Tuesday, August 28, 2012

दुनिया की अर्थव्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में (पाँच भागों में)


दूसरा भाग 

औद्योगिक क्रांति के बाद लगातार
200 सालों तक कोयला, पेट्रोलियम और ऊर्जा के अन्य साधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल और कच्चा माल के लिये प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन के चलते धरती तेजी से गर्म होती गयी। नतीजा यह कि साइबेरिया के बर्फीले मैदान पिघल रहे हैं और उनसे मिथेन गैस का रिसाव हो रहा है जो धरती और जलवायु के लिये कार्बन डाई ऑक्साइड से 30 गुना ज्यादा खतरनाक है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक महासागर की बर्फीली सतह और हिमालय सहित दुनियाभर के ग्लेसियर पिघलने से समुद्र का जलस्तर हर साल 2 सेंटी मीटर ऊपर उठ रहा है। इसी का नतीजा है 1998 में बांग्लादेश का 65 प्रतिशत इलाका बाढ़ में डूब गया था। 16 लाख की आबादी वाले भोला द्वीप का आधा हिस्सा बाढ़ में बह गया। अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग से पैदा होने वाली बीमारियों की चपेट में आने से बांग्लादेश के डेढ़ लाख लोग हर साल मर जाते हैं। बांग्लादेश ही नहीं, दुनिया के कई इलाके ऐसा ही प्रकोप झेल रहे हैं।

विकास के नाम पर पूँजीवाद ने पूरी दुनिया में जो विध्वंस किया है उसके कारण आज हर घंटे पौधे और जानवरों की तीन प्रजातियाँ लुप्त हो जा रही हैं । पिछले 35 सालों में ही रीढ़धारी प्राणियों की एक तिहाई प्रजातियाँ धरती से गायब हो गईं। और अब इंसानों की बारी है। पूर्वी अफ्रीका के अर्धसिंचित इलाकों में बारिस न होने के चलते इथोपिया, सोमालिया, केन्या और सूडान में लगातार सूखा पड़ रहा है । दारफुर में 1984–85 के अकाल में एक लाख लोग मर गये । यह हालत तो तब है जब कार्बन की मात्रा 3870 लाख अंश प्रति टन है। अनुमान है कि जल्दी ही यह 4000–4500 लाख अंश प्रति टन हो जाने वाला है। इसके कारण धरती का औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा और जलवायु में अचानक भारी बदलाव आयेगा। तब धरती को बचाना भी असम्भवप्राय हो जायेगा।

दुनियाभर के वैज्ञानिक धरती पर मँडराने वाले खतरे की चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन शोषकशासक पूँजीपति वर्ग के कान पर जूँ नहीं रेंगती। वे ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठकर जश्न मना रहे हैं और पूरी धरती को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। विश्व पर्यावरण सम्मेलन मजाक बन कर रह गये हैं। पृथ्वी सम्मेलन (1992) से लेकर रियो सम्मेलन (2012) तक, और इन बीस वर्षों में हुए क्वेटो, कोपेनहेगन और कानकुन बैठकों की असफलता से जाहिर है कि दुनिया के शासकों को धरती के विनाश की कोई परवाह नहीं। उल्टे अब वे जलवायु संकट या ग्लोबल वार्मिंग की सच्चाइयों को ही झुठलाने पर आमादा हैं।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के बाद से प्रकृति का दोहन और ऊर्जा का इस्तेमाल पहले से कईकई गुना अधिक हो गया है। भारत में भी आज देशीविदेशी पूँजी के नापाक गठबंधन से हर तरह के खनिज पदार्थ की लूट अपने चरम पर है। इसके लिये कानून की धज्जी उड़ाना, उन इलाकों के निवासियों को उजाड़ना और विरोध के स्वर को बंदूकों के दम पर कुचलना, औपनिवेशिक दौर में गुलाम बनाये गये देशों पर ढाये जाने वाले कहर की याद ताजा करते हैं। पहले जो दमनउत्पीड़न विदेशी आक्रांता करते थे, वही अब बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ साँठगाँठ करके अपने ही देश के शासक कर रहे हैं।

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