प्यूचे द्वारा बुर्जुआ समाज की यह
नैतिक और सामाजिक आलोचना तथा मार्क्स द्वारा इसकी पुनर्प्रस्तुति जाहिरा तौर पर
रूमानी स्वच्छन्दतावादी है। प्यूचे ने रूमानियत के प्रति अपनी सहानुभूति को रूसों
के हवाले से प्रमाणित किया है और उन फिलिस्टाइन बुर्जुआओं पर तीखा अभियोग भी लगाया
है जिनका व्यापार ही उनकी आत्मा है,
वाणिज्य ही उनका परमात्मा है तथा आत्महत्या के शिकार लोगों और उनके
द्वारा छोड़ी गयी हताशा की रूमानी कविता के प्रति जिनके दिल में अपमान और तिरस्कार
के सिवा और कोई भाव नहीं है।
स्वच्छन्दतावाद केवल एक साहित्यिक धारा
ही नहीं है। मार्क्स का मानना था कि यह आधुनिक पूँजीवादी सभ्यता के खिलाफ, जो अतीत को आदर्श के रूप में प्रस्तुत
करती है और उसका गुणगान करती है,
एक सांस्कृतिक प्रतिवाद है। मार्क्स खुद कहीं दूर–दूर तक स्वच्छन्दतावादी नहीं थे, लेकिन बुर्जुआ समाज के स्वच्छन्दतावादी
आलोचकों के वे प्रशंसक थे। उनकी रचनाओं में बालजाक और डीकेन्स जैसे साहित्यकारों, कर्लाइल जैसे राजनीतिक चिन्तक या
सिसमोन्दी जैसे अर्थशास्त्री की अन्तर्दृष्टि का समावेश आसानी से देखी जा सकती है।
इनमें से ढेर सारे लोग और खुद प्यूचे भी समाजवादी नहीं थे, लेकिन जैसा कि मार्क्स ने अपनी इस रचना
में बताया है, मौजूदा
समाज व्यवस्था की आलोचना करने के लिए किसी का समाजवादी होना जरूरी नहीं है।
पूँजीवादी समाज की अमानवीय और पाशविक प्रकृति, हृदयहीन बुर्जुआ अहंकार और लोभ–लालच के प्रति जिन स्वच्छन्दतावादी अलंकारों का प्रयोग प्यूचे के
संस्मरणों में है, उन्हें
मार्क्स की प्रारम्भिक रचनाओं में भी देखा जा सकता है, लेकिन इस रचना में तो यह असाधारण रूप
में विद्यमान है।
आत्महत्या के लिए जिम्मेदार, पूँजीवाद की आर्थिक बुराइयों, जैसे- कम वेतन, बेरोजगारी और गरीबी की चर्चा करने के
साथ–साथ प्यूचे ने
सामाजिक अन्याय के उन रूपों पर भी विशेष जोर दिया है जो प्रत्यक्षत आर्थिक कारक
नहीं हैं, लेकिन
जो गैर सर्वहारा तबके के लोगों की निजी जिन्दगी को बुरी तरह प्रभावित करते हैं।
आर्थिकेतर कारकों के बारे में प्यूचे
के दृष्टिकोण से सहमति जताते हुए मार्क्स ने अपनी भूमिका में उन बुर्जुआ
मानवतावादियों पर कटाक्ष किया है जो वाल्तेयर के उपन्यास ‘कांदीद’ के आचार्य पेंगलस की तरह यह मानते हैं कि वे श्रेष्टतम सम्भव दुनिया
में जी रहे हैं और जरूरत सिर्फ इतनी है कि मजदूरों को थोड़ा भोजन और थोड़ी शिक्षा दे
दी जाए। वे उन पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि ‘‘मानो मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों के चलते केवल मजदूर ही कष्ट भोग
रहे हैं ।’’ दूसरे
शब्दों में, मार्क्स
और प्यूचे की निगाह में बुर्जुआ समाज का आलोचक खुद को केवल आर्थिक शोषण तक ही
सीमित नहीं रख सकता, हालाँकि
शोषण का यह पहलू काफी महत्त्वपूर्ण है। इस आलोचना को व्यापक सामाजिक और नैतिक
चरित्र ग्रहण करना होगा और इसमें पूँजीवाद की गहरी और बहुआयामी बुराइयों को शामिल
करना जरूरी होगा। पूँजीवादी अमानवीयता केवल सर्वहारा वर्ग के लिए ही नहीं, बल्कि विभिन्न तबकों को लोगों के लिए
पीड़ादायी है।
इस लेख का सबसे महत्त्वपूर्ण और
दिलचस्प पहलू यह है कि आखिर बुर्जुआ समाज द्वारा हताशा और आत्महत्या की ओर धकेले
गये सर्वाधिक पीड़ित गैर सर्वहारा लोग कौन हैं? प्यूचे के उद्धरणों और मार्क्स की टिप्पणियों के केन्द्र में यह
सामाजिक श्रेणी है- महिलाएँ।
महिलाओं के उत्पीड़न की इतनी सशक्त
अभिव्यक्ति मार्क्स की किसी अन्य रचना में दुर्लभ है। इसमें आत्महत्या की जिन चार
घटनाओं का उल्लेख किया गया है, उनमें
से तीन घटनाएँ महिलाओं से सम्बन्धित हैं जो पितृसत्ता या मार्क्स और प्यूचे के
शब्दों में पारिवारिक क्रूरता की शिकार हैं, जो निरंकुश सत्ता का ऐसा रूप है- जिसे
फ़्रांसीसी क्रान्ति ने उखाड़ फेंकने का काम नहीं किया। तीन में से दो महिलाएँ
बुर्जुआ वर्ग की हैं और तीसरी एक दर्जी की बेटी है, जो आम जनता के बीच से है। इन सबके दुर्भाग्य का कारण लिंग–भेद है न कि वर्ग।
पहला मामला जिसमें माँ–बाप की निष्ठुरता ने एक लड़की को
आत्महत्या के लिए मजबूर किया था,
बर्बर पितृसत्तात्मक अधिकारों पर आधारित पारिवारिक निरंकुशता का
उदाहरण है। इसकी तीव्र भर्त्सना करते हुए मार्क्स ने इसे कायरतापूर्ण प्रतिशोध की
कार्रवाई बताया है जो बुर्जुआ समाज के अधीन जी रहे दब्बू लोगों द्वारा अपने बीच के, अपने से कमजोर लोगों के खिलापफ की जाती
है।
दूसरा उदाहरण मार्टिनिक की एक नौजवान
औरत का है जिसके पति ने उसे कमरे के अन्दर बन्द कर दिया, जहाँ उसने आत्महत्या कर ली। इस घटना का
विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है और मार्क्स ने इस पर अत्यन्त भावपूर्ण टिप्पणी
की है। उनकी दृष्टि में यह पुरुषों की अपनी पत्नियों के ऊपर असीम पितृसत्तात्मक
अधिकार और इसी के साथ–साथ
निजी सम्पत्ति के इर्ष्यालु मालिक जैसे रवैये का एक ठेठ उदाहरण मालूम पड़ता है।
मार्क्स ने इस पर टिप्पणी
करते हुए उस नृशंस पति की तुलना गुलामों की खरीद–फरोख्त करने वाले से की है। सच्चे और उन्मुक्त पे्रम की उपेक्षा करने
वाली सामाजिक परिस्थितियों तथा पितृसत्तात्मक नागरिक संहिता और सम्पत्ति कानूनों
के चलते पुरुष उत्पीड़क अपनी पत्नी के साथ वैसा ही बर्ताव करता है जैसा कोई कंजूस
अपनी सोने की तिजोरी के साथ करता है- किसी चीज की तरह किसी वस्तु की तरह, ‘‘उसकी सम्पत्ति की सूची’’ की तरह उसे बन्द दरवाजे के पीछे रखा
जाता है। इस अभियोग के जरीये मार्क्स ने पितृसत्तात्मक वर्चस्व को आधुनिक
पूँजीवादी, पुरुष–वर्चस्ववादी पारिवारिक सम्बन्धों का
सहयोगी बताया है।
तीसरे मामले का सम्बन्ध गर्भपात के
अधिकार से है जिसके खिलाफ घटना के 200 साल बाद तक नारी संगठनों ने जुझारू संघर्ष
चलाया और तब जाकर कुछ देशों में उन्हें यह अधिकार हासिल हुआ। यह मामला एक युवती का
है जो पितृसत्तात्मक परिवार के पवित्र नियमों के खिलापफ गर्भवती हो जाती है और
जिसे सामाजिक ढोंग, प्रतिगामी
नैतिकता और गर्भपात को निषिद्ध करने वाला पूँजीवादी कानून, सबने मिलकर आत्महत्या की ओर धकेल दिया।
प्यूचे के चुनिन्दा उद्धरण
और इसके अनुवादक मार्क्स की टिप्पणियाँ, दोनों ने मिलकर इन तीनों
मामलों के अध्ययन को बुर्जुआ महिलाओं सहित समस्त नारी जाति की गुलामी, पितृसत्ता और पूँजीवादी परिवार के उत्पीड़क चरित्र के
खिलाफ एक तीव्र प्रतिरोध का दस्तावेज बना दिया है। निष्कर्ष के रूप में प्यूचे और
मार्क्स इस बात के कायल हैं कि आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं तथा न हीं
उदारता और दया–धर्म के जरिये इसका उन्मूलन किया जा सकता है। ‘‘आत्महत्या किसी कठिनाई का बदतरीन समाधान प्रस्तुत
करती है, फाँसी लगाओ और शान्ति पाओ।
प्यूचे और मार्क्स स्त्रियों के लिए जिन स्थितियों का जिक्र कर रहे हैं, वे आज भी भयावह रूप से मौजूद हैं। यह समस्या वाकई महज वर्ग का मसला नहीं है। मैंने बेहद दुर्लभ दृश्य की तरह कभी-कभार कोई बेहतर वैवाहिक रिश्ता देखा है। यह बात तब जबकि अपने मित्रों में बहुत से समाजवादी और वामपंथी भी हैं। दोनों ही किस्तें अच्छी लगीं और मार्क्स के प्रति विश्वास बढ़ा।
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