--रिचर्ड डी वोल्फ
अमरीका के ज्यादातर राष्ट्रपति एक या एक से अधिक पूँजीवादी गिरावटों (ठहराव, मंदी और संकट) की सदारत करते आ रहे हैं. रुजवेल्ट के ज़माने
से ही अमरीका का हर राष्ट्रपति जनता और पूँजीपतियों की माँग पर मंदी से निपटने के
लिए कोई न कोई “कार्यक्रम” जरुर पेश करता
है. रूजवेल्ट और उसके बाद के हर राष्ट्रपति ने यह वादा किया कि उसका कार्यक्रम “न केवल मौजूदा
आर्थिक कठिनाइयों से मुक्ति दिलाएगा, बल्कि इस बात को भी सुनिश्चित करेगा कि हम या हमारे बच्चे भविष्य
में ऐसी मंदी का दोबारा सामना नहीं करेंगे.” ओबामा इस बात
की सबसे ताजा मिसाल है.
कोई भी राष्ट्रपति अब तक इस वादे को पूरा
नहीं कर पाया. मौजूदा पूँजीवादी संकट पिछले पाँच सालों में अभी बीच रास्ते तक ही पहुँचा है और खत्म होने का नाम
नहीं ले रहा है. यह साबित करता है कि भावी आर्थिक संकटों को रोकने का वादा, केवल पिछले हर
राष्ट्रपति और उसके बेशकीमती आर्थिक सलाहकारों को बचाने में ही सहायक रहा है. चूँकि
ओबामा का कार्यक्रम भी पिछले राष्ट्रपतियों के कार्यक्रमों से मूलतः भिन्न नहीं
है, इसलिए इसकी सफलता की उम्मीद पालने का भी कोई कारण नहीं है.
पूँजीवादी संकट को हल करने में
इस असफलता की कीमत हमारे देश के लाखों लोगों को चुकानी पड़ी, जिन्होंने न केवल रोजगार, रोजगार
की सहूलियत और सुरक्षा गंवाने जैसी बार-बार की तबाही झेली, बल्कि हमारे बच्चों के
लिए मकान और नौकरी की उम्मीद भी काफी कम होती गयी. पूँजीवादी संकट से उबर पाने में असफलता के चलते आम जनता को जो व्यक्तिगत, पारिवारिक और
आर्थिक नुकसान उठाने पड़े, वे सचमुच विचलित कर देने वाले हैं.
लाखों अमरीकी आज या तो रोजगार से वंचित हैं या फिर वे पार्ट-टाइम नौकरी करते हैं, जबकि उन्हें पूरा काम चाहिए. अमरीकी सरकार के मुताबिक अर्थव्यवस्था के तीस फीसदी मशीन, औजार, ऑफिस, गोदाम और कच्चा
माल बेकार पड़े हैं. यह पूँजीवादी व्यवस्था हम लोगों को उस उपज और संपत्ति से वंचित
करती है जिसका उत्पादन हो सकता है, बशर्ते लोगों को काम मिले और उत्पादन के साधन
बेकार पड़े सड़ते न रहें.
यह उत्पादन हमारे उद्योगों और
हमारे शहरों का पुनर्निर्माण कर सकता है, उनको पर्यावरण का सम्मान करने वाली
संस्थाओं में परिवर्तित कर सकता है तथा अमरीका और दूसरे देशों की गरीबी दूर कर
सकता है. आज जो लोग बेरोजगार हैं उनको काम मिल जाये तो वे बेहतर जिंदगी जी सकते
हैं, अपना घर चला सकते हैं और उत्पादन भी बढ़ा सकते हैं. अगर रोजगार चाहने वाले
लोगों को बेकार पड़े उत्पादन के साधनों से जोड़कर हमारे लिए जरूरी उत्पादन चालू करने
में पूँजीवाद आज इतनी बुरी तरह असफल नहीं होता तो निस्संदेह इससे हम सबका बहुत ही
अधिक लाभ होता.
क्या इस बुनियादी समस्या के
बारे में सरकारी नीतियां और कार्यक्रम झूठ नहीं फैलाते. आख़िरकार, सभी प्रमुख
पार्टियां, नेता, लॉबी बनाने वाले तथा मीडिया और विद्वानों के बीच उनके
साथी-संघातियों ने एक साथ मिल कर पूँजीवाद का उत्सव मानाया. पिछले पचास सालों से
वे इस बात पर जोर देते रहे कि पूँजीवाद का प्रदर्शन चाहे जितना भी खराब क्यों न हो,
इसकी आलोचना करना बेवकूफी, निराधार, बेहूदा, देशद्रोह और घटिया काम है. उनका एक ही
मन्त्र रहा है- “पूँजीवाद अच्छा काम करता है.”'
पूँजीवाद की आलोचना पर लगभग पूरे प्रतिबन्ध के
सुरक्षा कवच के पीछे अमरीकी पूँजीवादी ब्यवस्था की हालत खस्ता हो गई (आम तौर पर
यही होता है जब सामाजिक संस्थाओं की सार्वजनिक आलोचना कि इजाजत नहीं होती). जब 2007 में
यह संकट शुरु हुआ, तब पूंजीवाद हम में से अधिकांश लोगों के लिए “बुरा काम
कर रहा था.”
आने वाले वर्षों में यह और भी बुरे प्रदर्शन की लगातार चेतावनी दे रहा है. आलोचना
से परे, पूँजीवाद को टॉनिक पिलाने वाले अब सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि वह
सार्वजनिक खर्चों में कटौती करे, जबकि अमरीकी जनता को इसकी पहले से भी ज्यादा
जरुरत है. उनका मूल नारा और कार्यक्रम आज भी यही है- थोड़े से लोगों के लिए आर्थिक “स्वास्थ्य
लाभ”
और बहुतों के लिए मितव्ययिता.
1950 और
’60 के दशकों में सबसे धनी अमरीकियों के लिए आय कर ही उच्चतम सीमा 91 प्रतिशत
थी जो आज 35 प्रतिशत रह गयी है. 1977 में वे लोग “पूँजीगत
लाभ”
(जब वे शेयर या बोंड की बिक्री खरीद-मूल्य से अधिक दाम पर करते थे) पर 40 प्रतिशत
टैक्स जमा करते थे.
आज यह दर
15 प्रतिशत है. आम जनता को टैक्स में इतनी बड़ी छूट
मयस्सर नहीं. इन कटौतियों से धनी और भी धनी होते गए, जबकि सरकार को धनि लोगों से
टैक्स न मिलने की भरपाई उधार लेकर करना पड़ा. कैसी विचित्र स्थिति है कि धनी लोग अब
सरकारी कर्ज का उपभोग कर रहे हैं और इसके बदले आम अमरीकियों की सार्वजानिक सेवाओं
में कटौती की जा रही है.
आज हम जिस तरह के आर्थिक संकट
के शिकार हैं उसका समाधान राष्ट्रपति का एक और सुधार, नियमन, आर्थिक उत्प्रेरण और
घाटे का बजट कार्यक्रम नहीं है. यह तो हम वर्षों से करते ही आ रहे हैं. यह उपाय लोगों को
बार-बार इस आर्थिक व्यवस्था द्वारा “कठिन समय” में
धकेलते चले जाने से रोक नहीं पाया. पूँजीवाद की गंभीर, खुली और मुक्त सार्वजनिक
आलोचना काफी लंबे अरसे से अपेक्षित है और होना तो यह चाहिए था कि पहले ही इसे रोका
ना जाता. हमें इस बात की जाँच करना जरूरी है अमरीका, पूँजीवाद से बेहतर उपाय क्या
और कैसे कर सकता है.
किसी भी मानवीय संस्था की तरह आर्थिक व्यवस्था
भी जन्म लेती है, समय के साथ फलती-फूलती है और गुजर जाती है. दास प्रथा और सामंतवाद की
मृत्यु होने पर पूँजीवाद का जन्म हुआ था. फ़्रांसिसी क्रांतिकारियों के शब्दों में
इसने “स्वतंत्रता,
समानता और भाईचारा” का वादा किया था. इसने उन लक्ष्यों
की ओर कुछ सही प्रगति भी की. हालाँकि इसी ने कुछ ऐसे भारी अवरोध भी खड़े किये,
जिससे इन लक्ष्यों को वास्तव में हासिल करना असंभव हो जाय. उनमे से प्रमुख है, पूँजीवादी उद्यमों के भीतर उत्पादन का संगठन.
पूँजीवादी उद्यम जो आज की
अर्थव्यवस्था पर हावी हैं, उनके बड़े अंशधारक और उनके द्वारा चुने गए बोर्ड के डायरेक्टर
विशेष हैसियत वाले लोग होते हैं और वे सभी जरुरी फैसले अलोकतांत्रिक तरीके से लेते
हैं. बड़े अंशधारक और बोर्ड के डायरेक्टर उन पूंजीवादी उद्यमों से सीधे जुड़े हुए
लोगों में से गिने-चुने लोग ही होते हैं. भारी संख्या उन उद्यमों के मजदूर और उन
उद्यमों पर निर्भर जन समुदाय होते हैं.
फिर भी इन थोड़े से लोगों का हर
निर्णय (कि क्या, कैसे कहाँ उत्पादित करना है और उससे होनेवाले मुनाफे को कहाँ
खर्च करना है) एक बहुत बड़ी आबादी की जिंदगी पर असर डालता है- जिसमें संकट का आना
भी शामिल है- जबकि उन बहुसंख्य लोगों को निर्णय लेने में सीधे भागीदारी करने की
इजाजत नहीं होती. तब इसमें भला आश्चर्य की क्या बात कि मुट्ठी भर लोग आमदनी और
मुनाफे का बहुत बड़ा भाग अपने ही पास रख लेते हैं. इसी की बदौलत वे राजनीति पर अपनी
गिरफ्त कायम कर लेते हैं और आर्थिक नुकसान और वंचना को खत्म करने की माँग कर रहे
बहुमत की राह में रोडे अटकाते हैं. यही कारण है कि आज सरकार धनी लोगों को संकट से
उबारने पर पैसा बहा रही है, जबकि हम लोगों को मितव्ययिता का पाठ पढ़ा रही है.
जब तक समाज इस पूँजीवादी
उत्पादन के संगठन को लाँघ कर आगे नही बढ़ता, आर्थिक संकट यूँ ही आता रहेगा और वे जनता से इसी तरह उससे उबारने के बारे में झूठे वादे करते रहेंगे. व्यवस्था के
मुट्ठी भर कर्ताधर्ताओं से यह उम्मीद करना हद दर्जे का भोलापन है कि जो व्यवस्था
उनके हित में भलीभांति काम कर रही है, उसकी अर्थव्यवस्था और राजनीति का वे
जनवादीकरण करेंगे. यह काम तो 99 प्रतिशत जनता के ही जिम्मे है.
(रिचर्ड
डी वोल्फ मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के मानद प्रोफ़ेसर, डॉक्यूमेंट्री फिल्म
निर्माता, रेडियो कार्यक्रम संचालक और कई पुस्तकों के लेखक हैं. यह लेख "मंथली
रिव्यू" से लेकर अनुवाद किया गया है. अनुवाद- दिगंबर)
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