Monday, May 28, 2012

अमीरों की मितव्ययिता                   


--पी. साईनाथ
           
योजना आयोग के अनुसार अगर एक ग्रामीण भारतीय प्रतिदिन २२ रुपये ५० पैसे खर्च करता है तो वह गरीब नहीं माना जायेगा, जबकि पिछले साल मई और अक्टूबर के बीच इसी योजना आयोग के उपाध्यक्ष की विदेश यात्राओं पर २.०२ लाख रुपये रोजाना औसत खर्च आया है.

खर्चों में कटौती के प्रणव मुखर्जी के भावनात्मक आह्वान ने देश को भावुक कर दिया था. इससे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इसकी वकालत कर चुके थे और उन्होंने अपनी जमात के लोगों को रचनात्मक तरीकों से इसे अपनाते देखा. यहाँ तक कि विदेश मंत्रालय को २००९ में किये गये इस आह्वान पर काम करते देखते (किफायती दर्जे में हवाईयात्रा, खर्चों में कटौती), हम इस महान खोज के चौथे साल में प्रवेश कर चुके हैं.     

निश्चय ही, हमारे यहाँ कई प्रकार की मितव्ययितायें हैं. इन अनेकों आजमायी गयी विविधताओं में से  योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया वाली किस्म को लेते है. खर्चों में कटौती के लिये डा. अहलूवालिया की वचनबद्धता को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता. देखिये वह किस तरह गरीबी की रेखा के बारे में उस लोकलुभावन मांग के खिलाफ अडिग खड़े रहे हैं जो मानीखेज है. जनता की कतई खुशामद नहीं की गयी. शहरी भारत में २९ रूपये या ग्रामीण भारत में २३ रूपये रोज खर्च करें तो आप गरीब नहीं हैं. यहां तक कि  उन्होंने उच्चतम न्यायालय से भी  अपने लाखों-करोंडों  देशवासियों के प्रति  इस कठोरता को बनाये रखने का अनुरोध किया है. योजना आयोग द्वारा दायर एक हलफनामे में ३२ रूपये (शहरी) और २६ रूपये (ग्रामीण) प्रतिदिन की रेखा की वकालत की गयी  है. उसके बाद से, इस पदम विभूषण विजेता और सके कुछ सहयोगियों ने इस रेखा को र कम करने के लिये बेहिचक अपनी राय पेश की है.

आरटीआई पूछताछ

डा. अहलूवालिया मितव्ययिता को खुद पर लागू करते हैं इस बात की पुष्टि दो आरटीआई प्रश्नों से हो जाती है. दोनों ही आरटीआई-आधारित पत्रकारिता के बेहतरीन उदाहरण हैं, परन्तु उन्हें उतनी तवज्जो नहीं मिल पायी जिसके वे हकदार हैं. उनमे से एक श्यामलाल यादव द्वारा दी गयी इंडिया टुडे (जिसमें जून २००४ से जनवरी २०११ के बीच डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है) की खबर है. यह पत्रकार (जो अब इंडियन एक्सप्रेस में काम करते हैं) पहले भी आरटीआई-आधारित बेहतरीन ख़बरें दे चुके हैं.

दूसरी खबर, इस साल फ़रवरी में, द स्टेट्समेन न्यूज़ सर्विस में प्रकाशित हुई (पत्रकार का नाम नहीं दिया गया है). इसमें मई और अक्टूबर २०११ के बीच में डा. अहलूवालिया की विदेश यात्राओं का ब्यौरा है. एसएनएस की रिपोर्ट कहती है कि "इस अवधि में, १८ रातों के दौरान चार यात्राओं के लिये राजकोष को कुल ३६,४०,१४० रुपये कीमत चुकानी पड़ी, जो औसतन २.०२ लाख रुपये प्रतिदिन बैठती है.”

जिस दौरान यह सब हुआ, उस समय के हिसाब से २.०२ लाख रुपये ४,००० डॉलर प्रतिदिन के बराबर बैठते हैं. (अहा! हमारी खुशकिस्मती है कि मोंटेक मितव्ययी हैं. अन्यथा कल्पना करें कि उनके खर्चे कितने अधिक होते). प्रतिदिन का यह खर्चा उस ४५ सेंट की अधिकतम सीमा से ९,००० गुना ज्यादा है जितने पर उनके अनुसार एक ग्रामीण भारतीय ठीक-ठाक जी ले रहा है, या उस शहरी भारतीय के लिये ५५ सेंट की अधिकतम सीमा से ७,००० गुना ज्यादा है जिसे डा. अहलूवालिया “सामान्य तौर पर पर्याप्त” मानते हैं.

यहां हो सकता है कि १८ दिनों में खर्च किये गये ३६ लाख रूपये (या ७२,००० डॉलर) उस साल विश्व पर्यटन के लिये दिया गया उनका निजी प्रोत्साहन हो. आख़िरकार, २०१० में पर्यटन उद्योग अभी भी २००८-०९ के विनाश से उभर ही रहा था, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन ध्यान दिलाता है. दूसरी तरफ, यू.एन. संस्था ने पाया कि २०१० में वैश्विक यात्राओं पर वार्षिक आय 1,000 अरब  डॉलर तक पहुँच गयी. वार्षिक आय में सबसे ज्यादा बढ़त अमेरिका और यूरोप में देखी गयी (जहाँ उन १८ दिनों में से ज्यादातर दिन व्यतीत किये गये). भारतीय जनता इस बात पर खुशी मना सकती है कि उन देशों के स्वास्थ्य लाभ में उन्होंने भी एक सादगीपूर्ण भूमिका निभायी, तब भी जबकि वे घर पर खर्चों में कटौती की मार झेल रहे थे.

श्यामलाल यादव की आरटीआई में दिये गये आकड़े बेहद दिलचस्प हैं. शुरुआत के लिये, उनकी जाँच दिखाती है कि अपने सात साल के कार्यकाल में डा. अहलूवालिया ने ४२ आधिकारिक विदेश यात्रायें की और विदेशों में २७४ दिन बिताये. इस तरह यह “हर नौ में से एक दिन” विदेश में पड़ता है. और इसमें यात्रा करने में लगे दिन शामिल नहीं हैं. इंडिया टुडे की खबर ने पाया कि उनके इस भ्रमण के लिये राजकोष से २.३४ करोड़ रूपये खर्च किये गये, यह बताया गया है कि उनकी यात्राओं के संबंध में उन्हें तीन अलग- अलग अनुमान प्राप्त हुए थे और उदारतापूर्वक उन्होंने अपनी खबर के लिये सबसे कम खर्च वाले अनुमान को चुना. साथ ही, इंडिया टुडे की खबर कहती है, “यह स्पष्ट नहीं है कि इन आकड़ों में भारतीय दूतावास के द्वारा विदेश में किये गये अतिरिक्त खर्चे, जैसे-  लिमोसिन को किराये पर लेना शामिल हैं या नहीं. वास्तविक खर्चे काफी ज्यादा हो सकते हैं.”

चूँकि जिस पद पर वह हैं उसके लिये ज्यादा विदेश यात्राओं की आवश्यकता नहीं है – हालाँकि, यह सब “प्रधानमंत्री की इजाजत” से किया गया है– यह काफी दुविधा में डाल देने वाला है. ४२ यात्राओं में से २३ अमेरिका के लिये थी, जो योजना में विश्वास नहीं करता ( योजना में तो, शायद डॉ. अहलूवालिया भी विश्वास नहीं करते), तब यह और भी ज्यादा दुविधा में डाल देने वाली बात है. ये यात्रायें किस बारे में थी? मितव्ययिता के बारे में वैश्विक जागरूकता का प्रसार करने के लिये? यदि ऐसा है तो, हमें उनकी यात्राओं पर ओर ज्यादा खर्च करना होगा: एथेन्स की सड़कों पर इस ध्येय का क़त्ल करते हुए विद्रोही ग्रीसवासियों पर ध्यान दें. और उससे भी ज्यादा उनकी अमरीका यात्राओं पर जहाँ अमीरों की मितव्ययिता असाधारण है. यहाँ तक उस देश के मैनेजरों ने २००८ में भी करोड़ों रूपये बोनस लिये, जिस साल वाल स्ट्रीट ने विश्व अर्थव्यवस्था का भट्टा बिठा दिया था. इस साल, अमरीका में बेहद-अमीर मीडिया अखबार भी लिख रहे हैं कि ये मैनेजर ही कम्पनियों, नौकरियों और तमाम चीजों का विनाश कर रहे हैं– और इस सबसे व्यक्तिगत लाभ उठा रहे हैं. लाखों अमरीकावासी, जिनमे वे भी शामिल है जो बंधक घरों की नीलामी का शिकार हुए हैं, वे अलग तरह की मितव्ययिता भुगत रहे हैं. उस तरह की, जिससे फ्रांसीसी घबराये हुए थे और जिसके खिलाफ उन्होंने वोट दिया.

२००९ में जब डा. सिंह ने खर्चों में कटौती का अनुरोध किया, तब उनके मंत्रिमंडल ने इस आह्वान का शानदार जवाब दिया. अगले २७  महीनों के दौरान, हर सदस्य ने औसतन, कुछ लाख रूपये प्रति महीने अपनी सम्पति में जोड़े. यह सब उस दौरान, जब वे मंत्रियों के तौर पर कठिन मेहनत कर रहे थे. प्रफुल पटेल इनमे सबसे आगे रहे, जिन्होंने इस दौरान अपनी सम्पति में हर २४ घंटे में, औसतन पांच लाख रुपये जोड़े. तब जब एयर इंडिया के कर्मचारी, जिस मंत्रालय का ज्यादातर समय वह मन्त्री थे, हफ़्तों तक अपनी तनख्वाह पाने के लिये संघर्ष कर रहे थे. अब जबकि प्रणव अपना कोड़ा फटकार रहे हैं, तब ओर भी ज्यादा मितव्ययिता देखने को मिलेगी.

अब इस मितव्ययिता के द्विदलीय भाईचारे को देखें: प्रफुल पटेल (यूपीए–एनसीपी) और नितिन गडकरी (एनडीए–बीजेपी) ने अभी तक की दो सबसे महंगी शादियों का आयोजन किया, जिसमे किसी आईपीएल फ़ाइनल से भी ज्यादा मेहमान शामिल थे. लिंग-संतुलन का कठोर अनुशासन, भी. ये आयोजन, मि. पटेल की बेटी के लिये और मि. गडकरी के बेटे के लिये थे. 

इनके कारपोरेट प्रतिरूपों ने इसे ओर आगे बढ़ाया. समकालीन स्मृति में मुकेश अंबानी का सबसे महंगा २७ मंजिल (पर उसकी ऊंचाई ५० मंजिल तक है) का घर. और विजय माल्या ने– किंगफिशर में जिनके कर्मचारी अपनी तनख्वाहों के लिये संघर्ष कर रहे हैं–  ५ मई को ट्वीट किया: “दुबई में बुर्ज खलीफा के १२३वें माले पर एटमोसफियर में रात्रिभोज कर रहा हूँ. मैं अपने जीवन में कभी इतनी ऊंचाई पर नहीं आया. शानदार दृश्य.” यह शायद उससे ज्यादा ऊंचाई पर है जहाँ अभी किंगफिशर उड़ान भर रही है. दोनों की आईपीएल में खुद की टीमें हैं. एक ऐसी संस्था जिसे सार्वजनिक आर्थिक सहायता मिली है (उदाहरण के लिये, मनोरंजन कर में छूट). यह तब तक, जब तक मामला बम्बई उच्च न्यायालय में नहीं गया. आईपीएल से जुड़ी  जनता के पैसे से चलने वाली अन्य मितव्ययितायें भी  हैं – इन खबरों का इंतज़ार करें.

वाल स्ट्रीट मॉडल   

कारपोरेट जगत आम तौर पर वाल स्ट्रीट के मॉडल का अनुसरण करता है. वहाँ, नौ बैंकों, जिसमे सिटीग्रुप और मेर्रिल लिंच शामिल हैं, ने “२००८ में ३२.६ बिलियन डॉलर बोनस के तोर पर दिये, उस समय जब उन्होंने करदाताओं द्वारा जमा धन से १७५ बिलियन डॉलर प्राप्त किये,” ब्लूमबर्ग ने २००९ में रिपोर्ट दी. उसने इस विषय पर न्यूयॉर्क के अटॉर्नी जनरल एंडरयू कयूओमो की रिपोर्ट से उद्धृत किया: “जब बैंक बेहतर कर रहे थे, तब उनके कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह दी जा रही थी. जब बैंक खराब प्रदर्शन कर रहे थे तब भी उनके कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह दी जा रहती थी. जब बैंकों ने बेहद खराब प्रदर्शन किया तो करदाताओं ने उनकी जमानत ली और उनके कर्मचारियों को तब भी अच्छी तनख्वाह दी गयी. जैसे-जैसे मुनाफा कम होता गया, उनके बोनस और दूसरे पारितोषिकों में कोई कमी नहीं आयी.”

ध्यान दें  कि  पिछले सप्ताह प्रणव की मितव्ययिताओं की प्रार्थना ने बेहद-अमीरों के प्रवक्ताओं को टीवी पर बहुत जोरशोर से यह कहते हुए देखा कि घाटा पूरी तरह से “एक के बाद एक होने वाली लोकलुभावन कार्यवाहियों” की वजह से है, जिसमे  ऐसे मूर्खतापूर्ण काम शामिल हैं,- जैसे लोगों को काम देना, भुखमरी को कम करना, बच्चों को स्कूल भेजना. इसमें धनाड्य वर्ग के लिये किये गये लुभावने कामों का कोई जिक्र नहीं है जिसमें  इन्ही प्रणव के बजट के माध्यम से कारपोरेट टैक्स, उत्पाद और सीमा शुल्क में रियायत देकर लगभग ५ लाख करोड़ रुपये (उस समय लगभग १०० बिलियन डॉलर) मुख्य रूप से अमीर और कारपोरेट वर्ग को तोहफे में दे दिये गये. सीताराम येचुरी ने इस बात की ओर संसद का ध्यान दिलाया है कि बेहद-अमीरों के लिये बट्टे खाते में डाले गये इन पैसों की वजह से राजकोषीय घाटा ८,००० करोड़ रुपये ज्यादा बढ़ गया है. परन्तु वह गरीबों के लिये किये जाने वाले “लोकलुभावन काम” हैं जिन्हें आलोचना झेलनी पड़ती है.

अमर्त्य सेन खेदपूर्वक पूछते हैं कि “राजस्व से सम्बंधित समस्याओं पर मिडिया में किसी भी तरह की बहस क्यों नहीं होती है, जैसे कि सोने और चांदी को सीमा शुल्क में छूट, वित्त मंत्रालय के अनुसार, इसमें राजस्व को उससे ज्यादा राशि का नुकसान शामिल है (प्रति वर्ष ५०,००० करोड़ रूपये) जितनी खाद्य सुरक्षा बिल के लिये जरूरी अतिरिक्त राशि (२७,००० करोड़ रूपये) है.”

इस सर्वगुण संपन्न सम्मोहक दायरे के बाहर रहने वाले भारतीय एक अलग तरह की मितव्ययिता जानते हैं. खाद्य मुद्रास्फीति दो अंको में है. एक साल में सब्जियों के दाम ६० प्रतिशत बढ़ चुके हैं. बच्चों में कुपोषण सब-सहारा अफ्रीका से दोगुना है. परिवार दूध और दूसरी जरुरी चीजों का उपयोग तेजी से कम कर रहे हैं. स्वास्थ्य सेवाओं में भारी वृद्धि लाखों लोगों को कंगाल कर रही है. किसान निवेश करने में और कर्ज हासिल करने में असमर्थ हैं. बहुत से लोगों को पीने के पानी की कमी है, जैसे- जैसे इस जीवनदायिनी वस्तु को दूसरे कामों के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है. उच्च वर्ग के लिये मितव्ययिता का अभ्यास करना कितना बेहतर होगा.  
(द हिन्दू में प्रकाशित पी. साईनाथ के लेख की आभार सहित प्रस्तुति. अनुवाद- दिनेश पोसवाल)  

1 comment:

  1. And this same fellow, using toilet worth RS 350000/-. just shame

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