Friday, June 15, 2012

इतिहास की एक दुष्ट शक्ति : घमंड


-- पाल क्रेग रोबर्ट्स

(पॉल क्रेग रोबर्ट्स वाल स्ट्रीट जोर्नल और बिजनेस वीक सकित कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे हैं और अमरीकी प्रशासन के प्रमुख पदों पर काम कर चुके हैं. पिछले दिनों अपनी कई रचनाओं में उन्होंने अमरीकी साम्राज्यवाद की उद्धत और आक्रामक नीतियों का भंडाफोड़ किया है. यह टिप्पणी http://www.informationclearinghouse.info से ली गयी है. अनुवाद- दिनेश पोसवाल.)



बुल रन की लड़ाई, यानी अमरीकी गृहयुद्ध की पहली भीषण लड़ाई (21 जुलाई 1861) को लेकर हमेशा मेरे मन में कुतूहल बना रहा, जिसे दक्षिणवासी उत्तरी आक्रमण की लड़ाई के रूप में जानते हैं. अत्याधिक घमंड दोनों पक्षों की लाक्षणिक विशेषता थी, युद्ध से पहले उत्तर और बाद के दौर में दक्षिण की तरफ से.

अमरीकी संघीय सेना द्वारा कैसे एक ही झटके में “उत्तरी विद्रोह” का अन्त कर दिया जायेगा, इसे देखने के लिये रिपब्लिकन नेता और उनके घर की महिलायें अपनी गाड़ियों में सजधज कर वरजीनिया के एक क़स्बे- मनसास की ओर जाने वाली सड़क पर पहुंचे, जिससे होकर बुल रन के युद्ध की धारा बह रही थी. लेकिन वे जिस दृश्य के प्रत्यक्षदर्शी बने, वह था- संघीय सेना का दुम दबाकर वापस वाशिंगटन की ओर भागना. उत्तरी सेनाओं के इस पलायन ने ही दक्षिण के कुछ मसखरों को इस लड़ाई का नाम, यांकी भगोड़ों की लड़ाई रखने के लिये प्रेरित किया.

इस लड़ाई के नतीजे ने, दक्षिण को घमंड से भर दिया, जबकि उत्तर वालों के लिये अहंकार अब अतीत की बात हो गयी थी. दक्षिण वालों ने निष्कर्ष निकाला कि उन्हें उन कायरों से डरने की कोई जरुरत नहीं है जो लड़ाई का मैदान छोड़कर भाग गये. “हमें उनकी तरफ से चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है,” दक्षिण ने निर्णय लिया. यही वह निर्णायक पल था जब घमंड ने दक्षिण को पराजित कर दिया.

इतिहासकार लिखते हैं कि वाशिंगटन की ओर पलायन की इस घटना ने तीन सप्ताह के लिये संघीय सेना और अमेरिकी राजधानी को अव्यवस्था की ऐसी हालत में ला दिया था कि उस दौरान कोई छोटी-सी सेना भी राजधानी पर कब्ज़ा कर सकती थी. जो इतिहासकार इस लड़ाई में दक्षिण जीत को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं, उनका दावा है कि दक्षिणवाले यांकी सेना को भागने के लिये मजबूर करने के अपने प्रयासों की वजह से बुरी तरह थक गये थे. उनमें इतनी ऊर्जा शेष नहीं थी कि वे उनका पीछा करते, वाशिंगटन को कब्ज़े में कर लेते, गद्दार लिंकन और दूसरे रिपब्लिकन को फांसी चढ़ा देते और लड़ाई का अन्त कर देते.

सेना चाहे थकन से लस्त-पस्त होती या नहीं, लेकिन उस वक्त अगर दक्षिण का जनरल नेपोलियन होता, तो संगठित दक्षिणी सेना असंगठित संघीय सेना के पीछे-पीछे वाशिंगटन पहुँच जाती. तब शायद दक्षिणवासी यांकियों को गुलाम बनाकर और उन्हें अफ्रीकावालों को बेचकर जातीय सफाये में लित्प हो जाते और इस तरह वे लालच से प्रेरित उन उत्तरी साम्राज्यवादियों को देश से बाहर खदेड़ देते, जो दक्षिण की राय में, इस बात को नहीं जानते थे कि एकांत में और सार्वजनिक स्थलों पर किस तरह व्यवहार करना चाहिये.

दक्षिणवालों की थकावट ही थी जिसने उत्तर को मुसीबतों से बचा लिया. यह दक्षिणवालों का घमंड था. बुल रन की लड़ाई ने दक्षिण को यह विश्वास दिला दिया कि शहरी उत्तरवाले लड़ाई कर ही नहीं सकते थे और वे सैन्य खतरा नहीं थे.

शायद उत्तरवालों के बारे में दक्षिणवाले सही थे. लेकिन, जो आयरिश अप्रवासी उन्हें गोदी पर मिले और जिन्हें सीधा लड़ाई के मैदान में भेज दिया गया, वे लड़ सकते थे. दक्षिणवाले अचानक संख्या में कम पड़ गये और वे अपने घायल सैनिकों की वजह से पैदा हुयी खाली जगह भरने के लिये अप्रवासियों को भी नहीं जुटा सकते थे. इसके अतिरिक्त, दक्षिण के पास कोई उद्योग या नौसेना भी नहीं थी. और निश्चय ही, दक्षिण गुलामों की वजह से संतप्त था, हालाँकि गुलामों ने कभी विद्रोह नहीं किया, तब भी नहीं जब सारे दक्षिणवाले युद्ध के मैदान में थे. दक्षिण बुल रन में अपनी विजय का फायदा उठाने और वाशिंगटन पर कब्ज़ा करने में जिस क्षण असफल हुआ, तभी वह इस लड़ाई को हार गया था.

घमंड की जाँच-पड़ताल लड़ाइयों पर, उनके कारणों पर और नतीजों पर काफी रोशनी डालती है. रूस की ओर कूच करके नेपोलियन ने अपना खुद का काम बिगाड़ लिया था, जैसा बाद में हिटलर ने भी किया. ब्रिटिश घमंड दोनों विश्वयुद्धों का कारण बना. द्वितीय विश्वयुद्ध तब शुरू हुआ जब अंगरेजों ने बिना सोचे-समझे पोलैंड के उन कर्नलों को “गारंटी” दे दी, जो जर्मनी के उस हिस्से को वापस करने के लिये लगभग तैयार थे जिन्हें वर्साई समझोते के तहत पोलैंड ने अपने अधिकार में कर लिया था. कर्नल, जो यह समझ नहीं पाये कि ब्रिटेनवालों के पास अपनी गारंटी पूरी करने का कोई जरिया नहीं, उन्होंने हिटलर का मजाक उड़ाया, एक ऐसी अवज्ञा जो हिटलर के लिये असहनीय थी, उसने पहले ही यह घोषणा कर रखी थी कि जर्मन विशिष्ट लोग हैं.

हिटलर ने पोलैंड पर हमला कर दिया, और ब्रिटेन और फ्रांस ने युद्ध की घोषणा कर दी.

हिटलर ने जल्दी ही फ़्रांसिसी और ब्रिटिश सेनाओं को निपटा दिया. लेकिन चैनल के पीछे छुपे हुए, घमंड में चूर ब्रिटेनवालों ने आत्मसमर्पण नहीं किया और न ही वे एक लाभदायक शांति समझौते के लिये तैयार हुए. हिटलर ने यह निष्कर्ष निकाला कि ब्रिटिश अपनी तरफ से रूस के युद्ध में भाग लेने पर आस लगाए हुए हैं. हिटलर ने तय किया कि अगर वह रूस को काबू में कर लेगा, तो ब्रिटेनवालों की उम्मीदें हवा हो जायेंगी और वे शांति समझौते के लिये तैयार हो जायेंगे. तब हिटलर ने अपने रुसी सहयोगी की ओर रुख किया.

इन सब घमंडों का परिणाम था, अमरीकी सैन्य/सुरक्षा समूह का उभार और चार दशकों तक चलने वाला शीतयुद्ध और नाभकीय विनाश की धमकी, एक ऐसा दौर जो द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्त के बाद से तब तक चला जब दो नेता- रीगन और गोर्बाचोव, जो घमंड में चूर नहीं थे, शीतयुद्ध का अन्त करने पर सहमत हो गये.

लेकिन अफ़सोस, नवरूढ़िवाद के उभार के साथ घमंड अमरीका के सिर चढ़ कर बोलने लगा. अमरीकावासी अब दुनिया के लिए “अपरिहार्य लोग” बन गये हैं. फ़्रांसिसी क्रांति के उन जकोबियंस की तरह जो “उदारता, समानता, और भाईचारे” को पूरे यूरोप पर थोप देने का इरादा रखते थे, वाशिंगटन अब अमरीकी (साम्राज्यवादी) तौर-तरीके की श्रेष्ठता पर जोर देता है और सारी दुनिया पर इसे थोपना अपना अधिकार मानता है. अपनी पराजयों के बावजूद उसका घमंड पूरे शबाब पर है. “तीन सप्ताह” का इराकी युद्ध आठ साल तक चला, और हमले के 11 साल  बाद भी अफगानिस्तान में तालिबान “दुनिया की एकमात्र महाशक्ति” से ज्यादा इलाके पर अपना नियंत्रण बनाये हुए हैं.

आज नहीं तो कल, अमेरिकी घमंड का सामना रूस या चीन से होगा, दोनों में से कोई भी पीछे नहीं हटेगा. या तो नेपोलियन और हिटलर की तरह, अमेरिका को भी रुसी (या चीनी) लम्हे से साबका पड़ेगा या दुनिया नाभकीय युद्ध की चपेट में आकार पूरी तरह नष्ट हो जायेगी.

मानवता के लिये इसका एकमात्र हल युद्ध भड़काने वालों को पहली नजर में ही पहचान कर, उन पर फ़ौरन अभियोग लगाना और उन्हें बंदी बना लेना है, इससे पहले की उनके घमंड हमें एक बार फिर मौत और विनाश की ओर, युद्ध की राह पर ले जायें.   


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