Tuesday, October 30, 2012

कवि का दायित्व -पाब्लो नेरुदा


जो शख्स नहीं सुन रहा है समन्दर की आवाज़
आज, शुक्रवार की सुबह, जो शख्स कैद है
घर या दफ्तर, कारखाना या औरत के आगोश में
या सडक या खदान या बेरहम जेल के तहखाने में
आता हूँ मैं उसके करीब, और बिना बोले, बिना देखे,
जाकर खोल देता हूँ काल कोठरी का दरवाजा
और शुरू होता है एक स्पंदन, धुंधली और हठीली,
बादलों की गड़गड़ाहट धीरे-धीरे पकडती है रफ़्तार
मिलती है धरती की धड़कन और समुद्री-झाग से,
समुद्री झंझावात से उफनती नदियाँ,
जगमग तारे अपने प्रभामंडल में,
और टकराती, टूटती, सागर की लहरें लगातार.

इसलिए, जब मुकद्दर यहाँ खींच लायी है मुझे,
तो सुनना होगा मुसलसल सागर का बिलखना
और सहेजना होगा पूरी तरह जागरूक हो कर,
महसूसना होगा खारे पानी का टकराना और टूटना
और हिफाजत से जमा करना होगा एक मुस्तकिल प्याले में
ताकि जहाँ कहीं भी कैद में पड़े हों लोग,
जहाँ कहीं भी भुगत रहे हों पतझड़ की प्रताड़ना,
वहाँ एक आवारा लहर की तरह,
पहुँच सकूँ खिड़कियों से होकर,
और उम्मीद भरी निगाहें मेरी आवाज़ की ओर निहारें,  
यह कहते हुए कि ‘हम सागर तक कैसे पहुंचेंगे?’
और बिना कुछ कहे, मैं फैला दूँ उन तक
लहरों की सितारों जैसी अनुगूँज,
हर हिलोर के साथ फेन और रेत का बिखरना,
पीछे लौटते नामक की सरसराहट,
तट पर समुद्र-पांखियों की सुरमई कूक.
इस तरह पहुँचेंगे मेरे जरिये
टूटे हुए दिल तक आजादी और सागर. 

( अनुवाद - दिगम्बर )

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