Monday, March 12, 2012

जाति में जकडे रहना भारत की नियति नहीं

आंद्रे बताई
जो लोग अखबारों और टीवी चैनलों पर सामायिक मुद्दों के ऊपर चर्चा करते रहते हैं, वे अगर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि जाति भारत की नियति है, तो उन्हें माफ़ कर देना चाहिए. राजनीतिक मुद्दों पर टिप्पणी करनेवाले मीडिया विशेषज्ञों के बीच अगर किसी बात में समानता है तो बस यही कि जाति के विषय में और चुनावी राजनीति में उसकी भूमिका की ओर ध्यान आकृष्ट करने में वे हमेशा लवलीन रहते हैं.
बहुतेरे लोग अब यह यकीन करने लगे हैं कि देश में हो रहे जनसंख्या सम्बंधी, तकनीकी और आर्थिक बदलावों से तो इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन फिर भी जातियों और समुदायों में बंटे होना भारतीय समाज का अनिवार्य चरित्र है और इसे मिटा पाना असंभव है. उनका यह भी मानना है कि इन बंटवारों को नजरअंदाज करना या आमदनी, शिक्षा और पेशा जैसे दूसरे बंटवारों की ओर ध्यान दिलाना जमीनी सच्चाइयों से मुँह चुराना है. उनमें से जो कुछ ज्यादा ही रेडिकल हैं, वे यह भी जोड़ देते हैं कि इन सच्चाइयों की अनदेखी करना, दरअसल समाज के फायदे और जिम्मेवारियों का इंसाफ और बराबरी के साथ बंटवारे की राजनीतिक जिम्मेदारी से टालमटोल करना है.
क्या भारत में कुछ भी नहीं बदला है? वास्तव में पिछले साथ सालों के दौरान हमारी राजनीतिक अवधारणा और सामाजिक यथार्थ दोनों ही मामलों में ढेर सारे बदलाव हुए हैं. राष्ट्रीय आंदोलन के जिन नेताओं ने उपनिवेशिक शासन से भारत की स्वतंत्रता के लिए सफलतापूर्वक संघर्ष किया, उनका विश्वास था कि अतीत में भारत भले ही जातियों और समुदायों में बंटा समाज था, लेकिन नए गणतांत्रिक संविधान को अंगीकार कर लेने के बाद यह नागरिकों का राष्ट्र बन जाएगा. वे अत्यंत आशावादी थे. संविधान ने नागरिकों के अधिकारों को स्थापित किया, लेकिन इसने जिन नागरिकों का सर्जन किया उनके दिलों और दिमागों से जाति का निर्मूलन नहीं किया. कई भारतीयों का, शायद अधिकांश लोगों का दिली मिजाज़ आज भी उंच-नीच में बंटे समाज का ही मिजाज़ है.
आपसी खान-पान के नियम
सार्विक वयस्क मताधिकार ने जाति के आधार पर चुनावी समर्थन जुटाने की नयी सम्भावनायें पैदा कीं और इस तरह जातिगत चेतना को समाप्त होने से रोका. लोकतंत्र से अपेक्ष थी कि यह जातिगत भेदभाव को नष्ट कर देगा, लेकिन इसके परिणामस्वरूप जो उम्मीद थी, उससे उलते ही नतीजे सामने आये. लोकतंत्र में राजनीति किसी देश के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है, लेकिन यह उसका एकमात्र अंग नहीं है. जीवन के दूसरे क्षेत्र हैं जिनमें जातिगत चेतना निस्तेज होती गयी है, भले ही बहुत तेजी से और नाटकीय रूप में न हुई हो. बदलाव की जिस रुझान के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे उस ओर मीडिया का ध्यान नहीं गया क्योंकि यह बदलाव लंबे समयांतराल में घटित हुआ. इसे महीने-महीने या साल दर साल देख पाना मुमकिन नहीं, बल्कि दो या दो से अधिक पीढ़ियों के दौरान ही इसे महसूस किया जा सकता है.
हम पवित्रता और अपवित्रता के कर्मकांडी विरोध से ही शुरू करें, जो जातियों के ऊँच-नीच में बंटवारे की एक बुनियाद थी. पवित्रता और अपवित्रता के नियम जातियों और उपजातियों के भीतर भेदभाव और श्रेणी-विभाजन को चिन्हित करने में काम आते थे. इनमें से कुछ लक्षण आपस में घुलने-मिलने और एक साथ खाने-पीने से सम्बंधित थे.  उन्हीं से तय होता था कि कौन किसके साथ खाने की पंगत में बैठ सकता है और किनके हाथ का खाना और पानी ले सकता है. केवल बराबर दर्जे वाली जातियों के लोग ही एक पंगत में खा सकते थे. आम तौर पर लोग अपने से ऊँची जाति के लोगों के हाथ से ही खाना और पानी लेते थे, अपने से नीची जाति के हाथ से नहीं.
भोजन की लेन-देन के बारे में शास्त्रीय विधि-निषेध कठोर थे और अब से सौ साल पहले तक जारी थे. इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उन विधि-निषेधों का लगातार क्षरण हुआ है. जीवन और कार्य की आधुनिक परिस्थितियों ने इनमें से बहुतेरों को लुप्तप्राय बना दिया. पवित्रता और अपवित्रता के अतिरेक को कोलकाता और दिल्ली जैसे शहरों में रहनेवाले पढ़े-लिखे लोग मजाक का विषय समझते हैं. कॉलेज कैंटीन या ऑफिस के भोजन कक्ष में इस तरह के नियमों का पालन करना असंभव है. सार्वजनिक आयोजनों में लोगों को अपनी-अपनी जाति के अनुसार बैठने पर जोर देना आज शर्मनाक घटना मानी जायेगी.
अतीत में, जाति के नियमों के मुताबिक एक-दूसरे के साथ खाने-पीने और शादी-विवाह करने पर लगाये गए रोक का सीधा सम्बंध था. शादी पर रोक अभी समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन कुछ हद तक इसमें ढील आई है. हिंदुओं में, अंतरजातीय विवाह पर पहले क़ानूनी रोक था. अब वह कानून तो बदल गया, लेकिन जाति के भीतर शादी करने का रिवाज आज भी भारी पैमाने पर देखा जा सकता है. हालाँकि हो यह रहा है कि शादी तय करते समय अन्य बातों के आलावा शिक्षा और आमदनी को भी दिमाग में रखा जा रहा है. बहरहाल, यह बहस करना काफी कठिन है कि पिछले कुछ दशकों से वैवाहिक मामलों में जातिगत चेतना उठान पर है.
राजनीति में, मीडिया में
जाति और पेशे के बीच एक आम जुडाव इस हद तक अभी जारी है कि निम्नतम जातियों के लोग बड़े पैमाने पर घटिया और कम मजदूरी वाले कामों में लगे हैं, जबकि उपरी जाति के लोगों का झुकाव अच्छी आमदनी और सर्वोत्तम पेशों की ओर है. लेकिन जाति और पेशे के बीच का संबंध, जमीन और अनाज की परंपरागत अर्थव्यवस्था की तुलना में आज कहीं ज्यादा लचीला है. तेज आर्थिक विकास और माध्यम वर्ग के विस्तार के साथ-साथ व्यक्तिगत अवसर की गतिशीलता ने जाति और पेशे के बीच के संबंध को और अधिक ढीला किया है.
इन सब के बावजूद, अगर जनता की चेतना पर जातिगत जकडबंदी न सिर्फ कायम है, बल्कि मजबूत होती जा रही है, तो इसके निश्चित कारण हैं. यह कारण संगठित राजनीति के क्षेत्र में देखा जा सकता है. राजनीति के अखाड़े में जाति का प्रवेश आज़ादी हे पहले ही हो गया था, खास तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप में. लेकिन आज़ादी के बाद सार्विक वयस्क मताधिकार अपनाये जाने के बाद राजनीतिक प्रक्रिया में जाति को घंसीटने का ढंग और दायरा बिलकुल बदल गया.
जातीय चेतना चुनावों के मौके पर आगे लायी जाती है. लोकसभा और विधान सभा के चुनाव अब पूरे साल होते रहते हैं. सामान पहुँचाने और तैयारी से जुड़े दूसरे कारणों से, विधान सभा के चुनाव भी अब कई-कई हफ्ते में पूरे होते हैं. आम चुनावों के आलावा उप-चुनाव भी होते हैं. चुनाव अभियान दिनोंदिन भडकीले और लगातार खर्चीले होते गए हैं और अक्सर वे आनंदोत्सव का वातावरण तैयार करते हैं. जाति के आधार पर चुनावी समर्थन जुटाना एक जटिल परिघटना है जिसके नतीजे बेइंतिहा अटकलों की गुंज़ाइश पैदा करते हैं.
बावजूद इसके कि पूरे देश के लिए चुनावी मौसम का कभी भी अंत नहीं होता, कोई खास मतदाता चुनाव की प्रक्रिया में कभी कभार और छिटपुट रूप से ही भाग लेता है. औसत ग्रामीण मतदाता चुनावी मामलों के बजाय अपने घरेलू मसलों, काम-धाम और पूजा-पाठ में कहीं ज्यादा दिमाग खपाता है. सब को पता है कि शहरों में रहनेवाले भारतीय मतदाता बहुत काम संख्या में वोट देने जाते हैं. लेकिन मतदान केन्द्र तक जाने के लिहाज से भले ही वे चुनाव में भाग नहीं लेते, मगर अप्रत्यक्ष रूप से वे इनमें जरूर भाग लेते हैं, क्योंकि वे टेलीविजन पर देखते रहते हैं कि बाहरी दुनियां में क्या हो रहा है. थोड़ी मात्रा में राजनीतिक शिक्षा के साथ टेलीविजन हमें मनोरंजन की भरपूर खुराक देता है.
निजी टेलीविजन चैनलों ने एक पूरी दुनिया रची है जिसमें उनके संचालक और विशेषज्ञ एक दूसरे के साथ जीवंत संपर्क में रहते हुए जातिगत घटक के महत्त्व का लेखा-जोखा लेते हैं तथा उनके टीकाकार जातियों, उपजातियों और जातियों के समूहों के बीच की प्रतिद्वंद्विता और गंठबंधन की खोजबीन करते है, जिनमें से अधिकांश लोगों की देश में दूरगामी बादलावों के रुझान की न तो कोई समझ होती है और न ही उसमें कोई रूचि. ये विचार-विमर्श यह भ्रम पैदा करते हैं कि जाति भारतीय समाज का एक अपरिवर्तनीय लक्षण है. आज जातिगत चेतना को मजबूत करने और हमें इस बात का  कायल बनाने के लिए कि जाति भारत की नियति है, मीडिया में जो कुछ चल रहा है, उसे यदि जारी रहने दिया गया तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के मानद प्रोफ़ेसर और राष्ट्रिय अनुसन्धान प्रोफ़ेसर हैं. २१ फरवरी के द हिंदू में प्रकशित लेख का अनुवाद, आभार सहित.)

1 comment:

  1. bharat me jati anivary sachai hai. iska sambandh aarthik se jyada samajik kulinta se juda hai.khan pan ke riston ke tutne ke bad, shadi vyah ki simayen langhne ke bad bhi jatia ahanlkar, shresta , kulinta, majboot hui hai.

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