जोसेफ तारामंगलम
जाति भारतीय सामाजिक जीवन का इतना प्रभावी लक्षण क्यों है?
‘द हिंदू’
में प्रकाशित लेख (भारत
की नियति जाति में जकड़े रहना नहीं,” २१ फरवरी) में आंद्रे बताई का मानना है
कि राजनीति और मीडिया के चलते ही जाति आज भी जीवित है. भारतीय संविधान ने भी शायद
कुछ भूमिका निभाई है. नागरिकों का राष्ट्र और नागरिक अधिकारों की स्थापना के साथ
ही इसने जाति को भी जीवित रखा. राजनीति के बाहर धीरे-धीरे,
लेकिन लगातार होने
वाले ढेर सारे बदलावों ने आपसी खान-पान, अंतरजातीय विवाह और जाति आधारित पेशों
जैसे कई मामलों में जाति प्रथाओं और जाति चेतना को रूपांतरित किया है.
यह आम तौर पर स्वीकृत दृष्टिकोण है और इसमें ताज्जुब की कोई
बात नहीं कि समाजशास्त्री जिसको विशिष्ठता (ठोस) से सर्वव्यापकता (सामान्य) की ओर
आगे बढ़ना कहते हैं, आधुनिकता की ताकतें उससे संबद्ध होती हैं. हमने इसे भारत में रेलवे
के आने के साथ देखा, जिसमे अलग-अलग जातियों के लिए अलग से डब्बे का इंतजाम नहीं किया
गया था. इसलिए हमें यह मान लेना चाहिए कि बताई जिन बदलावों को दर्शाते हैं,
भले ही वे उन्हें
थोडा बढ़ा-चढा के बता रहे हों, लेकिन बदलाव आये हैं. यह तथ्य कि भारत
में अपने हाथों से मल-मूत्र साफ करने वाले तीन लाख से भी ज्यादा लोग लगभग पूरी तरह
दलित समुदाय से आते हैं, निश्चय ही इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन के
लिए उकसाता है. यह जानना भी दिलचस्प होगा कि अब से छह दशक पहले बताई ने जिस
तमिलनाडु में अपना पीएचडी शोध किया था, वहाँ के गांवों में आपसी खान-पान कितना
है और कितने लोग अंतरजातीय विवाह करते हैं.
पहुँच पर पाबन्दी
बताई के तर्कों के साथ समस्या यह है कि इसमें जाति के कुछ
महत्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी की गयी है जो लगातार मजबूती के साथ जारी हैं और शायद
ठेठ भारतीय विकास के कुछ खास लक्षणों को मजबूत करने में सहायक हैं. जाति के
ये पहलू उस भौतिक आधार पर टिके हुए हैं जो जीविका के संसाधनों और जोर-जबर के
साधनों के ऊपर बेहद भेदभावपूर्ण नियंत्रण से तय होता है. इनका इस्तेमाल अब
पवित्रता/अपवित्रता के विधि-विधान को जबरन लागू करवाने के लिए नहीं,
बल्कि पुराने और
नए संसाधनों और अवसरों तक बहुसंख्य दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों की पहुँच पर
पाबंदी लगाने के लिए किया जाता है. जाति की राजनीति को अगर इस सन्दर्भ के बाहर या
इन सच्चाइयों से काट कर देखें तो उसे समझ पाना मुमकिन नहीं.
सामाजिक सूचक
भारत के विकास का एक सुस्पष्ट विरोधाभास उन देशज प्रवंचनाओं
पर कुछ रोशनी डाल सकता है जिनका शिकार निम्न जातियां हैं. ऊँची वृद्धि दर के
बावजूद, भारत की हालत प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद और आर्थिक वृद्धि के
मामले में निचले स्तर के विकासशील देशों से भी खराब है. प्रमुख अंतरराष्ट्रीय
संस्थाओं और भारतीय संगठनों द्वारा जितने भी तरह के सामाजिक सूचक मुहैया कराये
जाते हैं (जैसे- मानव विकास सूचकांक, बहुआयामी गरीबी सूचकांक,
वैश्विक भूख
सूचकांक) उन सभी मामलों में स्थिति दयनीय है. मानव विकास सूचकांक के निम्न स्तर (१६९
देशों की सूची में भारत का ११९ वाँ स्थान है, जबकि चीन का ८९ वाँ) के लिए प्राथमिक
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सामान्य सूचकों का स्तर भी बहुत ही खराब होना जिम्मेदार
है. खास तौर पर शिशु मृत्यु दर, कुपोषण, कमवजन और छोटे कद वाले बच्चों तथा कमवजन
और खून की कमी वाली गर्भवती महिलाओं के मामले में स्तर बहुत ही गिरा हुआ है. वैश्विक
भूख सूचकांक के मामले में भारत का ६६ वाँ दर्जा बहुत ही शर्मनाक है जो बांगलादेश
को छोड़ कर अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों से भी गया-गुजरा है. हमारा देश दुनिया भर
में सबसे ज्यादा एकमुश्त भूखे लोगों का ठिकाना है- २५.५ करोड लोग,
यानी कुल
आबादी का २१ प्रतिशत. बहुआयामी गरीबी सूचकांक का भी यही हाल है- ४५.५ करोड लोग,
यानी ५५ प्रतिशत
आबादी भीषण गरीबी की गिरफ्त में है और आठ भारतीय राज्यों में जितने लोग बहुआयामी
गरीबी के शिकार हैं उनकी तादाद २६ बेहद गरीब अफ़्रीकी देशों के कुल ग़रीबों
से भी कहीं ज्यादा है.
इन आंकड़ों के पीछे भारतीय समाज के दो महत्वपूर्ण तथ्य हैं-
पहला इस देश में निम्नवर्ग की एक बहुत ही भारी तादाद है,
और दूसरा,
इन वर्गों में
विशेष रूप से बड़ी आबादी निम्न जाति के लोगों की (खास कर दलितों की) और आदिवासियों
की है. इन सभी सूचकों के मामले में इन समूहों की स्थिति (१० प्रतिशत से भी ज्यादा
का अंतर) काफी बुरी है. उदहारण के लिए, कुल ५५ प्रतिशत भारतीय बहुआयामी गरीबी
के शिकार हैं, जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में यह संख्या क्रमशः ६५.८ और
८१.४ है. ध्यान दें कि जिन राज्यों की स्थिति ज्यादा खराब है,
वे वही हैं जहाँ
अनुसूचित जाति और जनजाति का अनुपात अधिक है.
हिंसा की व्यवस्था
निम्न जातियों की रसातल जैसी सामाजिक-आर्थिक स्थिति कोई
आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि यह ऐतिहासिक विरासत में मिले उस ढांचे में निहित है जिसने
बुनियादी बदलाव में बाधा खड़ी की. भारत की ऐतिहासिक असफलताएँ- जमीन के पुनर्वितरण
की भ्रूण-हत्या, खेती की उपेक्षा (१९६०-७० के दशक में हरित क्रांति को छोड़ कर) और
जातिगत असमानता पर प्रहार करने में नरम रुख- इन ढांचों को कायम रखने में मददगार
साबित हुईं. इस सन्दर्भ में भारत के यात्रा-पथ की एक पेचदार बात पर नजर डालना
दिलचस्प है कि जिस दौर में इसने वैज्ञानिक, तकनीकी और उच्च शिक्षा के दूसरे रूपों
में भारी छलांग लगाई और जिसके चलते आज के मशहूर भारतीय मध्यम वर्ग की संख्या में
बेतहाशा बढ़ोतरी हुई, उसी दौर में प्राथमिक शिक्षा में बहुत ही घटिया रिकार्ड रहा (यह
स्थिति पूर्वी एशिया के ठीक विपरीत है).
इस विराट असफलता के लिए एक सफाई यह दी जाती है कि पहले के
योजनाकारों ने एक भ्रांत धारणा को आगे बढ़ाया कि वैज्ञानिक,
तकनीकी और उच्च
शिक्षा ही भारत में तीव्र आर्थिक विकास के लिए जरूरी है. लेकिन एक दूसरी व्याख्या
भी है जिसमें जाति को एक कारक माना गया है. इस नजरिये का एक अच्छा विवरण यह है कि
अपनी दिली इच्छाओं के चलते भारत के ऊपरी जातियों के लोगों को दलितों को शिक्षित
करने में कोई लाभ नहीं दिखाई दिया. इससे थोड़ा कम अच्छा विवरण यह तर्क पेश
करता है कि निम्न जातियों को शिक्षित करने की योजना को ऊपरी जातियों की ओर से
इसलिए विरोध झेलना पड़ा कि इस तरह की परियोजन और इसके चलते निम्न जातियों का ऊपर
उठना, निम्नजाति
के मजदूरों, आश्रितों और नौकरों को अपने काबू में रखने की उनकी मंशा को
मटियामेट कर देगा. बिहार के देहातों में काम करते हुए और उस दौरान इस तरह की
गतिविधि का अवलोकन करते हुए मैंने पाया कि इस अंतिम तर्क में थोड़ा दम है.
अंततः, इस बात पर ध्यान देना जरुरी है कि यह
ढाँचा महज विचारधारा और अपवित्रता के विधि-विधान से नहीं चलता बल्कि भरपूर हिंसा
के दम पर कायम है. वास्तव में यह एक ढांचागत हिंसा की व्यवस्था है जिसका इजहार
लगातार धमकियों और समय-समय पर फूट पडने वाली शरीरिक हिंसा के रूप में होता है,
जिसे जमीन के
मालिक ऊपरी जातियों के लोग इस चुनौती के चलते अंजाम देते हैं कि पहले से चले आ रहे
सम्बंध बदल रहे हैं और साथ ही निचली जातियों के लोग भी अब विरोध कर रहे हैं और
पलटवार भी कर रहे हैं. “दलितों के ऊपर अत्याचार”- हत्या, बलात्कार और आगजनी से लेकर दलित महिलाओं
को नंगा करके गांव में घुमाने और पीडितों के मुंह में पेशाब-पाखाना डालने जैसे
अपमानजनक कुकृत्य तक के भरपूर दस्तावेजी प्रमाण मौजूद हैं. भारतीय सांसदों ने इन
घटनाओं को इतना गंभीर माना कि १९८९ में “दलितों के विरुद्ध अत्याचार क़ानून”
पारित किया. हालाँकि
इस कानून का प्रभावी होना संदिग्ध है, दलित कार्यकर्ता इस बात पर जोर देते हैं
कि बिना नीचे से राजनीतिक दबाव बनाये इस कानून को लागू नहीं करवाया जा सकता.
आर्थिक विकास का जो मौजूदा ढर्रा ग्रामीण आबादी और खेतिहर
मजदूरों को पहले से भी ज्यादा वंचना की ओर धकेल रहा है,
उसे देखते हुए
समर्पित कार्यकर्ताओं और अमर्त्य सेन जैसे विद्वानों ने (जिनका भारतीय अकाल के ऊपर
किया गया शोध दिखाता है कि भारतीय अकालों के दौरान उसके शिकार होने वालों में
दलितों की संख्या बहुत ही अधिक रही है) आह्वान किया है कि वंचित समुदायों के बेहतर
राजनीतिक संगठनों के जरिये “समतामूलक सत्ता” का निर्माण किया जाय.
तब आखिर बताई के इस सुझाव का क्या किया जाये कि जाति का
बड़ी आसानी से खात्मा हो जाता, अगर इसे राजनीति और मीडिया के दायरे से
बाहर कर दिया गया होता? निश्चय ही,
उन्होंने खुदगर्ज
नेताओं और मीडिया के लोगों द्वारा जाति का दुरुपयोग करने का मामला महत्वपूर्ण रूप
से उठाया है. लेकिन जाति के अराजनीतिकरण का जो नुस्खा उन्होंने सुझाया है,
उससे कुछ होने
वाला नहीं. बेहतर रास्ता शायद वह हो जिसे केरल ने तय किया,
जहाँ निम्न
जातियों की राजनीतिक लामबंदी को संगठन के व्यापक तार्किक-वैधानिक और सर्वव्यापी
रूपों के साथ, जाति समुदाय और धर्म से ऊपर उठ कर गठित ट्रेड यूनियनों और
पार्टियों के रूपों के साथ एकीकृत किया गया.
हाँ, हमने छुआछूत को मिटा दिया,
अब उस भौतिक आधार
को मिटने की जरूरत है जो छुआछूत को बनाये हुए है और हररोज भेदभाव और हिंसा
के नए रूपों को जनम दे रहा है.
(लेखक माउन्ट सेंट विन्सेंट यूनिवर्सिटी,
हलिफैक्स,
कनाडा में
समाजशास्त्र के मानद प्रोफ़ेसर हैं और आजकल सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज,
तिरुअनंतपुरम
में आमंत्रित अध्येता हैं. यह लेख ‘द हिन्दू’
में ७ मार्च
को प्रकाशित हुआ था जिसका अनुवाद आभार सहित प्रस्तुत है.)
No comments:
Post a Comment