-डॉ. नवनीत किशोर
हर साल की तरह इस साल भी देश के कई राज्यों में मासूम
बच्चे एक-एक करके दिमागी बुखार की चपेट में आकर दम तोड़ रहे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और असम के कई जिलों के मासूम बच्चे दिमागी बुखार
के कारण मौत को गले लगा चुके हैं, दुःखद यह है कि
ये सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है।
बिहार के अपर स्वास्थ्य सचिव के अनुसार अब तक लगभग
600 बच्चे दिमागी बुखार की चपेट में आ चुके हैं तथा इनमें से 233 मौत की नींद सो चुके है। सभी मामले बिहार के 10 जिलों के हैं। कुल मौतों में से 163 मौत अकेले जिला मुजफ्फरपुर में हुई हैं, बाकि ज्यादातर पटना और गया जिलों में हुई हैं।
असम में कुल 50 बच्चों की मौत हो चुकी है। अकेले सिबसागर जिले में 22 मौतें हो चुकी हैं।, असम के अन्य प्रभावित जिले शिव सागर, डुबरी, मोरीगाँव, दारंग व नालवाड़ी है।
एक साथ इतने सारे मासूम बच्चों की मौतें दिल को दहलाती
तो हैं ही, साथ ही कई सारे सवाल भी खड़े करती हैं-
1. क्या इतनी सारी मौतों को रोका जा सकता था।
2. क्या नैनो टेक्नोलॉजी और गॉड पार्टीकल की खोज करने
वाला विज्ञान इसके समाधान में असमर्थ है।
3. क्या दिमागी बुखार से मुक्ति पाना मानवीय सीमाओं
से परे है।
जवाब है? नहीं, कतई नहीं।
आज का विज्ञान इस बिमारी के फैलने के कारणों और उसे
रोकने के तरीकों से अच्छी तरह वाकिफ है। विज्ञान के पास इस बिमारी से लड़ने के पर्याप्त
हथियार भी हैं। हमारे पास इस बिमारी की समझ तो पर्याप्त है, लेकिन कमी कुछ है तो
इसे व्यापक पैमाने पर लागू करने की इच्छाशक्ति की है, जिसका इस व्यवस्था के हृदयहीन संचालकों में नितान्त अभाव है।
आज वैज्ञानिकों ने इस बिमारी से बचने के लिए टीका
तो विकसित कर लिया है, लेकिन आम जनता की आर्थिक-सामाजिक हैसियत और सरकारी
पहलकदमी के अभाव में यह टीका आम जन तक समय पर नहीं पहुँच पाता। पिछले साल असम में यह
टीका टीकाकरण के माध्यम से जनता के पास पहुँचाने का प्रयास तो किया गया, लेकिन यह प्रयास भी आधे-अधूरे ही रह गये। बिहार और उत्तर प्रदेश
में तो इस तरह का नाममात्रा का दिखावा भी नहीं किया गया।
ध्यान देने लायक बात यह है कि चीन, जापान, कोरिया, ताईवान, वियतनाम और कम्बोडिया
आदि देशों में इसी टीके के दम पर दिमागी बुखार को बहुत हद तक नियंत्रिते किया गया है।
आपात स्थिति में बच्चों व सुअरों को टीकाकरण करना नितान्त आवश्यक होता है। गौरतलब है
कि यह बिमारी मुख्यतः गरीब तबके के बच्चों को ही प्रभावित करती है, जो लोग इस टीके का खर्च वहन नहीं कर सकते हैं।
यह काम बिना सरकारी प्रयास के असम्भवप्राय है। हमारी
सरकार के पास 100 पूँजीपतियों को बचाने के लिए 5 लाख करोड़ से ज्यादा रुपये तो हैं, लेकिन गरीब जनता को देने के नाम पर सरकार छाती पीट-पीट कर खुद
को दिवालिया बताती है।
यह बिमारी क्यूलैक्स नामक मच्छर से फैलती है। जब
वे मच्छर संक्रमित सुअर को काटते हैं तो स्वयं संक्रमित होकर किसी भी व्यक्ति को काटकर
उसे संक्रमित कर देते है। एक बार बिमारी होने पर इसका इलाज बेहद मुश्किल होता है, लेकिन इससे बचाव करना तथा फैलने से रोकना कठिन नहीं है।
इस बिमारी को फैलने से दो तरीकों से रोका जा सकता
है। पहला, मच्छर के काटने से बचाव करके और दूसरा, मच्छर व उसके अण्डों को नष्ट करके।
जल जमाव को रोक कर, मच्छरों के पनपने के स्थानों को नष्ट किया जा सकता है, लेकिन चप्पे-चप्पे पर जाकर जल भराव को सरकार स्वयं नष्ट नहीं
करती है और जो व्यवस्था आम जन तक शिक्षा नहीं पहुँचा पायी, वह जटिल बिमारियों से लड़ने की जागृति और चेतना कहाँ से दे सकती
है।
प्रभावित क्षेत्रों में समय रहते बड़े पैमाने पर फॉगिंग
व अन्य दवाओं का छिड़काव किया जाना चाहिए। मगर आपदा आने के बाद ही सरकार की नींद टूटती
है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। चूँकि यह मच्छर घरों के बाहर
खेतों और गड्ढों में पनपता हैं, तो महामारी की स्थिति
से हैलीकॉप्टर आदि से भी छिड़काव किया जाना चाहिए, लेकिन हमारे देश में हैलीकॉप्टर से नेताओं की सेन्डिल लाने का खर्च तो वहन किया
जा सकता है, गरीब बच्चों को बचाने के नाम पर यह बेहद खर्चीला
कार्यक्रम हो जाता है।
सुअरों के बड़े की 2 किमी की परिधि में फॉगिंग नितान्त आवश्यक होती है। संक्रमित
सुअरों के मालिकों को उचित मुआवजा देने के बाद सुअरों को नष्ट किया जाना चाहिये, लेकिन मुआवजा (बेल आउट पैकेज) तो हमारे देश में सिर्फ उद्योगपतियों
को ही दिया जाता है।
मच्छरों से निजी सुरक्षा के लिए ऊँचे जूते, पूरे तन को ढकने वाले कपड़े, मच्छर रोधी उपकरण (और मच्छर भगाने
वाले साधन) का प्रयोग करना चाहिए। माहमारी फैलने के समय तो सरकार कागजोन में दवायुक्त
मच्छरदानी भी सर्वजन को वितरित करती है।
विज्ञान कहता है कि सूअर पालन में लगे लोगों को व
उनके परिवार के लोगों को ऊँचे जूते, मास्क, चश्मा, पूरे बदन को ढकने वाले कपडे़ पहन कर रखना चाहिए। यह तो इस देश का बच्चा भी जानता
है कि कम आर्थिक हैसियत वाले इन लोगों को इस तरह का सुझाव देना भी उनका मजाक उड़ाना
है।
कुल मिलाकर इस बिमारी का महत्त्व वैज्ञानिक कम, आर्थिक व सामाजिक
अधिक है। यह बिमारी गरीब लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करती है, इसलिए व्यवस्था के नुमाइन्दे इससे प्रायः मुँह मोडे़ रहते हैं।
दिल्ली में डेंगू और स्वाइन फ्लू पर जितना बवाल मचता है और जितनी मुस्तैदी दिखायी जाती
है वह इन मासूमों की मौत पर कहीं नजर नहीं आती। हर साल हजारों की संख्या में दिमागी
बुखार से गरीबों के बच्चे मर रहे हैं, फिर भी यह देश की कोई खास समस्या नहीं है। चूंकि
यह समस्या सामाजिक, आर्थिक, विषमता की जमीन पर ही पनपती है, इसलिए इस गैरबराबरी को समाप्त किये बिना इस समस्या
और ऐसी ही तमाम समस्याओं का भी समाधान असम्भव है।
यह समझना आवश्यक है कि सामाजिक गैरबराबरी की जड़ भी
आर्थिक गैरबराबरी में होती है। गैरबराबरी वाले समाज में गरीब तबके के लोगों की उपेक्षा
होना लाजमी है। दिमागी बुखार के अलावा निचले तत्व में फैलने वाली अन्य सभी बिमारियों
के खिलाफ संघर्ष इस गैरबराबरी वाली व्यवस्था को नष्ट करने के लिए निर्णायक संघर्ष का
ही एक जरूरी हिस्सा है।
चिंताजनक हालात है ...
ReplyDeleteकारगिल युद्ध के शहीदों को याद करते हुये लगाई है आज की ब्लॉग बुलेटिन ... जिस मे शामिल है आपकी यह पोस्ट भी – देखिये - कारगिल विजय दिवस 2012 - बस इतना याद रहे ... एक साथी और भी था ... ब्लॉग बुलेटिन – सादर धन्यवाद