Thursday, September 29, 2011

नहीं रहा जनता का अपना कलाकार 'भाई मन्ना सिंह'



जन नाटककार गुरुशरण सिंह को श्रद्धान्जलि



28 सितम्बर को दिल्ली से सटे, लोनी (गाजियाबाद) के छात्र-नौजवान भगतसिंह जयन्ती पर उनके जीवन और विचारों पर आधारित नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत कर रहे थे. उन्होंने आस-पास के गाँवों-कस्बों और मुहल्लों में हर रोज ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के कई प्रदर्शन किये. किसी दिन एक, तो किसी दिन चार-चार स्थानों पर. उन रंगकर्मियों को यह खबर नहीं थी कि वे इतने उत्साह से जिस नाटक की प्रस्तुति कर रहे हैं उसके लेखक, नुक्कड़ नाटक आन्दोलन के प्रवर्तकों में अग्रगण्य, गुरुशरण सिंह का एक दिन पहले, 27 सितम्बर की रात साढ़े ग्यारह बजे चण्डीगढ़ स्थित आवास पर देहान्त हो गया. जब किसी साथी ने उन नौजवानों को यह शोक-समाचार फोन पर बताया तो उनका उत्साह कम नहीं हुआ. उन्होंने नाटक के बीच ही दर्शकों को उनका संक्षिप्त परिचय और मृत्यु की सुचना दी तथा उन्हें अपनी भाव-भीनी श्रद्धान्जलि अर्पित की। उन्होंने बताया कि गुरुशरण सिंह हमारे बीच हमेशा जिन्दा रहेंगे, क्योंकि उन्होंने ही हमें यह शानदार तरीका सिखाया कि हम अपने लोगों से सीधा-संवाद कैसे कायम करें. सम्भव है कि देश के अन्य इलाकों में भी ठीक ऐसी ही घटना दुहरायी गयी हो.
70-80 के दशक में जब नुक्कड़ नाटक एक सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप ले चुका था, तब शायद ही कोई ऐसी टोली रही हो जिसने गुरूशरण सिंह के पंजाबी नाटकों के अनुवाद की अनेकानेक प्रस्तुतियां न की हों. इन्कलाब जिन्दाबाद, हवाई गोले, गढ्ढा, तमाशा, ये लहू किसका है, बाबा बोलता है, जंगीराम की हवेली.... अपने 82 वर्ष के जीवन में गुरूशरण भ्राजी ने लगभग 6000 नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति की, 170 नाटक, विभिन्न विषयों की १३ पुस्तकें, पंजाबी भाषा के दो अति लोकप्रिय सीरियल - भाई मन्ना सिंह और दास्ताने पंजाब तथा एक फिल्म मन जीत जग जीत की पटकथा लिखी।
पंजाब की मेहनतकश जनता के वे इतने करीब, इतने अपने थे कि लोग उन्हें भाई मन्ना सिंह (उनके सीरियल के किरदार का नाम) कहा करते. पाँच साल पहले पंजाब के लोगों ने बरनाला के निकट कुस्सा गाँव में उनके क्रान्तिकारी समर्पण को सलाम करते हुए एक विराट जन-सभा का आयोजन किया. अपने प्रिय ‘भाई मन्ना सिंह’ के सम्मान में उमड़े 20,000 लोगों के समूह ने जब ‘युग-युग जिये गुरुशरण सिंह’ का नारा बुलन्द किया तो आकाश गूँज उठा. पंजाब के दूर-दराज इलाकों से लोग उस आवाज को सुनने और उस किरदार को देखने आये थे जिसने अपने अभिनय से न जाने कितनी बार उनकी आँखों को छलकाया था. उनके मन में हलचल पैदा की थी और भावनाओं के उतार-चढ़ाव के बीच बड़ी सहजता और आत्मीयता के साथ जिन्दगी का असली मायने और मकसद बताया था. उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि पंजाब के लोग अपने बेटे-बेटियों की शादी में उनके नाटकों का आयोजन कराने का सपना देखते. हिन्दी के किसी भद्र-शालीन नाटककार के बारे में इन बातों की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
हमारे यहाँ नाटक जैसे सशक्त माध्यम को युगों-युगों तक विशुद्ध मनोरंजन तक सीमित रखा गया, जबकि लोगों से सीधे संवाद कायम करने की ऐसी ताकत किसी अन्य कला-विधा में नहीं है. अब से 57 साल पहले गुरुशरण भ्राजी ने सामाजिक बदलाव में नाट्य विधा की भूमिका को पहचाना और अंतिम सांस तक उसे व्यवहार में उतारते रहे. यह उस जमाने की बात है जब वे भाखड़ा नांगल परियोजना में बतौर इन्जीनियर काम करते थे. उन्होंने ‘लोहड़ी दी हड़ताल’ नाटक का प्रदर्शन किया जो वहाँ के मजदूरों को जागृत और आन्दोलित करने में काफी कारगर साबित हुआ. यह घटना 1954 की है. इसी के बाद उन्हें जनता से जुड़ने में नाटक के महत्त्व का गहरा अहसास हुआ.
गुरुशरण भ्राजी जिस दौर और जिस माहौल में पले-बढे, उसका उनके व्यक्तित्व पर स्पष्ट प्रभाव हुआ. भगत सिंह की शहादत के समय वे दो साल के थे. उनका बचपन और किशोरावस्था स्वाधीनता संघर्ष के उत्कर्ष काल का प्रत्यक्षदर्शी रहां. बाद में अपने निकट सम्बन्धी (बहनोई) प्रो. रणधीर सिंह के माध्यम से वे मार्क्सवाद के प्रभाव में आये और इस विचार के कायल हुए कि स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि और सक्रिय राजनीति के बिना समाज को बदलना मुमकिन नहीं.
वे बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकारते थे कि ‘‘हमारे नाटक राजनीतिक हैं. मैं राजनीति की व्याख्या अपने दृढ़ साम्यवादी विचार के माध्यम से करता हूँ. सच तो यह है कि नुक्कड़ नाटक की शुरूआत ही वामपंथी विचारधारा को लेकर हुई थी’’. इन्हीं विचारों की रोशनी में वे नाटकों के जरिये जनता की पीड़ा-व्यथा, आशा-आकांक्षा, आक्रोश और प्रतिरोध को आवाज देते रहे. आपातकाल के दौरान उन्होंने तख्त लाहौर नाटक किया, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार करके 48 दिनों तक जेल में रखा गया था. लेकिन इस घटना के बाद वे और मजबूती से अपने अभियान में जुट गये. उनका कहना था कि ‘‘जनता की आवाज दबेगी नहीं.’’
पंजाब में नाट्य विधा को लोकप्रिय बनाने और ऊँचा उठाने के लिए 80 के दशक में उन्होंने चंडीगढ़ स्कूल ऑफ ड्रामा की स्थापना की। हर साल वहां उनके नाम पर नाट्य उत्सव होता है. साथ ही उन्होंने चंडीगढ में ही प्राचीन कला केन्द्र नाम से एक मंडली का भी गठन और संचालन किया. ग्रामीण कलाकारों को प्रशिक्षित करने के लिए पंजाब के गाँवों में उन्होंने कुल 35 नाट्य केन्द्रों की स्थापना की. इतना ही नहीं, उन्होंने एक नयी नाट्य विधा के रूप में पिण्डू नाटक (ग्रामीण नाटक) को भी काफी लोकप्रिय बनाया, जिसका उद्देश्य आधुनिक विचारों और संवेदनाओं के साथ ग्रामीण यर्थाथ की प्रस्तुति करना है. उनके कथानक और संवाद में हँसी-मजाक और तीखे व्यंग्य इतने सहज रूप में घुले-मिले होते हैं कि दर्शक को अपनी ही जिन्दगी का हिस्सा लगते हैं. लेकिन साथ ही उनमें गहरे अर्थ छिपे होते हैं, जिनको दर्शक आसानी से पकड़ सकते हैं.
सेक्सपियर के इस कथन को कि ‘यह पूरी दुनिया एक रंगमंच है,’’ गुरुशरण सिंह ने एक दूसरे तरीके से सच कर दिखाया. उनका कहना था कि ‘मेरे लिए कोई भी जगह एक मंच है, चाहे नुक्कड़-चैराहा हों, या मन्दिर का चबूतरा या गाँव की चैपाल।’ भद्रलोक के सजे-धजे रंगमंच और नाट्यशालाओं को उन्होंने यह कहते हुए ठोकर मार दी कि यहाँ तो लोगों से सीधे संवाद करने की गुंजाइश ही नहीं है।
जो लोग भाषणबाजी कहकर उनके नाटकों की खिल्ली उड़ाते थे वे आखिरकार उनकी जिद के आगे हार कर उनका महत्त्व स्वीकारने पर मजबूर हुए. कला-रत्न पुरस्कार से लेकर कालिदास सम्मान तक उन्हें ढेर सारे सरकारी-गैर सरकारी अलंकरण और अभिनन्दन प्राप्त हुए. मुल्लनपुर में उनके नाम से एक रंगशाला का भी निर्माण किया गया. लेकिन आम लोगों के प्रति उनके गहरे लगाव और समर्पण तथा बदले में उनसे मिलने वाले ‘भाई मन्ना सिंह’ और पंजाबी नाटक के ‘बाबा बोहड़’ जैसे खिताबों के आगे वे सभी पुरस्कार छोटे हैं.
अनीता शब्दीश ने उनके जीवन और कार्यो। पर आधारित एक डोक्यूमेन्ट्री फिल्म बनायी है जिसमें उन्हें ‘क्रान्ति दा कलाकार’ नाम दिया गया है। जनता का यह सच्चा कलाकार हमें रास्ता दिखाता, खुद उस पर चलता हुआ, अन्ततः अदृश्य हो गया. बाकी काम हम लोगों के जिम्मे!

1 comment:

  1. जनता का यह सच्चा कलाकार हमें रास्ता दिखाता, खुद उस पर चलता हुआ, अन्ततः अदृश्य हो गया. बाकी काम हम लोगों के जिम्मे!


    Bahut preranadaayak hai.

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