैं ? क्यों वे हिंदी को अंग्रेजी शब्दों की बैशाखी थमा रहे हैं, जबकि राष्ट्रीय आन्दोलन और 1947 के बाद के दशकों में भी उन्होंने हिंदी के विकास का काम किया था । कोई भी अखबार या पत्रिका समाज के किसी खास वर्ग का प्रतिनिधि होती है । देश की सत्ता की बागडोर जिस वर्ग के हाथ में होती है जनसंचार के माध्यमों पर भी उसी का कब्जा होता है । विरोधी विचारों को भी वह एक सीमा तक ही स्थान देता है । मुख्यधारा के हमारे अखबार पहले भी देश के शासक, पूँजीपति वर्ग की विचारधारा के वाहक थे और आज भी हैं । हालाँकि उनके मालिकों में अब विदेशी पूँजीपति भी शामिल हो गये हैं । आजादी की लड़ाई में जनता को अपने साथ लेने के लिये वे सुखदुःख में उसका साथ देते और शासकों तक उसकी आवाज पहुँचाते थे । आजादी के बाद हमारे शासकों ने राष्ट्र के आत्मनिर्भर विकास का रास्ता चुना । अपनी राष्ट्रीय भाषा और संस्कृति का विकास भी इसी का हिस्सा था । हालाँकि शासक वर्ग उस वक्त भी अंग्रेजी की श्रेष्ठता और निर्भरता से मुक्त नहीं थे, फिर भी इस पूरे दौर में अखबारों ने हिंदी के विकास में योगदान किया ।
80–90 के दशक में दुनिया मे हुए बदलावों को देखते हुए हमारे शासकों को आत्मनिर्भरता के बजाय परनिर्भरता और साम्राज्यवादियों की गुलामी में ज्यादा मुनाफा दिखायी देने लगा । उन्होंने अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिये वैश्वीकरण के रूप में आयी नये तरह की गुलामी को स्वीकार कर लिया । साम्राज्यवादियों के लिये देश के दरवाजे खोल दिये गये । देश की सभी नीतियाँ इनकी सहूलियत के अनुसार बदली जाने लगीं । जब देश के शासक वर्ग ने साम्राज्यवादियों की अधीनता स्वीकार कर ली तो अखबारों समेत उसके सभी जनसंचार माध्यम भी साम्राज्यवाद की सेवा में लग गये । उनका चरित्र रातोंरात बदलने लगा ।
साम्राज्यवादियों का सपना पूरी दुनिया पर अपना एकछत्र राज कायम करना है । वे चाहते हैं कि पूरी दुनिया की जनता मुनाफाखोरी और उपभोक्तावाद को ही जीवन का उद्देश्य मान ले । उनकी पतित पूँजीवादि संस्कृति को ही पूरी दुनिया में स्थापित कर दिया जाय । उन्हीं की भाषा पूरी दुनिया में बोली जाये और पूरी दुनिया की जनता अपने देश के स्वाभिमान और आजादी के सपने का परित्याग कर दे । उन्हीं आक्रांताओं की साम्राज्यवादी संस्कृति का प्रचारप्रसार अब हिंदी के अखबारों का उद्देश्य बन गया हैं । इसके लिये जरूरी था की सबसे पहले अखबार खुद को हर कीमत पर मुनाफा कमाने वाले उपक्रम में बदलें और देश की जनता के प्रति अपने दायित्यों को त्याग कर अधिक से अधिक विज्ञापन हासिल करने की रणनीति अपनायें । इसी के तहत हिंदी के अखबारों ने हिंदी का विकास करने के बजाय उसकी जड़ें खोदने का बीड़ा उठा लिया । चूँकि हिंदी और सभी देशी भाषाएँ भारत की पहचान का अनिवार्य अंग है, इसलिए वैश्वीकरण के नाम पर साम्राज्यवादी ऐसी किसी भी पहचान को रौंदना जरूरी समझते हैं ।
भाषा ही नहीं बल्कि खानपान, पहनावा, जीवनशैली और हर क्षेत्र में बहुलतावाद को रौंदते हुए अपने एकरस और जड़ीभूत मानकों को स्थापित करना उनके लिये जरूरी है । तभी उनके ब्रांडेड कपडे़, खानेपीने के सामान और हर तरह की उपभोक्ता वस्तुएँ पूरी दुनिया में धड़ल्ले से बिक पायेंगी ।
अंग्रेजी के प्रति इस वर्ग का मोह फैशन मात्र नहीं है, बल्कि उनके अस्तित्व से सीधे जुड़ी हुई है । बहुराष्ट्रीय निगमों का पूरा तामझाम, पूरा तानाबाना, अंग्रेजी पर निर्भर है । जाहिर है कि उनके विज्ञापनों पर पलने वाले अखबारों के लिए भी अंग्रेजी को बढ़ावा देना और हिंदी का मानमर्दन करना आज उनके फलनेफूलने की शर्त है ।
ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में अपने देश की आजादी को साम्राज्यवादियों के पास गिरवी रख चुके शासक वर्गों के समर्थक अखबार अपनी मातृभाषा के मित्र नहीं हो सकते । आज अपनी मातृभाषा के मित्र उन्हीं वर्गों के पत्रपत्रिकाएँ हो सकती हैं जो पूरी मानवता की मुक्ति का सपना देखते हैं । अतीत में भी अंग्रेजी से लड़ते हुए अंग्रेजी के खिलाफ हिंदी का पताका लहराया गया था । आज हम उससे भी कठिन परिस्थिति का सामना कर रहे हैं, क्योंकि देश की एक बहुत बड़ी आबादी अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये विदेशी पूँजी के साथ गलबहियाँ डाले खड़ी है । इसका मुकाबला जनपक्षधर पत्रपत्रिकाओं और अन्य वैकल्पिक माध्यमों के प्रचारप्रसार को एक आन्दोलन का रूप देकर ही सम्भव है ।

(देश-विदेश अंक 14 में प्रकाशित लेख) 

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