Tuesday, August 28, 2012

दुनिया की अर्थव्यवस्था ढाँचागत संकट की गिरफ्त में (पाँच भागों में)



आज पूरी दुनिया एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट के भंवर में गोते लगा रही है। 2007–08 में अमरीका में सबप्राइम गृह ऋण का बुलबुला फूटने के बाद शुरू हुआ वित्तीय महासंकट अब पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाएँ एकएक कर तबाह होती जा रही हैं। भारत में भी विकास का गुब्बारा पिचकने लगा है। बीस साल पहले उदारीकरणनिजीकरण की जिन नीतियों को रामबाण दवा बताते हुए लागू किया गया था, उनकी पोलपट्टी खुल चुकी है। विकास दर, विदेश व्यापार घाटा, मानव सूचकांक, महँगाई, बेरोजगारी जैसे लगभग सभी आर्थिक मानदण्ड इसकी ताईद कर रहे हैं। कमोबेश यही हालत दूसरे देशों की भी है।

विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का यह संकट ढाँचागत, सर्वग्रासी और असमाधेय है। मानव जीवन का कोई भी पहलू इससे अछूता नहीं है। आर्थिक संकट राजनीतिक संकट को जन्म दे रहा है, जो आगे बढ़ कर सामाजिकसांस्कृतिकवैचारिक संकट को गहरा रहा है। यहाँ तक कि हमारा भूमंडल भी पूँजीवाद की विनाशलीला को अब और अधिक बर्दाश्त कर पाने में असमर्थ हो चुका है। प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन और बेहिसाब कार्बन उत्सर्जन से होनेवाले जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण आज पूरी धरती पर विनाश का खतरा मंडरा रहा है।

इस चैतरफा संकट के आगे पूँजीवादी शासक और उनके विद्वान हतप्रभ, हताश और लाचार नजर आ रहे हैं। इसका ताजा उदहारण है जून माह में मौजूदा संकट को लेकर आयोजित दो विश्व स्तरीय सम्मेलनों का बिना किसी समाधान तक पहुँचे ही समाप्त हो जाना। इनमें से एक था, रियो द जेनेरियो (ब्राजील) में धरती को विनाश से बचाने के लिये आयोजित रियो़ पर्यावरण सम्मेलन और दूसरा यूरोपीय देशों के आर्थिक संकट के बारे में लोस काबोस (मैक्सिको) में आयोजित जी–20 की बैठक। इन दोनों ही सम्मेलनों के दौरान भारी संख्या में एकत्रित आन्दोलनकारियों ने इस संकट के लिये जिम्मेदार, साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ लोगों ने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया।

2007 में विराट अमरीकी निवेशक बैंक लेहमन ब्रदर्स के डूबने के साथ ही वहाँ 1929 के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक विध्वंश शुरू हुआ । इसे रोकने के लिये अमरीका ने मुक्त व्यापार के ढकोसले को त्यागते हुए सरकारी खजाने से 1900 अरब डॉलर सट्टेबाजों को दिवालिया होने से बचाने के लिये झोंका । तभी से यह कहावत प्रचलित हुई– “मुनाफा निजी, घाटा सार्वजनिक ।

इस भारी रकम से वित्तीय तंत्र तत्काल ध्वस्त होने से तो बच गया, लेकिन संकट और गहराता गया। हुआ यह कि बैंकों ने अपने 3400 अरब डॉलर के सीधे नुकसान और अरबोंखरबों डॉलर के डूबे कर्जों से खुद को सुरक्षित रखने के लिये सरकार से मिले डॉलरों से नये कर्ज बाँटने के बजाय अपनी तिजोरी में दबा लिये। सटोरियों की करनी का फल वास्तविक उत्पादन में लगी अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ा, क्योंकि उत्पादन जारी रखने के लिये जरूरी उधार की कमी से जूझ रहे उद्योगों के लिये कार्यशील पूँजी का संकट ज्यों का त्यों बना रहा। बैंकों को दी गयी सरकारी सहायता राशि रसातल में समा गयी। शेयर बाजार का भूचाल पूरी अर्थव्यवस्था और सरकारी मशीनरी को झकझोरने लगा। आज वहाँ बेरोजगारी 10 फीसदी है, जबकि भारी संख्या में लोग अर्द्ध बेरोजगार हैं। लेकिन यह संकट अमरीका तक ही सीमित नहीं रहा। जल्दी ही यह संकट पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर अपना असर डालने लगा। विश्व व्यापार में 12 फीसदी की कमी आयी है, जो महामंदी के बाद की सबसे बड़ी गिरावट है।

यूनान दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया । यही हाल यूरोप के कुछ अन्य देशोंइटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और स्पेन का भी हुआ । उन्हें उबारने के लिये झोंकी गयी मुद्राकोष और यूरोपीय संघ की पूँजी भी अर्थव्यवस्था को गति देने के बजाय रसातल में समाती गयी । आर्थिक विध्वंस की कीमत हर जगह मेहनतकश जनता को चुकानी पड़ी। सरकारों ने सट्टेबाजों, बैंकों और निगमों के हित में अपने जनविरोधी कदमों को और कठोर किया। मकसद साफ थास्वास्थ्य, शिक्षा जैसी जरूरी सरकारी सेवाओं और सब्सीडी में कटौती, आम जनता पर टैक्स का बोझ और वेतन में कमी करके उससे बचे धन से सटोरियों की हिफाजत । यह फैसला पूँजीवाद के संचालकों के वैचारिक दिवालियेपन की ही निशानी है, क्योंकि मंदी के दौरान सरकारी खर्च और लोगों की आय में कटौती करके जानबूझ कर माँग कम करना आत्मघाती कदम होता है । इन उपायों ने मंदी को और भी गहरा कर दिया ।
पूँजीवाद जब भी संकट ग्रस्त होता है तो उसके रक्षकों को मसीहा के रूप में जॉन मेनार्ड कीन्स की याद आती है, जिन्होंने 1929 की मंदी के बाद सरकारी खर्च बढ़ा कर लोगों की माँग बनाये रखने का सुझाव दिया था। इस बार भी पॉल क्रुग्मान सरीखे कई अर्थशास्त्रियों ने वही पुराना राग अलापा। अव्वल तो सट्टेबाजी के वर्चस्व वाले इस अल्पतंत्र से ऐसी उम्मीद ही बेकार है, लेकिन यदि वे ऐसा करें भी तो इस खर्च से बढ़ने वाले सरकारी कर्ज को भी वित्तीय उपकरण बना कर उसे शेयर बाजार में उतार दिया जायेगा। उधर संकुचन के माहौल में ऐसे बॉण्ड को भला कौन खरीदेगा ? तब सरकारी कर्ज का संकट बढ़ेगा और सरकार का ही दिवाला पिट जायेगा, जैसा यूरोप के देशों में हुआ।

पूँजीवादी दायरे में संकट का हल तो यही है कि आर्थिक विकास तेजी आये तथा माँग और पूर्ति के बीच संतुलन कायम हो । लेकिन यह इंजन पहले ही फेल हो चुका है । 1970 के दशक में रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थेचर ने राष्ट्रीय आय को मजदूरों से छीनकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने की दिशा में मोड़ दिया था । आर्थिक विकास और मुनाफे की दर बढ़ाने के लिये /ान जुटाने के नाम पर मजदूरी और सरकारी सहायता में कटौती की गयी थी । पूँजीवाद के इन नीम हकीमों का नया अर्थशास्त्र (रीगोनॉमिक्सथैचरोनॉमिक्स) जिसे कई दूसरे देशों ने भी अपनाया, रोग से भी घातक साबित हुआ । इससे आय की असमानता तेजी से बढ़ी, बहुसंख्य आबादी की क्रयशक्ति गिरी और माँग में भारी कमी आयी।

शेयर बाजार में पूँजी निवेश और बाजार की माँग बढ़ाने के लिये अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण किया गया, जिसमें सरकार द्वारा कर्ज लेकर सरकारी माँग को फर्जी तरीके से बढ़ाना, बाजार और मुनाफे से सभी नियंत्रण हटाना, ब्याजदर में भारी कमी और कर्ज की शर्तें आसान बनाना, सट्टेबाजी के नये उपकरणों, जैसे- ऑप्संस, फ्यूचर्स, हेज फंड इत्यादि का आविष्कार करना और घरेलू कर्ज के गुब्बारे को फुलाते जाना शामिल था। 1980–85 में अमरीका का कुल कर्ज सकल घरेलू उत्पाद का डेढ़ गुना था, जो 2007 में बढ़ कर साढ़े तीन गुना हो गया। उधर पूँजीपतियों का मुनाफा भी 1950 के 15 प्रतिशत से बढ़ कर 2001 में 50 प्रतिशत हो गया। लोगों की आय बढ़ाये बिना ही मुनाफा बाजार में तेजी कायम रही। लोग उस पैसे को खर्च कर रहे थे जो उनका था ही नहीं। 1970 से 2006 के बीच घरेलू कर्ज दो गुना हो गया। लेकिन 2007 आतेआते सबप्राइम गृह ऋण के विध्वंस के रूप में कर्ज की हवा से फुलाया गया विकास का गुब्बारा फट गया। इस पूरे प्रकरण ने पूँजीवाद की चरम पतनशीलता, परजीविता और मरणासन्नता को सतह पर ला दिया।

सतत विकास पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का स्वाभाविक लक्षण नहीं है और पिछले 2 सौ वर्षों से यदि यह व्यवस्था मंदी की मार से बचती चली आ रही है तो इसके पीछे अलगअलग दौर में सक्रिय बाहरी कारकों की ही भूमिका रही है। इनमें प्रमुख हैंउपनिवेशों का विराट बाजार, सस्ता श्रम और कच्चे माल का विपुल भंडार, दुनिया के बँटवारे और पुनर्बंटवारे के लिये लड़ा गया साम्राज्यवादी युद्ध, नरसंहार और तबाही के हथियारों का तेजी से फैलता उद्योग, युद्ध की तबाही से उबारने और पुनर्निर्माण के ऊपर भारी पूँजी निवेश, अकूत पूँजीनिवेश की संभावना वाली (जैसेरेल या मोटर कार) नयी तकनीक की खोज, शेयर बाजार की अमर्यादित  सट्टेबाजी इत्यादि। और जब एक के बाद एक, ये सारे मोटर फुँकते चले गये तो आखिरकार अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण करके सस्ते कर्ज के दम पर उसे गतिमान बनाये रखने का नुस्खा आजमाया गया। मौजूदा विश्व आर्थिक संकट इसी की देन है।

इस जर्जर विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ठहराव अब स्थाई परिघटना बन गया है । अतिरिक्त उत्पादन क्षमता, अत्यल्प उपभोग और मुनाफे में लगातार गिरावट के लाइलाज रोग का इसके पास कोई निदान नहीं है। पूँजीवादी देश अपने संकट का बोझ एकदूसरे पर डालने के लिये धींगामुश्ती कर रहे हैं।

इस संकट के परिणामस्वरूप पूरी दुनिया पर दो अत्यंत गम्भीर खतरे मंडरा रहे हैंपहला, प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन के कारण धरती के विनाश का खतरा और दूसरा, हथियारों की होड़, युद्ध, नरसंहार का खतरा, जिनका जिक्र करना बहुत जरूरी है।

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