Wednesday, May 9, 2012

1857 : सामान की तलाश


(अठारह सौ सत्तावन के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 
की महाकाव्यात्मक गाथा का सिंहावलोकन 
असद जैदी ने हमारे मौजूदा दौर की सच्चाइयों
 की चट्टानी जमीन पर खड़े होकर किया है.
10 मई की पूर्वसंध्या पर अपने पुरखों की शहादत 
को याद करते हुए यह कविता बरबस याद आई)  

1857 : सामान की तलाश

1857 की लड़ाइयाँ जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयाँ हैं


ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर गलती अपनी ही की हुई लगती है
सुनायी दे जाते हैं ग़दर के नगाडे और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी


हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो


पर यह उन 150 करोड़ रुपयों के शोर नहीं
जो भारत सरकार ने `आजादी की पहली लड़ाई' के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफी माँगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
कुर्बान करने को तैयार है


यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बन्किमों और अमीचंदों और हरिश्न्द्रों
और उनके वंशजों ने
जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंद्रों, सय्यद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलिशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल बाद सुभद्रा को ही आयी


यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?


1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है


लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्ही और हथियारों से
कई दफे तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नज़फगढ़ की तरफ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावारपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे


कुछ अपनी बताओ


क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय। 


-असद ज़ैदी




4 comments:

  1. कोई भी ऐतिहासिक संघर्ष या संघर्स का इतिहास आने वाली नस्लों को यूँ ही ललकारता रहता है कुछ लोग अनसुना कर देते हैं और कुछ अन्याय के खिलाफ उपाय ढूँढ़ते है इतिहास बोध से लैस .....

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  2. विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
    सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ
    एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
    किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?
    अखिल भारतीय भद्रलोक और खुद को 121 करोड़ जनता का नुमाइंदा कहने वाले लोगों को भी न्याय के लिए अकेले भटकते मैले-कुचैले लोगों की लड़ाई को समझना होगा. समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध. जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध !

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  3. "लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
    किसी और युग में किन्ही और हथियारों से
    कई दफे तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
    जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं"
    आज मैले-कुचैले मुर्दे तो उठकर लड़ रहे हैं समस्या यह है की साफ़ सुथरे मैले होने से दर रहे हैं

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