-कुलदीप नैयर
अमेरिकी पाक्षिक, न्यू यॉर्कर
ने टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के संचालक जैन बंधुओं- समीर और विनीत के बारे में जो कुछ
भी बताया है, वह बहुत से लोगों को पहले से ही पता है. इसमें न्यू यॉर्कर का योगदान
बस इतना है कि उसने शक-शुबहा दूर कर दिया और इस बात को पक्का कर दिया कि देश के
सबसे बड़े मीडिया मुगल इस बात में यकीन करते हैं कि समाचार कॉलमों के मामले में कुछ
भी पवित्र नहीं है और एक तय कीमत पर उन्हें बेचा जा सकता है, क्योंकि उनके लिये
अखबार उसी तरह एक बिकाऊ माल है, जैसे देह पर मले जानेवाले सुगंधित पाउडर या
टूथपेस्ट.
एक पाठक यह जानकार हतप्रभ हो
सकता है कि जिस खबर को वह उत्सुकतापूर्वक पढ़ता है उसे पैसा देकर छपवाया गया है. उसकी
कुंठा और लाचारी और बढ़ जाती है, क्योंकि उसे इस बात का पता नहीं चलता कि इस कहानी
का कौन-सा हिस्सा खबर है और कौन-सा हिस्सा फर्जी.
संपादकीय मानकों का यह उलंघन जैन बधुओं को परेशान नहीं करता, क्योंकि वे इस उद्योग
को पैसा कमाने के एक कारोबार की तरह इस्तेमाल करते हैं. वे इस बात से गर्व महसूस
करते हैं कि उन्होंने नैतिकता को तार-तार करके चीथड़ों में बदल दिया है और इसके बावजूद
उनका अखबार भारत में अव्वल दर्जे का है. इतना ही नहीं, वे शायद दुनिया भर में किसी
भी दूसरे अखबार से कहीं ज्यादा पैसा कमाते हैं. महान रूपर्ट मर्डोक का साम्राज्य भले
ही टाइम्स ऑफ इंडिया से २० गुणा ज्यादा बड़ा है, फिर भी उसका मुनाफा इससे कम है.
अपने नौ-पृष्ठ के लेख में, उक्त
पाक्षिक यह वर्णन करता है कि जैन बंधु पत्रकारिता को सिर्फ “एक जरुरी सिरदर्द की
तरह लेते हैं और विज्ञापनदाताओं का असली ग्राहकों की तरह अभिनन्दन करते हैं.” यह
आश्चर्य की बात नहीं है कि टाइम्स ऑफ इंडिया अपनी मुद्रण लाइन में अपने संपादकों
का नाम नहीं छापता, क्योंकि दरअसल अखबार का कोई संपादक है ही नहीं.
उन्होंने नहीं, किसी और ने बहुत
पहले कहा था कि अखबार में लिखना विज्ञापनों के पिछले पन्ने पर लिखने के समान है.
जैन बंधु इस तथ्य और इसकी भावना दोनों को अमल में लाते. “हम जानते थे कि हम सुधी
श्रोताओं को एकत्रित करने के कारोबार में लगे हैं. इससे पहले, हम सिर्फ विज्ञापन के
लिए स्थान बेचते थे.” न्यू यॉर्कर के उक्त लेख में प्रत्यक्ष रूप में जैन बंधुओं का कोई उद्धरण मौजूद
नहीं है. शायद उन्होंने साक्षात्कार देने से इंकार कर दिया हो.
फिर भी, उनके कुछ पिट्ठू, शुक्र
है कि उनमें से कोई भी संपादकीय खेमे का नहीं है, उनके दिमाग में झाँकने का अवसर
प्रदान करते हैं. एक पिट्ठू कहता है: ”संपादकों में 80-80 शब्दों के लंबे वाक्य बोलते
हुए, मंच से आडंबरपूर्ण और कानफोडू भाषण देने की प्रवृति पायी जाति हैं.” विनीत जैन
इस बारे में एकदम स्पष्ट हैं कि अखबार के कारोबार में सफल होने के लिये आपको
संपादकों की तरह नहीं सोचना चाहिये. “अगर आप संपादकीय विचार के हैं, तो आपके सभी
फैसले गलत होंगें.”
यह सच है कि जैन बंधुओं ने
अखबार को “समाचारों” के कागजी कारोबार में तब्दील कर दिया है. परन्तु ऐसा इसलिये,
क्योंकि उन्होंने अपने अखबार को सहेजने की कला में महारत हासिल कर लिया है, उसे
सस्ता कर दिया है और उसे पीत पत्रकारिता के स्तर तक नीचे गिरा दिया है. फिर भी, वे
इसकी परवाह नहीं करते, क्योंकि वे एक पेशे को व्यवसाय बनाने में माहिर हैं. उनके
लिये संपादक एक दिहाड़ी मजदूर से भी सस्ते होते हैं.
मुझे एक पुरानी घटना याद आ रही
है, टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक गिरिलाल जैन ने एक दिन मुझे फोन करके पूछा कि क्या
आप अखबार के मालिक अशोक जैन से जिनसे आपकी अच्छी जान-पहचान है, इस बारे में बात कर
सकते हैं कि वे अपने बेटे समीर जैन को म्रेरे ऊपर दबाव डालने से मना करें. गिरी ने
कहा कि अशोक जैन की प्राथमिकतायें चाहे जो भी रही हों, वे उनके साथ अच्छा व्यवहार
करते थे, लेकिन समीर का रवैया अपमानजनक था. अशोक ने जवाब में कहा कि वह चाहे तो
कितने भी गिरिलाल खरीद सकता है, लेकिन वह एक भी ऐसा समीर नही ढूँढ सकता जिसने उसके
मुनाफे को आठ गुणा बढ़ा दिया है. इन्दर मल्होत्रा ने एक बार मुझे बताया कि समीर
कैसे वरिष्ठ पत्रकारों को संस्था के द्वारा भेजे जाने वाले कार्ड्स पर अतिथियों के
नाम लिखने के लिए अपने कमरे के फर्श पर बैठने के लिये मजबूर करता था.
जैन बंधुओं ने पैसे कमाने के
अपने कारोबार में अखबार को एक बकवास गप्पबाजी तक सीमित कर दिया है. पत्रकारिता
उनके कारोबार के लिए सुविधाजनक है. इसे सुनिश्चित करने के लिये, न्यू यॉर्कर के
अनुसार यह अखबार “हत्याओं और बलात्कार और दुर्घटनाओं और सुनामी की ख़बरों में भी आशावाद
की एक छौंक लगाने का प्रयास करता है और युवाओं से प्रेरक संवाद कायम करने को
प्राथमिकता देता है. गरीबी से संबंधित ख़बरों को कम प्राथमिकता दी जाती है.”
पिछले कुछ सालों में कारोबार और
प्रबंधन विभागों को ज्यादा महत्व मिलने लगा है. मैं सोचता हूँ कि आपातकाल के दौरान
प्रेस का दब्बू रुख इसकी एक वजह है जिसके चलते व्यावसायिक हितों को ज्यादा महत्व मिलने लगा है.
जब यह देखा गया कि संपादन का काम करने वालों ने बिना कोई संघर्ष किये हथियार डाल
दिया, तो प्रबंधकों ने उन्हें उस पूर्व-प्रतिष्ठत स्थान से नीचे गिराना शुरू कर
दिया जिस पर पहले उनका कब्ज़ा था. अब वे कारोबारी पक्ष के ताबेदार की भूमिका में
हैं. हम लोग जरूरी कारोबारि प्रेस नोट कूड़ेदान में फेंक दिया करते थे.
चूँकि कारोबार और सम्पादकीय के
बीच का रिश्ता धुंधला पड़ चुका है, इसलिये स्वतंत्र अभिव्यक्ति सीमित होती जा रही
हैं और रोजबरोज होने वाली दखलअंदाजी बढ़ती जा रही है. यह एक खुला रहस्य है कि
प्रबंधन या कारोबारी पक्ष अपने आर्थिक और राजनैतिक हितों के अनुसार एक विशेष लाइन निर्धारित
करता है. यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि बहुत से मालिक राज्य सभा के वर्तमान
सदस्य हैं बल्कि यह तथ्य ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वे कृपादृष्टि पाने के लिये
राजनैतिक पार्टियों से संबंध बढ़ाते हैं.
पार्टियों या संरक्षकों के
प्रति उनका आभार और उनकी निकटता अख़बारों के स्तंभों में प्रतिबिम्बित होती है. यही
संबंध अब खुद को “पैसा लेकर छापी गयी ख़बरों” में तब्दील कर चुके हैं. ख़बरों को इस
ढंग से लिखने की माँग की जाती है जिससे एक व्यक्ति विशेष या खास दृष्टिकोण को
समाचार स्तंभों में व्यक्त किया जा सके. पाठक कभी-कभी ही पकड़ पाते हैं कि कब सूचनाओं
में प्रोपगैंडा घुसा दिया जाता है या कब समाचार स्तंभों की विषय वस्तु में विज्ञापनों
को ठूँस दिया जाता है.
इसलिये, अब वक्त आ गया है कि
अख़बारों, टेलीविजन और रेडियो के सभी पहलुओं की जाँच-पड़ताल करने के लिये एक मीडिया
आयोग की स्थापना की जानी चाहिये. 1977 में जब आखिरी प्रेस आयोग नियुक्त किया गया
था, तब उसमें टेलीविजन शामिल नहीं था, क्योंकि उस वक्त भारत में इसका अस्तित्व
नहीं था. दूसरी चीजों के अतिरिक्त, मीडिया के सभी पहलुओं की जाँच-पड़ताल होनी
चाहिये, मालिकों और
संपादकों, पत्रकारों और मालिकों के बीच के संबंधों की जाँच होनी चाहिये, जिन्होंने
वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट (कार्यरत पत्रकार कानून) की आड़ में ठेका व्यवस्था लागू की.
साथ ही, टीवी और मुद्रित ससमाचार माध्यम के बीच संयोजन की भी जाँच होनी चाहिये. आज
कोई भी अखबार किसी टेलीविजन चैनल या रेडियो का मालिक हो सकता है. एक ही घराने
द्वारा परस्पर विरोधी मीडिया का स्वामित्व
हासिल करने पर कोई रोंक नहीं है. एकाधिकारी संघों को बढ़ावा मिलता है जो अंततः
प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है.
सत्ताधारी पार्टी, कुछ ऐसे
कारणों से जिनके बारे में उसे ही पता होगा, मीडिया आयोग की नियुक्ति नहीं करना चाहता.
क्या ऐसा जैन बंधुओं के प्रभाव के कारण है जिन्हें बहुत से सवालों का जवाब देना
होगा? जैन बंधुओं को यह समझना होगा कि एक लेखक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
अधिकार इसलिये दिया गया था ताकि वह बिना किसी भय या पक्षपात के कुछ भी कह सके. अगर
मालिक ही यह तय करने लगे कि कर्मचारी क्या कहेंगे तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर
गंभीर प्रश्न खड़ा करता है. लोकतंत्र में, जहाँ स्वतंत्र सूचनायें स्वतंत्र
प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा देती हैं, वहाँ प्रेस को कुछ लोगों की सनक पर नहीं छोड़ा जा
सकता. प्रतिबंधित प्रेस, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी को नष्ट कर
सकता है.
(लेखक, कुलदीप नैयर ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त और राज्य सभा के सदस्य रह
चुके हैं. मूल अंग्रेजी लेख गल्फ न्यूज से आभार सहित लिया गया. अनुवाद- दिनेश
पोसवाल)
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