-जनेट रेडमैन
फेयरफैक्स, वर्जीनिया निवासी मेरी एक करीबी दोस्त
को उसकी पहली संतान होने वाली है. जब वह बच्ची 60 साल की होगी, उस वक्त उसे इतनी तपती
हुई धरती पर जीना होगा, जितनी गरमी 25 लाख साल पहले इस धरती पर इंसान की चहलकदमी
शुरू होने से लेकर आज तक नहीं रही.
आज भी यह दुनिया ठीक एक पीढ़ी पहले की तुलना में
बहुत ही अलग दिख रही है. जिस खतरनाक दर से पौधे और जीव-जंतु गायब हो रहे हैं कि
वैज्ञानकों को यह पूछना पड़ रहा है- क्या हम छठे व्यापक विलोप के युग में प्रवेश कर
रहे हैं. समुद्र में मछलियों की मात्रा, जो एक अरब से भी अधिक लोगों के लिए
प्रोटीन का मुख्य स्रोत है, तेजी से घट रही है और हाल के वर्षों में रहस्यमय कोरल
रीफ (मूंगे की दीवार) का विलुप्त होना पहले से ही खराब स्थिति को और भी बदतर बना
रहा है. इस ग्रह की सतह के आधे से भी अधिक हिस्से पर आज “एक स्पष्ट
मानव पदचिह्न” मौजूद है.
यही वे हालात हैं जिनसे बचने की उम्मीद लेकर दुनिया भर के राजनेता अब
से बीस साल पहले रियो द जेनेरियो, ब्राजील के पृथ्वी सम्मलेन 1992 में जमा हुए थे.
बीस साल पहले ही, नीति निर्माताओं को यह पता था कि मानव क्रियाकलाप
पर्यावरण को नुकसान पहुँचा सकते हैं. लेकिन वे इस सच्चाई से भी रूबरू थे कि दुनिया
की लगभग आधी आबादी गरीबी में जी रही है तथा उनको जमीन, पानी, भोजन, सम्मानपूर्ण
रोजगार और बेहतर जीवन के लिए आवश्यक सामग्री हासिल करना जरूरी है.
इन दोनों सच्चाइयों को एक साथ मिलाने के लिए रियो सम्मलेन ने “टिकाऊ
विकास” को अंगीकार किया- एक ऐसा आर्थिक माडल जो भावी पीढ़ियों की अपनी जरूरतें पूरी
करने की क्षमता के साथ बिना कोई समझौता किये, आज की जरूरतों को पूरा करता हो.
सरकारों ने एजेंडा 21 नाम से टिकाऊ विकास का खाका स्वीकृत किया, जो 21 वीं सदी कि
ओर उन्मुख था. साथ ही उन्होंने जैवविविधता, जलवायु परिवर्तन और रेगिस्तानीकरण के
बारे में वैश्विक पर्यावरण समझौतों की भी शुरुआत की.
वैश्विक समुदाय फिर से रियो में इस दुखद सच्चाई का सामना करने के लिए
एकत्र हो रहा है कि इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है. हर किसी के दिमाग में
वैश्विक वित्तीय संकट, उथल-पुथल मचा देने वाली आर्थिक असमानता और कारपोरेट की
गलाकाटू प्रतियोगिता के भय से किसी फैसले को लागु करने की इच्छा का अभाव है.
आखिर गडबड क्या हुआ? इसका आंशिक उत्तर यह है कि मूल पृथ्वी सम्मलेन ने
दो बेहद जरूरी मुद्दों को इस तरह नजरन्दाज किया, जैसे कोई कमरे में घुस आये हाथी
की अनदेखी करे. पहला यह कि सीमित ग्रह पर असीम विकास एक बेकार की कवायद है. और
दूसरा, कि उत्तरी अमरीका, यूरोप और जापान में रहनेवाली दुनिया की 20 फीसदी आबादी
पृथ्वी के 80 फीसदी संसाधनों को गड़प कर जाती है. ऐसा नहीं लगता कि रियो+20, (इस
नयी बैठक का यही नाम रखा गया है), इस मर्तबा भी इन दोनों हाथियों को पहचान पायेगा.
रियो की और कूच कर रहे नेता मिथकीय “हरित अर्थतंत्र” कि बढचढकर दलाली
करते हुए बता रहे हैं कि इससे हमारी जलवायु सम्बंधी सभी समस्याओं का समाधान हो
जायेगा. हालाँकि अभी तक इसे ठीक से परिभाषित भी नहीं किया गया है, फिर भी आम तौर
पर वे लोग इसे आर्थिक विकास के एक ऐसे माडल के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, जो स्वच्छ
ऊर्जा, जलवायु-प्रतिरोधी खेती तथा दलदली इलाकों की जमीन सुखाने जैसी पारिस्थितिकी
तंत्र से सम्बंधित सेवाओं के क्षेत्र में भारी पैमाने पर निजी पूँजी निवेश पर
आधारित होगा. इस नई अवधारणा के तहत, व्यापार के इन तमाम नए-नए अवसरों के जरिये वाल
स्ट्रीट बेहिसाब मुनाफा कमाएगा और धनी देशों की सरकारों को पर्यावरण की हिफाजत पर
कोई खास खर्च नहीं करना पड़ेगा.
आश्चर्य की बात नहीं कि किसान, मूलनिवासी समुदाय, कर्ज-विरोधी
कार्यकर्त्ता और जनसंगठन इस “हरित अर्थतंत्र” की लफ्फाजी को “हरित लीपापोती” कह कर
ख़ारिज करते हैं.
ढेर सारे पर्यावरणवादियों और गरीबी-विरोधी संगठनों ने जिस खतरे को
प्रतिध्वनित किया है वह यह कि पानी या जैवविविधता जैसी चीजों के उपयोग का प्रबंधन
करने के नाम पर उनकी कीमत तय करके हम उन्हें माल में तब्दील कर देते हैं. साथ ही
इस नीति के चलते इन बुनियादी जरूरतों और सेवाओं को सट्टेबाजों का मुहरा बना दिया
जायेगा जो बेलगाम कीमतों के जरिये बेहिसाब मुनाफा कमाएंगे.
जरा इस बारे में सोचिये? क्या इसका कोई मतलब है कि हम अपने बचे-खुचे
साझा संसाधनों- जंगल, जीन, वातावरण, भोजन को ऐसे लोगों को सुपुर्द कर दें जो हमारी
अर्थ व्यवस्था को अपना निजी जुआघर समझते हैं?
यह कोई इत्तफाक नहीं कि जब जमीन और पानी का इंतजाम करने की जिम्मेदारी
लोगों पर है, तब वे किसी दूर-दराज कार्यालय भवन में बैठे हेज फंड मैनेजरों की
करामात पर नहीं, बल्कि अपनी बेहतर कमाई पर जीते और गुजारा करते हैं. प्रकृति के
बारे में फैसला लेने का अधिकार वित्तीय क्षेत्र के हाथों में केंद्रित करने के
बजाय, रियो+20 सम्मलेन को चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों के स्थानीय, लोकतान्त्रिक
संचालन को प्रोत्साहित करे.
इस उपाय से कम से कम इतना तो होगा कि जब हमारी दोस्त की बेटी मतदान
करने की उम्र में पहुँचेगी, तब तक यह धरती इस हालात में रह पायेगी कि इसे बचाने के
लिए लड़ा जाय.
(जनेट
रेडमैन, इन्स्टिच्युट फॉर पॉलिसी स्टडीज में सस्टेनेबुल इनर्जी एण्ड इकोनोमी
नेटवर्क परियोजना के सह-निदेशक हैं. यह संस्था अमरीका और दुनिया भर में शांति,
न्याय और पर्यावरण से जुड़े विद्वानों और कार्यकर्ताओं का एक समुदाय है. यह लेख काउंटरकरेंट
डॉट ऑर्ग से आभार सहित ले कर प्रस्तुत किया गया है. अनुवाद- दिगम्बर.)
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