यूरोपियन स्पेस एजेंसी द्वारा की गयी एक नयी पैमाइश के अनुसार आर्कटिक
महासागर की बर्फ अगले 10 सालों में पूरी तरह पिघल जाएगी. बर्फ पिघलने की यह रफ़्तार
पहले जितना अनुमान लगाया गया था, उससे
कहीं तेज है.
एक अध्ययन के मुताबित, 2004 से हर साल 900 घन किलोमीटर बर्फ गायब हुई
है. आर्कटिक बर्फ की मोटाई नापने के लिए वैज्ञानिकों ने आर्कटिक के ऊपर उड़ने वाले
नासा जहाजों से और बर्फ के अंदर चलने वाली पनडुब्बियों द्वारा अल्ट्रा-साउंड (सोनर)
मापक से प्राप्त आकडों का उपयोग किया. साथ ही, उन्होंने इस काम के लिए खासतौर पर
विकसित सैटेलाइट तकनोलोजी- क्रिस्टोसैट- 2 प्रोब का भी इस्तेमाल किया जो बर्फ की
मोटाई नापने की ऐसी पहली तकनीक है.
लंदन सेंटर फॉर पोलर आब्जर्वेसन एण्ड माडलिंग के डॉ सीमूर लैक्सोन ने
गार्जियन को बताया की “जल्द ही गरमी के मौसम में किसी दिन हम ऐसे यादगार पल का अनुभव
कर सकते हैं कि जब हम सैटेलाइट से प्राप्त तस्वीरों पर नज़र डालें तो हमें आर्कटिक पर
बर्फ की कोई चादर ही दिखाई न दे, केवल पानी ही पानी नजर आये.
एक नयी पैमाइश के मुताबिक न केवल ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ से ढका
क्षेत्र तेजी से पीछे सरका है, बल्कि बची-खुची बर्फ की मोटाई भी काफी तेज़ी से कम होती
जा रही है.
अध्ययन से पता चलता है कि आर्कटिक बर्फ पहले लगाये गये अनुमान की
तुलना में 50 प्रतिशत तेज़ी से पिघल रही है.
पिछली गर्मी के अंत में आर्कटिक पर लगभग 7000 घन किलोमीटर बर्फ ही बची
रह पाई, जो 2004 में 13000 घन किलोमीटर बची हुई बर्फ की तुलना में लगभग आधी ही रह
गई.
आर्कटिक की बर्फ पिघलने से समुद्र का तापमान बढ़ता है, जिससे समुद्र
की सतह पर जमा मिथेन पिघलता है और भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैस वायुमंडल में जमा
हो जाती है. इसके चलते बर्फ और भी तेजी से पिघलती है और इस चक्रीय गति के कारण जलवायु
परिवर्तन की गति तेज हो जाती है.
यूसीएल के प्रोफेसर क्रिस राप्ले ने गार्जियन को बताया की “आर्कटिक
और भूमध्य रेखा के बीच तापमान का जो अंतर आज बढ़ रहा है, उसके कारण ऊपरी वायुमंडल
में स्थित जेट स्ट्रीम काफी अस्थिर हो सकती हैं. इसका नतीजा होगा निम्न अक्षांशो पर
मौसम की अस्थिरता का बहुत ज्यादा बढ़ जाना, जैसा इस साल हम झेल चुके हैं.
तो क्या समुद्रो का जल स्तर भी तब बढ़ नहीं जायेगा ?
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