Tuesday, August 23, 2011

मुझे अन्ना नहीं होना


मुझे अन्ना नहीं होना

अरुंधती रॉय

ज-कल हम टेलीविजन पर जो कुछ देख रहे हैं वह यदि वास्तव में क्रांति है तो यह वर्तमान समय की बेहद व्याकुल करने वाली और समझ से परे है, क्योंकि आज जन लोकपाल बिल के बारे में आप चाहे कोई भी सवाल पूछें, आपको जो जवाब मिलेंगे वे सम्भवतः यही होंगे, इनमें से किसी एक पर निशान लगाएँ - (अ) वंदे मातरम् (ब) भारत माता की जय (स) इंडिया इज अन्ना, अन्ना इज इंडिया (द) जय हिंद.

एकदम अलग कारणों से और पूरी तरह भिन्न तरीके से आप कह सकते हैं कि माओवादियों और जन लोकपाल बिल में एक बात समान है – वे दोनों ही भारतीय राज्य को पलटना चाहते हैं. एक जमीनी स्तर पर, सशस्त्र संघर्ष के जरिये काम करता है और आमतौर पर एक आदिवासी सेना के द्वारा लड़ा जा रहा है जो गरीब से भी गरीब लोगों को लेकर तैयार हुई है. दूसरा ऊपर से नीचे कि ओर, रक्तहीन गाँधीवादी सत्तापलट का माध्यम अपनाता है जिसका नेतृत्व एक ताजा ढले संत और आम तौर पर शहरी लोगों और निश्चय ही खाये-पिये लोगों की फौज कर रही है. (दूसरे वाले मामले में सरकार खुद को ही पलटने के लिए हर सम्भव तरीके से उनके साथ सहयोग कर रही है.)

अप्रैल 2010 में अन्ना हजारे के पहले ‘आमरण अनशन’ के कुछ दिनों के भीतर, सरकार ने टीम अन्ना को, (इस ‘भद्रलोक’ समूह ने खुद ही अपने लिए यह ब्रांड नेम चुना है.) उसे आमंत्रित किया और एक नया भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाने के लिए संयुक्त ड्राफ्टिंग कमिटी में शामिल कर लिया. सरकार उस समय कई बड़े भ्रष्टाचार घोटालों के चलते अपनी विश्वनीयता गँवा रही थी और लोगों का ध्यान हटाने का रास्ता ढूंढ रही थी. कुछ महीने बीतने के बाद उसने उस प्रयास का परित्याग कर दिया और संसद के पटल पर अपना बिल रखा जो इतना दोषपूर्ण है कि उसे गंभीरता से लेना असंभव है.

इसके बाद 16 अगस्त को अन्ना हजारे के दुसरे ‘आमरण अनशन’ की सुबह, बिना अनशन शुरू किये और बिना किसी कानून का उलंघन किये ही उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. जन लोकपाल बिल को लागू करने का संघर्ष अब विरोध करने के अधिकार के लिए संघर्ष, खुद लोकतंत्र के लिए संघर्ष के साथ एकमएक हो गया. इस ‘दूसरी आजादी कि लड़ाई’ के कुछ ही घंटों के भीतर अन्ना को रिहा कर दिया गया. चतुराई से, उन्होंने जेल छोड़ने से इन्कार कर दिया. वे सम्मानित अतिथि के रूप में तिहाड़ जेल में रहे और वहीँ उन्होंने सार्वजनिक स्थल पर अनशन के अधिकार की माँग करते हुए अनशन शुरू कर दिया. तीन दिन भीड़ और टीवी चैनल की गाड़ियाँ बाहर घेरा डाले रहीं. टीम अन्ना के सदस्य उस अत्यंत सुरक्षित जेल के अंदर-बहार होते रहे और सरकारी दूरदर्शन और सभी चैनलों पर प्रसारित करने के लिए उनके वीडीयो सन्देश लाते रहे.(क्या इससे पहले किसी अन्य व्यक्ति को कभी ऐसा राजसी ठाट नसीब हुआ?) इसी बीच दिल्ली नगर निगम के 250 कर्मचारी, 5 ट्रक और मिट्टी हटाने वाली 6 मशीनें रात-दिन काम करके रामलीला मैदान को सप्ताहांत समारोह के लिए तैयार करते रहे. इसके बाद बेकरारी से इन्तजार करती, जैजैकार करती भीड़ और टीवी कैमरों के बीच, भारत के सबसे महँगे डाक्टरों की देख-रेख में अन्ना का तीसरे चरण का आमरण अनशन शुरू हुआ. टीवी एंकर बताने लगे कि “कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है.”

अन्ना के साधन भले ही गाँधीवादी हों, लेकिन उनकी माँगें कतई नहीं. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बारे में गाँधी के विचारों के विपरीत जन लोकपाल एक कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून है जिसके तहत सावधानी से चुने गए लोगों का एक पैनल, हजारों कर्मचारियों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, सांसद और सभी नौकरशाहों से लेकर निचले स्तर के कर्मचारियों तक के उपर शासन करेगा. लोकपाल को तहकिकात करने, निगरानी रखने और सजा देने का अधिकार होगा. केवल एक बात को छोड़ कर कि उसकी अपनी जेलें नहीं होंगी, वह एक स्वतंत्र प्रशासक के रूप में काम करेगा. इसका मकसद पहले से ही हमारे ऊपर शासन कर रहे दागदार, गैरजिम्मेदार और भ्रष्ट प्रशासकों के विरुद्ध कार्रवाई करना होगा. यानी एक कुलीन-तंत्र के बजाय अब दो-दो कुलीन-तंत्र.

इसका प्रभावी होना या न होना इस बात पर निर्भर है कि हम भ्रष्टाचार को किस रूप में देखते हैं. क्या भ्रष्टाचार महज कानूनी मामला, वित्तीय अनियमितता और घूसखोरी है या एक घोर विषमतापूर्ण समाज में चलने वाला सामाजिक लेन-देन का खोटा सिक्का है जिसमें आज भी सत्ता बहुत ही थोड़े से लोगों के हाथों में केंद्रित है. उदाहरण के लिए कल्पना कीजिये कि किसी शहर में एक शौपिंग मॉल है जिसके आसपास की सड़कों पर ठेला-खोमचा लगाने पर रोक लगी हुई है. एक फेरी लगानेवाली औरत उस इलाके में तैनात पुलिस के सिपाही और नगरपालिका के कर्मचारी को उस कानून का उलंघन करने के लिए एक छोटी रकम घूस में देती है और अपना सामान उन लोगों में बेचती है जो मॉल की महँगी चीजें खरीदने में असमर्थ हैं. क्या यह कोई भयानाक बात है? क्या उसे भविष्य में लोकपाल के कर्मचारी को भी घूस देनी पड़ेगी? जन साधारण जिन समस्याओं का सामना करता है, उसका समाधान ढाँचागत असमानता का सामना करने में है सत्ता का एक और ढाँचा खड़ा करने में नहीं है जिसके आगे जनता को दबना पड़े?

अन्ना क्रान्ति के साजोसामान और नृत्य-विधान, आक्रामक राष्ट्रवाद और झण्डा लहराना, सबकुछ आरक्षण विरोधी आंदोलन, क्रिकेट विश्व-कप विजय जुलुस और नाभिकीय परीक्षण समारोह से उधार लिये गए हैं. वे हमें संकेत देते हैं कि यदि हम ‘अनशन’ का समर्थन नहीं करते तो हम ‘सच्चे भारतीय’ नहीं हैं. चौबीसों घन्टे चालू चैनलों ने तय कर लिया कि देश में अब कोई और समाचार प्रसारित करने लायक नहीं है.

निश्चय ही ‘अनशन’ का अर्थ इरोम शर्मिला का अनशन नहीं जो अफ्सपा (सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून) के खिलाफ 10 वर्षों से से भी अधिक समय से जारी है (अब उन्हें जबरन नाक से खाना दिया जाता है). यह कानून मणिपुर में तैनात सैनिकों को केवल संदेह के आधार पर नागरिकों की हत्या करने का अधिकार देता है. इसका अर्थ वह सामूहिक भूख हड़ताल नहीं जो कुडानकुलम के दसियों हजार ग्रामीण, नाभिकीय बिजली सयंत्र के खिलाफ इसी वक्त चला रहे हैं . ‘जनता’ का अर्थ वे मणिपुरी नहीं हैं जो इरोम शर्मिला के अनशन का समर्थन करते हैं. इसका अर्थ जगतसिंहपुर या कलिंगनगर या नियामगिरी या बस्तर या जैतापुर में सशस्त्र पुलिस और खनन माफिया का सामना कर रही जनता नहीं. हमारा अभिप्राय भोपाल गैस काण्ड के शिकार लोगों या नर्मदा घाटी में बाँध के चलते विस्थापित लोगों से नहीं. हमारा अभिप्राय नोयडा या पुणे या हरियाणा या देश के दूसरे इलाकों के किसानों से भी नहीं जो जमीन अधिग्रहण के खिलाफ प्रतिरोध कर रहे हैं.

जनता का अर्थ केवल वे दर्शक हैं जो एक 74 साल के एक व्यक्ति के चमत्कारिक प्रदर्शन समारोह में शामिल हैं जो धमकी दे रहे हैं कि यदि जन लोकपाल बिल संसद में पेश और पास नहीं नहीं हुआ तो वे खुद को भूखा मार लेगें. ‘जनता’ ये दसियों हजार लोग हैं जिन्हें टीवी चैनलों द्वारा करामाती तरीके से बढ़ा-चढ़ा कर लाखों बताया जा रहा है, वैसे ही जैसे ईशा मसीह ने भूखे लोगों का पेट भरने के लिए मछली और मांस को कई गुना बढ़ा लिया था. चैनल हमें बता रहे हैं कि “एक अरब लोगों की पुकार - अन्ना ही भारत है’’.

ये नये संत, ये जनता की आवाज वास्तव में हैं कौन? बड़ी अनोखी बात है कि हमने किसी भी बेहद जरुरी मुद्दे के बारे में उन्हें कुछ भी कहते नहीं सुना. अपने पड़ोस के इलाके में ही किसानों की आत्महत्याओं के बारे में या उससे थोड़ी ही दूर ऑपरेशन ग्रीन हंट के बारे में कोई बात नहीं. सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ के बारे में कुछ भी नहीं, पॉस्को के बारे में कुछ भी नहीं, किसान आंदोलनों या विनाशकारी सेज (एसईज़ेड) के बारे में कुछ भी नहीं. लगता नहीं कि मध्य भारत के जंगलों में भारतीय सेना तैनात करने की सरकारी योजना के बारे में भी उनका कोई मत है.

हालाँकि वे राज ठाकरे के मराठी मानुष क्षेत्रवादी विद्वेष का समर्थन करते हैं और गुजरात के मुख्यमंत्री के ‘विकास मॉडल’ कि प्रशंसा कर चुके हैं जिसने 2002 में मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार की अनदेखी की (अन्ना ने जनता के गुस्से को देखते हुए अपना वह बयान वापस ले लिया लेकिन अपनी श्रद्धा वापस नहीं ली).

इस शोरगुल के बावजूद मर्यादित पत्रकारों ने वह काम किया है जो पत्रकार होने के नाते उन्हें करना चाहिए. आरएसएस के साथ अन्ना के पुराने सम्बन्धों के बारे में पिछली कहानी अब हमारे सामने है. हमने मुकुल शर्मा से जाना, जिन्होंने रालेगण सिद्धी में अन्ना के ग्राम समुदाय का अध्ययन किया, जहाँ पिचले २५ वर्षों से ग्राम पंचायत या सहकारी समिति का चुनाव नहीं हुआ. ‘हरिजनों’ के बारे में अन्ना के रुख को जानते हैं , उन्हीं के शब्दों में “महात्मा गाँधी का यह सपना था कि हर गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक कुम्हार इत्यादि होना चाहिये. उन सब को अपनी भूमिका के अनुसार और पेशे के अनुसार अपना काम करना चाहिए और इस तरह से एक गाँव आत्मनिर्भर होगा. इसी को हम रालेगाण सिद्धी में व्यवहार में ला रहे हैं.” यह आश्चर्यजनक है कि टीम अन्ना के सदस्य यूथ फॉर इक्वलिटी नामक आरक्षण विरोधी (प्रतिभा समर्थक) आन्दोलन से भी जुड़े हुए हैं. यह आन्दोलन उन लोगों द्वारा चलाया जा रहा है जिनके हाथों में उदारतापूर्वक वित्त पोषित एनजीओ के शिकंजे हैं जिनके दानदाताओं में कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स शामिल हैं. अन्ना टीम के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा संचालित कबीर संस्था नें पिछले तीन वर्षों में फोर्ड फाउंडेशन से 4,00,000 डॉलर (1,82,24,000 रुपये) प्राप्त किये हैं. इंडिया अगेंस्ट करप्सन को चंदा देने वालों में ऐसी भारतीय कम्पनियाँ और फाउंडेशन हैं जो एलुमिनियम प्लांट के मालिक हैं, बंदरगाह और सेज बनाते हैं, रियल स्टेट का कारोबार करते हैं और जिसका ऐसे नेताओं से करीबी सम्बन्ध है जो हजारों करोड़ रुपये के कारोबार वाले वित्तीय साम्राज्य के मालिक हैं. इनमें से कुछ के ऊपर आज-कल भ्रष्टाचार और अपराध के मुकदमों की जाँच चल रही है. आखिर वे लोगे इतने उत्साहित क्यों हैं?

याद करें, जन लोकपाल बिल की मुहीम ठीक उसी समय जोर पकड़ रही थी जब बेचैनी पैदा करने वाले विकीलीक्स के खुलासों और घोटालों की एक पूरी श्रंखला का भंडाफोड़ हुआ, जिसमें लगा की बड़े पूँजीपति, चोटी के पत्रकार, राजनेता, सरकार के मंत्री तथा कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने आपस में नाना प्रकार से साँठगाँठ करके जनता के हजारों करोड़ रुपये का वारा-न्यारा किया. वर्षों बाद पहली बार पत्रकार-लौबिस्ट कलंकित हुए और ऐसा लगा जैसे की भारतीय पूँजीपति घरानों के कुछ बड़े लोग अब जेल के अंदर होंगे. जनता के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का एकदम सही समय. क्या ऐसा नहीं था?

ऐसे समय जब राज्य अपने परम्परागत कर्तव्यों से मुँह मोड़ रही है तथा पूँजीपति और एनजीओ सरकारी कामों (जलापूर्ति, बिजली, यातायात, संचार, खनन, स्वस्थ्य, शिक्षा) को हथिया रहे हों, ऐसे समय जब पूँजीपतियों के मालिकाने वाली मीडिया की भयावह शक्ति और पहुँच जनता की कल्पना शक्ति को नियन्त्रित करने का प्रयास कर रहा हो, तब कोई भी यह सोचेगा की इन संस्थाओं - पूँजी प्रतिष्ठानों, मीडिया और एनजीओ को भी लोकपाल बिल के क़ानूनी दायरे में लाया जायेगा. इसके बजाय प्रस्तावित बिल उन्हें पूरी तरह बाहर छोड़ता है.

अब, हर किसी से ऊँची आवाज में चीखते हुए, दुष्ट नेताओं और सरकारी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मुहिम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बढ़ी चतुराई से अपने को बचा लिया. सबसे घटिया यह कि केवल सरकार को राक्षस के रूप में पेश करते हुए उन्होंने अपने आपको उपदेशक के मंच पर आसीन कर लिया जहाँ से वे सार्वजानिक मामलों से सरकार को और पीछे हटने और दूसरे चक्र के सुधारों का आह्वान कर रहे हैं- और ज्यादा निजीकरण, सार्वजानिक आधारभूत ढाँचे और भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर और अधिक कब्ज़ा. ज्यादा समय नहीं लगेगा जब पूँजीपतियों के भ्रष्टाचार को क़ानूनी बना दिया जायेगा और लॉबिंग करने वालों को आजाद कर दिया जायेगा.

क्या 20 रुपये रोज पर गुजारा करने वाले 83 करोड़ लोगों को उन्हीं नीतियों को और आगे बढाये जानेस से लाभ होगा जिनके कारण ही वे कंगाल हुए और जिनके कारण यह देश गृहयुद्ध की ओर धकेला जा रही है?

यह भयावह संकट भारत के प्रातिनिधिक लोकतंत्र की चरम असफलता से पैदा हुआ है, जिसमें विधायिका अपराधियों से गठित होती है और करोड़पति नेता अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करना छोड़ चुके हैं. जिसमें एक भी लोकतांत्रिक संस्था साधारण आदमी की पहुँच में नहीं है. झण्डा लहराते देख कर गफलत में मत आइये. हम देख रहे हैं कि आज भारत को एक अधीनस्थ राज्य बनाने की ऐसी लड़ाई की तैयारी हो रही है जो अफगानिस्तान के युद्ध सरदारों द्वारा लड़ी जा रही किसी भी लड़ाई से अधिक भयंकर होगी, उससे कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा कुछ दाँव पर लगा है.

(22 अगस्त के ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अरुंधती रॉय के लेख का अविकल हिंदी अनुवाद.साभार)

8 comments:

  1. अरूंधती राय का लेख पहले भी मै पढ़ता रहा.
    वे सदा हमारा मार्गदर्शन करते है.
    ऐसी शानदार महिला न केवल औरतों की आदर्श है बल्कि हमारे लिए भी एक रोल मॉडल है

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    1. abhvyakti ki azaadi ka sabase bada laabh lene me ustaad.:-)

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  2. द हिन्दू मे आपका लेख पढ़ा ,विकेन्द्रीयकरण के मामले में टीम अन्ना गाँधी के १८०. डिग्री विरोध में है , गांधीवाद का नारा भी भ्रामक है.
    आपके लेख मुझे बहुत पसन्द है .

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  3. this article changed my view towards anna thanks for right direction

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  4. all right anna is facist leader of new edition

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  5. She is really a great women.......but still nation doesn't like her......

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