Sunday, July 1, 2012

मिस्र में राजनीतिक इस्लाम की जीत के मायने – सामीर अमीन




(कल 30 जून को मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता मोहम्मद मोरसी ने उसी तहरीर चौक पर राष्ट्रपति पद की शपथ ली जहाँ से होस्नी मुबारक की निरंकुश सत्ता के खिलाफ वहाँ के लाखों लोगों ने अपनी आवाज बुलंद की थी. लोकतंत्र, न्याय और समता की यह लड़ाई अभी भी जारी है क्योंकि जिस लक्ष्य को लेकर मिस्र का अवाम उठ खड़ा हुआ था, उसे अमरीका, इजराइल और उनके पिट्ठू अरब शासकों ने अपनी साजिशों का शिकार बना दिया. यही कारण है कि आज भी तहरीर चौक प्रतिरोध का झंझाकेंद्र बना हुआ है. प्रस्तुत है, मिस्र की ताजा घटनाओं पर वहाँ के एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री सामीर अमीन की यह टिप्पणी.)

मिस्र के चुनाव (जनवरी 2012) में मुस्लिम ब्रदरहुड और सलाफपंथियों की जीत कोई चौंकानेवाली बात नहीं. पूँजी के मौजूदा वैश्वीकरण ने जिस आर्थिक पतन को जन्म दिया है, उसके चलते वहाँ तथाकथित “अनौपचारिक” गतिविधियों में बेशुमार बढ़ोतरी हुई है. मिस्र की आधी से भी अधिक आबादी (आकडों के अनुसार 60% जनता) इसी अनौपचारिक क्षेत्र से अपनी जीविका चलती है.

मुस्लिम ब्रदरहुड इस पतन का लाभ उठाने और अपनी तादाद बढ़ाने के लिहाज से वहाँ काफी बेहतर हालत में रही है. उनकी एक तरफ़ा विचारधारा उस दुखद बाज़ार अर्थव्यवस्था को उचित ठहराती है जो किसी भी तरह के विकास की जरूरतों के पूरी तरह खिलाफ है. मुस्लिम ब्रदरहुड की गतिविधियों, जैसे- अनौपचारिक को आर्थिक सहायता, परोपकारी सेवाओं, अस्पताल, इत्यादि के लिए भारी मात्रा में वित्तीय साधन मुहैया किया गया.

इस तरह से ब्रदरहुड ने समाज के दिल में जगह बनाई और लोगों को अपने ऊपर निर्भर बनाया. खाड़ी देशों की मंशा कभी यह नहीं रही कि अरब देशों के विकास को बढ़ावा दें, मसलन वहाँ के उद्योग में पूँजी लगाएँ. वे आंद्रे गुंदर फ्रांक के शब्दों में- एक तरह के “लम्पट विकास” की मदद करते हैं, जो सम्बंधित समाजों को कंगाली और वंचना के मकड़जाल में पूरी तरह फँसा लेता है, जिसके चलते उन समाजों के ऊपर प्रतिक्रियावादी राजनीतिक इस्लाम के शिकंजे को और मजबूती से कसने में उन्हें आसानी होती है.
इसे इतनी आसानी से कामयाबी नहीं मिल पाती, अगर यह अमरीका, इजराइल और खाड़ी देशों की सरकारों के उद्देश्यों से पूरी तरह मेल नहीं खा रहा होता. इन तीनों करीबी सहयोगियों की चिंता एक ही है- मिस्र की स्थिति में सुधार न होने देना. एक मजबूत, स्वाभिमानी मिस्र का मतलब खाड़ी देशों (समाज के इस्लामीकरण के आगे पुरि तरह समर्पण), अमरीका (एक ताबेदार और कंगाल मिस्र ही उसके प्रत्यक्ष प्रभाव के अधीन रहेगा) और इजराइल (एक शक्तिहीन मिस्र फिलिस्तीन में दखल नहीं देगा) के तिहरे दबदबे का अंत होगा.

सादात के शासन काल में मिस्र के शासकों ने अचानक और पूरी तरह से नव-उदारवाद का समर्थन और वाशिंगटन के आगे समर्पण कर दिया था, जबकि अल्जीरिया और सीरिया ने यह काम धीरे-धीरे और संयत तरीके से किया था. मुस्लिम ब्रदरहुड जो शासन तंत्र का अंग है, उसे महज एक “इस्लामिक पार्टी” नहीं माना जा सकता, बल्कि सबसे पहले और सबसे बढ़चढ़ कर यह एक अत्यंत प्रतिक्रियावादी पार्टी है जो साथ के साथ इस्लामपंथी भी है. यह केवल “सामाजिक मुद्दों” (हिजाब, शरिया, दूसरे धर्मों से दुश्मनी इत्यादि) के मामले में ही नहीं, बल्कि आर्थिक-सामाजिक जीवन के बुनियादी मामलों में भी उसी हद तक प्रतिक्रियावादी है- ब्रदरहुड हड़तालों, मजदूरों की माँगों, मजदूरों के स्वतन्त्र यूनियनों, किसानों की बेदखली के खिलाफ प्रतिरोध आंदोलन, इत्यादि का विरोधी है.

इस तरह “मिस्र की क्रांति” की योजनाबद्ध असफलता उस व्यवस्था को जारी रखने की गारंटी करेगा जिसे वहाँ सादात के दौर से ही कायम किया जाता रहा, जो सेना के उच्च अधिकारीयों और राजनीतिक इस्लाम के गंठजोड़ पर आधारित थी. निश्चय ही, ब्रदरहुड अपनी चुनावी जीत के दम पर अब उससे कहीं ज्यादा अधिकार की माँग करने में सक्षम है, जितना सेना ने उसे अब तक सौंपा था. हालाँकि इस गंठजोड़ के फायदों का ब्रदरहुड के हक में बँटवारा करना कठिन साबित हो सकता है.

24 मई को राष्ट्रपति चुनाव का पहला चक्र इस तरीके से संगठित किया गया था कि मिस्र की सत्ता पर काबिज लोगों और वाशिंगटन, दोनों के मनमाफिक उद्देश्यों को हसिल किया जा सके, यानी व्यवस्था के दो स्तंभों- सेना के उच्च अधिकारी और मुस्लिम ब्रदरहुड के गंठजोड़ को और मजबूत बनाया जाय तथा उनके बीच के मतभेदों को सुलझाया जाय (कि उनमें से कौन अगली कतार में रहेगा). इस मकसद से जो दो उम्मीदवार “स्वीकार्य” थे, सिर्फ उन्हें ही पर्याप्त साधन हासिल हुए कि वे अपना-प्रचार अभियान चला सकें- मोरसी (ब्रदरहुड- 24%) और शफीक (सेना- 23%). जनआन्दोलन के असली उम्मीदवार- एच. सब्बाही, जिन्हें सामान्य रूप से मंजूर की गयी  सुविधाएँ भी हासिल नहीं हुईं, उन्हें कथित रूप से केवल 21% वोट मिले (यह आँकड़ा संदेहास्पद है).  
   
लंबे समय तक चले समझौता वार्ताओं के अंत में इस बात पर सहमति बनी कि मोरसी ही दूसरे चक्र के विजेता हैं. राष्ट्रपति की तरह ही संसद का चुनाव भी इस्लामपंथियों को वोट देने वालों के घर बड़े-बड़े गट्ठर (मांस, तेल और चीनी) पहुँचाने के जरिये ही हो पाया. और फिर भी, “विदेशी पर्यवेक्षक” उस परिस्थिति को देख ही नहीं पाये, जिसका मिस्र में खुले आम मजाक उड़ाया गया. सेना ने संसद भंग करने में देरी की, जो दरअसल ब्रदरहुड को पर्याप्त समय देना चाहती थी, ताकि वह रोजगार, तनख्वाह, स्कूल और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक मुद्दे उठाने से इन्कार करके खुद बदनामी मोल ले.

मोरसी की “अध्यक्षता” वाली मौजूदा व्यवस्था इस बात की बेहतरीन गारंटी है कि लम्पट विकास और राज्य की संस्थाओं के विध्वंस के जिस लक्ष्य को अमरीका लगातार बढ़ावा दे रहा था, वह जारी रहेगा. हम देखेंगे कि क्रन्तिकारी आन्दोलन जो आज भी लोकतंत्र, सामाजिक प्रगति और राष्ट्रिय स्वाधीनता के लिए संघर्ष के प्रति पूरी तरह वचनबद्ध है, इस चुनावी स्वांग के बाद किस तरह आगे बढ़ता है.


(सामिर अमीन दुनिया के जानेमाने मार्क्सवादी अर्थशास्त्री है. अंग्रेजी में मंथली रिव्यू द्वारा प्रकाशित इस लेख को आभार सहित लेकर प्रकाशित किया जा रहा है. अनुवाद- दिगम्बर)

10 comments:

  1. इस ज़रूरी टिप्पणी का अनुवाद प्रस्तुत कर आपने ज़रूरी काम किया है. शुक्रिया.मैंने शेयर किया है.

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  2. समीर अमीन के इस आख्यान की बहुत जरुरत थी, अभी मिस्र के हाल में हुए बदलाव को कायदे से देखने में मदद मिलेगी. समीर अमीन साहब का एक लेख मिस्र के आंदोलन पर कुछ माह पूर्व आया था जिसमें पूरे आंदोलन की वर्गीय संरचना का जबरदस्त मूल्यांकन किया गया था, दिगंबर जी से अनुरोध है उस लेख का भी अनुवाद करें, बिना उसे पढे यह लेख भी पूरे संदर्भों में पढा/समझा नहीं जा सकेगा. आपके प्रयास की मैं प्रशंसा करता हूँ. सादर

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    1. मुझे यह लेख बहुत पसंद आया ...मेरे दोनों पसंदीदा चिंतकों समीर अमीन और फ्रांक के विचारों को साफ़-साफ़ देखकर बड़ा अच्छा लगा ...हमारा विश्लेषण भी कुछ ऐसा ही था परन्तु अब उसे कहने का कोई तुक नहीं है मगर बात जुबान से निकल गई ....माफ कीजियेगा ....

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    2. मुझे यह लेख बहुत पसंद आया ...मेरे दोनों पसंदीदा चिंतकों समीर अमीन और फ्रांक के विचारों को साफ़-साफ़ देखकर बड़ा अच्छा लगा ...हमारा विश्लेषण भी कुछ ऐसा ही था परन्तु अब उसे कहने का कोई तुक नहीं है मगर बात जुबान से निकल गई ....माफ कीजियेगा ....

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    3. धन्यवाद शम्स भाई. यदि संभव हो तो उस लेख का लिंक भेज दें, मैंने देखा तो था, लेकिन फिर से उसे ढूँढना मुश्किल होगा.

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  3. Samir Ameen ke is lekh ke liye shukriya...

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  4. इस अनुवाद के लिए शुक्रिया दिगंबर..

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  5. बदलाव क्या रुख लेगा??????????पता नहीं!

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  6. दिगंबर जी...मंथली रिव्यू के अक्टूबर २०११के अंक में समीर साहब का, एन अरब स्प्रिंगटाईम लेख है, बहुत बडा है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण... अगर आप कर सके तो बडा काम होगा, हिंदी भाषाईयों को एक खज़ाना मिल जायेगा, मिस्र और अरब स्प्रिंग को समझने में..

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  7. बहुत ही महत्वपूर्ण ... स्पष्ट करता है कि चेतना के आभाव में कोई भी क्रांति सफल नहीं हो सकती . शोषक वर्ग हर जन उभार को कैसे करने के लिए तैयार बता है . उसके एजेन्ट हर रूप में , शोषितों की वकालत करते ,हर तरफ फैले हुए है ,

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