ये जान तो आनी-जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं.
--फैज़
(लीबिया पर नाटो के हमले के बाद गद्दाफी की हार तय थी. अचरज यह नहीं कि गद्दाफी को क़त्ल कर दिया गया या अमरीकी चौधराहट में नाटो की दैत्याकर फौज के दम पर वहाँ के साम्रज्यवादपरस्त बागियों ने लीबिया पर कब्ज़ा कर लिया. अचरज तो यह है कि गाद्दफी और उनके समर्थक नौ महीने तक उस साम्राज्यवादी गिरोह की बर्बरता के आगे डटे रहे. फिदेल कास्त्रो ने 28 मार्च 2011को अपने एक विमर्श में कहा था कि...
"उस देश (लीबिया) के नेता के साथ मेरे राजनीतिक या धार्मिक विचारों का कोई मेल नहीं है। मैं मार्क्सवादी-लेनिनवादी हूँ और मार्ती का अनुयायी हूँ, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है।
मैं लीबिया को गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के एक सदस्य और संयुक्त राष्ट्रसंघ के लगभग 200 सदस्यों में से एक सम्प्रभु देश मानता हूँ।
कोई भी बड़ा या छोटा देश, एक ऐसे सैनिक संगठन की वायु सेना द्वारा जघन्य हमले का इस तरह शिकार नहीं हुआ था, जिसके पास हजारों लड़ाकू बमवर्षक विमान, 100 से भी अधिक पनडुब्बी, नाभिकीय वायुयान वाहक और धरती को कई बार तबाह करने में सक्षम शस्त्र-अस्त्रों का जखीरा है। हमारी प्रजाति के आगे ऐसी परिस्थिति कभी नहीं आयी और 75 साल पहले भी इससे मिलती-जुलती कोई चीज नहीं रही है जब स्पेन को निशाना बनाकर नाजी बमवर्षकों ने हमले किये थे।
हालाँकि अपराधी और बदनाम नाटो अब अपने ‘‘लोकोपकारी’’ बमबारी के बारे में एक ‘‘खूबसूरत’’ कहानी गढ़ेगा।
अगर गद्दाफी ने अपनी जनता की परम्पराओं का सम्मान किया और अन्तिम साँस तक लड़ने का निर्णय लिया, जैसा कि उसने वादा किया है और लीबियाई जनता के साथ मिलकर मैदान में डटा रहा जो एक ऐसी निकृष्टतम बमबारी का सामना कर रही है जैसा आज तक किसी देश ने नहीं किया, तो नाटो और उसकी अपराधिक योजना शर्म के कीचड़ में धँस जायेगी।
जनता उसी आदमी का सम्मान करती है और उसी पर भरोसा करती है जो अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।...अगर वे (गद्दाफी) प्रतिरोध करते हैं और उनकी (नाटो) माँगों के आगे समर्पण नहीं करते तो वे अरब राष्ट्रों की एक महान विभूति के रूप में इतिहास में शामिल होंगे।"
गद्दाफी ने फिदेल को हू-ब-हू सही साबित किया और पलायन की जगह संघर्ष का रास्ता अपनाया।
लीबियाई जनता पर बर्बर नाजी-फासीवादी हमले का प्रतिरोध करते हुए जिस तरह गद्दाफी ने शहादत का जाम पिया, वह निश्चय ही उन्हें साम्राज्यवाद-विरोधी अरब योद्धाओं की उस पंक्ति में शामिल कर देता है जिसमें लीबियाई मुक्तियोद्धा उमर मुख़्तार का नाम शीर्ष पर है। गद्दाफी की साम्राज्यवादविरोधी दृढता को सलाम करते हुए प्रस्तुत है फ्रेड पियर्स का यह लेख)
आतंकी और बर्बर अमरीका का शिकार एक और राष्ट्र. लीबियाफ्रेड पीयर्स
उसने लीबिया को जो एक रेगिस्तान है, हरा-भरा ग्रीन बना दिया था। एक बार हमारे भारत के राजदूत ने मेरे डायरेक्टर को कहा था कि हम भारतवासी हरे भारत को काट कर रेगिस्तान बना रहे हैं और मैं यहां आकर देखता हूँ कि आपने रेगिस्तान को हरा-भरा बना दिया है। गद्दाफी ने लीबिया में मेन मेड रीवर बनवाई थी जो दुनिया का सबसे मंहगा प्रोजेक्ट है, जिसके बारे में कहा गया था कि यह प्रोजेक्ट इतना अनाज पैदा कर सकता है जिससे पूरे अफ्रीका का पेट भर जाये, और जिसका ठेका कोरिया को दिया गया था। जब गद्दाफी यह ठेका देने कोरिया गया था तो उसके स्वागत में कोरिया ने चार दिन तक स्वागत समारोह किये थे और उसके स्वागत में चालीस किलोमीटर लंबा कालीन बिछाया था। इस ठेके से कोरिया ने इतना कमाया था कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था जापान जैसी हो गई थी। मुझ पर विश्वास नहीं हो तो गूगल की पुरानी गलियों में जाओ, आपको सारे सबूत मिल जायेंगे। मैं उस महान शासक को श्रद्धांजलि देता हूँ और उसकी आत्मा की शांति के लिए दुआ करता हूँ। उसे मिस्र के जमाल अब्दुल नासर नें मात्र 28 वर्ष की उम्र में लीबिया का शासक बना दिया था। वह भारत का अच्छा मित्र था। मालूम हो कि गद्दाफी ने 41 साल तक लीबिया पर राज किया है।
गद्दाफी था महान नदी निर्माता
लीबिया की गिनती दुनिया के कुछ सबसे सूखे माने गए देशों में की जाती है। देश का क्षेत्रफल भी कोई कम नहीं। बगल में समुद्रए नीचे भूजल खूब खारा और ऊपर आकाश में बादल लगभग नहीं के बराबर। ऐसे देश में भी एक नई नदी अचानक बह गई। लीबिया में पहले कभी कोई नदी नहीं थी। लेकिन यह नई नदी दो हजार किलोमीटर लंबी है, और हमारे अपने समय में ही इसका अवतरण हुआ है! लेकिन यह नदी या कहें विशाल नद बहुत ही विचित्र है। इसके किनारे पर आप बैठकर इसे निहार नहीं सकते। इसका कलकल बहता पानी न आप देख सकते हैं और न उसकी ध्वनि सुन सकते हैं। इसका नामकरण लीबिया की भाषा में एक बहुत ही बड़े उत्सव के दौरान किया गया था। नाम का हिंदी अनुवाद करें तो वह कुछ ऐसा होगा। महा जन नद।
हमारी नदियां पुराण में मिलने वाले किस्सों से अवतरित हुई हैं। इस देश की धरती पर न जाने कितने त्याग, तपस्या, भगीरथ प्रयत्नों के बाद वे उतरी हैं। लेकिन लीबिया का यह महा जन नद सन् 1960 से पहले बहा ही नहीं था। लीबिया के नेता कर्नल गद्दाफी ने सन् 1969 में सत्ता प्राप्त की थी। तभी उनको पता चला कि उनके विशाल रेगिस्तानी देश के एक सुदूर कोने में धरती के बहुत भीतर एक विशाल मीठे पानी की झील है। इसके ऊपर इतना तपता रेगिस्तान है कि कभी किसी ने यहां बसने की कोई कोशिश ही नहीं की थी। रहने-बसने की तो बात ही छोड़िए, इस क्षेत्र का उपयोग तो लोग आने-जाने के लिए भी नहीं करते थे। बिल्कुल निर्जन था यह सारा क्षेत्र।
नए क्रांतिकारी नेता को लगा कि जब यहां पानी मिल ही गया है तो जनता उनकी बात मानेगी और यदि इतना कीमती पानी यहां निकालकर उसे दे दिया जाए तो वह हजारों की संख्या में अपने-अपने गांव छोड़कर इस उजड़े रेगिस्तान में बसने आ जाएगी। जनता की मेहनत इस पीले रेगिस्तान को हरे उपजाऊ रंग में बदल देगी।
अपने लोकप्रिय नेता की बात लोक ने मानी नहीं। पर नेता को तो अपने लोगों का उद्धार करना ही था। कर्नल गद्दाफी ने फैसला लिया कि यदि लोग अपने गांव छोड़कर रेगिस्तान में नहीं आएंगे तो रेगिस्तान के भीतर छिपा यह पानी उन लोगों तक पहुंचा दिया जाए। इस तरह शुरू हुई दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे महंगी सिंचाई योजना। इस मीठे पानी की छिपी झील तक पहुंचने के लिए लगभग आधे मील की गहराई तक बड़े-बड़े पाईप जमीन से नीचे उतारे गए। भूजल ऊपर खींचने के लिए दुनिया के कुछ सबसे विशालकाय पंप बिठाए गए और इन्हें चलाने के लिए आधुनिकतम बिजलीघर से लगातार बिजली देने का प्रबंध किया गया।
तपते रेगिस्तान में हजारों लोगों की कड़ी मेहनत, सचमुच भगीरथ-प्रयत्नों के बाद आखिर वह दिन भी आ ही गया, जिसका सबको इंतजार था। भूगर्भ में छिपा कोई दस लाख वर्ष पुराना यह जल आधुनिक यंत्रों, पंपों की मदद से ऊपर उठाए ऊपर आकर नौ दिन लंबी यात्रा को पूरा कर कर्नल की प्रिय जनता के खेतों में उतरा। इस पानी ने लगभग दस लाख साल बाद सूरज देखा था।
कहा जाता है कि इस नदी पर लीबिया ने अब तक 27 अरब डालर खर्च किए हैं। अपने पैट्रोल से हो रही आमदनी में से यह खर्च जुटाया गया है। एक तरह से देखें तो पैट्रोल बेच कर पानी लाया गया है। यों भी इस पानी की खोज पैट्रोल की खोज से ही जुड़ी थी। यहां गए थे तेल खोजने और हाथ लग गया इतना बड़ा, दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञात भूजल भंडार।
बड़ा भारी उत्सव था। 1991 के उस भाग्यशाली दिन पूरे देश से, पड़ौसी देशों से, अफ्रीका में दूर-दूर से, अरब राज्यों से राज्याध्यक्ष, नेता, पत्रकार जनता- सबके सब जमा थे। बटन दबाकर उद्घाटन करते हुए कर्नल गद्दाफी ने इस आधुनिक नदी की तुलना रेगिस्तान में बने मिस्र के महान पिरामिडों से की थी।
लोग बताते हैं कि इन नद से पैदा हो रहा गेहूं आज शायद दुनिया का सबसे कीमती गेहूं है। लाखों साल पुराना कीमती पानी हजारों-हजार रुपया बहाकर खेतों तक लाया गया है- तब कहीं उससे दो मुट्ठी अनाज पैदा हो रहा है। यह भी कब तक? लोगों को डर तो यह है कि यह महा जन नद जल्दी ही अनेक समस्याओं से घिर जाएगा और रेगिस्तान में सैकड़ों मीलों में फैले इसके पाईप जंग खाकर एक भिन्न किस्म का खंडहर, स्मारक अपने पीछे छोड़ जाएंगे।
लीबिया में इस बीच राज बदल भी गया तो नया लोकतंत्र इस नई नदी को बहुत लंबे समय तक बचा नहीं सकेगा। और देशों में तो बांधों के कारण, गलत योजनाओं के कारण, लालच के कारण नदियां प्रदूषित हो जाती हैं, सूख भी जाती हैं। पर यहां लीबिया में पाईपों में बह रही इस विशाल नदी में तो जंग लगेगी। इस नदी का अवतरण, जन्म तो अनोखा था ही, इसकी मृत्यु भी बड़ी ही विचित्र होगी।
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ReplyDeletepallavkidak@gmail.com
Nice one. Sharing...
ReplyDeleteAapki jankari se main bahut kuch sochne ko majboor ho gaya after reading tomorrow morning news paper
ReplyDeleteAaj ki amerika ki gulam media, gaddafi ke bare men sahi jankari nahi pahunchane de rahi h. Aapke lekh ne naye tarah se samajhne men madad ki h.. thanks..
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